Namaz ki ahmiyat: Quran aur hadees ki roshni mein

1. Namaz ki ahmiyat: Quran aur hadees ki roshni mein


नमाज़ की अहमियत (इस्लाम का रुकन)


नमाज़

अरबी में नमाज़ को "सलात (صلاۃ)" कहते हैं। सलात के कई माना क़ुरआन मजीद में आएं हैं दुआ, दुरुद, सलाम, इत्यादि। सलात का लफ़्ज़ निकला है "सिलाह" से जिसका माना होता है "तअल्लुक़" यानी बंदा इस नमाज़ के ज़रिये से अल्लाह तआला से अपना तअल्लुक़ बना लेता है। 

दूसरा माना उलेमा ने ये बयान किया है सलात का लफ़्ज़ निकला है "सलिया यसला" से जिसका माना होता है "एक तेढ़ा बाँस को आग में डालकर सीधा करना" यानी एक इंसान का किरदार, आमाल, अक़वाल, स्टाइल,, शमाईल, बातें बुरी हुई तो इस नमाज़ की वजह से उस इंसान की इस्लाह हो जाएगी या में यूँ कहु वो बंदा किरदार, आमाल, अक़वाल, स्टाइल, स्माइल, बातों में टेढ़ा था उसको नमाज़ ने सीधा कर दिया। 

हम सबको को ये पता चल गया की नमाज़ का माना मतलब क्या है तो चलिए देखते हैं अल्लाह तआला क़ुरआन में नमाज़ के फ़र्ज़ होने को क्या कहता है?


क़ुरआन में नमाज़ की आहमियत

अल्लाह तआला फ़रमाता है,

"ये वो लोग हैं जिन्हें अगर हम ज़मीन में इक़्तिदार (सत्ताधिकार) दें तो वो नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे, भलाई का हुक्म देंगे और बुराई से रोकेंगे।(और तमाम मामलों का अंजाम अल्लाह के हाथ में है।" 
[सुरह हज्ज 41]

इस आयत में अल्लाह ने नमाज़ की अहमियत बताई है। हर ईमान वाले पर नमाज़ का पढ़ना लाज़िम बताया गया है आइये एक और आयत देखे,

अल्लाह तआला फ़रमाता है,

"बेशक़ नमाज़ मोमिनो पर अपने अपने मुक़र्रर वक़्तों पर (फ़र्ज़ ) है।" 
[सूरह निसा 103]

अल्लाह तआला ने इसी आयत में वाज़ेह किया है की नमाज़ हर मोमिन पर फ़र्ज़ है। दूसरी बात ये पता चली कि नमाज़ अपने अपने वक़्तों में फ़र्ज़ है। 


जब मुस्लिम इंसान बालिग़ हो जाता है उस पर ये क़ुरआन का हुक्म फ़र्ज़ हो जाता है की वो नमाज़ पढ़े। हम जानते हैं कि एक कितना ही बड़ा गुनहगार क्यों ना हो, कितना ही बड़ा शराबी क्यों ना हो ज़ब उसे कहा जाए की सूअर का गोश्त खा ले तुझे एक लाख रुपये दूंगा शायद ही कोई मुस्लिम उस खिंज़ीर के गोश्त को खायेगा। इल्ला माशाअल्लाह

पूछा गया क्यों नहीं खाया खिंज़ीर उसने कहा मेरे रब ने ये हरम क़रार दिया है मेरी ग़ैरत गवारा नहीं करेंगी की खिंज़ीर खाऊ। हालांकि वो है शराबी, जुवारी लेकिन इतना गुनहगार होने के बाद भी सूअर का गोश्त खाना पसंद नहीं कर रहा क्यों?

क्यूंकि उसके दिल में ख़ौफ़ तो है थोड़ा बहुत लेकिन सबसे ज़्यादा उसे अपने मज़हब ए इस्लाम से लगाव है, अल्लाह से लगाव है। उसने अल्लाह के ख़ातिर चंद पैसो के लिए खिंज़ीर नहीं खाया ये अल्लाह से मुहब्बत नहीं तो क्या है?

यानी अल्लाह से मुहब्बत होना बहुत बड़ी नेअमत है फिर चाहे वो इंसान को अल्लाह से डर कर हो या अल्लाह की ख़ातिर हो बंदा अल्लाह के क़रीब होता है। 

मिसाल का मक़सद ये था की ये नमाज़ भी एक ऐसा फ़रीज़ा है कि ये अल्लाह के इतना क़रीब कर देता है की बंदा गोया अपने रब से बातें करके मेअराज जैसा अमल कर रहा हो। 

ये तो अल्लाह का कलाम था अब चलते हैं हदीस में नमाज़ की क्या आहमियत आई है?


हदीस में नमाज़ की आहमियत

रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया, 

"इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर क़ायम की गई है। अव्वल शहादत देना कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और बेशक मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के सच्चे रसूल हैं और नमाज़ क़ायम करना और ज़कात अदा करना और हज्ज करना और रमज़ान के रोज़े रखना।"
[सहीह बुख़ारी 08]

एक महल है उस महल के 05 सुतून हैं जिस पर वो महल रुका हुआ है अगर एक सुतून भी महल का गिर जाए तो बतायें महल में तब्दीली आएगी या नहीं क्या महल हिल डुलने नहीं लगेगा?

ठीक उसी तरह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया इस्लाम के 05 सुतून हैं उसमे से एक नमाज़ है अब अगर कोई नमाज़ छोड़ दे तो ज़रा सोचें क्या इस्लाम में तब्दीली आएगी या नहीं??

और हमें ये जानना भी ज़रूरी है की ये नमाज़ एक ऐसा फ़र्ज़ है कि अल्लाह तआला ने अपने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इस फ़र्ज़ को देने के लिए आसमान पर बुलाया जिसको इसरा वल मेअराज कहते हैं। 


हर फ़र्ज़ को अल्लाह ने ज़मीन पर उतारा लेकिन नमाज़ जैसा फ़र्ज़ इतना अहमियत रखता है की अल्लाह ने ख़ुद आसमान पर इसको देने के लिए बुलाया। 

हदीस मुलाहिज़ा फरमाए,

"अल्लाह तआला ने मेरी उम्मत पर पचास वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ कीं। मैं ये हुक्म ले कर वापस लौटा। जब मूसा (अलैहि०) तक पहुँचा तो उन्होंने पूछा कि आपकी उम्मत पर अल्लाह ने क्या फ़र्ज़ किया है? 
मैंने कहा कि पचास वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ की हैं। उन्होंने फ़रमाया आप वापस अपने रब की बारगाह में जाइये। क्योंकि आपकी उम्मत इतनी नमाज़ों को अदा करने की ताक़त नहीं रखती है। मैं वापस बारगाहे-रब्बुल-इज़्ज़त मैं गया तो अल्लाह ने उसमें से एक हिस्सा कम कर दिया फिर मूसा (अलैहि०) के पास आया। और कहा कि एक हिस्सा कम कर दिया गया है उन्होंने कहा कि दोबारा जाइये क्योंकि आपकी उम्मत में उसके बर्दाश्त की भी ताक़त नहीं है। फिर मैं बारगाहे-रब्बुल-इज़्ज़त में हाज़िर हुआ। फिर एक हिस्सा कम हुआ। जब मूसा (अलैहि०) के पास पहुँचा तो उन्होंने फ़रमाया कि अपने रब की बारगाह में फिर जाइये क्योंकि आपकी उम्मत उसको भी बर्दाश्त न कर सकेगी फिर मैं बार-बार आया गया इसलिये अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ये नमाज़ें (अमल में) पाँच हैं और (सवाब में) पचास (के बराबर) हैं। मेरी बात बदली नहीं जाती। अब मैं मूसा (अलैहि०) के पास आया। तो उन्होंने फिर कहा कि अपने रब के पास जाइये। लेकिन मैंने कहा मुझे अब अपने रब से शर्म आती है। फिर जिब्रईल मुझे सिदरतुल-मुन्तहा तक ले गए जिसे कई तरह के रंगों ने ढाँप रखा था। जिनके मुतअल्लिक़ मुझे मालूम नहीं हुआ कि वो क्या हैं। उसके बाद मुझे जन्नत में ले जाया गया मैंने देखा कि उसमें मोतियों के हार हैं और उसकी मिट्टी मुश्क की है।"
[बुख़ारी 349]


तो हमने इस पोस्ट में जाना की नमाज़ का मतलब क्या है और ये फ़र्ज़ है या नहीं। इन शा अल्लाह बने रहें "नमाज़ सुकून ए ज़िन्दगी" है फिर वज़ाहत करेंगे। 


आपका दीनी भाई
मुहम्मद

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

क्या आपको कोई संदेह/doubt/शक है? हमारे साथ व्हाट्सएप पर चैट करें।
अस्सलामु अलैकुम, हम आपकी किस तरह से मदद कर सकते हैं? ...
चैट शुरू करने के लिए यहाँ क्लिक करें।...