Ramzaan me ki jane wale aam galtiyaan

 Ramzaan me ki jane wale aam galtiyaan



रमज़ान के हवाले से कुछ गलतफहमियां

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमें सिर्फ़ पैदा करके यूं छोड़ नहीं दिया बल्कि हमें ज़िंदगी जीने का मुकम्मल निज़ाम नबी करीम ﷺ  के ज़रिए बताया और नबी करीम ﷺ के सिखाए हुए दीन पर ही अमल करके हम अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की रज़ा हासिल कर सकते हैं क्योंकि वही अमल बरगाहे इलाही में काबिले क़ुबूल हैं दूसरा कोई अमल फिर वो चाहे रोज़ा या नमाज़ ही क्यों ना हो कुबूल तो क्या, बल्कि वो गुमराही का सबब बन जाएगा क्योंकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के वहां हर अमल की पूछ-गच्छ होनी है।


किसी ऐसी चीज़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें इल्म न हो। यक़ीनन आँख, कान और दिल सभी की पूछ-गच्छ होनी है। 

(क़ुरआन 17.36)


फिर हम वही अमल क्यों ना करें जिससे हमें हमारे रब कि रज़ा हासिल हो उसके लिए ये ज़रूरी है कि हम उस बात को जान लें जो नबी करीम ﷺ की सुन्नत नहीं!


रमज़ान में अक्सर की जाने वाली गलतियां

पहली गलती:

नियत करने को लेकर होती है। तो नियत क्या है जान लेते हैं:

नियत:  दिल से किसी काम के करने का अज़्म व इरादा करना है,

यानि ये दिल का काम है जैसा के हम हर काम के लिए दिल में पहले अज़्म व इरादा करते हैं फिर हमारे ज़रिये वो काम अमल में आता है।

अज़्म व इरादा ये काम दिल से होता है लिहाज़ा ये काम ज़ुबान से नहीं हो सकता, जिस तरह सुनना ये काम कान का है अब कोई ज़ुबान से सुन नहीं सकता। सूंघना ये काम नाक का है अब कोई ज़ुबान से सूंघ नहीं सकता। इसी तरह इरादा नियत करना ये काम भी दिल का है ज़ुबान से इरादा व नियत बे मानी है।

मज़ीद ये के ज़ुबान से नियत से मुताल्लिक कोई ज़इफ रिवायत भी नहीं मिलती और लोग  

وَبِصَوْمٍ غَدٍ ثَوَيْتُ مِنْ شَهْرٍ رَمَضَانَ 

या इस जैसी अल्फाज़ो के बतौर ए नियत पढ़ते हैं।

ये लोगो कि अपनी ईजाद है किसी सहीह हदीस तो दूर कि बात है ज़ईफ और मोज़ू(मनगड़त रिवायत में भी ये अल्फाज़ नहीं मिलते।

दर असल जुबान से चंद अल्फाज़ अदा करने का नियत से कोई ताल्लुक़ नहीं है।, गौर कीजिए कि जो शख्स रोज़े का इरादा ना रखें  वह भी जुबान से यह अल्फाज़ अदा कर सकता है। अगर उसके दिल का इरादा कुछ और ही हो दर ए सूरत इसका कोई फायदा ही नहीं है बल्कि यह एक लगु चीज़ है और बिदअत ए ज़लाला (गुमराही) है।


खुलासा ए कलाम

  1.  यह है कि रोजेदारों को चाहिए कि हर रोज एक ही अलग-अलग नियत करें  हर रात शाम को कर लें अगर भूल जाए तो फज्र से पहले करना लाज़िम है।
  2. नियत का मतलब दिल में रोज़ा रखने का अज़्म इरादा करना है  जिस तरह हर काम के लिए हम दिल से इरादा करते हैं।


रोज़ा इफ्तार से पहले कोई दुआ साबित सही सनद से साबित नहीं है


दूसरी गलती:  रोज़ा इफ्तार की दुआ के हवाले से की जाती है! इस सिलसिले मे एक हदीस बयान कि जाती है मुलाहिज़ा फरमाए:-

मुआज़ बिन ज़ोहरा (ताबई) फरमाते:- नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब रोज़ा इफ्तार करते तो ये दुआ पढ़ते;

اللَّهُمَّ لَكَ صُمْتُ وَعَلَى رِزْقِكَ أَفْطَرْتُ

ए अल्लाह मैंने तेरे लिए रोज़ा रखा और तेरे रिज़्क़ पर खोल रहा हुँ। [अबू दाऊद 2358]

इसी हदीस पर अक्सर लोग अमल कर रहे हैं हालांकि इस हदीस की इसनादी (Chain of Narrates) ज़ईफ है जानने कि कोशिश करते हैं;

इस हदीस में इल्लत ये है कि इस हदीस के रावी मुआज़ बिन ज़ोहरा ये ताबई है और सीधे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से हदीस बयान कर रहे हैं हालांकि ताबई कैसे नबी करीम  ﷺ   से सुन सकता है? जब तक सहाबी बीच मे ना आ जाए।

उसूल ए हदीस कि इस्तीलाह में ऐसी हदीस को मुरसल हदीस कहते हैं। मुरसल हदीस ज़ईफ हदीस की एक क़िस्म है। आइये जानते हैं किन-किन लोगो ने इस हदीस को ज़ईफ कहा है;

(1) शुएब अरनोत कहते हैं;

(مرسل)

 मुरसल है। [तखरीज ज़ाद उल माद 02/49]



(02) इमाम नववी कहते हैं;

غريب، ليس معروفا، وعن النبي ﷺ مرسلا، ومن رواية ابن عباس مسندًا متصلًا بإسناد ضعيف

हदीस गरीब है ये नबी करीम ﷺ से मरफू नहीं है बल्कि मुरसल है इब्ने अब्बास वाली रिवायत जो कि मुस्तनद और मुत्तासिल (continues) है वो ज़ईफ है। [अल मजमुआ 06/362]


(03) इमाम सियुति कहते हैं;

مرسل

मुरसल है। [अज जामे सगीर 6570]


इनके अलावा!


इमाम अबू दाऊद, इमाम शोकानी, इमाम अयनी हंफी, इमाम इब्ने जोज़ी, इब्ने क़य्यम, इमाम इब्ने हजर असक़ालानी, इब्ने मुलकिन, इमाम इब्ने कसीर, इमाम क़सतालानी, इमाम तबरानी, इमाम हैसमी, इमाम ज़हबी, रहिमाउल्लाह ने इन सब ने ज़ईफ मुरसल क़रार दिया है।

लिहाज़ा ये हदीस ज़ईफ है और इफ्तार से पहले कि कोई मसनून दुआ सहीह हदीस से साबित नहीं है।

अब चलते हैं कि ज़ईफ हदीस पर अमल करना चाहिए या नहीं;

इमाम अहमद बिन हम्बल ने इमाम शाफई रहिमाउल्लाह का ज़िक्र किया और फरमाया:-

मैंने आपको फरमाते हुए सुना: कि जब तुम्हारे नज़दीक नबी ﷺ से हदीस सहीह साबित हो जाए तो मुझे बता दो ताकि मे इसे अपना मज़हब क़रार दू जिस इलाके में भी (ये हदीस ) हो। [हलियातुल औलिया 09/106 सनद सहीह ]


 इमाम अहमद बिन हंबल से रिवायत है कि इमाम शाफई ने मुझे फरमाया:-

तुम हदीस और रिजाल मुझसे ज़्यादा जानते हो लिहाज़ा अगर सहीह हदीस हो तो मुझे बता देना ताकि में भी इस पे अमल करू कूफे को हदीस हो या बसरा (इराक) की या शाम की (हदीस) हो बा शर्त कि वो हदीस सहीह हो। [मनाकिब ए शाफई लिल इमाम इब्ने अबी हातिम सफा 70 सनद सहीह ]


रबी बिन सुलेमान रहिमाउल्लाह से रिवायत है:-

एक दफा इमाम शाफई एक हदीस बयान की तो एक आदमी ने पूछा ऐ अबू अब्दुल्ला क्या आप इस हदीस को लेते हैं? तो उन्होंने फरमाया: जब भी मैं नबी करीम ﷺ से कोई सही हदीस बयान करूं फिर इससे इस्तदलाल ना करू तो ऐ जमात मैं तुम्हें गवाह बनाता हूं मेरी अक्ल खत्म हो चुकी है।[मनाकिब ए शाफई लिल बहिएक़ी 01/474 सनद सहीह ]


खुलासा ए कलाम


  1. इमाम शाफई मुत्तबे हदीस थे।
  2. ऐसी हदीस भी होती है जो सहीह नहीं।
  3. ग़ैर सहीह यानी ज़इफ हदीस हुज्जत नहीं।
  4. सहीह हदीस हुज्जत है चाहे वो मक्का मदीना कि हो या इराक शाम कि हो।
  5. हदीस कि जांच पड़ताल के लिए अस्मा रिजाल के माहिर मुहद्दीस कि तरफ रुजू करना चाहिए।
  6. हर वक़्त हक़ कि तरफ रुजू करना चाहिए।
  7. ये ज़रूरी नहीं कि मुजतहिद और बड़े आलिम को हर हदीस और हर दलील मालूम हो।
  8. उलेमा कि ये शान है कि वो हमेशा तोज़ी से काम लेते हैं।



तीसरी गलतफहमी

क्या रमज़ान तीन अशरो में तकसीम है?

अवाम में ये बात बहुत आम है, रमज़ान के तीन अशरे होते हैं और उनकी अपनी अपनी अहमियत और फज़ीलत है। तो आइए देखते हैं हक़ किया है?

وهو شهر أوله رحمة، وأوسطه مغفرة، وآخره عتق من النار،

रमज़ान का पहला अशरा रहमत का, दूसरा अशरा मगफिरत का, और आखिर का अशरा जहन्नम से नजात का होता है। [सहीह इब्ने खुज़ेमा 03/191 हदीस 1887]


  1. ये हदीस ज़ईफ है इमाम इब्ने खुज़ेमा बाब (chapter) बाँधते है कि अगर ये हदीस सहीह है तो रमज़ान के फज़ाईल का बयान, यानी इमाम इब्ने खुज़ेमा भी इस हदीस को ज़ईफ मान रहे हैं जब साहिब ए किताब (Author) इसमें मशक़ूक है तो बाक़ी बात ही ख़त्म हो गयीं।
  2. इस हदीस एक रावी है अली बिन ज़ैद बिन जुदआन ये ज़ईफ है [ तकरीब उत तहज़ीब 4743]  जमहूर मुहद्दासीन ने इस रावी को ज़ईफ क़रार दिया है।
  3. इमाम नसई और इब्ने हजर रहीमल्लाह ने इसे ज़ईफ कहा।
  4. इमाम अहमद बिन हम्बल ने इसे लैस बी शयी (ये कुछ भी शय नहीं यानी फ़िज़ूल) था।
  5. और इमाम अबू ज़ुरआ और अबू हातिम अर राज़ी ने इसे लैस बिल क़वी (मज़बूत नहीं था) कहा है। [अल इलल ला इब्ने अबी हातिम 01/251 अल कामिल ला इब्ने अदी 04/333, तक़रीब 02/43 जरह व तादील 02/249]


इसके अलावा कसीर (ज़्यादातर) मुहद्दासीन ने इसको ज़ईफ कहा है, मुख़्तसर आपके सामने बता दिया।


रमज़ान का पूरा महीना ही रहमत-बरकत का है। 


नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: जब रमजान आता है जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं और दोज़ख के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और शैतान बेड़ियों मे जकड़ दिया जाता है  [सहीह मुस्लिम 1079 ]


आपका दीनी भाई 
मुहम्मद


एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. Aapka bahut bahut shukriya bhai aapke msg se hame din ha bare ma kafi baate jo hama nahi malum thi qu malum hui Allah Hafiz

    जवाब देंहटाएं

कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।

क्या आपको कोई संदेह/doubt/शक है? हमारे साथ व्हाट्सएप पर चैट करें।
अस्सलामु अलैकुम, हम आपकी किस तरह से मदद कर सकते हैं? ...
चैट शुरू करने के लिए यहाँ क्लिक करें।...