क़ुरआन के नाज़िल होने का उद्देश्य
क़ुरआन अल्लाह की किताब और एक महान चमत्कार है। यह लोगों के लिए एक मार्गदर्शन है और इंकार करने वालों के लिए एक चुनौती भी। क़ुरआन केवल मुसलमानों की धार्मिक पुस्तक नहीं है बल्कि यह संसार के तमाम इंसांनों के लिए है। क़ुरआन के नुज़ूल का मक़सद अल्लाह ने ख़ुद बयान किया है:
"ऐ नबी! यह एक किताब है, जिसको हमने तुम्हारी तरफ़ उतारा है, ताकि तुम लोगों को अंधेरों से निकालकर रौशनी में लाओ उनके रब की मेहरबानी से, उस ख़ुदा के रास्ते पर जो ज़बरदस्त और अपनी ज़ात में आप महमूद [प्रशंसनीय] है" (सूरह 14 इब्राहीम आयत 01)
क़ुरआन दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली इकलौती किताब है लेकिन त्रासदी (Tragedy) यह है कि उपमहाद्वीप में इसकी तिलावत केवल सवाब के लिए होती है, समझने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं महसूस की जाती कि ज़रा देखें, इसमें क्या लिखा है? और जीवन के लिए यह कितना अद्भुत मार्गदर्शक है, क्योंकि अल्लाह ने क़ुरआन को तमाम इंसानों की नसीहत के लिए बहुत सरल बना दिया है।
"जो क़ुरआन को समझना और उसपर अमल करना नहीं चाहते हक़ीक़त में उनका ईमान मुकम्मल ही नहीं है।" (सूरह 02 अल बक़रह आयत 121)
इसलिए बार बार दिमाग़ पर लगे हुए ताले (lock) को खोलने, क़ुरआन को समझ कर पढ़ने और उसपर ग़ौर करने की दावत दी गई है।
"क्या वह क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते या उनके दिलों पर ताले पड़े हुए हैं" (सूरह 47 मुहम्मद आयत 24)
पारा (01) अलिफ़ लाम मीम
सूरह (001) अल फ़ातिहा:
तरतीब के लिहाज़ से यह क़ुरआन की पहली और सबसे ज़्यादह पढ़ी जाने वाली सूरह है।
"फ़ातिहा" कहते हैं जिससे किसी मज़मून या किताब या किसी चीज़ की शुरूआत हो। दूसरे लफ़्ज़ों में इसे दीबाचा [भूमिका, प्रस्तावना] और आग़ाज़े-कलाम [प्राक्कथन] का समानार्थी कहा जा सकता है।
वास्तव में यह सूरह एक दुआ है जो अल्लाह ने हर उस बंदे को सिखाई है जो उसकी किताब को पढ़ना शुरू कर रहा हो। किताब के शुरू में इसको रखने का मतलब यह है कि अगर हक़ीक़त में इस किताब से फ़ायदा उठाना है तो पहले रब्बुल आलमीन (जगत-स्वामी) से यह दुआ करनी चाहिए।
सूरह अल फ़ातिहा के क़ई नाम हैं, जैसे उम्मुल क़ुरआन (क़ुरआन की मां) अस सबउल मसानी (बार बार पढ़ी जाने वाली सात आयात), अल क़ुरआन अल अज़ीम (अज़मत वाला क़ुरआन), अस शिफ़ा , अर रकीय: (दम) वगैरह
इस सूरह में बिस्मिल्लाह समेत कुल 7 आयतें हैं।
आयत 1 से 4 तक अल्लाह तबारक व तआला की तारीफ़ है और तारीफ़ करने की वजह यह बताई गई है कि वह,
(2) रहमान और रहीम है।
(3) बदले के दिन का मालिक है।
आयत 5 में एक इक़रार और वादा है जो एक इंसान अपने रब से करता है कि हम किसी और की नहीं बल्कि केवल तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद भी चाहते हैं।
आयत 6 से दुआ शुरु होती है "ऐ अल्लाह हमें सीधा रास्ता दिखा दे वह सीधा रास्ता जिस पर चल कर लोग इनआम (जन्नत) के हक़दार क़रार पाते हैं। और उन लोगों के रास्ते से महफ़ूज़ रख जिन पर तेरा ग़ज़ब नाज़िल हुआ (जो नरक में जाएंगे) और जो गुमराह हो गए हैं"
ग़ैरिल मगजूब से मुराद यहूदी (Jews) और ज़ाललीन से मुराद ईसाई (christians) हैं।
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सूरह (002) अल बक़रह:
(ii) क़ुरआन का चमत्कार (Miracle of Quran)
(iii) आदम अलैहिस्सलाम की पैदाईश का वाक़या
(iv) जादू से मोमिन का कोई वास्ता नहीं
(v) बनी इस्राइल के हालात
(vi) इब्राहिम अलैहिस्सलाम का वाक़या
(vii) रसूलों में तफ़रीक़ मुमकिन नहीं
(i) इंसान की अक़्साम:
इंसान की तीन किस्में हैं- ईमान वाले, मुनाफ़िक़ीन (कपटी) और क़ाफ़िर
ईमान वालों की पांच विशेषताएं: ईमान बिल ग़ैब, नमाज़ क़ायम करना, इनफ़ाक़ (अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना), आसमानी किताबों पर ईमान, परलोक पर विश्वाश।
मुनाफ़िक़ीन की कई आदतों का ज़िक़्र आया है: झूठ, धोखा, गैर-चेतना (Non-consciousness) हार्दिक रोग, बेवक़ूफ़ीयाँ, अल्लाह के हुक्म के साथ मज़ाक, फ़ितना व फ़साद, जिहालत, गुमराही और तज़बज़ुब।
काफ़िरों के बारे में बताया गया कि उनके दिलों और कानों पर मुहर लगी हुई है और आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ है।
(ii) क़ुरआन का चमत्कार (Miracle of the Quran):
जिन सूरतों में क़ुरआन की अज़मत बयान हुई है उनके शुरू में "हुरुफ़े मुक़त्तेआत" हैं यह बताने के लिए कि इन्हीं हुरूफ़ से तुम्हारा कलाम भी बनता है और अल्लाह तबारक व तआला का भी,
मगर वहीं आयत 23 में ज़बरदस्त चैलेन्ज भी किया गया है कि
"और अगर तुम्हें इस मामले में शक है कि ये किताब जो हमने अपने बन्दे (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर उतारी है, तो ज़रा इस जैसी एक सूरह बना लाओ, और अल्लाह को छोड़कर अपने सारे हिमायतियों को भी बुला लो, अगर तुम सच्चे हो।"
और आयत 24 में वार्निंग भी दे दी है:
"चुनांचे अगर तुम ये नहीं कर सकते और हरगिज़ नहीं कर सकोगे।"
(iii) आदम अलैहिस्सलाम का वाक़िआ:
अल्लाह तआला का आदम अलैहिस्सलाम को ख़लीफ़ा बनाना, फ़रिश्तों का इंसान को फ़सादी कहना, आदम अलैहिस्सलाम को अल्लाह की तरफ़ से इल्म अता किया जाना, फ़रिश्तों का इल्म ग़ैब होने का इक़रार, आदम अलैहिस्सलाम को फ़रिश्तों और जिन्नों से सज्दा करवाना, इब्लीस का सज्दा करने से इंकार करना और मरदूद ठहरना, जन्नत में आदम व हव्वा का रहना, फिर इब्लीस के बहकावे में आना, ग़लती का एहसास, माफ़ी चाहना और माफ़ी का क़ुबूल होना और फिर इंसान को ज़मीन की ख़िलाफ़त अता होना। (31 से 39)
नोट: आदम और इब्लीस में फ़र्क़
● इब्लीस की पैदाईश आग से हुई और आदम की मिट्टी से।
●● ग़लती दोनों ने की, इब्लीस ने सज्दा नहीं किया और अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी की। आदम ने उस पौदे का फल खा लिया जिसको खाने से उन्हें मना किया गया था।
लेकिन, इब्लीस ने अपनी ग़लती तस्लीम नहीं की और अकड़ गया उसकी अकड़ और घमंड ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा दुनिया में भी बेइज़्ज़त हुआ और आख़िरत में उसका ठिकाना जहन्नम है।
जबकि आदम ने भी इब्लीस के बहकावे में आ कर अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी की लेकिन ग़लती का फ़ौरन एहसास हुआ और अल्लाह से माफ़ी मांगी।
हम सब आदम की औलाद हैं इसलिये जाने अनजाने में ग़लतियां तो होगी लेकिन जैसे ही एहसास हो अपने रब्ब के हुज़ूर सच्चे दिल से तौबा करके हमें अपनी ग़लतियों पर माफ़ी मांगनी चाहिए।
(iv) जादू शैतानी काम है:
कुछ लोग जादू को सुलैमान अलैहिस्सलाम की तरफ़ मंसूब करते थे हालांकि जादू कुफ़्र और शैतान का काम है। अल्लाह की मर्ज़ी के बग़ैर कोई नुक़सान नहीं पहुंच सकता। जादू हारूत मारूत दो फ़रिश्ते सिखाते थे लेकिन जो सीखना चाहता उसे पहले मना करते हुए कहते थे कि देखो यह फ़ितना है। जो जादू करेगा आख़िरत में उसके लिए कोई हिस्सा नहीं। (102)
(v) बनी इस्राईल के हालात:
बनी इस्राईल का अल्लाह की नेअमतों पर नाशुक्री करना और नबियों की नाफ़रमानी के कारण उन पर अल्लाह की फटकार। (40 से 122)
(vi) इब्राहीम अलैहिस्सलाम का वाक़िआ:
इब्राहीम अलैहिस्सलाम का अपने बेटे के साथ मिल कर ख़ाना ए काबा की तामीर करना। इसे अम्न की जगह और यहां बसने वालों के लिए रिज़्क़ की फ़राहमी की दुआ और वह दुआ :,ऐ रब ! इन लोगों में ख़ुद इन्हीं की क़ौम से एक ऐसा रसूल उठा, जो इन्हें तेरी आयतें सुनाए, इनको किताब और हिकमत की तालीम दे और इनकी ज़िन्दगियाँ सँवारे। तू बड़ा ज़बरदस्त और हिकमतवाला [तत्त्वदर्शी] है। (124 से 129)
(vii) रसूलों में तफ़रीक़ मुमकिन नहीं:
दुनिया मे जितने भी रसूल आए उनको बग़ैर कमी बेशी के अल्लाह का रसूल मानना भी ईमान का हिस्सा है। (आयत 136)
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2 टिप्पणियाँ
MASHALLAH JAZAKALLAH
जवाब देंहटाएंJazakallah ul khaira
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।