Talaaq Se Halala Tak Ka Muqammal Tariqa Quran aur Hadees Se

Talaaq Se Halala Tak Ka Muqammal Tariqa Quran aur Hadees Se

तलाक़ और इस पर होने वाले ऐतराज़ात 

आज लोग इस्लामी तलीमात और उसके मानने वालों को नीचा दिखाना के लिए ख़ुद कितने नीचे जा पहुंचे हैं और उन्हें ख़बर ही नहीं जिसकी एक बहुत बड़ी वजह ये भी है कि हम (मुसलमानो) को ख़ुद ही नहीं पता अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त उन्हें क्या बना कर और दे कर भेजा है? इसी लिए आज का मुसलमान हर जगह और हर किसी से जलील और रुसवा हो रहें हैं और सबसे ज़्यादा जिस बात को ढाल बना कर मुसलमानो को जलील और रुसवा किया गया वो है, "तलाक़" तो हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि तलाक़ क्या है? क्यों और किस सूरत में इस्लाम इसका हुक्म देता है?


Table Of Content
         
        1. तलाक़ की हैसियत इस्लाम में
        2. तलाक़
        3. तलाक़ से पहले मुमकिन कोशिश
        4. सुलह की कोशिश
        5. तलाक़ देने का तरीक़ा
        6. तलाक़ देने का वक्त
        7. किन हालात में तलाक़ नहीं होगी
        8. तलाक़ कैसे दें
        9.  इद्दत की मुद्दत
       10. रूजू का तरीक़ा
       11. तलाक़ की शर्त
       12. इस्लाम क्या कहता तीन तलाक़ के बारे में
       13. हलाला
       14. तीन तलाक़ के बाद निकाह की सूरत
       15. खुला
       16. खुला की सूरत में इद्दत

सबसे पहले ये जान लें निकाह एक अज़म (commitment) और तलाक़ एक फ़ैसला (decision) है तो बिना सोचे समझे और मशवरा किए बिना ना अज़म लेना चाहिए और ना ही फ़ैसला करना चाहिए। क्योंकि निकाह और तलाक़ से सिर्फ़ दो जिंदगियां, बनती और बिगड़ती हैं बल्कि उनके बच्चों की भी जिंदगियों का इंहेसार वालीदैन के ताल्लुक पर मुंहसिर होता है। आप ख़ुद ही सोचे मां और बाप के होते हुए भी वो बच्चे उनकी मोहब्बत, तवज्जों और तरबियत से महरूम हो जाएंगे। 

Children and divorce.com के मुताबिक़ तलाक़शुदा वालीदैन के 50% से ज़्यादा बच्चों में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ख़राब होने की संभावना रहती है और 70% इसी तरह के बच्चें अपराध (sexual and drug abuse) करते हैं।

Men's divorce.com के मुताबिक़ औरतों से ज़्यादा मर्दों का depression में जाने की संभावना बढ़ जाती है। इसकी वजह ये भी बताई जाती है कि मर्द जल्दी emotionally किसी से connect नहीं हो पाता है, तो वो दर्द उसके लिए नहसूर बन जाता है।

2011 की जनगणना के अनुसार 23,72,754 separated, 9,09,53 तलाकशुदा और 56,05,906 से अधिक गैर शादीशुदा (30 से अधिक उम्र वाली) हैं और इन औरतों की शादी होने की संभनाए कम होती हैं कुंवारी लड़कियों का अकड़ा एक और बात की तरफ़ इशारा कर रहा है और अकसर यही तलाक़ और निकाह में ताखीर का सबब भी बनता है और वो जहेज़ (dowry system) जिस पर अलग से चर्चा करेंगे इंशा अल्लाह।


तलाक़ की हैसियत इस्लाम में

बेशक! तलाक़ एक जायज़ अमल है लेकिन एक बदतरीन और इन्तेहा नपसदीदगी का अमल है। अल्लाह ने निकाह को कितनी अहमियत दी है तो इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि तलाक़ कितना बदतरीन अमल है। 

अल्लाह ने क़ुरआन में कई बार शैतान को इन्सान का खुला दुश्मन बताया और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने जिसमें भी इन्सानों के लिए ख़ैर रखा है शैतान उसे हसद में तबाह करना चाहता है। जैसे: तलाक़

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"इब्लीस अपना तख्त पानी पे बिछाता है। इसके बाद दस्ते भेजता है (इख्तेलाफ पैदा करने के लिए) और उनमें जो मियां बीवी के दरमियान इख्तेलाफ के ज़रिए तलाक़ करवाता है तो शैतान उसे शब्बाशी देता है।"[सहीह मुस्लिम:2813]

मियां बीवी के दरमियान झगड़ा लड़ाई करवाना और जो लोग ऐसा करते हैं उनके लिए क्या कहा गया है मुलाहिजा फरमायें,

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"वो शख़्स हम में से नहीं जो किसी औरत को उसके शौहर के खिलाफ़ उभारे।" [सुन्न अबु दाऊद:2175]

इस्लाम में सिर्फ़ पति और पत्नी के बीच लड़ाई झगड़ा करवाना पे ऐसा फ़रमाया तो इस बात ख़ुद ही अंदाज़ा लगाएं तलाक़ की नपसदीदगी का। लेकिन मीडिया के हर जराए (source - main stream media, social media & print media even entertainment industries) के ज़रिए मुसलमानो को हद से ज़्यादा बदनाम करने की हर मुमकिन कोशिश की गई। जब मुसलमान अपने हक़/अधिकार की बात करता तो उसे ख़ामोश करवाने के लिए जबरदस्ती तलाक़ को बीच में लाया जाता बिना जाने समझे तलाक़ क्या है? 

तो आए जानने और समझने की कोशिश करते हैं;


तलाक़

ये अरबी का लफ्ज़ है जिसका माना "आज़ाद करना" यानि निकाह (बांधना) के बरक्स (opposite) है। जैसा मैंने कहा तलाक़ एक फ़ैसला है और वो भी ना पसंदीदा अमल है तो ये फ़ैसला लेने से पहले एक मुमकिन कोशिश कर लेनी चाहिए तो देखते हैं इस बारे इस्लाम क्या कहता है?


तलाक़ से पहले मुमकिन कोशिश

मुमकिन अमल में यही हो सकता है कि मियां बीवी एक दूसरे को एक दूसरे के लिए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त और नबी करीम ﷺ के बताए हुए तरीक से राज़ी और खुश कर लें।

"इनके साथ अच्छे तरीके से बूदबाश रखो, गो तुम इन्हें ना पसंद करो लेकिन मुमकिन है कि तुम किसी चीज़ को बुरा जानो और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने उसमें बहुत भलाई कर दे।" [क़ुरान 4: 19]

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"मोमिन मर्द को चाहिए कि वो किसी मोमिन औरत से नफ़रत ना रखे और वो उसकी एक खसलत को ना पसंद करेगा तो दुसरी से राज़ी होगा।" [सहीह मुस्लिम: 3645]

अब ऐसा नहीं हो सकता कि कोई औरत में कोई खूबी ना हो और अगर आपने देखा तो शायद आपने ख़ुद ही रिश्ता निभाने की कोशिश नहीं की।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"औरतों के बारे में मेरी वसीयत का हमेशा ख्याल रखना क्यों कि औरत पसली से पैदा की गई है। पसली में भी सब से ज़्यादा टेढ़ी ऊपर का हिस्सा होता है। अगर कोई शख्स उसे बिलकुल सीधी करने की कोशिश करे तो अंजाम कार तोड़ के रहेगा और उसे यूं ही छोड़ देगा तो फिर हमेशा टेढ़ी ही रह जाएगी। पस औरत के बारे में मेरी नसीहत मानो, औरत से अच्छा सुलूक करो।" [सहीह बुखारी: 3331]

हर जानदार को अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने एक फितरत पे पैदा किया है और अगर आप उसे अपने मुताबिक़ बदलने की कोशिश करेंगे तो फिर उसे बिगाड़ देगें।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"तुम में से बेहतर वो हैं जो अपने घर वालों के लिए बेहतर हो और मैं अपने घर वालों के लिए सब से बेहतर हूं।" [सुन्न तिर्मीजी: 3895]

और औरत को भी चाहिए कि वो अपने शौहर को वो मकाम और मर्तबा दे जो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने मर्द को शौहर के रूप में दिया है। क्योंकि अकसर झगड़े का सबब भी यही बात होती है। दोनों को एक दूसरे के हुकूक पता ही नहीं होते।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"औरत पे सबसे ज़्यादा हक़ उसके शौहर का है।" [अल-मुस्तद्रक 7418, सहीह]

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"जो अपने शौहर के माल की सब से ज़्यादा हिफाज़त करने वाली होती हैं।" [सहीह मुस्लिम: 6456]

अगर किसी के साथ खुलूस और मोहब्बत के साथ पेश आने पे भी उसका रवैया नहीं बदलता तो भी आप खुलूस और मोहब्बत से ही पेश आए कता रहमी करने वालों के साथ भी सिला रहमी करें। ऐसे लोगों को कैसे बता पाऐंगे कि आप गलत हैं?

"नेकी और बादी बराबर नहीं होती बुराई को भलाई से दफा करो फिर वही जिसके और तुम्हारे दरमियान दुश्मनी है ऐसा हो जायगा जैसे दिली दोस्त।" [क़ुरान 41: 34]

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने मियां बीवी से ज़्यादा किसी भी रिश्ते में इतनी कुरबत (closeness) नहीं  रखी दोनों को एक दूसरे का लिबास बनाया। एक दूसरे को ढकने और छिपाने वाला।

"वो तुम्हरा लिबास हैं और तुम इन के लिबास हो।" [क़ुरान 2: 187]

अब अगर कोई जोड़ा (couple) इन बातों पर गौर कर ले तो इंशा अल्लाह नौबत तलाक़ तक ना पहुंचे लेकिन फिर तलाक़ लेनी (खुला) या देनी ही तो जल्दबाज़ी में फ़ैसला ना करें क्यों कि जल्द बाज़ी शैतान का काम है और शैतान हमारा दुश्मन।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"जल्द बाज़ी शैतान की तरफ़ से है।" [जामे तिरमिजी: 2012]


सुलह की कोशिश

"और अगर तुम लोगों को कहीं मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात के बिगड़ जाने का डर हो तो एक फ़ैसला करनेवाला मर्द के रिश्तेदारों में से और एक औरत के रिश्तेदारों में से मुक़र्रर करो, वो दोनों सुलह करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच मेल-मिलाप का रास्ता निकाल देगा। अल्लाह सब कुछ जानता है और ख़बर रखता है।" [क़ुरान 4: 35]

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के हुक्म के मुताबिक़, बड़ो को बड़ो जैसे काम करना चाहिए उन्हें समझाने की कोशिश करें। तलाक़ लें या दें उससे पहले उन्हें चाहिए कि कुछ दिनों के लिए एक दूसरे से दूर हो कर ये महसूस कर लेना चाहिए। क्या वो एक दूसरे के बिना रह सकते हैं इसकी भी मिसाल हमें नबी करीम ﷺ की सुन्नत से मिलती है। याद रहे चार माह से ज़्यादा की मुद्दत ना हो।


तलाक़ देने का तरीक़ा

ये कितना गंभीर मामला है अब तक कि बातों से अंदाज़ा हो ही रहा होगा और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने तो इस नाम से पुरी एक सूरह नाज़िल कर दी।

"ऐ नबी (ﷺ) जब तुम लोग औरतों को तलाक़ दो तो उन्हें उनकी इद्दत के लिये तलाक़ दिया करो। और इद्दत के ज़माने को ठीक तरीक़े से गिनो, और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है।" [क़ुरान 65:1]

क़ुरआन की इस आयत से पता चलता है कि तलाक़ देने का एक सही वक्त है।


तलाक़ देने का वक्त

हैज़ (menses) के दौरान तलाक़ नहीं होती है।

हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर (रज़ी०) ने अपनी बीवी को हालते हैज़ में तलाक़ दे दिया ये जब बात जब नबी करीम ﷺ को पता चली तो उन्होंने फरमाया उससे कहो कि, 

"उससे (बीवी) से रुजु करे, फिर उसे रहने दें हत्ता कि वो पाक हो जाय, फिर उसे हैज़ आ जाय तो इसके बाद अपने पास रखे और अगर चाहे तो उससे मजमाअत (intercourse with her) करने से पहले तलाक़ दे दे। यही वो इद्दत (waiting period) है इसका अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हुक्म दिया है कि इसके मुताबिक़ औरत को तलाक़ दी जाए।" [सहीह मुस्लिम: 3652]

इस हदीस से पता चलता है कि तलाक़ पाकी के हालत में और बिना शारीरिक संबंध (sexual intercourse) बनाए देना है।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"उससे बोलो कि रुजू करे, फिर पाकी की हालत में तलाक़ दे या हमल (pregnancy)।" [सहीह मुस्लिम: 3659]



किन हालात में तलाक़ नहीं होगी

अब कोई बहुत ही बेहिस किस्म का ही इंसान हमल में तलाक़ देगा। इस्लाम ने रास्ता ज़रूर खुला है लेकिन हर क़दम पे सोचने को मजबूर भी कर रहा है।

1- हैज़ के दौरान (during menses) और निफाज़ (post delivery bleeding)।

2- हैज़ के बाद अगर शारीरिक संबंध बना हो तो। 

3- नशे की हालत में तलाक़ नहीं होगी।

4- बल पूर्वक (forcefully) अगर कोई दिलवाए तो तलाक़ नहीं होगी। 

5- जब कलम उठी हो तो भी तलाक़ नहीं होगी यानि जब अमल नहीं लिखे जा रहे हैं कोई नींद में हो।


तलाक़ कैसे दें 

तलाक़ गवाहों की मौजूदगी में दे इसमें ख़ैर दोनों के लिए ही है कोई दुबारा शौहर होने का दावा नहीं कर सकता और औरत विरासत में अपने हक़ का दावा नहीं कर सकती है। और दोनों फरिकैन की जानिब से शुकूक और शुबहात के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। 

"और दो ऐसे आदमियों को गवाह बना लो जो तुममें से अद्ल करने वाले हों। और (ऐ गवाह बननेवालो) गवाही ठीक-ठीक अल्लाह के लिये अदा करो।" [क़ुरान 65: 2]

और जब आप एक तलाक़ दे दें तो फिर उन्हें इद्दत वही पुरी करने दें। इद्दत तक वो उनका भी घर होगा।

"और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। (इद्दत के ज़माने में) न तुम उन्हें उनके घरों से निकालो और न वो ख़ुद निकलें, सिवाय इसके कि वो किसी खुली बुराई में पड़ें। ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, और जो कोई अल्लाह की हदों से आगे बढ़ेगा वो अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा। तुम नहीं जानते, शायद इसके बाद अल्लाह (मुवाफ़िक़त की) कोई सूरत पैदा कर दे।" [क़ुरान 65: 1]

और औरत को भी नहीं जाना चाहिए। ये अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की मुक़र्रर की हुई हदें इसे हरगिज़ नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। हो सकता हो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को ख़ैर सूरत पैदा कर दे।

"उनको (इद्दत के ज़माने में) उसी जगह रखो जहाँ तुम रहते हो, जैसी कुछ भी जगह तुम्हें मिली हो। और उन्हें तंग करने के लिये उनको न सताओ।" [क़ुरान 65: 6]

 वो अपनी इद्दत की मुद्दत तक खुश हाल रहें। और इस तरह उनका हमल (pregnancy) का भी पता चल जाएगा।

"जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वो तीन बार माहवारी (menses) के दिनों के आने तक अपने आपको रोके रखें, और उनके लिये ये जाइज़ नहीं है कि अल्लाह ने उनके रहम [ pregnancy] में जो कुछ पैदा किया हो, उसे छिपाएँ।" [क़ुरान 2: 228]

तीन हैज़ की मुद्दत में बीवी को ये हुक्म नहीं है कि वो अपने शौहर से पर्दा करे या जेब या ज़ीनत ना इख्तियार करे। 


इद्दत की मुद्दत (waiting period)


(i) बिना हमल वाली औरतों के लिए इद्दत की मुद्दत

"जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वो तीन बार माहवारी (menses) के दिनों के आने तक अपने आपको रोके रखे।" [क़ुरान 2: 228]

जो औरतें जिन्हें अब हैज़ (menopause) नहीं आता और कुछ औरतें ऐसे भी होती हैं जिन्हें health issue की वजह से हैज़ नहीं आता है तो उनके लिए-

"और तुम्हारी औरतों में से जो हैज़ से मायूस हो चुकी हों उनके मामले में अगर तुम लोगों को कोई शक लाहिक़ है तो (तुम्हें मालूम हो कि) इनकी इद्दत तीन महीने है।" [क़ुरान 65: 4]

और जो औरत हमल से हो,

"और हामला (गर्भवती) औरतों की इद्दत की हद ये है कि उनके बच्चे की पैदाइश हो जाए। जो शख़्स अल्लाह से डरे उसके मामले में वो सहूलत पैदा कर देता है।" [क़ुरान 65: 4]

अब अगर शौहर ने हमल के शुरु दिनों में कहा तो 9 महीने और अगर बच्चें की पैदाइश से कुछ दिनों पहले तलाक़ दिया हो तो बच्चें की पैदाइश तक ही इद्दत होगी।


(ii) जिन औरतों का निकाह तो हुआ था लेकिन रुखसती नहीं, उनकी इद्दत की मुद्दत

"ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो, जब तुम ईमानवाली औरतों से निकाह करो और फिर उन्हें हाथ लगाने से पहले तलाक़ दे दो, तो तुम्हारी तरफ़ से उनपर कोई इद्दत लाज़िम नहीं है जिसके पूरा होने की तुम माँग कर सको।" [क़ुरान 33: 49]

सिर्फ़ निकाह के बाद यानि रुखसती से पहले तलाक़ हो गया तो महर के बारे में क्या कहता है क़ुरआन,

"और अगर तुमने हाथ लगाने से पहले तलाक़ दी हो, लेकिन महर मुक़र्रर किया जा चुका हो तो इस सूरत में आधा महर देना होगा।" [क़ुरान 2: 237]


रूजू का तरीक़ा

"उनके शौहर ताल्लुक़ात ठीक कर लेने पर तैयार हों तो वो इस इद्दत के दौरान में उन्हें फिर अपनी बीवी के रूप में वापस ले लेने के हक़दार हैं। औरतों के लिये भी भले तरीक़े के मुताबिक़ वैसे ही हक़ हैं, जैसे मर्दों के हक़ उन पर हैं।" [क़ुरान 2: 228]

अगर शौहर चाहे तो वो उसे ज़ुबानी या शारीरिक संबंध से उससे रूजू कर सकता है। और रूजू तब किया जा सकता है, तीसरे हैज़ के बाद अगर औरत ने गुस्ल नहीं किया यानि उस हैज़ से पाक नहीं हुई तब तक और ज़ुबानी रूजू किया जा सकता है।

"फिर जब वो अपनी (इद्दत की) मुद्दत के ख़ात्मे पर पहुँचें तो या उन्हें भले तरीक़े से (अपने निकाह में) रोक रखो, या भले तरीक़े पर उनसे जुदा हो जाओ।" [क़ुरान 65: 2]

शौहर को ये इख्तियार हासिल है कि इद्दत के दौरान उसे अपने निकाह में रोक ले या फिर भले तरीके से दोनों अलग हो जाएं।

"सिर्फ़ सताने के लिये उन्हें न रोके रखना कि ये ज़्यादती होगी। और जो ऐसा करेगा, वो हक़ीक़त में आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म करेगा।" [क़ुरान 2: 231]

सिर्फ़ इस लिए उन्हें अपने निकाह में ना रोको कि सता सको क़ुरआन की जितनी भी आयतों में रूजू का ज़िक्र किया गया, साथ ये कहा भले तरीके से रोको इस बात की भी नसीहत की गई है। 

"आपस के मामलों में फ़ैयाज़ी [graciousness] को न भूलो। तुम्हारे आमाल को अल्लाह देख रहा है।" [क़ुरान 2: 237]


तलाक़ की शर्त 

गवाहों की मौजूदगी में जैसा कि सुरह तलाक़ आयत नंबर दो में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने कहा है।


1. एक तलाक़ पुरी होने के बाद

"और रुख़सत करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिये जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो।" [क़ुरान 2: 229]

(i) महर अगर अदा हो गया तो वापस नहीं ले सकते और नहीं अदा हुआ तो अदा कर देना चाहिए।

(ii) अज़दावाजी ज़िंदगी (married life) में जो तोहफ़ा वगैरह दिया वो सब भी वापस ना लिया जाए।

(iii) दोनों का एक दूसरे पे कोई हक़ नहीं यानि विरासत में कोई हिस्से दारी नहीं।

(iv) अब वो अपनी तलाक़ शुदा बीवी के लिए गैर महरम है और उस औरत पे अपने साबका शौरह से पर्दा फ़र्ज़ है।

(v) याद रहे अब वो औरत आपकी बीवी नहीं है तो अब उसके बाप के घर दुसरा तलाक़ नामा ना भेजे तलाक़ बीवी को दी जाती है। और इद्दत पुरी होने के बाद वो आपकी बीवी नहीं रही। 

(vi) हां अगर आपको अपनी गलती का एहसास हो गया और वो औरत वापस अपको अपनी ज़िंदगी में चाहिए तो आपको नए सिरे से निकाह का पैगाम भेजना होगा और उसमें औरत की रजा और उसके वली की रजा शामिल हुई तो नए महर के साथ और गवाहों की मौजूदगी में निकाह मुमकिन है।

"तो फिर इसमें रुकावट न बनो कि वो अपने [ पसन्द के] शौहरों से निकाह कर लें, जबकि वो भले तरीक़े से आपस में निकाह करने पर राज़ी हों।" [क़ुरान 2: 223]

(vii) अगर औरत अपने साबका शौरह से दुबारा निकाह करना चाहे तो उसमें रुकावट नहीं बनना चाहिए ये हक़ तो उन्हें अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त दे रहा है।


2. दूसरी तलाक़ 

अब निकाह के बाद ज़िंदगी के किसी मराहिल में फिर दोनों में अन बन हुआ और नौबत तलाक़ तक जा पहुंची तो वैसे ही तलाक़ होगी जैसा पहला हुई थी और इद्दत और रूजू की भी वही सूरत होगी। लेकिन वाजेह रहे अब दो तलाक़ मुकम्मल हो चुकी है। (इद्दत के दौरान रूजू किया गया है तो भी तलाक़ count होगी)


3. तीसरी तलाक़

अब साबका शौहर बीवी (ex husband and wife), उसी तरह निकाह कर सकते हैं जैसे पहली बार हुआ था। और अगर अब तलाक़ हुआ तो औरत इद्दत अपने साबका शौहर के घर पर नहीं पुरी करेगी।

"फिर अगर (दो बार तलाक़ देने के बाद) शौहर ने औरत को तीसरी बार तलाक़ दे दी, तो वो औरत फिर उसके लिये हलाल न होगी, सिवाय इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे आदमी से हो और वो उसे तलाक़ दे दे।" [क़ुरान 2: 230]

और तीन तलाक़ मुकम्मल हो जाने पर अब वो ना रूजू कर सकता है और ना ही दोनों आपस में फिर से निकाह कर सकते हैं।

ये है तलाक़ का मुकम्मल तरीक़ा। 


इस्लाम क्या कहता तीन तलाक़ के बारे में

नबी करीम ﷺ और हज़रत अबु बकर (रज़ी०) के दौर में और हज़रत उमर (रज़ी०) के खिलाफत के (शुरु) दो साल तक (एक साथ) तीन तलाक़ एक शुमार (count) होती थी, हज़रत उमर (रज़ी०) के खिलाफत ने कहा: 

"लोगों ने ऐसा काम में जल्द बाज़ी शुरु कर दी है जिस में इनके लिए तहम्मुल (patience) सोच बिचार ज़रूरी था, अगर हम इस उजलत (urgency) को पर नाफिज़ (enforced) कर दें तो शायद वो तहम्मुल से काम लेना शुरु कर दें और इसके बाद उन्होंने इसे उन पर नाफिज़ कर दिया (इकठ्ठे तीन तलाक़ को तीन शुमार करने लगे)।" [सहीह मुस्लिम: 3673]

इस्लाम में वक्त के खलीफा को ये इख्तियार हासिल है कि वो वक्त और हालात देखते हुए फैसला करे या कोई हुक्म नाफिज़ करे और हज़रत उमर (रज़ी०) के दौरे खिलाफत में लोग अपनी बीवियों को एक बार में कई बार तलाक़ कह दिया करते थे, यानि ये हुक्म सिर्फ़ उस वक्त तक के लिए ही था। 

और बहुत से अहले इल्म लोगों का इस बात पे इज्मा (consensus) है एक मजलिस की तलाक़ एक ही शुमार की जाएगी।


हलाला

अब यहां से गलत फहमी का आगाज़ होता है, यानि तीन तलाक़ के बाद उसी शख़्स से चौथी बार निकाह करने की सूरत से होता है,

"वो औरत फिर उसके लिये हलाल न होगी, सिवाय इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे आदमी से हो और वो उसे तलाक़ दे दे।" [क़ुरान 2: 230]

आयत के इस हिस्से *सिवाय इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे आदमी से हो और वो उसे तलाक़ दे दे।* से होता है जिसे लोगों अपने मतलब का मतलब निकाल लिया है। और इस बिना पे मीडिया ने औरों (गैर मुस्लिमों) में इस्लाम के खिलाफ़ खूब गलत फहमीयां फैलाई है। तो आईए देखें, इस्लाम में हलाला की क्या हैसियत है?

नबी करीम ﷺ ने वक्ती तौर पे किया गया निकाह से मना किया, और फ़रमाया: 

"देखो इस दिन से ले कर कयामत तक हराम है।" [सहीह मुस्लिम]

इमाम इब्ने क़ुदामा रहिमाउल्लाह फरमाते हैं:

"निकाह ए हलाला अक्सर अहले इल्म के क़ौल के मुताबिक हराम और बातिल हैं | हलाला को बातिल कहने वालो में इमाम हसन बसरी, इमाम इब्राहिम नखी, इमाम क़तादा, इमाम मालिक,, इमाम लैस बिन साद, इमाम सुफियान सौरी, इमाम अब्दुल्लाह बिन मुबारकब इमाम शाफई रहिमाउल्लाहम अजमायीन जैसे नामूर अइम्मा किराम हैं।"
[अल मुग़नी ला इब्ने क़ुदामा जिल्द 07 सफा 180]

और जो इस निकाह में जो इससे पहले खाविंद के लिए हलाल करेंगा शर्त यह है कि वह निकाह सही हो चुनांचे मुवक़क़त यानि वक़ती और कुछ मुद्द्त के लिए निकाह (जिसे निकाह ए मुताअ भी कहा जाता हैं ) या फिर पहले खाविंद के लिए बीवी को हलाल करने के लिए निकाह करके फिर तलाक़ दे देना (यानी निकाह हलाला ) ये दोनों हराम और बातिल हैं आम अहले इल्म का यही क़ौल हैं और इससे औरत अपने पहले खाविंद के लिए हलाल नहीं होगी।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"हलाला करने वालों और करवाने वालों पर अल्लाह की लानत हो।"
[जामे सगीर 7248, ज़ाद उल माद 05/100, तोहफातुल मुहताज 02/372]

चुनाँचे नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"क्या मे तुम्हे किराये या आरियातन [कुछ वक़्त के लिए क़र्ज़ पे लेना (on loan, borrowed, for some time)] लिए गए साँध के बारे मे ना बताऊ सहाबा ने कहा ज़रूर बताये तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया वो हलाला कराने वाला हैं। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हलाला करने और कराने वाले पे लानत करें।" [तखरीज ज़ाद उल माद 05/101 by शुएब अरनोत ]

इस हदीस को इमाम अलबानी, शुएब अतनोत, अहमद शाकिर ने सहीह कही है। 

हज़रत उमर रज़ि अन्हु ने खुतबा देतें हुए फ़रमाया:

"उनका जो हलाला करने और हलाला करवाने वाला लाया गया मैं उसको रजम (पत्थर मार-मार के मार दूं) कर दूंगा।" [मुसन्नफ अब्दुर रज्जाक 06/265 10777]

यह सब बराबर है और कोई फर्क नहीं है के अक़द ए निकाह के वक्त उस मकसद की सराहत की गई हो उस पर शर्त रखी गई हो कि जब उसने इसे इसके लिए पहले खाविंद के लिए हलाल कर दिया तो वो इसे तलाक़ देगा, या उसकी शर्त ना रखी हो बल्कि उन्होंने अपने दिल में ही यह नियत कर रही हो यह सब बराबर है। 

इमाम सूफ़ियान सौरी कहते हैं, अगर कोई हलाला करने के लिए किसी औरत से निकाह करता है (उसके साबका शौहर के लिए) और फिर उसे बीवी के रूप में रखना चाहता है उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं है, जब तक कि वह नए सिरे से निकाह नहीं करता, क्यूंकि पिछला निकाह गैरकानूनी था।


तीन तलाक़ के बाद निकाह की सूरत

"फिर अगर [दो बार तलाक़ देने के बाद शौहर ने औरत को तीसरी बार तलाक़ दे दी, तो वो औरत फिर उसके लिये हलाल न होगी, सिवाय इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे आदमी से हो और वो उसे तलाक़ दे दे। तब अगर पहला शौहर और ये औरत दोनों ये समझें कि अल्लाह की मुक़र्रर हदों पर क़ायम रहेंगे, तो उनके लिये एक-दूसरे की तरफ़ रुजू कर लेने में कोई हरज नहीं। ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, जिन्हें वो उन लोगों की हिदायत के लिये वाज़ेह कर रहा है जो [उसकी हदों को तोड़ने का अंजाम] जानते हैं।" [क़ुरान 2: 230]

दूसरा शख़्स अगर उसे तलाक़ या फिर वो औरत बेवा हो जाय तब वो अपने पहले शौहर से निकाह कर सकती हैं ऐसा हरगिज़ नहीं है कि इरादतन (intentionally) ऐसा करने की इजाज़त है यानि वक्ती तौर पे निकाह किया करे और फिर उससे तलाक़ ले के अपने पहले शौहर से निकाह करे।


खुला

जब कोई औरत अपने शौहर से तलाक़ का मुतालबा करे तो उसे खुला कहते हैं। और खुला का मुतालबा भी बहुत ही नागावर हालत में ही करना चाहिए।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"जो औरत बग़ैर किसी वजह से अपने शौहर से तलाक़ मांगती है इस पर जन्नत की खुशबू हराम है।" [सुन्न अबु दाऊद: 2226]

अगर हालात ऐसे हों जहां एक दूसरे को इज़्ज़त देना या उसे उसका हक़ देना मुमकिन ना तो अलाहिदगी इख्तियार कर लेनी चाहिए।

"अलबत्ता ये सूरत इससे अलग है कि मियाँ-बीवी को अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदों पर क़ायम न रह सकने का डर हो। ऐसी सूरत में अगर तुम्हें ये डर हो कि वो दोनों अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदों पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के बीच ये मामला हो जाने में कोई हरज नहीं कि औरत अपने शौहर को कुछ मुआवज़ा देकर जुदाई हासिल कर ले।" [क़ुरान 2: 229]

मिसाल: साबित बिन कैस (रज़ी०) की बीवी नबी करीम ﷺ की खिदमत में आई और कहा हम दोनों का इकठ्ठे रहना मुमकिन नहीं, फिर साबित बिन कैस आए तो नबी करीम ﷺ की ने इनसे कहा, 

"अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को कुछ मंज़ूर था इन्होंने मुझसे कहा", हबीबा ने कहा ए अल्लाह के रसुल ﷺ जो कुछ इन्होंने मुझे दिया है वो सब मेरे पास है तो नबी करीम ﷺ ने साबित बिन कैस (रज़ी०) से फ़रमाया: इससे वासूल कर लो, फिर वो अलाहिदा कर दो।" [सुन्न अबु दाऊद: 2228]

खुला के मुतलबे में महर लौटा के होता है। 


खुला की सूरत में इद्दत

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ी०) का बयान है कि, 

"साबित बिन कैस (रज़ी०) इनसे खुला लिया तो नबी करीम ﷺ ने एक हैज़ मुकर्र फ़रमाया था।" [सुन्न अबु दाऊद: 2229]


ये है क़ुरान और हदीस से तलाक़ देने लेने का पूरा तरीक़ा। 

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ये क़ुरान हमारी ख़ैर ख्वाही के लिए ही भेजा है, जब जब हम अपने दीन से दूर होंगे तो इस्लाम के दुश्मनों को मौक़ा मिल जाएगा वो दीन का ही सहारा ले के हमें जलील करेंगे। जैसा कि तलाक़ के नाम पे किया गया और इसे हम पे ज़ालिमो की जीत बताएंगे हैं।


आपकी दीनी बहन 
नाज़ 

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