क्या आख़िरत में अल्लाह के लिए इन्सानों को एक-साथ ज़िन्दा करके उठाना मुश्किल काम है?
आख़िरत (मरने के बाद की जिंदगी) के बारे में लोगों के बीच इख्तिलाफ का फैसला होना जरूरी है।
आख़िरत (मरने की बाद की जिंदगी) का बरपा होना इसलिए जरूरी है ताकि अल्लाह मौत के बाद की जिंदगी के बारे में लोगों के अलग अलग नजरिए और इख्तिलाफ़ के बारे में इंसाफ के साथ फैसला कर सके। इसलिए ही अल्लाह ने कुरआन में कहा है कि:
وَ اَقۡسَمُوۡا بِاللّٰہِ جَہۡدَ اَیۡمَانِہِمۡ ۙ لَا یَبۡعَثُ اللّٰہُ مَنۡ یَّمُوۡتُ ؕ بَلٰی وَعۡدًا عَلَیۡہِ حَقًّا وَّ لٰکِنَّ اَکۡثَرَ النَّاسِ لَا یَعۡلَمُوۡنَ
ये लोग अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि “अल्लाह किसी मारनेवाले को फिर से ज़िन्दा करके न उठाएगा” – उठाएगा क्यों नहीं! ये तो एक वादा है जिसे पूरा करना उसने अपने लिये ज़रूरी कर लिया है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
[कुरआन 16:38]
لِیُبَیِّنَ لَہُمُ الَّذِیۡ یَخۡتَلِفُوۡنَ فِیۡہِ وَ لِیَعۡلَمَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡۤا اَنَّہُمۡ کَانُوۡا کٰذِبِیۡنَ
और ऐसा होना इसलिये ज़रूरी है कि अल्लाह इनके सामने उस हक़ीक़त को खोल दे जिसके बारे में ये इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं और हक़ के इन्कारियों को मालूम हो जाए कि वो झूठे थे।
[कुरआन 16:39]
यहां अल्लाह ने मरने के बाद की ज़िन्दगी और हश्र क़ायम होने की अक़ली और अख़लाक़ी ज़रूरत को बताया है। दुनिया में जबसे इन्सान पैदा हुआ है, हक़ीक़त के बारे में अनगिनत इख़्तिलाफ़ पैदा हुए हैं। इन्हीं इख़्तिलाफ़ात की बुनियाद पर नस्लों और क़ौमों और ख़ानदानों में फूट पड़ी है। इन्हीं की वजह से अलग-अलग नज़रिये रखनेवालों ने अपने अलग-अलग मज़हब, अलग समाज बनाए या अपनाए हैं। एक-एक नज़रिये की हिमायत और वकालत में हज़ारों-लाखों आदमियों ने अलग-अलग ज़मानों में जान, माल, आबरू हर चीज़ की बाज़ी लगा दी है। और अनगिनत मौक़ों पर उन अलग-अलग नज़रिये को माननेवालों में ऐसी ज़बरदस्त खींच-तान हुई है कि एक ने दूसरे को बिलकुल मिटा देने की कोशिश की है, और मिटनेवाले ने मिटते-मिटते भी अपना नज़रिया नहीं छोड़ा है।
अक़ल चाहती है कि ऐसे अहम् और संजीदा इख़्तिलाफ़ों के बारे में कभी तो सही और यक़ीनी तौर पर मालूम हो कि असल में उनके अन्दर हक़ क्या था और बातिल क्या, सीधे रास्ते पर कौन था और ग़लत रास्ते पर कौन? इस दुनिया में तो कोई इमकान इस परदे के उठने का दिखाई नहीं देता। इस दुनिया का निज़ाम ही कुछ ऐसा है कि इसमें हक़ीक़त पर से परदा उठ नहीं सकता। लिहाज़ा लाज़िमी तौर पर अक़ल के इस तक़ाज़े को पूरा करने के लिये एक दूसरी ही दुनिया चाहिये।
और ये सिर्फ़ अक़ल का तक़ाज़ा ही नहीं है, बल्कि अख़लाक़ का तक़ाज़ा भी है क्योंकि इन इख़्तिलाफ़ात और इन कशमकशों में बहुत-से फ़रीकों (पक्षों) ने हिस्सा लिया। किसी ने ज़ुल्म किया है और किसी ने सहा है। किसी ने क़ुर्बानियाँ की हैं और किसी ने उन क़ुर्बानियों को वुसूल किया है। हर एक ने अपने नज़रिये के मुताबिक़ एक अख़लाक़ी फ़लसफ़ा और एक अख़लाक़ी रवैया अपनाया है और उससे अरबों और खरबों इन्सानों की ज़िन्दगियाँ बुरे या भले तौर पर मुतास्सिर हुई हैं। आख़िर कोई वक़्त तो होना चाहिये जबकि इन सबका अख़लाक़ी नतीजा इनाम या सज़ा की शक्ल में ज़ाहिर हो। इस दुनिया का निज़ाम अगर सही और पूरे अख़लाक़ी नतीजे ज़ाहिर नहीं कर सकता तो एक-दूसरी दुनिया होनी चाहिये जहाँ ये नतीजे ज़ाहिर हो सकें।
اِنَّمَا قَوۡلُنَا لِشَیۡءٍ اِذَاۤ اَرَدۡنٰہُ اَنۡ نَّقُوۡلَ لَہٗ کُنۡ فَیَکُوۡنُ
"(रहा इसका इमकान तो) हमें किसी चीज़ को वुजूद में लाने के लिये इससे ज़्यादा कुछ नहीं करना होता कि उसे हुक्म दें कि ‘हो जा’ और बस वो हो जाती है।"
[कुरआन 16:40]
यानी लोग समझते हैं कि मरने के बाद इन्सान को दोबारा पैदा करना और तमाम अगले-पिछले इन्सानों को एक-साथ ज़िन्दा करके उठाना कोई बड़ा ही मुश्किल काम है। हालाँकि अल्लाह की क़ुदरत का हाल ये है कि वो अपने किसी इरादे को पूरा करने के लिये किसी सरो-सामान, किसी सबब और ज़रिए और किसी तरह के हालात दुरुस्त होने का मोहताज नहीं है। उसका हर इरादा सिर्फ़ उसके हुक्म से पूरा होता है। उसका हुक्म ही सरो-सामान वुजूद में लाता है, उसके हुक्म ही से अस्बाबो-वसाइल (साधन और संसाधन) पैदा हो जाते हैं। उसका हुक्म ही उसकी मर्ज़ी के बिलकुल मुताबिक़ हालात तैयार कर लेता है। इस वक़्त जो दुनिया मौजूद है ये भी सिर्फ़ हुक्म से वुजूद में आई है और दूसरी दुनिया भी आनन्-फ़ानन सिर्फ़ एक हुक्म से वुजूद में आ सकती है।
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