Paigambar Ki Sachchai Ki Pehchan Kaise Karein? (Part-3)

Paigambar Ki Sachchai Ki Pehchan Kaise Karein? (Part-3)


पैगम्बर की सच्चाई की पहचान कैसे करें। (पार्ट-3)

अगर कोई शख्स ये दावा करता है कि वो अल्लाह का पैगम्बर है तो हम उस शख्स की पहचान कैसे करें कि क्या वाकई ये शख्स अल्लाह का पैगम्बर है या नहीं? हम उस शख्स के दावे को परखने के लिए किन चीजों की तहकीक करें? हम उस शख्स में वो क्या चीज़ें देखें जिससे हमे वाजेह हो जाए कि ये शख्स वाकई अल्लाह का पैगम्बर है? तो आईए हम जानते है कि कोई भी शख्स अगर अल्लाह का पैगम्बर होने का दावा करता है तो हम उसमे क्या खूबियां देखें?

किसी भी शख्स के अल्लाह का पैगम्बर होने के लिए उसकी हम तीन तरह से पहचान कर सकते है-

  1. पैगम्बर की ज़िंदगी से पहचान।
  2. पैगम्बर जिस बात की तरफ लोगों दावत को देता है सबसे पहले उस पर खुद अमल करता है।
  3. पैगम्बर अपनी दावत और तबलीग का लोगों से कोई बदला नहीं मांगता है।


पिछले दो आर्टिकल में हमने जाना कि हम पैगम्बर की जिंदगी से उसकी सच्चाई का कैसे पता लगा सकते है और पैगम्बर जिस बात की तरफ लोगों को दावत देता है सबसे पहले उसपर खुद अमल करता है। आज के लेख में हम पैगम्बर की सच्चाई का एक और पहलू से पता लगाएंगे।


3. पैगम्बर अपनी दावत और तबलीग का लोगों से कोई बदला नहीं मांगता है।

जो शख्स भी ये दावा करे कि वो अल्लाह का पैगम्बर है तो सबसे पहले तो उसका अपना किरदार बेदाग हो और दूसरा उसका कोई भी दुनियावी निजी फायदा न हो, यहां तक की कोई आदमी भी इस बात की निशानदेही नहीं कर सकता हो कि इस दीन की दावत ये अपने किसी निजी फ़ायदे की ख़ातिर दे रहे हैं। यानी पैगम्बर दुनिया से बेग़रज़ होना चाहिए। पैगम्बर का दुनिया से बेग़रज़ होना ही उसके सच्चे होने की दलील है और इसी दलील को एक ईमानवाले ने लोगों के सामने पेश किया था जब अल्लाह ने उसकी कौम की तरफ पैगम्बर भेजे थे जिसका जिक्र अल्लाह ने कुरआन में किया है कि ईमान वाले उस बन्दे ने कहा कि:


اتَّبِعُوۡا مَنۡ لَّا یَسۡئَلُکُمۡ اَجۡرًا وَّ ہُمۡ مُّہۡتَدُوۡنَ 
"पैरवी करो उन लोगों की जो तुमसे कोई बदला नहीं चाहते और ठीक रास्ते पर हैं।"
[कुरआन 36:21]


इस एक जुमले में ख़ुदा के उस बन्दे ने नुबूवत की सच्चाई की सारी दलीलें समेटकर रख दीं। एक नबी की सच्चाई दो ही बातों से जाँची जा सकती है-

  1. एक ये कि वो क्या कहता और क्या करता है? 
  2. दूसरी, उसका बेग़रज़ होना। 

उस आदमी के दलील देने का मंशा ये था कि अव्वल तो ये लोग सरासर सही और मुनासिब बात कह रहे हैं और इनका अपना किरदार बिलकुल बेदाग़ है। दूसरा कोई आदमी इस बात की निशानदेही नहीं कर सकता कि इस दीन की दावत ये अपने किसी निजी फ़ायदे की ख़ातिर दे रहे हैं। इसके बाद कोई वजह नज़र नहीं आती कि इनकी बात क्यों न मानी जाए। उस आदमी की इस तरह दलील नक़ल करके क़ुरआन ने लोगों के सामने एक पैमाना रख दिया कि नबी की नुबूवत को परखना हो तो इस कसौटी पर परखकर देख लो। मुहम्मद (सल्ल०) की बात और उनका अमल बता रहा है कि वो सही रास्ते पर हैं और फिर उनकी जिद्दोजुहद के पीछे किसी निजी फ़ायदे का भी नामो-निशान तक नहीं है। फिर कोई समझदार इन्सान उनकी बात को रद्द आख़िर किस बुनियाद पर करेगा।


੦ पैगम्बर नूह (अलैहि०) ने भी लोगों के सामने यही दलील रखी थी।

पैगम्बर नूह (अलैहि०) ने कहा:


وَ یٰقَوۡمِ لَاۤ اَسۡئَلُکُمۡ عَلَیۡہِ مَالًا ؕ اِنۡ اَجۡرِیَ اِلَّا عَلَی اللّٰہِ 
"और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! मैं इस काम पर तुमसे कोई माल नहीं माँगता, मेरा बदला तो अल्लाह के ज़िम्मे है।" 
[कुरआन 11:29]


यानी मैं एक बे-ग़रज़ (निस्स्वार्थ) नसीहत करनेवाला हूँ। अपने किसी फ़ायदे के लिये नहीं, बल्कि तुम्हारे ही भले के लिये ये सारी मुश्किलें और तकलीफ़ें बरदाश्त कर रहा हूँ। तुम किसी ऐसे निजी फ़ायदे की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस हक़ बात की दावत देने में और उसके लिये जानतोड़ मेहनतें करने और मुसीबतें झेलने में मेरे सामने हों।

पैगम्बर नूह (अलैहि०) ने एक जगह ये कहा:


وَ مَاۤ اَسۡئَلُکُمۡ عَلَیۡہِ مِنۡ اَجۡرٍ ۚ اِنۡ اَجۡرِیَ اِلَّا عَلٰی رَبِّ الۡعٰلَمِیۡنَ 
"मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ। मेरा इनाम तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।"
[कुरआन 26:109]


ये अपनी सच्चाई पर हज़रत नूह (अलैहि०) की दूसरी दलील है। 

1. पहली दलील ये थी कि पैग़म्बरी के दावे से पहले मेरी सारी ज़िन्दगी तुम्हारे बीच गुज़री है और आज तक तुम मुझे एक अमानतदार आदमी की हैसियत से जानते हो और 

2. दूसरी दलील ये है कि मैं एक बेग़रज़ आदमी हूँ। तुम किसी ऐसे निजी फ़ायदे की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस काम से मुझे हासिल हो रहा हो या जिसको हासिल करने की मैं कोशिश कर रहा हूँ। इस बेग़रज़ाना तरीक़े से किसी निजी फ़ायदे के बिना जब मैं इस सच्चाई के पैग़ाम के काम में रात-दिन अपनी जान खपा रहा हूँ, अपने वक़्त और अपनी मेहनतें लगा रहा हूँ और हर तरह की तकलीफ़ें उठा रहा हूँ, तो तुम्हें मान लेना चाहिये कि मैं इस काम में मुख़लिस हूँ, ईमानदारी के साथ जिस चीज़ को हक़ जानता हूँ और जिसकी पैरवी में अल्लाह के बन्दों की भलाई देखता हूँ वही पेश कर रहा हूँ, कोई मन में छिपी ख़ाहिश इसकी वजह नहीं है कि उसकी ख़ातिर मैं झूठ गढ़कर लोगों को धोखा दूँ।

ये दोनों दलीलें उन अहम् दलीलों में से हैं जो क़ुरआन मजीद ने बार-बार पैग़म्बर (अलैहि०) की सच्चाई के सुबूत में पेश की हैं और जिनको वो पैग़म्बरी के परखने की कसौटी ठहराता है। पैग़म्बरी से पहले जो शख़्स एक समाज में सालों ज़िन्दगी गुज़ार चुका हो और लोगों ने हमेशा हर मामले में उसे सच्चा और ईमानदार आदमी पाया हो, उसके बारे में कोई तास्सुब से पाक आदमी मुश्किल ही से ये शक कर सकता है कि वो यकायक ख़ुदा के नाम से इतना बड़ा झूठ बोलने पर उतर आएगा कि उसे पैग़म्बर न बनाया गया हो और वो कहे कि ख़ुदा ने मुझे पैग़म्बर बनाया है। 

फिर दूसरी इससे भी ज़्यादा अहम् बात ये है कि ऐसा सफ़ेद झूठ कोई शख़्स नेक नीयति के साथ नहीं घड़ा करता। ज़रूर कोई मन की ख़ाहिश ही इस धोखेबाज़ी की वजह होती है और जब कोई शख़्स अपने फ़ायदों के लिये इस तरह की धोखेबाज़ी करता है तो छिपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके आसार नुमायाँ होकर रहते हैं। उसे अपने कारोबार को बढ़ाने के लिये तरह-तरह के हथकण्डे इस्तेमाल करने पड़ते हैं, जिनके घिनौने पहलू आसपास के समाज में छिपाए नहीं छिप सकते और इसके अलावा वो अपनी पीरी की दुकान चमकाकर कुछ न कुछ अपना भला करता नज़र आता है। नज़राने वुसूल किये जाते हैं, लंगर जारी होते हैं, जायदादें बनती हैं, ज़ेवर तैयार किये जाते हैं और फ़क़ीरी का आस्ताना देखते ही देखते शाही दरबार बनता चला जाता है। 

लेकिन जहाँ इसके बरख़िलाफ़ पैग़म्बरी का दावा करनेवाले शख़्स की निजी ज़िन्दगी ऐसी अख़लाक़ी ख़ूबियों से भरी नज़र आए कि उसमें कहीं ढूँढने से भी किसी धोखे के हथकण्डे का निशान न मिल सके और इस काम से कोई निजी फ़ायदा उठाना तो एक तरफ़, वो अपना सबकुछ उसी बे-ग़रज़ ख़िदमत की भेंट चढ़ा दे, वहाँ झूठ का शक करना किसी समझदार इन्सान के लिये मुमकिन नहीं रहता। कोई शख़्स जो अक़ल भी रखता हो और बे-इन्साफ़ भी न हो, ये सोच नहीं सकता कि आख़िर एक अच्छा-भला समझदार आदमी, जो इत्मीनान की ज़िन्दगी जी रहा था, क्यों बेवजह एक झूठा दावा लेकर उठे जबकि उसे कोई फ़ायदा इस झूठ से न हो, बल्कि वो उलटा अपना माल, अपना वक़्त और अपनी सारी क़ुव्वतें और मेहनतें इस काम में खपा रहा हो और बदले में दुनिया भर की दुश्मनी मोल ले रहा हो। निजी फ़ायदे की क़ुर्बानी आदमी के मुख़लिस होने की सबसे ज़्यादा नुमायाँ दलील होती है। ये क़ुर्बानी करते जिसको सालों बीत जाएँ उसे बदनीयत या ख़ुदग़रज़ समझना ख़ुद उस शख़्स की अपनी बदनीयती का सुबूत होता है जो ऐसे आदमी पर ये इलज़ाम लगाए।


੦ पैगम्बर हूद (अलैहि०) ने भी अपने सच्चे पैगम्बर होने की लोगों के सामने यही दलील दी थी।

पैगम्बर हूद (अलैहि०) ने कहा:


اِنِّیۡ لَکُمۡ رَسُوۡلٌ اَمِیۡنٌ فَاتَّقُوا اللّٰہَ وَ اَطِیۡعُوۡنِ وَ مَاۤ اَسۡئَلُکُمۡ عَلَیۡہِ مِنۡ اَجۡرٍ ۚ اِنۡ اَجۡرِیَ اِلَّا عَلٰی رَبِّ الۡعٰلَمِیۡنَ
"मैं तुम्हारे लिये एक अमानतदार रसूल हूँ। इसलिये तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहा मानो। मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ। मेरा इनाम तो सारे जहानों के रब के ज़िम्मे है।"
[कुरआन 26:125-127]


وَ اِلٰی عَادٍ اَخَاہُمۡ ہُوۡدًا ؕ قَالَ یٰقَوۡمِ اعۡبُدُوا اللّٰہَ مَا لَکُمۡ مِّنۡ اِلٰہٍ غَیۡرُہٗ ؕ اِنۡ اَنۡتُمۡ اِلَّا مُفۡتَرُوۡنَ یٰقَوۡمِ لَاۤ اَسۡئَلُکُمۡ عَلَیۡہِ اَجۡرًا ؕ اِنۡ اَجۡرِیَ اِلَّا عَلَی الَّذِیۡ فَطَرَنِیۡ ؕ اَفَلَا تَعۡقِلُوۡنَ
"और आद की तरफ़ हमने उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो। तुम्हारा कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है। तुमने सिर्फ़ झूठ गढ़ रखे हैं। ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! इस काम पर मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता, मेरे बदला तो उसके ज़िम्मे है जिसने मुझे पैदा किया है, क्या तुम अक़्ल से ज़रा काम नहीं लेते?"
[कुरआन 11:50-51]


ये जुमला अपने अन्दर बड़ी गहराई रखता है जिसमें एक बड़ी दलील समेट दी गई है। इसका मतलब ये है कि मेरी बात को जिस तरह सरसरी तौर पर तुम नज़रअन्दाज़ कर रहे हो और इसपर संजीदगी से ग़ौर नहीं करते, ये इस बात की दलील है कि तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते। वरना अगर तुम अक़्ल से काम लेनेवाले होते तो ज़रूर सोचते कि जो शख़्स अपनी किसी निजी ग़रज़ और फ़ायदे के बग़ैर दावत और तबलीग़ और याददिहानी और नसीहत की ये सब मुश्किलें झेल रहा है, जिसकी इस भाग-दौड़ में तुम किसी निजी या ख़ानदानी फ़ायदे का निशान तक नहीं पा सकते, वो ज़रूर अपने पास यक़ीन और भरोसे की कोई ऐसी बुनियाद और ज़मीर (अन्तरात्मा) के इत्मीनान की कोई ऐसी वजह रखता है जिसकी वजह से उसने अपना ऐशो-आराम छोड़कर, अपनी दुनिया बनाने की फ़िक्र से बेपरवाह होकर, अपने आपको इस जोखिम में डाला है कि सदियों के जमे और रचे हुए अक़ीदों, रस्मों और ज़िन्दगी के रंग-ढंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए और उसकी बदौलत दुनिया भर की दुश्मनी मोल ले ले। ऐसे शख़्स की बात कम-से-कम इतनी बेवज़न तो नहीं हो सकती कि बिना सोचे-समझे उसे यूँ ही टाल दिया जाए और उसपर संजीदा सोच-विचार की ज़रा-सी तकलीफ़ भी ज़ेहन को न दी जाए।


੦ अल्लाह ने कुरआन में पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे होने पर भी यही दलील दी है।

अल्लाह फरमाता है:-


وَ مَا تَسۡئَلُہُمۡ عَلَیۡہِ مِنۡ اَجۡرٍ ؕ اِنۡ ہُوَ اِلَّا ذِکۡرٌ لِّلۡعٰلَمِیۡنَ
"हालाँकि तुम इस ख़िदमत पर उनसे कोई बदला भी नहीं माँगते हो। ये तो एक नसीहत है, जो दुनिया वालों के लिये आम है।"
[कुरआन 12:104]


ऊपर ख़बरदार किये जाने के बाद ये दूसरी बार पहले से ज़्यादा ग़ैर-महसूस तरीक़े पर ख़बरदार किया गया है जिसमें मलामत का पहलू ज़्यादा है। बात भी बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में बात इस्लाम का इनकार करनेवाले गरोह से की जा रही और इसका मक़सद उस गरोह को ये समझाना है कि अल्लाह के बन्दो! ग़ौर करो, तुम्हारी ये हठधर्मी कितनी ज़्यादा नामुनासिब है। अगर पैग़म्बर ने अपने किसी निजी फ़ायदे के लिये दावत व तबलीग़ का ये काम जारी किया होता या उसने अपनी ज़ात के लिये कुछ भी चाहा होता तो बेशक तुम्हारे लिये ये कहने का मौक़ा था कि हम इस मतलबी आदमी की बात क्यों मानें। मगर तुम देख रहे हो कि ये शख़्स बग़ैर किसी लालच और बदले के काम कर रहा है, तुम्हारी और दुनिया भर की भलाई के लिये नसीहत कर रहा है और इसमें उसका अपना कोई फ़ायदा छिपा नहीं है। फिर उसका मुक़ाबला इस हठधर्मी से करने में आख़िर क्या समझदारी है? जो इंसान सबके भले के लिये एक बात बेग़रज़ी के साथ पेश करे उससे किसी को ख़ाह-मख़ाह ज़िद क्यों हो? खुले दिल से उसकी बात सुनो, दिल को लगती हो तो मानो, न लगती हो तो न मानो।

अल्लाह ने कुरआन में दूसरी जगह फरमाया:-


وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنٰکَ اِلَّا مُبَشِّرًا وَّ نَذِیۡرًا قُلۡ مَاۤ اَسۡئَلُکُمۡ عَلَیۡہِ مِنۡ اَجۡرٍ اِلَّا مَنۡ شَآءَ اَنۡ یَّتَّخِذَ اِلٰی رَبِّہٖ سَبِیۡلًا
ऐ नबी, तुमको तो हमने बस एक ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा है। इनसे कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे कोई मुआवज़ा नहीं माँगता, मेरा मुआवज़ा बस यही है कि जिसका जी चाहे वो अपने रब का रास्ता अपना ले।”
[कुरआन 25:56-57]


اَمۡ تَسۡئَلُہُمۡ خَرۡجًا فَخَرَاجُ رَبِّکَ خَیۡرٌ ٭ۖ وَّ ہُوَ خَیۡرُ الرّٰزِقِیۡنَ وَ اِنَّکَ لَتَدۡعُوۡہُمۡ اِلٰی صِرَاطٍ مُّسۡتَقِیۡمٍ
"क्या तू उनसे कुछ माँग रहा है? तेरे लिये तेरे रब का दिया ही बेहतर है और वो सबसे अच्छी रोज़ी देनेवाला है। तू तो उनको सीधे रास्ते की तरफ़ बुला रहा है।"
[कुरआन 23:72-73]


ये नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी के हक़ में एक और दलील है। यानी ये कि नबी अपने इस काम में बिलकुल बे-ग़रज़ हैं। कोई शख़्स ईमानदारी के साथ ये इलज़ाम नहीं लगा सकता कि आप (सल्ल०) ये सारे पापड़ इसलिये बेल रहे हैं कि कोई मन में छिपा मक़सद आप (सल्ल०) के सामने है। अच्छी-ख़ासी तिजारत चमक रही थी, अब ग़रीबी में मुब्तला हो गए। क़ौम में इज़्ज़त के साथ देखे जाते थे। हर शख़्स हाथों-हाथ लेता था। अब गालियाँ और पत्थर खा रहे हैं, बल्कि जान तक के लाले पड़े हैं। चैन से अपने बीवी-बच्चों में हँसी-ख़ुशी दिन गुज़ार रहे थे। अब एक ऐसी सख़्त कशमकश में पड़ गए हैं जो किसी पल चैन नहीं लेने देती। इसपर और ज़्यादा ये कि बात वो लेकर उठे हैं जिसकी बदौलत सारा देश दुश्मन हो गया है, यहाँ तक कि ख़ुद अपने ही भाई-बन्धु ख़ून के प्यासे हो रहे हैं। कौन कह सकता है कि ये एक ख़ुदग़रज़ आदमी के करने का काम है? 

ख़ुदग़रज़ आदमी अपनी क़ौम और क़बीले की तरफ़दारी का अलमबरदार बनकर अपनी क़ाबिलियत और जोड़-तोड़ से सरदारी हासिल करने की कोशिश करता, न कि वो बात लेकर उठता जो सिर्फ़ यही नहीं कि तमाम क़ौमी तरफ़दारियों के ख़िलाफ़ एक चैलेंज है, बल्कि सिरे से उस चीज़ की जड़ ही काट देती है जिसपर अरब के मुशरिक लोगों में उसके क़बीले की चौधराहट क़ायम है। ये वो दलील है जिसको क़ुरआन में न सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की, बल्कि आम तौर से तमाम पैग़म्बरों (अलैहि०) की सच्चाई के सुबूत में बार-बार पेश किया गया है। 

तफ़सीलात के लिये देखें कुरआन- 

  • सूरह अनआम (6) 90; 
  • सूरह यूनुस (10): 72 
  • सूरह हूद (11): 29, 51 
  • सूरह यूसुफ़ (12): 104 
  • सूरह फ़ुरक़ान (25): 57 
  • सूरह शुअरा (26): 109, 127, 145, 164, 170, 
  • सूरह सबा (34): 47 
  • सूरह या-सीन (36): 21 
  • सूरह सॉद (38): 86 
  • सूरह शूरा (42): 23 
  • सूरह नज्म (53): 40


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