Masjidein Khali kyun? | Kya bachche masjid ka hissa hai?

Masjidein Khali kyun hain? | Kya bachche bhi masjid ka hissa hain?


मस्जिदें खाली ‌क्यो?

अगर नमाज़ सही न हो तो हमारा तज़किया भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि नमाज़ बुराई से रोकती है।

क़ुरआन में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का इरशाद है-

"अल्लाह फ़रमाता है-तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी तरफ़ वही के ज़रिए से भेजी गई है और नमाज़ क़ायम करो,यक़ीनन नमाज़ बेहयाई और बुरे कामों से रोकती है और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ है। अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो।" [सूरह अनकबूत :45]


मगर मस्जिदे खाली क्यो नज़र आती है?

ख़ाली से मुराद कुछ ही सफे हो पाती है वरना मस्जिद में वीरानापन छाया रहता है।

मस्जिद ए नबवी एक यूनिवर्सिटी की तरह थी। मुसलमान नमाज़ की अदायगी के अलावा इस्लामी तालीमात और हिदायत का दर्स हासिल करते थे। ये मस्जिद आज की मस्जिदों की तरह तो नहीं थी। आज मस्जिद खूबसूरत नज़र आती हैं मगर नौजवान फज्र में नज़र भी नहीं आते।

तुर्की में ज़लज़ले के बाद लोग डर रहे हैं कि कहीं भारत में ऐसा हो गया तो?

लेकिन क़ुरआन में अल्लाह ताला ने आख़िरी ज़लज़ले यानि क़यामत का सबसे बड़ा ज़लज़ले का हमें बता दिया और मौत तो कभी भी आ सकती है वो उम्र या बुढ़ापा देखकर नहीं आती। बालिग़ और बूढ़े का हिसाब भी एक ही तरह होगा।


इस्लाम में मौज-मस्ती की गुंजाइश

हम मल्टीप्लेक्स, माॅल, पार्क, मार्किट में खूब भीड़ देखते हैं।

ज़रुरत के लिए, फ़िज़ूल ख़र्च से बचते हुए, इन जगह पर जाना ग़लत नहीं, वरना तिजारत कैसे होगी?

मगर मल्टीप्लेक्स,

  • वहां लोग क्यो जाते हैं?
  • क्या ऐसे वाहियात क़िस्म की मूवीज़ से एंजायमेट और मौज-मस्ती होती है?
  • क्या ज़िंदगी में कोई सुधार आता है?
  • और क्या जो लोग इससे लुत्फ़ उठाते हैं मर्द हो या औरत वो कुछ देर सोचें, खुद से सवाल करें कि क्या वो अपने घर की बहन, बेटी को इन मूवीज़ या ड्रामा में काम करने की इजाज़त देंगे?

देखते ज़रूर है मगर जानते है कि फाहशी ही फहाशी है।

अगर इसमें कुछ ग़लत नहीं है सिर्फ़ एन्जॉयमेंट के नाम पर सब कुछ देखते हैं तो बताये कि किसी की मौत के बाद सब तसबीहात और क़ुरआन की तरफ़ क्यो आते हैं?

क्योंकि आप जानते हैं कि ये नेक आमाल भी नहीं है। हम अपनी आखिरत खुद बना रहे होते हैं।

अपनी मौत के बाद फिर किससे उम्मीद रखी हुई है?

अपनी ज़िंदगी में हमें अपनी उम्मीदों पर खरा उतरने में कितने मसाइल आते हैं ये सभी जानते हैं जो खुद से कुछ वादे करते होंगे वो कितने पूरे होते हैं तो फिर अपनी मौत के बाद की फ़िक्र छोड़ दें कि कौन आपकी मौत के बाद सवाब पहुंचाता रहेगा। हम अपने लिए कितने आमाल आगे भेज रहे हैं उसके क़बूल होने की दुआ करते रहे यही काफ़ी है।

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का इरशाद है-

"नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो। तुम अपनी मरने के बाद की ज़िन्दगी के लिये जो भलाई कमाकर आगे भेजोगे, अल्लाह के पास उसे मौजूद पाओगे। जो कुछ तुम करते हो, वो सब अल्लाह की नज़र में है।" [सूरह बकराह 110]

और इजांयमेंट की बात करें तो असल जो बात समझनी है वो यही है कि एन्जॉयमेंट ऐसा न हो जिसमें अल्लाह के हुदूद से हम बाहर निकल जाये। खेल-तमाशे इस्लाम में मना नहीं है लेकिन इन खेलों में कोई सट्टेबाज़ी न हो और ये जोखिमभरे न हो। अल्लाह के किसी हुक्म के खिलाफ न जा रहे हो।

  • नबी ﷺ के ज़माने में हबशा का खेल भी मस्जिद में हुआ तो यक़ीनन वो एक दायरे में ही होगा। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सारे खेल मस्जिद में हो।
  • हज़रत याकूब अलैहिस्सलाम एक नबी थे और हज़रत युसूफ को भाईयों के साथ खेलने भी भेज दिया। भाईयों ने जो किया वो कबीरा गुनाह था लेकिन खेलना गुनाह नहीं था।
  • नबी करीम ﷺ ने हज़रत आयशा रज़ि के साथ दौड़ भी लगाई है।


कलिमा ए शहादत के तकाज़े

अल्लाह का फरमान है-

"अल्लाह की मस्जिदों के आबादकार [मुजाविर व ख़ादिम] तो वही लोग हो सकते हैं जो अल्लाह और आख़िरत के दिन को मानें और नमाज़ क़ायम करें, ज़कात दें और अल्लाह के सिवा किसी से न डरें। इन्हीं से ये उम्मीद है कि सीधी राह चलेंगे।" [सूरह तौबा :18]

कलिमा ए शहादत को पढ़कर दिल में उतारनेवाला अल्लाह और आख़िरत को मानता है, अल्लाह के सामने जवाबदेही का भी खौफ रखता है, कि अल्लाह की किताब के इल्म के बाद ही अमल शुरू होगा क्योंकि इल्म वालों को ही मालूम होगा कि किस गुनाह से बचना है ।

ऐसा शख्स पाबंदी के साथ नमाज़ और अपने इलाके में बाजमात नमाज़ क़ायम और ज़कात के लिए लोगों की इसलाह की भी फिक्र करेगा।

क्या ये तकाज़े पूरे हो रहे हैं?


इलाके में गश्त का मक़सद

असल में दीन पहुंचाने का तरीका भी बदला है क्योंकि क़ुरआन ही था जिसके पैगाम ने सख़्त दिल भी पिघला दिये सिवाय उन लोगों के जिनके दिल हसद और बुगज़ में पड़े हुए थे।

हम देखते हैं कि जो लोग गश्त करते हैं, घर-घर जाकर घर के मर्दों को मस्जिद में आने की दावत देते हैं। उनके बुलाने पर न के बराबर लोग पहुंचते हैं, ज़्यादातर लोग उन से बचते हैं। "अल्लाह की पुलिस" कह कर उनका मज़ाक भी उड़ाते हैं या साहब घर पर नहीं है कहलाकर भेज देते हैं। जबकि बार-बार किसी शख्स के घर पर किसी तरह की दावत पर लोग पहुंच ही जाते हैं कि वो नाराज़ न हो जाये।

मगर ऐसा भी नहीं है कि वो लोग जो नमाज़ के लिए नहीं जाते, या कभी नमाज़ नहीं पढ़ते, या सिर्फ़ जुमा की नमाज़ अदा करते हैं, वो कलिमा न जानते हों या उन्होंने क़ुरआन नही पढ़ा हो। और ऐसा भी नहीं कि मुस्लिम फैमिली अपने बच्चों को बचपन में क़ुरआन पढ़ने के लिए न भेजती हो। ज़्यादातर फैमिली अपने बच्चों को बचपन से ही क़ुरआन पढ़ाने भेजती है, क़ुरआन भी हिफ्ज़ कराते हैं। लेकिन फिर भी ज़िंदगी जीने के तरीके उनकी तरह ही होते हैं जो क़ुरआन का एक हर्फ भी नहीं जानते।

गश्त करने वाले दर्स ए क़ुरआन की दावत दे तो शायद सख़्त दिल घर से निकल जाये। शादियों में क़ुरआन के साथ रुखसती की अहमियत बताने की ही दावत दे दें।

अफसोस! अल्लाह के सारे अहकाम की धज्जियां उड़ाकर शादियों में क़ुरआन के साथ रुखसती होती है और ज़्यादातर की नमाज़ क़ज़ा हुई रहती है।


क़ुरआन ख्वानी से सवाब पहुंचेगा?

अफसोस इस बात का है कि किसी के फ़ौत हो जाने के बाद कुछ ख्वातीन और मर्द या मदरसे के लोग मय्यत को सवाब पहुंचाने की नीयत से क़ुरआन पढ़ते हैं।

ज़रा सोचिए जिस इंसान ने अपनी ज़िंदगी में क़ुरआन को पढ़ा और समझा भी न हो, अमल तो बाद की बात है वो क़ुरआन की तिलावत उसको सवाब पहुंचा सकती है? 

क़ुरआन तो ज़िंदा लोगों से खिताब करता है। 

"ऐ लोगो, जो ईमान लाये हो" ये कहा गया ये नहीं कहा कि "ऐ लोगो, जो ईमान लाये थे"

  • जिन लोगों को क़ुरआन बचपन से समझाकर नहीं पढ़ाया गया तो अब आने वाली नस्लों को क्या अरबी नहीं सिखानी चाहिए? 
  • क्या वो ऐसे क़ुरआन पढ़ेंगे कि उन्हें अल्लाह के हुक्म का नहीं पता हो?
  • और जो बड़ी उम्र को पहुंच चुके उनको अब कोशिश नहीं करनी चाहिए?

इससे इंशा अल्लाह फायदा होगा।

अंग्रेज़ी हमारी ज़बान नहीं वो भी सीखने से आ जाती है तो अरबी भी मुश्किल ज़बान नहीं है।

अल्लाह का फरमान है कि, 

"हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम लोग इसे समझो।" [सूरह ज़खरफ: 3]


बच्चे भी मस्जिद का हिस्सा

नमाज़ पढ़ते हुए बच्चों को नमाज़ के बीच में ही सफ़ों में पीछे कर देते हैं और कुछ बच्चे वज़ू करते वक़्त शरारतें करते हैं तो बच्चों को हिकमत और प्यार से समझाना चाहिए कि नमाज़ का शौक़ बना रहे बल्कि लोगों को फ़र्ज़ याद दिलाये कि सात साल से ही बच्चों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने लायें और बच्चियों को घर में आदत डालें।


क़ुरआन पर ग़ौर और फ़िक्र

आप अपने आसपास सभी नमाज़ पढ़ने वालों से नमाज़ का तर्जुमा ही सुन कर देखें। बहुत कम को याद होगा हालांकि वो पाबन्दी से नमाज़ अदा करते होंगे। रोज़ाना की नमाज़ और ‌रमज़ान की तरावीह के बाद भी मुसलमान फिर भी इल्म से ख़ाली रहे।

नमाज़ से खुशु खुज़ुउ गायब है और नमाज़ में वसवसों की ज़्यादती की वजह भी यही है कि हमारी ज़बान से जो अदा हो रहा है उस पर हमारा ध्यान कम होता है। इसके लिए अपनी नमाज़ में जितना भी क़ुरआन पढ़ते हैं, उसका भी तर्जुमा मालूम होना चाहिए।

लोगों से इस मुताललिक बात करते हैं तो उनके जवाब होते हैं कि "किसी इमाम साहब ने ऐसा नहीं बताया सालों से हम मस्जिद में नमाज़ अदा करते हैं। या फलां अमीर साहब के साथ जमात में इतना इतना वक्त लगाया कभी उन्होंने नहीं बताया। क़ुरआन हिफ्ज़ करने वाले नहीं बताते हम तो हर साल तरावीह भी अदा करते हैं। आपको क्या उनसे ज़्यादा इल्म है और ये मुश्किल काम है।" उनके इस तरह के कुछ जवाब होते हैं।

सवाल इस बात का है कि ये सब लोग क्यो नहीं बता रहे?

अगर कभी बताया है तो बार बार बताना चाहिए।

लोग अपने इमाम, मौलाना, अमीर इन सबसे ये उम्मीद रखते हैं कि वो हमें हक़ बताएँगे। इमाम अगर नमाज़ की तिलावत में रो भी पड़ते हैं तो आवाम को क़ुरआन की रुह का अंदाज़ा इससे भी हो जाता है।

क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है :

"हमने अपना पैग़ाम देने के लिये जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की ज़बान में पैग़ाम दिया है, ताकि वो उन्हें अच्छी तरह खोलकर बात समझाए, फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखाता है, वो सब पर ग़ालिब और हिकमतवाला है।" [सूरह इब्राहीम: 4]

उनकी अपनी ज़बान में भेजने का मक़सद यही है कि बात अच्छी तरह वाज़ेह हो जाये। इस आयत की रोशनी में जुमा का खुतबा आम ज़बान में भी होना चाहिए‌ ताकि लोगों को खुतबे से फायदा हासिल हो। और जब क़ुरआन से पहले बाकी ज़ुबान में अल्लाह का पैगाम पहुंचा तो अपनी ज़ुबान में तर्जुमा और कुछ तफसीर पढ़ लेनी चाहिए जब तक अरबी नहीं आती क्योंकि क़ुरआन अल्लाह की आखिरी किताब है। जो भी हमें नहीं मालूम होता वो हम सब पैसा लगा कर भी सीखते हैं तो फिर क़ुरआन के साथ हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?

क्या अल्लाह के सामने कोई बहाना चल सकता है?

अल्लाह ने फ़रमाया है-

"ऐ नबी, हमने इस किताब को तुम्हारी ज़बान में आसान बना दिया है, ताकि ये लोग नसीहत हासिल करें।" [सूरह दुखान :58]

सहाबा किराम को अगर क़ुरआन की ज़ुबान नहीं समझ आती होती तो किस तरह इस्लाम के लिए जान कुर्बान कर सकते थे।एक- एक करके क़ुरआन के अहकाम को ज़िंदगी में उतारते चले गए।

अल्लाह फ़रमाता है-

"और ऐ नबी, इसी तरह हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा है और इसमें तरह-तरह से तंबीहें (चेतावनियाँ) की हैं, शायद कि ये लोग टेढ़े रास्ते पर चलने से बचें या इनमें कुछ होश के आसार इसकी वजह से पैदा हों।" [सूरह ताहा: 113]


दरस ए क़ुरआन में कितने शामिल

कुछ ही मौलाना होंगे जो आवाम को क़ुरआन से जोड़ने की फ़िक्र नहीं करते होंगे क्योंकि वो आवाम को अल्लाह से न जोड़कर खुद से जोड़ते हैं कि कहीं उनकी पैरवी करने वाले कम न हो जाये।

अगर क़ुरआन की तिलावत से सवाब मिलता है तो जो तिलावत ज़िंदगी नहीं तब्दील कर सकती वो आखिरत में सवाब की उम्मीद बांधना कितना सही है?

सवाब तो ईमान और नेक आमाल पर है और नेक आमाल कौन कौन से हैं वो क़ुरआन से ही इल्म होगा।

जो आखिरत पर यक़ीन रखते हैं वो अपने आमाल की फ़िक्र में रहते हैं, वो लापरवाही से ज़िंदगी नहीं गुज़ारते। अगर मुआशरे में अमन नहीं तो इसकी वजह बेअमल, लाइल्म और जाहिल मुसलमान है जो न तो क़ुरआन खुद पढ़ते हैं और न दूसरों को तरग़ीब देते हैं। 

क़ुरआन में बार- बार बशारत उन लोगों को दी गई जो ईमान लाते हैं और नेक अमल करते हैं तो फिर किस बात की देर, नमाज़ तो दिन में पांच वक्त फ़र्ज़ है उसके ही तर्जुमा से शुरू कर दें। नई सूरते समझ कर याद करें और देखते जाये कि उन चंद सूरतों पर कितना अमल हो रहा है वो इल्म दूसरों में भी बांटे।

एक हिन्दी बोलने वाला इंसान जब अंग्रेज़ी बोलता है तब किसी से बात करते हुए भी अपने एक्सेंट (उच्चारण) तक का ख्याल रखता है हमारी कोशिश भी होती है कि सामने वाले को हमारी बातें समझ आये। तो अपनी नमाज़ और तरावीह को समझें।


अज़ान नज़र अंदाज़ क्यों?

नमाज़ के लिए दी जाने वाली पुकार 'अज़ान' फलां यानि कामयाबी की तरफ़ बुलाती है।

आओ नमाज़ की तरफ़
आओ कामयाबी की तरफ़

ग़ौर करें नमाज़ के बाद जिस अल्फ़ाज़ ने जगह ली वो कामयाबी ने ली। क्योंकि इंसान अपने काम धंधे और घर की ज़िम्मेदारियों में नमाज़ छोड़ देता है और अपने कामों को निपटाने में ही अपनी कामयाबी समझता है।

ऐसे शख़्स को सोचना चाहिए कि क्या उसकी मौत के बाद वो शख़्स बिना जनाज़े की नमाज़ के अपना दफीना करवाना चाहेगा?

वो अज़ान कब जागेगी जो उसके कान में तब दी गई जब वो कुछ भी नहीं जानता था।

ये मग़फिरत की नमाज़ एक दुआ होती है वो चाहेगा कि कोई उसके लिए दुआ न करें?

अगर जवाब हां में है तो दिल की सख्ती पर अफ़सोस करें और अगर जवाब नहीं में है तो तौबा करे, आइंदा के लिए अपने आमाल की इसलाह‌ करता रहे।

मान लीजिए आप किसी सफ़र में किसी से रास्ता मालूम करें और वो जानबूझकर वो आपको ग़लत रास्ता बता दें आपको बहुत परेशानी का सामना करना पड़ेगा। दुनिया की ज़िंदगी में आपको ग़लत मशवरे देने वाले से आप बचते हैं तो शैतान खुला दुश्मन है। लेकिन एक मुअज़िन आपको नमाज़ की दावत दे रहा है ताकि दुनिया और आखिरत दोनों संवर जाये।

तौबा अल्लाह की तरफ़ पलटने का नाम है सिर्फ तसबीहात करने से कुछ नहीं होगा तसबीहात अज़म के साथ फायदा देती है इंशा अल्लाह।

नफ़्स का शिर्क ऐसा शिर्क है जिसे पहचानना और बचना ज़रूरी है। हुक्म अल्लाह का मानना था। सीधे रास्ते पर चलना था लेकिन शैतान के दिखाये उलटे रास्ते की तरफ़ चल पड़ते हैं। तो फिर क़ुरआन की तरफ़ कब रूजू कर रहे हैं ,जल्दी करें कहीं बहुत देर न हो‌ जाये।


आपकी दीनी बहन 
तबस्सुम शहज़ाद


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