पैगम्बर की सच्चाई की पहचान कैसे करें? पार्ट-1
अगर कोई शख्स ये दावा करता है कि वो अल्लाह का पैगम्बर है तो हम उस शख्स की पहचान कैसे करें कि क्या वाकई ये शख्स अल्लाह का पैगम्बर है या नहीं? हम उस शख्स के दावे को परखने के लिए किन चीजों की तहकीक करें? हम उस शख्स में वो क्या चीज़ें देखें जिससे हमे वाजेह हो जाए कि ये शख्स वाकई अल्लाह का पैगम्बर है? तो आईए हम जानते है कि कोई भी शख्स अगर अल्लाह का पैगम्बर होने का दावा करता है तो हम उसमे क्या खूबियां देखें?
किसी भी शख्स के अल्लाह का पैगम्बर होने के लिए उसकी हम तीन तरह से पहचान कर सकते है-
- पैगम्बर की ज़िंदगी से पहचान।
- पैगम्बर जिस बात की तरफ लोगों दावत को देता है सबसे पहले उस पर खुद अमल करता है।
- पैगम्बर अपनी दावत और तबलीग का लोगों से कोई बदला नहीं मांगता है।
आज के लेख में हम जानेंगे कि पैगम्बर की ज़िंदगी से हम उसकी सच्चाई की पहचान कैसे कर सकते है?
1. पैगम्बर की ज़िंदगी से उसकी सच्चाई की पहचान।
जो शख्स भी ये दावा करे कि वो अल्लाह का पैगम्बर है तो हम उसकी जिंदगी से उसके दावे की तहकीक कर सकते है। जो शख्स भी अल्लाह का पैगम्बर होगा तो उसकी जिंदगी इस बात का खुला सबूत होगी कि वो अल्लाह का पैगम्बर है।
- अल्लाह का पैगम्बर सच्चा (सादिक) और अमानतदार होगा।
- अल्लाह के पैगम्बर की सच्चाई और अमानतदारी की गवाही खुद उसके दुश्मन भी देते होंगे।
- लोगों ने कभी उस शख्स में कोई कमी नहीं पाई होगी।
- अल्लाह का पैगम्बर अपने दौर के सब लोगों में सबसे बेहतर होगा,
- उसका अखलाक सबसे ज्यादा बुलंद होगा,
- उससे ज्यादा सच्चा कोई नही होगा,
- उससे ज्यादा अमानतदार कोई नहीं होगा,
- उससे ज्यादा लोगों की खैरख्वाही (भलाई) करने वाला कोई नहीं होगा और
- न ही उसने अपनी पूरी जिंदगी में कोई गैर अखलाकी काम किया होगा।
लोग भले ही उसकी दावत पर ईमान न लाएं पर उसकी सीरत (जीवनी) और किरदार (character) पर उन्हे पूरा यकीन होगा। जैसा की अल्लाह ने अपने आखिरी संदेश कुरआन में पैगम्बर नूह (आले०) की अपनी कौम से बात का जिक्र किया है:
"याद करो जबकि उनके भाई नूह ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं हो? *मैं तुम्हारे लिये एक अमानतदार रसूल हूँ।"
[कुरआन 26:106-107]
पैगम्बर नूह (आले०) का यह कहना कि मैं तुम्हारे लिये एक अमानतदार रसूल हूँ। इसके दो मतलब हैं-
- एक ये कि मैं अपनी तरफ़ से कोई बात बनाकर या घटा-बढ़ाकर बयान नहीं करता, बल्कि जो कुछ ख़ुदा की तरफ़ से मुझपर उतरता है वही पूरा का पूरा तुम तक पहुँचा देता हूँ और
- दूसरा मतलब ये है कि मैं एक ऐसा पैग़म्बर हूँ जिसे तुम पहले से एक अमानतदार और सच्चे आदमी की हसियत से जानते हो। जब मैं लोगों के मामले में ख़ियानत करनेवाला नहीं हूँ, तो ख़ुदा के मामले में कैसे ख़ियानत कर सकता हूँ। लिहाज़ा तुम्हें समझना चाहिये कि जो कुछ मैं ख़ुदा की तरफ़ से पेश कर रहा हूँ उसमें भी वैसा ही अमानतदार हूँ जैसा दुनिया के मामलों में आज तक तुमने मुझे अमानतदार पाया है।
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) के अल्लाह की तरफ से सच्चा पैगम्बर होने पर भी अल्लाह ने कुरआन में उनकी सीरत (जीवनी) और किरदार को ही दलील के तौर पर पेश किया है। जैसाकी कुरआन में है कि:
"तो क्या इन लोगों ने कभी इस कलाम पर ग़ौर नहीं किया? या वो कोई ऐसी बात लाया है जो कभी उनके बाप-दादा के पास न आई थी? या ये अपने रसूल से कभी के वाक़िफ़ न थे कि (अनजाना आदमी होने के सबब) उससे बिदकते हैं?"
[कुरआन 23:68-69]
यानी क्या लोगों के इनकार की वजह ये है कि एक बिलकुल अजनबी आदमी, जिसे ये कभी जानते न थे, अचानक इनके बीच आ खड़ा हुआ है और कहता है कि मेरी बातें मान लो और मेरी पैरवी करो। ज़ाहिर है कि ये बात भी नहीं है। जो शख़्स ये दावत पेश कर रहा है वो इनकी अपनी बिरादरी का आदमी है। उसकी ख़ानदानी शराफ़त इनसे छिपी नहीं है। उसकी निजी ज़िन्दगी इनसे छिपी हुई नहीं है। बचपन से जवानी और जवानी बुढ़ापे की सरहद तक वो इनके सामने पहुँचा है। उसकी सच्चाई से, उसकी हक़परस्ती से, उसकी दयानतदारी से, उसकी बेदाग़ सीरत से ये ख़ूब वाक़िफ़ हैं। उसको ख़ुद अमीन कहते रहे हैं। उसकी दयानत पर इनकी सारी बिरादरी भरोसा करती रही है। उसके बदतरीन दुश्मन तक ये मानते हैं कि वो कभी झूठ नहीं बोला है। उसकी पूरी जवानी पाकीज़गी और पाकदामनी के साथ गुज़री है। सबको मालूम है कि वो बहुत ही शरीफ़ और बहुत ही नेक आदमी है। नर्म दिल है। हक़-पसन्द है। अमन-पसन्द है। झगड़ों से दूर रहता है। मामले में खरा है। क़ौलो-क़रार (वादे) का पक्का है। ज़ुल्म न ख़ुद करता है, न ज़ालिमों का साथ देता है। किसी हक़दार का हक़ अदा करने में उसने कोताही नहीं की है। हर मुसीबत के मारे, बेकस और ज़रूरतमंद के लिये उसका दरवाज़ा एक रहमो-करम करनेवाले हमदर्द का दरवाज़ा है।
फिर वो ये भी जानते हैं कि पैग़म्बरी के दावे से एक दिन पहले तक भी किसी ने उसकी ज़बान से कोई ऐसी बात न सुनी थी जिससे शक किया जा सकता हो कि पैग़म्बरी के किसी दावे की तैयारियाँ की जा रही हैं। और जिस दिन उसने दावा किया उसके बाद से आज तक वो एक ही बात कहता रहा है। कोई पलटी उसने नहीं खाई है। कोई रद्दो-बदल अपने दावे और दावत में उसने नहीं किया है। कोई दर्जा-ब-दर्जा तरक़्क़ी उसके दावों में नज़र नहीं आती कि कोई ये गुमान कर सके कि आहिस्ता-आहिस्ता क़दम जमाकर दावों की घाटी में क़दम बढ़ाए जा रहे हैं। फिर उसकी ज़िन्दगी इस बात पर भी गवाह है कि जो कुछ उसने दूसरों से कहा है वो पहले ख़ुद करके दिखाया है। उसके कहने और करने में कोई टकराव नहीं है। उसके पास हाथी के दाँत नहीं हैं कि दिखाने के और हों और चबाने के और। वो देने के बाट अलग और लेने के अलग नहीं रखता। ऐसे जाने-बूझे और जाँचे-परखे आदमी के बारे में वो ये नहीं कह सकते कि साहब दूध का जला छाछ को फूँक-फूँक कर पीता है, बड़े-बड़े धोखेबाज़ आते हैं और दिल मोह लेनेवाली बातें करके पहले-पहले भरोसा जमा लेते हैं, बाद में मालूम होता है कि सब सिर्फ़ धोखा ही धोखा था, ये साहब भी क्या पता असल में क्या हों और बनावटी मुखौटा उतरने के बाद क्या कुछ इनके अन्दर से निकल आए, इसलिये इनको मानते हुए हमारा तो माथा ठनकता है। इसलिए ही अल्लाह ने पैगम्बर की सीरत को लोगों के सामने ऐसा रखा की कोई भी हक पसंद शख्स पैगम्बर की सीरत और किरदार पर गौर ओ फिक्र करके उन पर ईमान ले आएगा।
पैगम्बर यूसुफ (आले०) के अल्लाह की तरफ से सच्चा पैगम्बर होने पर भी अल्लाह ने कुरआन में उनकी सीरत (जीवनी) और किरदार को ही दलील के तौर पर पेश किया है। जैसाकी पैगम्बर यूसुफ (आले०) की अपने रब से दुआ का जिक्र अल्लाह ने कुरआन में किया है:
ऐ मेरे रब! "तूने मुझे हुकूमत दी और मुझको बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। ज़मीन और आसमान के बनानेवाले, तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा सरपरस्त है। मेरा ख़ातिमा इस्लाम पर कर और आख़िरी अंजाम के तौर पर मुझे नेक लोगों के साथ मिला।”
[कुरआन 12:101]
ये कुछ जुमले जो इस मौक़े पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की ज़बान से निकले हैं, हमारे सामने एक सच्चे ईमानवाले की सीरत और किरदार का अजीब दिलकश नक़शा पेश करते हैं। रेगिस्तानी चरवाहों के ख़ानदान का एक आदमी, जिसको ख़ुद उसके भाइयों ने हसद और जलन के मारे मार डालना चाहा था, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव देखता हुआ आख़िरकार दुनियावी तरक़्क़ी के सबसे बुलन्द मक़ाम पर पहुँच गया है। क़हत और सूखे के शिकार उसके ख़ानदानवाले अब उसके मुहताज होकर उसके सामने आए हैं और हसद रखनेवाले उसके भाई भी, जो उसको मार डालना चाहते थे, उसके शाही तख़्त के सामने सिर झुकाए खड़े हैं। ये मौक़ा दुनिया के आम दस्तूर के मुताबिक़ अपनी बड़ाई जताने, डींगें मारने, गिले और शिकवो करने, और बुरा-भला कहने और तानों के तीर बरसाने का था। मगर एक सच्चा ख़ुदापरस्त इन्सान इस मौक़े पर कुछ दूसरे ही अख़लाक़ को ज़ाहिर करता है। वो अपनी इस तरक़्क़ी पर घमंड करने के बजाए उस ख़ुदा के एहसान को तस्लीम करता है जिसने उसे ये रुतबा दिया। वो ख़ानदानवालों को उस ज़ुल्म-सितम पर कुछ भी बुरा-भला नहीं कहता जो शुरू की उम्र में उन्होंने उसपर किये थे। इसके बरख़िलाफ़ वो इस बात पर शुक्र अदा करता है कि ख़ुदा ने इतने दिनों की जुदाई के बाद उन लोगों को मुझसे मिलाया। वो हसद रखनेवाले भाइयों के ख़िलाफ़ शिकायत का एक लफ़्ज़ ज़बान से नहीं निकालता। यहाँ तक कि ये भी नहीं कहता कि उन्होंने मेरे साथ बुराई की थी, बल्कि उनकी सफ़ाई ख़ुद ही इस तरह पेश करता है कि शैतान ने मेरे और उनके दरमियान बुराई डाल दी थी। और फिर उस बुराई के भी बुरे पहलू को छोड़कर उसका ये अच्छा पहलू पेश करता है कि ख़ुदा जिस मक़ाम पर मुझे पहुँचाना चाहता था उसके लिये ये अच्छी और ख़ामोश तदबीर उसने की, यानी भाइयों से शैतान ने जो कुछ कराया उसी में अल्लाह की हिकमत के मुताबिक़ मेरे लिये भलाई थी। कुछ अलफ़ाज़ में ये सब कुछ कह जाने के बाद वो बे-इख़्तियार अपने ख़ुदा के आगे झुक जाता है, उसका शुक्र अदा करता है कि तूने मुझे बादशाही दी और वो क़ाबिलियतें दीं जिनकी बदौलत मैं जेल में सड़ने के बजाए आज दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत पर हुकूमत कर रहा हूँ। और आख़िर में ख़ुदा से कुछ माँगता है तो ये कि दुनिया में जब तक ज़िंदा रहूँ तेरी बंदगी और ग़ुलामी पर जमा रहूँ और जब इस दुनिया से जाऊँ तो मुझे नेक बन्दों के साथ मिला दिया जाए। कितना बुलन्द और कितना पाकीज़ा है ये सीरत और किरदार का नमूना!
੦ पैगम्बर की सच्चाई को पहचानने के लिए हमेशा से लोगों का मे'यार (criteria) गलत रहा है।
लोगों ने हमेशा से पैगम्बर की सीरत (जीवनी) और किरदार (character) को छोड़कर पैगम्बर की सच्चाई का फैसला अपने बनाए हुए मैयार पर करना चाहा। जैसाकी अल्लाह ने पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) से लोगों के मुतालवे का कुरआन में जिक्र किया है:
ये लोग, जिन्होंने तुम्हारी बात मानने से इनकार कर दिया है, कहते हैं कि “इस आदमी पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतरी?” तुम तो सिर्फ़ ख़बरदार कर देनेवाले हो, और हर क़ौम के लिये एक रहनुमा है।
[कुरआन 13:7]
निशानी से लोगों की मुराद ऐसी निशानी थी जिसे देखकर उनको यक़ीन आ जाए कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं। वो आप (सल्ल०) की बात को उसके हक़ होने की दलीलों से समझने के लिये तैयार न थे। वो आप (सल्ल०) की पाक सीरत (पवित्र जीवनी) से सबक़ लेने के लिये तैयार न थे। उस ज़बरदस्त अख़लाक़ी इंक़िलाब से भी कोई नतीजा निकालने के लिये तैयार न थे जो आप (सल्ल०) की तालीम के असर से आप (सल्ल०) के सहाबा (साथियों) की ज़िन्दगियों में ज़ाहिर हो रहा था। वो उन मुनासिब और अक़्ल की कसौटी पर खरी उतरनेवाली दलीलों पर भी ग़ौर करने के लिये तैयार न थे जो उनके शिर्क से भरे मज़हब और उनके जाहिलाना अन्धविश्वासों की ग़लतियाँ वाज़ेह करने के लिये क़ुरआन में पेश की जा रही थीं। इन सब चीज़ों को छोड़कर वो चाहते थे कि उन्हें कोई करिश्मा दिखाया जाए जिसकी कसौटी पर वो मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत को जाँच सकें।
੦ तुम तो सिर्फ़ ख़बरदार कर देनेवाले हो, और हर क़ौम के लिये एक रहनुमा है।
ये लोगों की माँग का मुख़्तसर-सा जवाब है जो सीधे तौर पर उनको देने के बजाए अल्लाह ने अपने पैग़म्बर (सल्ल०) को मुख़ातब करके दिया है। इसका मतलब ये है कि ऐ नबी, तुम इस फ़िक्र में न पड़ो कि इन लोगों को मुत्मइन करने के लिये आख़िर कौन-सा करिश्मा दिखाया जाए। तुम्हारा काम हर एक को मुत्मइन कर देना नहीं है। तुम्हारा काम तो सिर्फ़ ये है कि ग़फ़लत की नींद में सोए हुए लोगों को चौंका दो और उनको ग़लत रास्ते पर चलने के बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दो। ये ख़िदमत हमने हर ज़माने में, हर क़ौम में, एक न एक रहनुमा भेजकर ली है। अब तुमसे यही ख़िदमत ले रहे हैं। इसके बाद जिसका जी चाहे आँखें खोले और जिसका जी चाहे ग़फ़लत में पड़ा रहे।
੦ सच्चे पैगम्बर को झुठलाना अल्लाह को झुठलाना है।
ऐ नबी! "हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग बनाते हैं उनसे तुम्हें रंज होता है, लेकिन ये लोग तुम्हें नहीं झुठलाते बल्कि ये ज़ालिम असल में अल्लाह की आयतों का इनकार कर रहे हैं।"
[कुरआन 6:33]
सच्ची बात ये है कि जब तक मुहम्मद (सल्ल०) ने अल्लाह की आयतें सुनानी शुरू न की थीं, आपकी क़ौम के सब लोग आपको अमीन और सादिक़ (अमानतदार और सच्चा) समझते थे और आपकी सच्चाई पर पूरा भरोसा करते थे। उन्होंने आपको झुठलाया उस वक़्त जबकि आपने अल्लाह की तरफ़ से पैग़ाम पहुँचाना शुरू किया। और इस दूसरे दौर में भी उनके अन्दर कोई शख़्स ऐसा न था जो शख़्सी हैसियत से आपको झूठा क़रार देने की जुर्रत कर सकता हो।
आप (सल्ल०) के किसी सख़्त से सख़्त मुख़ालिफ़ ने भी कभी आप (सल्ल०) पर ये इलज़ाम नहीं लगाया कि आपने दुनिया के किसी मामले में कभी झूठ बोला है। उन्होंने जितना आप (सल्ल०) को झुठलाया वो सिर्फ़ नबी होने की हैसियत से झुठलाया। आपका सबसे बड़ा दुश्मन अबू-जहल था।
हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत है कि, "एक बार उसने ख़ुद नबी (सल्ल०) से बातचीत करते हुए कहा था कि हम आपको तो झूठा नहीं कहते, मगर जो कुछ आप पेश कर रहे हैं उसे झूठ कहते हैं।"
बद्र की लड़ाई के मौक़े पर अख़नस-बिन-शरीक ने अकेले में अबू-जहल से पूछा कि, "यहाँ मेरे और तुम्हारे सिवा कोई तीसरा मौजूद नहीं है, सच बताओ कि मुहम्मद (सल्ल०) को तुम सच्चा समझते हो या झूठा?
उसने जवाब दिया कि, "ख़ुदा की क़सम मुहम्मद एक सच्चा आदमी है, उम्र भर कभी झूठ नहीं बोला, मगर जब झण्डा उठाना, पानी पिलाना, काबा की निगरानी और नुबूवत सब कुछ बनी-क़ुसई ही के हिस्से में आ जाए तो बताओ बाक़ी सारे क़ुरैश के पास क्या रह गया?"
इसी वजह से यहाँ अल्लाह अपने नबी को तसल्ली दे रहा है कि असल में झुठलाया तुमको नहीं, बल्कि हमें जा रहा है। और जब हम सब्र और बर्दाश्त के साथ इसे सहन किए जा रहे हैं और ढील पर ढील दिए जाते हैं तो तुम क्यों बेचैन होते हो।
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