मौत के बाद की ज़िंदगी पर इंसान के अख़लाक़ से दलील
अल्लाह ने कुरआन में मौत के बाद की ज़िंदगी पर इंसान के अखलाक से कुछ यूं दलील दी है कि:
"क्या वो लोग, जिन्होंने बुरे काम किये हैं, ये समझे बैठे हैं कि हम उन्हें और ईमान लानेवालों और अच्छा काम करनेवालों को एक जैसा कर देंगे कि उनका जीना-मरना यकसाँ (एक सामान) हो जाए? बहुत बुरे हुक्म हैं जो ये लोग लगाते हैं।"
[कुरआन 45:21]
ये आख़िरत (मौत के बाद की ज़िंदगी) के सच होने पर एक अख़लाक़ी दलील है। अख़लाक़ में भलाई और बुराई और आमाल में नेकी और बदी के फ़र्क़ का लाज़िमी तक़ाज़ा ये है कि अच्छे और बुरे लोगों का अंजाम एक जैसा न हो, बल्कि अच्छों को उनकी अच्छाई का अच्छा बदला मिले और बुरे अपनी बुराई का बुरा बदला पाएँ। ये बात अगर न हो और नेकी और बदी का नतीजा एक ही जैसा हो तो सिरे से अख़लाक़ में ख़ूबी और ख़राबी का फ़र्क़ ही बेमतलब हो जाता है और ख़ुदा पर बेइंसाफ़ी का इलज़ाम लगता है।
जो लोग दुनिया में बुराई की राह चलते हैं, वे तो ज़रूर ये चाहते हैं कि कोई इनाम और सज़ा न हो, क्योंकि ये ख़याल ही उनके ऐश में ख़लल डालनेवाला है। लेकिन सारे जहानों के रब की हिकमत और उसके इन्साफ़ से ये बात बिलकुल परे है कि वो अच्छे और बुरे दोनों से एक जैसा मामला करे और कुछ न देखे कि नेक ईमानवाले ने दुनिया में किस तरह ज़िन्दगी गुज़ारी है और ख़ुदा को न माननेवाला और उसका नाफ़रमान यहाँ क्या गुल खिलाता रहा है।
✅ एक शख़्स उम्र भर अपने ऊपर अख़लाक़ की पाबन्दियाँ लगाए रहा, हक़वालों के हक़ अदा करता रहा, नाजायज़ फ़ायदों और लज़्ज़तों से अपने आपको महरूम किये रहा और हक़ और सच्चाई की ख़ातिर तरह-तरह के नुक़सान बरदाश्त करता रहा।
❎ दूसरे शख़्स ने अपनी ख़ाहिशें हर मुमकिन तरीक़े से पूरी कीं, न ख़ुदा का हक़ पहचाना और न बन्दों के हक़ मानने से बाज़ आया। जिस तरह से भी अपने लिये फ़ायदे और मज़े समेट सकता था, समेटता चला गया।
क्या ख़ुदा से ये उम्मीद की जा सकती है कि इन दोनों तरह के आदमियों की ज़िन्दगी के इस फ़र्क़ को वो नज़रअन्दाज़ कर देगा? मरते दम तक जिनका जीना एक जैसा नहीं रहा है, मौत के बाद अगर उनका अंजाम एक जैसा हो तो ख़ुदा की ख़ुदाई में इससे बढ़कर और क्या बेइंसाफ़ी हो सकती है?
अल्लाह ने इंसान के अखलाक से दलील देने के बाद फिर फरमाया:
"अल्लाह ने तो आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है और इसलिये किया है कि हर जानदार को उसकी कमाई का बदला दिया जाए। लोगों पर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।"
[कुरआन 45:22]
यानी अल्लाह ने ज़मीन और आसमान को खेल के तौर पर नहीं बनाया है, बल्कि ये एक बामक़सद हिकमत भरा निज़ाम है। इस निज़ाम में इस बात के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता कि अल्लाह के दिए अधिकारों और ज़राए-वसायल (साधन-संसाधनों) को सही तरीक़े से इस्तेमाल करके जिन लोगों ने अच्छा कारनामा अंजाम दिया हो और उन्हें ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करके जिन दूसरे लोगों ने ज़ुल्म और बिगाड़ पैदा किया हो, ये दोनों तरह के इन्सान आख़िरकार मरकर मिटटी हो जाएँ और उस मौत के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी न हो जिसमें इन्साफ़ के मुताबिक़ उनके अच्छे और बुरे आमाल का कोई अच्छा या बुरा नतीजा निकले। अगर ऐसा हो तो ये कायनात एक खिलंडरे का खिलौना होगी न कि एक हिकमतवाले (तत्वदर्शी) का बनाया हुआ बामक़सद निज़ाम।
इस मौक़ा-महल में अल्लाह का यह कहना कि "लोगों पर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।" का साफ़ मतलब ये है कि अगर नेक इन्सानों को उनकी नेकी का इनाम न मिले और ज़ालिमों को उनके ज़ुल्म की सज़ा न दी जाए और मज़लूमों की कभी फ़रियाद न सुनी जाए तो ये ज़ुल्म होगा। ख़ुदा की ख़ुदाई में ऐसा ज़ुल्म हरगिज़ नहीं हो सकता। इसी तरह ख़ुदा के यहाँ ज़ुल्म की ये दूसरी सूरत भी कभी ज़ाहिर नहीं हो सकती कि किसी नेक इन्सान को उसके हक़ से कम इनाम दिया जाए, या किसी बुरे इन्सान को उसके हक़ से ज़्यादा सज़ा दे दी जाए।
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