Kya Akhirat Ka Hona Akal Aur Insaf Ka Takaza hai?

Kya Akhirat Ka Hona Akal Aur Insaf Ka Takaza hai?


आख़िरत - अकल और इंसाफ का तकाज़ा


आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) का होना इसलिए जरूरी है ताकि अल्लाह नेक इंसान को उसकी नेकी का बदला दे और बुराई करने वाले को उसकी बुराई का बदला दे। अगर हम आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) को नहीं मानते तो इसका नतीजा यही निकलता है कि इस दुनिया में नेकी और बुराई करने का कोई फायदा ही नहीं क्योंकि मरने के बाद नेकी और बुराई करने वाले का अंजाम एक जैसा ही हो जायेगा। यानी जब दोनो को (नेकी करने वाले और बुराई करने वाले को) मरकर मिट्टी में ही मिलना है तो जुल्म हो जाएगा और हमारा रब कभी ये ज़ुल्म नहीं कर सकता कि नेक इन्सान की नेकी बरबाद कर दे और बुराई करनेवालों को उनकी बुराई का बदला न दे। इसी बात को अल्लाह ने कुरआन में आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) के जरूरी होने की दलील के तौर पर बयान किया है:-


مَنۡ عَمِلَ صَالِحًا فَلِنَفۡسِہٖ وَ مَنۡ اَسَآءَ فَعَلَیۡہَا ؕ وَ مَا رَبُّکَ بِظَلَّامٍ لِّلۡعَبِیۡدِ

"जो कोई नेक अमल करेगा अपने ही लिये अच्छा करेगा, जो बदी (बुरा काम) करेगा, उसका वबाल उसी पर होगा और तेरा रब अपने बन्दों के हक़ में ज़ालिम नहीं है।"

[कुरआन 41:46]


لِّیَجۡزِیَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَ عَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ؕ اُولٰٓئِکَ لَہُمۡ مَّغۡفِرَۃٌ وَّ رِزۡقٌ کَرِیۡمٌ

"और ये क़ियामत इसलिये आएगी कि बदला दे अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और भले काम करते रहे हैं। उनके लिये माफ़ी है और इज़्ज़त की रोज़ी।"

[कुरआन 34:4]


ये आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) के ज़रूरी होने की दलील है। मतलब ये है कि ऐसा वक़्त ज़रूर आना ही चाहिये जब ज़ालिमों को उनके ज़ुल्म का और नेक लोगों को उनकी नेकी का बदला दिया जाए। अक़ल ये चाहती है और इन्साफ़ ये तक़ाज़ा करता है कि जो नेकी करे उसे इनाम मिले और जो बुरा काम करे, वो सज़ा पाए। 

अब अगर तुम देखते हो कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में न हर बुरे को उसकी बुराई का और न हर नेक को उसकी नेकी का पूरा बदला मिलता है, बल्कि बहुत बार तो बुराई और भलाई के उलटे नतीजे भी निकल आते हैं, तो तुम्हें मानना चाहिये कि अक़ल और इन्साफ़ का ये लाज़िमी तक़ाज़ा किसी वक़्त ज़रूर पूरा होना चाहिये। क़ियामत और आख़िरत उसी वक़्त का नाम है। उसका आना नहीं, बल्कि न आना अक़ल के ख़िलाफ़ और इन्साफ़ के बरख़िलाफ़ है। और इसी बात को कुरआन की सूरह यूनुस आयत 4 में कहा गया है:-


اِلَیۡہِ مَرۡجِعُکُمۡ جَمِیۡعًا ؕ وَعۡدَ اللّٰہِ حَقًّا ؕ اِنَّہٗ یَبۡدَؤُا الۡخَلۡقَ ثُمَّ یُعِیۡدُہٗ لِیَجۡزِیَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَ عَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ بِالۡقِسۡطِ ؕ وَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا لَہُمۡ شَرَابٌ مِّنۡ حَمِیۡمٍ وَّ عَذَابٌ اَلِیۡمٌۢ بِمَا کَانُوۡا یَکۡفُرُوۡنَ 

"उसी की तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है। ये अल्लाह का पक्का वादा है। बेशक पैदाइश की शुरूआत वही करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा, ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किये उनको पूरे इन्साफ़ के साथ बदला दे और जिन्होंने इनकार का तरीक़ा अपनाया, वो खौलता हुआ पानी पिएँ और दर्दनाक सज़ा भुगतें उस हक़ के इनकार के बदले में जो वो करते रहे।"

[कुरआन 10:4]


यहां अल्लाह की तरफ से आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) के होने का दावा और दलील दोनों मौजूद हैं। दावा ये है कि ख़ुदा दोबारा इन्सान को पैदा करेगा और इसपर दलील ये दी गई है कि उसी ने पहली बार इंसान को पैदा किया। जो शख़्स ये मानता हो कि ख़ुदा ने पैदाइश की शुरूआत की है (और इससे सिवाए उन नास्तिकों के और कौन इनकार कर सकता है, जो सिर्फ़ पादरियों के मज़हब से भागने के लिये ऐसे बेवक़ूफ़ी भरे नज़रिए को ओढ़ने पर आमादा हो गए कि ख़ल्क़ –(सृष्टि)- तो है, मगर उसका पैदा करनेवाला कोई नहीं है।) वो इस बात को नामुमकिन या समझ से परे नहीं ठहरा सकता कि वही ख़ुदा इसे दोबारा पैदा करेगा।

अल्लाह आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) के होने पर दलील देने के बाद आख़िरत की जरूरत को बता रहा है कि:-

"जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किये उनको पूरे इन्साफ़ के साथ बदला दे और जिन्होंने इनकार का तरीक़ा अपनाया, वो खौलता हुआ पानी पिएँ और दर्दनाक सज़ा भुगतें उस हक़ के इनकार के बदले में जो वो करते रहे।"


ये वो ज़रूरत है जिसकी बिना पर अल्लाह इंसान को दोबारा पैदा करेगा। ऊपर जो दलील दी गई वो ये बात साबित करने के लिये काफ़ी थी कि दोबारा पैदा करना मुमकिन है और उसे नामुमकिन समझना ठीक नहीं है। अब ये बताया जा रहा है कि ये दोबारा पैदाइश अक़्ल व इंसाफ़ के लिहाज़ से ज़रूरी है और ये ज़रूरत दोबारा पैदाइश के सिवा किसी दूसरे तरीक़े से पूरी नहीं हो सकती। 

ख़ुदा को अपना एक अकेला रब बनाकर जो लोग सही बन्दगी का रवैया अपनाएँ वो इसके हक़दार हैं कि उन्हें अपने इस सही रवैये का पूरा-पूरा इनाम मिले। और जो लोग हक़ीक़त से इनकार करके इसके ख़िलाफ़ ज़िन्दगी गुज़ारें वो भी इसके हक़दार हैं कि वो अपने इस ग़लत रवैये का बुरा नतीजा देखें। ये ज़रूरत अगर मौजूदा दुनियावी ज़िन्दगी में पूरी नहीं हो रही है (और हर शख़्स जो हठधर्म नहीं है, जानता है कि नहीं हो रही है) तो उसे पूरा करने के लिये यक़ीनी तौर पर दोबारा ज़िन्दगी मिलना ज़रूरी है।


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