Kya Islam (Quran) Logon Ko Marne Ka Hukum Deta Hai?

क्या क़ुरआन तमाम गैर मुस्लिमों को मार देने का हुक्म देता है?

Kya Islam Logon Ko Marne Ka Hukum Deta Hai?


"जब हुरमत वाले महीने गुज़र जाएं तो तुम उन मुशरिकों को जहां पाओ, क़त्ल करो, उन्हें पकड़ो, घेरो और हर घाट की जगह उनकी ताक में बैठो फिर अगर यह तोबा कर ले, नमाज कायम करें, जकात अदा करें तो उनका रास्ता छोड़ दो, बेशक अल्लाह तआला माफ करने वाले मेहरबान हैं।" [सूरह तौबा:5]


आजकल इस आयत को लेकर फिर से बहस और प्रोपेगैंडा का बाज़ार गर्म किया जा रहा है।

हम इस आयत की मुख़्तसर वज़ाहत पेश करते हैं ताकि सबको समझने, समझाने में आसानी हो।

इस आयत के मजमून में गौर करने ही से जाहिर है कि यह उन मक्का वालों के बारे में है जो हराम महीनों का अनादर करते थे, जो बहुत से मुसलमानों के कातिल थे, बहुत से रिफ्यूजी के रिश्तेदारों को उन्होंने रोक रखा था, जहां कहीं कोई मुसलमान उनके हत्थे चढ़ जाता था उसे गिरफ्तार कर लेते थे और उसे कत्ल करके या कातिलों के हाथ बेच कर ही दम लेते थे।

हजरत खुबैब का वाक़्या बहुत मशहूर है जिन्हें गिरफ्तार करके मक्का वालों के हाथों बेच दिया गया और उन्होंने बद्र की लड़ाई में मारे जाने वाले अपने वरिसों के बदले निहायत बेदर्दी और क्रूरता के साथ उन्हें मार दिया, उन्हीं मुशरिकों के बारे में फरमाया गया कि तुम भी उनसे, उनके जुल्मों का बदला ले सकते हो।

इस आयत से पहले और उसके बाद जो आयतें आ रही हैं अगर उन्हें पढ़ लिया जाए तो साफ मालूम होता है कि उससे मुशरिकों का एक खास वर्ग मुराद है न कि तमाम गैर मुस्लिम लोग ; चुनांचे आगे की आयत में अल्लाह तआला फरमाते हैं:


"क्या तुम ऐसे लोगों से जंग नहीं करोगे, जिन्होंने अपने संधि को तोड़ दिया, रसूल को तड़ीपार करने की ठान ली, और उन्होंने तुम्हारे मुकाबले में खुद ही पहल की है, क्या तुम लोग उनसे डरते हो, अल्लाह तआला ज्यादा इस लायक है कि तुम उनसे डरो, अगर तुम ईमान लाने वाले हो। [सूरह तौबा:13]


इस आयत में बात बिल्कुल साफ कर दी कि पहले जिन मुशरिको से जंग का हुक्म दिया गया है, यह वह लोग हैं जिन्होंने मुसलमानों के साथ संधि को तोड़ा, मुसलमानों को वतन से बे-वतन किया और नुकसान पहुंचाने और हमला करने में पहल की, सूरह तौबा की इस दूसरी आयत (आयत नंबर 13) ने इस बात को साफ कर दिया कि कुरान में जवाबी कार्रवाई और डिफेंस में मुशरिकों से कित्ताल की बात कही है, क्योंकि पहल उन्हीं की तरफ से थी, यह आयत और आगे आने वाली आयत भी दरअसल मक्का कि फतह से पहले उतरी है, मक्का के मुशरिकों ने इन आयतो के नाजिल होने से पहले तो मुसलमानों को उनके वतन 'मक्का' से निकाला, फिर तीन जंगे उन पर थोपी, हिजरत के पहले साल बदर की लड़ाई, दूसरे साल उहद की लड़ाई और पांचवे साल खंदक और अहज़ाब की लड़ाई का मकसद ही था कि मुसलमानों को मदीने से भी उजाड़ दिया जाए, फिर छठे साल मक्का वालों ही की शर्तों पर हुदैबिया शांति समझौता हुआ, और एक डेढ़ साल की अंदर उन्होंने उस शांति समझौते की भी धज्जियां उड़ा दी, अब बताइए के ऐसे लोगों के खिलाफ अगर कार्रवाई की दावत ना दी जाए तो क्या उनके रास्ते में फूलों की सेज बिछाने को कहा जाए।

लेकिन जो लोग मुसलमानों से नहीं लड़ते और उनके साथ अच्छे से रहते हैं उनके बारे में क़ुरआन में अल्लाह तआला का फरमान है कि,


"अल्लाह तुम्हें इस बात से मना नहीं करता के जिन लोगों ने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला, उनके साथ तुम कोई नेकी का, या इंसाफ का मामला करो, बेशक अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। [सूरह:60 आयत:8]


इसी बुनियाद पर अहादीस का ज़खीरा और इस्लामी फ़िक़्ह और तारीख की किताबें गैर मुस्लिम लोगों के साथ, न सिर्फ रवादारी; बल्कि हुस्ने सुलूक , नेक बर्ताव और बराबर के ह्यूमन राइट्स की ताकीद और प्रोत्साहन से भरी हुई हैं।


तफसील के लिए देखिये: इस्लाम और सियासी नज़रियात, 24 आयतें


आपका दीनी भाई
सलाम सिद्दीकी


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