Islam Mein Virasat Ki Taqseem - Teen Sabak Aamoz Kahaniyan

Islam Mein Virasat Ki Taqseem - Teen Sabak Aamoz Kahaniyan


क़ुरान पर अमल - विरासत की तक़सीम


विरासत अल्लाह की हदों में से एक हद है। इसे अल्लाह ताला ने खुद ही मुकर्रर फरमाया है। विरासत की तकसीम और इसके उसूल खुद अल्लाह ताला ने बयान कर दिया है। इसे किसी इंसान की मर्ज़ी और सलाह पर नहीं छोड़ा। 

उसने अपनी हिकमत और अद्ल का इस्तेमाल करते हुए विरासत के बारे में वसीह (व्यापक) अहकाम दिए हैं। निसाब (कम से कम मुक़र्रर तादाद) और हदें मुक़र्रर की गई हैं। वारिस मुत'अय्यन (मुक़र्रर) कर दिए हैं। 


Table Of Content 
  1. ज़ेवरात की तकसीम
  2. विरासत को लेकर एक माँ के दिल में अल्लाह का खौफ
  3. बर-वक्त ज़ायदाद का तक़सीम करना


हमने अपने दरस ए कुरान आयतों में विरासत की आयतों की वजा़हत की है ताकि हम सभी इन आयतों के मुताबिक़ चलें और उन्हें अपने ऊपर लागू करें। दरस के बाद, मुत्तफ़िक़ा तौर पर (एक साथ) ये तय पाया के विरासत की सभी आयतों पर अमल किया जाना चाहिए, जिनका आगाज़ इस आयत से होता है:


 یُوۡصِیۡکُمُ اللّٰہُ فِیۡۤ اَوۡلَادِکُمۡ ٭ لِلذَّکَرِ مِثۡلُ حَظِّ الۡاُنۡثَیَیۡنِ

"तुम्हारी औलाद के बारे में अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि – मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।" [कुरान 4:11] 


1. ज़ेवरात की तकसीम 


एक खातून मेरे पास आई और मुझसे कहा: "मेरी वालिदाह फौत (मर गईं) हो गई और उसके वारिस हम दो भाई-बहन थे। मैंने अपनी माँ का सारा सोना ले लिया। जैसा कि हमारे देश (पाकिस्तान) में दस्तूर है। बेटे जमीन लेते हैं, बहनों को नहीं देते ताकि कोई और हमारी पुश्तैनी जमीन का हिस्सा न बन सके। बेटियां सोना और जेवरात लेती हैं ताकि कोई गैर औरत इन गहनों को न पहन सके और केवल मरहूमा की बेटियां ही उन्हें इस्तेमाल करें। मेरी मां को फौत हुए कई साल हो गए हैं, मेरे पास अभी भी सोना है। मेरे भाई ने उसमें से कुछ नहीं लिया, न मैंने उसे दिया, और न मेरे भाई ने मुझ से मांगा। अब मैं विरासत की आयातों पर अमल करना चाहती हूं। मुझे बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए? 

मेरी मां और मेरी भाभी के दरमियान तकरार रहती थी। इसलिए मैं अपनी भाभी को देखना भी नहीं चाहती। मैं उसे अपनी मरहूमा मां के गहने पहने हुए क्यों देखूं? मेरी मरहूमा माँ जिसे उस भाभी ने सताया और उनसे दूर रही।" 

मैंने कहा: "मेरी प्यारी बहन! विरासत तो दरअसल अल्लाह की मिल्कियत है और अल्लाह ने हमें इसका नाइब (वकील) बनाया है। जब भी कोई मुसलमान की वफात होती है तो अल्लाह की मर्जी और इजाज़त से इन आयतों के मुताबिक उसकी विरासत मुस्तेहक़ीन (काबिल) लोगों में बाँट दी जाती है। इसलिए इस उसूल के मुताबिक ये सोने के जेवरात न तो आपकी मिल्कियत हैं और न ही आपका हक्क। ये गहने अल्लाह के हक में हैं। अल्लाह ने बता दिया है कि इसके काबिल कौन है। इसलिए, अल्लाह की मंशा-ओ-मुराद यानी उस की कुरान करीम की रहनुमाई के मुताबिक ही ये जेवरात तक़सीम हों तो अल्लाह राज़ी है। जो शख्स अल्लाह का हक़ अदा नहीं करता, उसे अल्लाह ताला की तरफ से सख्त सज़ा मिलेगी।"


सवाल करने वाली खातून ने अपना चेहरा अपनी हथेलियों से ढँक लिया और कहा: "माज़ अल्लाह! मेरा इरादा अल्लाह की हदों को पार करना नहीं है। मैं आपको बताना चाहती थी कि यहां हमारे रीति-रिवाज और अर्फ (عرف) क्या-क्या हैं। कई पीढ़ियों से इस रीति-रिवाजों को लागू किया जा रहा है।"

मैंने कहा: "इसीलिए हमने गैर-अल्लाह के तरीकों को छोड़ने के लिए कुरान की आयतों पर अमल करने का अहद लिया है। इस तरह के रीति-रिवाज तो सिर्फ ख्वाहिशात-ए-नफसानी हैं। लोग उनकी पैरवी करते हैं, जब कि अल्लाह ने इन रीति-रिवाजों के हक़ मे कोई आयत नाज़िल नहीं की है।" 

प्यारी बहन! आपको असली मालिक से मदद लेनी चाहिए और उसकी हिकमत भरे अहकाम के आगे झुकना चाहिए। अल्लाह ताला के बताए हुए उसूलों के मुताबिक तमाम विरासत तकसीम कर दीजिए। हर हक़दार को अल्लाह के क़ानून के मुताबिक उसका हिस्सा दीजिए। आपके भाई के पास आपका कोई हक़ है तो तका़जा कीजिए, मुतालबा कीजिए। अल्लाह के हुक्म पर अमल कीजिए। जब हर हकदार अपना हक ले ले, तो उसके बाद अगर वह दिल से चाहे तो किसी चीज से किसी दूसरे के हक में कुछ छोड़ सकता है। इसके लिए कामिल रजामंदी होना जरूरी है। इसमें शर्म-ओ-लिहाज़, रीति-रिवाज और ख्वाहिश आपका दखल नहीं होना चाहिए।"

सवाल पूछने वाली बहन ने कहा: "मैं इंशा अल्लाह, अल्लाह की आयात के मुताबिक चलूंगी।"


कुछ दिनों बाद यही बहन मेरे घर आई। उसका चेहरा खुशी से चमक रहा था। जैसे ही वह आई, उसने कहा: "प्यारी बाजी! अल्लाह की आयतों ने मेरे सीने का बोझ पूरी तरह से हल्का कर दिया है। जब मैं आपसे मिल कर घर पहुँची तो मुझे लगा कि मैं चोर हूँ और मैंने माज़ अल्लाह, अल्लाह का माल चुराया है। अल्लाह की दौलत जिसमें वह अपनी हिकमत और इरादे से खर्च करता है। मैंने अल्लाह की मिल्कियत में से वो कुछ चुरा कर अपने लिए पास रख लिया है, जिसकी में शरियन व कानूनी ना-हकदार थी। मैंने मालिक हक़ीकी़ से इजाजत लिए बगैर माल पर कब्जा कर लिया है। मुझे रह-रहकर यह ख्याल आता रहा कि यह माल अल्लाह का था, अल्लाह ने मेरी वालिदा को इसका मालिक बनाया था। वालिदा फौत हुई तो इस माल का मालिक फिर अल्लाह पाक बन गया। चाहिए तो यह था कि इस माल को अल्लाह के बताए हुए कानून और अहकाम के मुताबिक हकदार में तक्सीम किया जाता। वालिदा की वफात के साथ ही उनका हक मिल्कियत खत्म हो गया था। मैंने अल्लाह के माल पर कब्जा जमा कर चोरी की। मुझे यह एहसास शिद्दत से रहने लगा।"

मैंने कहा: "घबराएं नही। यह एहसास बहुत क़ीमती है। इसलिए आप अपने किए पर नदिम है, पछता रही हैं और अल्लाह की आयात पर अमल के लिए आमादा है।"

बहन! आपने दुरुस्त फरमाया। ये एहसास-ए-जुर्म मुझे मजबूर कर रहा था। इसलिए मैं अपने भाई के पास गई, अपने साथ अम्मी का सारा सोना और जेवरात लेती गई। 

मैंने जाकर भाई से कहा: "अब वक्त आ चुका है कि सारे फैसले अल्लाह के हुक्म के मुताबिक हों। हमारे दरमियान तमाम झगड़ों का फैसला अब कुरान की आयत से होगा। हम सबको इन आयतों पर अमल करने का अजर और सवाब मिलेगा। अब हम सोने और ज़ेवरात की तक्सीम करेंगे। मगर यह तक्सीम हमारी ख्वाहिशात और रीति-रिवाज के मुताबिक ना होगी बल्कि अल्लाह के इरादे के मुताबिक होगी।"

मेरे भाई ने शर्म-ओ-लिहाज़ और मुरव्वत का इज़हार करते हुए कहा: "मैं आपके हक में अपने तमाम हुकूक से दस्तबरदार होता हूं।"

मैंने जवाब दिया: "भाई जान! अभी नहीं। पहले आप अपना पूरा हिस्सा ले ले। फिर आप अपनी मर्जी से जो कुछ मुझे देंगे मैं क़बूल कर लूंगी। आप आप ही से तय ना करें। दो दिन तक आप अपना हिस्सा अपने पास रखें। दो दिन के बाद आप जो चाहे फैसला करें। मुझे कोई एतराज़ ना होगा।"


दो दिनों के बाद भाई साहब मेरे पास तशरीफ लाएं। उनके पास कुछ जेवरात थें। उन्होंने ज्यादातर जेवरात अपने पास रख लिए थे। 

भाई साहब बोले: "मेरी तरफ से यह आपके लिए तोहफा है।"

"मैं कसम खाकर कहती हूं कि उन थोड़े से जेवरात को बतौर तोहफा वसूल करके इतनी ज्यादा खुशी हुई जितनी मुझे तमाम जेवरात लेकर भी हासिल ना हुए थी। अल्लाह की आयात ने मुझ पर बहुत करम किया है। मैं कुरान नाज़िल करने वाले की शुक्रगुज़ार हूं। और फिर दरस ए कुरान का एहतमाम करने वालों की शुक्रगुज़ार हूं।"


इस बहन की गुफ्तगू से मैं बहुत मुतासिर हुई। औरतों को सोने-चांदी और ज़ेवरात से बहुत दिलचस्पी होती है लेकिन इस बहन ने हिम्मत से काम ले कर अपनी तमाम पर ख्वाहिशात-ओ-तर्ग़ीबात को ताक पर रखकर, रीति-रिवाज को छोड़कर अल्लाह के मजबूत कि़ले में पनाह ली। उसके इस हिम्मत वाले फैसले से उसके ईमान में बेपनाह इजाफा हुआ। 


नोट: मुसन्निफ़ा (लेखिका) सुमैय्या रमज़ान मुल्क पाकिस्तान की रहने वाली थीं इसलिए ज़ेवरात की तक़सीम उनके मुल्क के तरीके पर होती थी जबकि क़ुरान के मुताबिक़  तक़सीम हर मुस्लमान पर लाज़िम है।  


2. विरासत को लेकर एक माँ के दिल में अल्लाह का खौफ  


मैं अपनी एक सहेली के घर गई ताकि उसे उसकी बेटी की शादी की मुबारक दे सकूं। मुलाकात के दौरान, मेरी मेज़बान ने कहा: "अल्लाह का शुक्र है जो आपको यहां लाया है। मुझमें और मेरी माँ में कुछ इख्तिलाफात हैं। हम दोनों अपने-आपको सही बनाते हैं। आप हमारे झगड़े का फैसला करें। हम दोनों माँ और बेटी आपके फैसले को तहे दिल से कबूल करेंगे। उसकी माँ भी वहीं बैठी थी। इस एक बेटी के अलावा उनकी कोई औलाद नहीं थी और न ही इस बेटी के अलावा दुनिया में उनका कोई करीबी था। इसलिए वह अपनी बेटी के साथ रह रही थी। वह उससे अलग नहीं रह सकती थी, न ही उन्होंने अपनी बेटी से अलग रहने के बारे में सोचा था। मैंने उसकी माँ की तरफ देखा तो मुझे उसके चेहरे पर हैरत और परेशानी नजर आई।"

मेज़बान ने कहा: "बाजी! जैसा कि आप जानती हैं कि मैं अपनी माँ की इकलौती औलाद हूं। मैं और अम्मी एक जान की तरह हैं। मेरा एक मामू हैं जो न तो अपनी बहन से मिलने आते है और न ही उसका हालचाल पूछते हैं। मेरी माँ की वफात के बाद, लाजमी तौर पर उन्हें भी विरासत में हिस्सा मिलेगा, हालांकि उन्होंने मेरी वालिदा का कोई हक भी अदा नहीं किया। मैं अम्मी से कहती रहती हूं कि वह एक दस्तावेज लिख दे जिससे उनकी विरासत की हकदार सिर्फ मैं बनूँ। मेरे मामू वारिस ना बन सके और अम्मी के माल और सामान से फायदा ना उठा सकें। मेरी अम्मी कहती है कि मैं भी यही चाहती हूं मगर अल्लाह से डरती हूं। इसलिए हमें आपकी राय और मशवरे की जरूरत है।"

मैंने उसकी वालिदा की तरफ बहुत एतराम से देखा और अर्ज़ किया: "मैं आपकी राय खुद आपसे सुनना चाहती हूं।" 

वालिदा ने कहा: "मैं अल्लाह से डरती हूं। जिंदगी और उम्र उसके कब्जे में है। मैं ये दस्तावेज कैसे लिख दूं। अगर इत्तेफाक से मेरी बेटी मुझसे पहले फौत हो जाए तो क्या मेरा दामाद और उसके बच्चे मुझे जायदाद से महरूम ना कर देंगे। यू मेरी जिंदगी में वह मुझे मेरे माल से महरूम कर देंगे और मेरा सारा माल-दौलत उनकी मिलकियत बन जाएगा।"

बेटी ने जवाब दिया: "अम्मी आप चाहते हैं कि मैं आपके जिंदगी में मर जाऊं? और आप मेरे बाद जिंदा रहें।"

मां ने कहा: "बेटी! जिंदगी के बारे में सिर्फ अल्लाह ही जानता है कि किसने कितना जिंदा रहना है, किसने पहले फौत होना है और किसने बाद में।"

बेटी सेहतमंद और जवान थी। मां भोली थी उसका चेहरा ईमान से तमतमा रहा था। 

मैंने मां की बजाय उसकी बेटी से कहां: "मेरी प्यारी बहन, जिंदगी और मौत के फैसले तो सातों आसमानों की बुलंदियों पर बहुत पहले हो चुके हैं। खालिक ए कायनात ने यह फैसला कर दिए हैं। आपकी वालिदा जब खौफ ए खुदा की बात करती है तो उन्हें ऐसा करने का हक़ है। विरासत की तक्सीम का ताल्लुक हदूद ए इलाही से है। किसी भी जवान मर्द या औरत को इसमें मुदाखिलत करने की इजाज़त नहीं चाहे वह अपने आपको कितना ही अक्लमंद और ज़हीन क्यों न समझता हो। 

आपकी वालिदा अगर अपने रब के हुज़ूर पेश होने की तैयारी कर रही हैं तो इसमें आपका क्या नुकसान है? 

और आपको क्या एतराज है? 

आपकी वालिदा सही कहती हैं कि उनकी वफात के बाद ये माल उनका नहीं रहेगा बल्कि यह अल्लाह का माल हो जाएगा, अल्लाह का हक होगा और वही इसका मालिक होगा। इस माल को तकसीम करने का हक भी अल्लाह ही को है वह जैसे चाहे तक्सीम करे।"

बाकी रही आपका अपनी वालिदा से मुतालबा करना कि वह सारी जायदाद आपके नाम लिख दे तो यह सरा-सर अल्लाह के खिलाफ जाना है। बाकी बेरुखी की वजह से जायदाद से मैहरूम करने और खुद उस पर कब्जा करने की एक तरकीब बना रखी है। यह तरकीब आपके ज़हन की पैदाइश है। यहूदियों ने भी अल्लाह के हुक्म से बचने के लिए इस तरह की तरकीब तराशियां की थी। इसलिए उन्हें बंदर और सूअर बना दिया गया था। क्या आपने अल्लाह ताला का यह इरशाद नहीं सुना:


فَاِنۡ کُنَّ نِسَآءً فَوۡقَ اثۡنَتَیۡنِ فَلَہُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَکَ ۚ وَ اِنۡ کَانَتۡ وَاحِدَۃً فَلَہَا النِّصۡفُ ؕ

"अगर [मैय्यत की वारिस] दो से ज़्यादा लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके [छोड़े हुए माल] का दो तिहाई दिया जाए। और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो छोड़े हुए माल में से आधा उसका है।" [कुरान 4:11] 


आप इस आयत को बार-बार पढ़े और फिर अपने आपसे पूछे कि अल्लाह ताला ने यह आयात अपने रसूल करीम (ﷺ) पर क्यों उतारी है? 

फिर यह भी सोचे के रसूल अल्लाह (ﷺ) ने यह आयत हम तक पहुंचाने के लिए कितनी तकलीफ बर्दाश्त फरमाई हैं! 

क्या रसूल अल्लाह (ﷺ) ये सारी मेहनतें और मुशक्कतें और यह सारी परेशानियाँ सिर्फ इसलिए उठाई के यह आयात किताब के अंदर बंद पड़ी रहें और किताब को खूबसूरत जिल्द और चमकदार गिलाफ में लपेट कर रख दिया जाए?

मेरी बहन! ख्वाहिशात की बेड़ियों ने आपकी हरकत रोक रखी है इसलिए आप आयात के मुताबिक चलने से का़सिर हैं। आप सोचे और बार-बार सोचे कि अल्लाह ने अपनी आयात बंद रखने के लिए नाज़िल है या उसके लिए उतारी हैं कि दुनिया को सदाक़त-ओ-अदालत और नूर से भर दे। आप बार-बार अल्लाह के इस हुक्म को दोहराएं, बार-बार पढ़ें,


وَ اِنۡ کَانَتۡ وَاحِدَۃً فَلَہَا النِّصۡفُ ؕ
"और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो छोड़े हुए माल में से आधा उसका है।"
[कुरान 4:11]


इसका आधा हिस्सा आपका है, लेकिन आपको दूसरे आधे को निपटाने का अख्तियार नहीं है। बाकी आधा हिस्सा अल्लाह का है और वह उसकी हिकमत और अद्ल से भरपूर कानून के मुताबिक तक्सीम होगा। अल्लाह पर भरोसा रखें उस पर यकीन करें। आप उस मोहब्बत को याद करें जो अल्लाह से आपको है। 

आप तसव्वुर में लाएं उस नमाज को जो आप अल्लाह की बंदगी करते हुए अदा करती हैं। 

अपने रोजा़, ज़कात-ओ-खैरात को याद करें जिन्हें आप अल्लाह के हुक्म की तामील और उसकी मोहब्बत में रखती और देती हैं। 

विरासत के बारे में अल्लाह का हुक्म नमाज़, रोजा और सदके के हुक्म से अलग नहीं है। 

आप अल्लाह की खातिर उसके बाकी अहकामात की तामील करती हैं उसी तरह आपको विरासत की तक़सीम के बारे में भी उसके हुक्म की इताअत करनी चाहिए। मैं तो समझती हूं कि आपको इस अज़ीम औरत की बेटी होने पर फक्र करना चाहिए जो शरियत इस्लामिया के अहकाम पर अमल करने के लिए अपनी खि़दमत गुजा़र महबूब इकलौती बेटी की भी परवाह नहीं करती।

यह बातें हो चुकी तो मैंने वापसी के लिए इजाजत मांगी। मैं उन दोनों के लिए दुआ करती रही कि अल्लाह उन्हें राज़ी करे और मां बेटी दोनों को हुक्म ए इलाही की इताअत की तौफीक हासिल हो।


एक दिन दरस ए कुरान मां बेटी दोनों आई। बेटी ने हंसते हुए बताया कि "मैं गौर ओ फिक्र के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूं कि मेरे खयालात शैतानी वस-वसों के सिवा कुछ ना थे। मैं अल्लाह के फैसले पर राज़ी हूं। मेरे दिल में अपने मामू के खिलाफ अब ज़रा भी कड़वाहट नहीं है। मेरा दिल अल हमदुलिल्ला अब बिल्कुल साफ है।"


विरासत के बारे में हुक्म ए इलाही के सामने सर तस्लीम खम करने के बाद भी एक साल भी मुकम्मल नहीं हुआ था कि यह बेटी अल्लाह को प्यारी हो गई। मां अब तक मौजूद है, जिंदा है और अपना रिज़्क खा रही है। अल्लाह का शुक्र है कि हमारी इस बहन को अल्लाह के हुक्म पर चलने की तौफीक मिली। इससे पहले की उसकी कब्र पर मिट्टी पढ़ती।


3. बर-वक्त ज़ायदाद की तक़सीम करना 


एक खातून का शौहर फौत हो गया। उस की औलाद में से कुछ शादीशुदा थें, बाकी छोटे थे और उस बेवा की सरपरस्ती में थें। शौहर की वफात के बाद बेवा ने मरहूम की तमाम जायदाद अपने पास रख ली, तक़सीम न की और जिस तरह शौहर की जिंदगी में घर का निज़ाम चल रहा था उसी डगर पर चलता रहा। 

बेवा का कहना था कि उसके छोटे बच्चों की तरबियत और तालीम के लिए मां की जरूरत है। जिस तरह उसने बड़े बच्चों की तरबियत और तालीम की है उसी तरह वो अपने छोटे बच्चों की तरबियत और तालीम का इंतजाम करेगी। 

शादीशुदा बच्चों ने वालिदा की बात से इत्तेफाक किया। यह अलग बात है कि उन्होंने खुशी के साथ ऐसा ना किया बल्कि सिर्फ शर्म, लिहाज और मुरव्वत में आकर। इसलिए मजबूरी और बेदिली से उन्होंने अपनी वालिदा की राय मानी। वह दिल से रजा़मंद ना थें। 

शौहर ने एक बड़ी दुकान विरासत में छोड़ी थी जो बहुत कामयाबी से चल रही थी और उससे अच्छी खासी आमदनी होती थी, मगर जब दीवाने तमाम इंतजाम संभाल लिया तो आहिस्ता आहिस्ता मंदी बढ़ने लगी। दुकान की आमदनी धीरे-धीरे कम होती चली गई। अगर यही हाल रहता तो पूरा घर मुतासिर होता। अपनी माली हालात को बिगड़ता हुआ देखकर बेवा खातून ने मस्जिद का रुख किया। दरस ए कुरान ताकि दरस ए कुरान की बरकत से अल्लाह ताला उसे और उसकी औलादों को वाले वक्त में माली तंगी से बचाए।


जब हमने एक दरस ए कुरान में विरासत की आयात मुंतखिब की तो बेवा खातून ने कहा: "मैं समझती हूं कि हमारी तिजारत को जिस नुकसान का सामना करना पड़ा है इसकी वजह मेरा वह रवैया है जो मैंने अल्लाह के वाज़ेह और सरीह अहकाम के खिलाफ अख्तियार किया है। मैंने अपनी मर्जी मुसल्लत की। किसी से कोई मशवरा नहीं लिया।"

उस बेवा खातून ने मजलिस ए दरस कुरान इजहार ए निदामत और पशेमानी करने के बाद घर जाकर अपने तमाम छोटे बड़े बच्चों को इकट्ठा किया और अल्लाह ताला की हिदायात के मुताबिक अपनी तमाम जायदाद तक़सीम कर दी। उसके बाद उसने अपने हिस्से और अपने छोटे बच्चों के हिस्से की जायदाद में कारोबार शुरू कर दिया। थोड़े ही समय के बाद कारोबार फलने फूलने लगा। यह सब अल्लाह की आयात पर अमल करने का नतीजा था। बाकी रहा वह अजर और सवाब जो आखिरत में मिलेगा तो उसका कौन शुमार कर सकता है?

हमारा फर्ज है के रीति-रिवाज के बजाय अल्लाह के हुक्म पर अमल करें। 

अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) की इत्तिबा करें। 

ख्वाहिशात और इरादों की तारीकियों से निकलकर कुरान की रोशनी में आ जाए। 

हमें अपने तमाम काम और आमाल कुरान और सुन्नत के सामने पेश करना होगा और अपनी बुरी आदतों को छोड़ना होगा। 

इस तरह हम एक ऐसा समाज बना देने मैं कामयाब हो जाएंगे जिसमें दुनिया को कुरान चलती फिरती नजर आएगी। जब ऐसा होगा तो हम ही जमीन के वारिस होंगे। अल्लाह का हमसे यह वादा है। उस वक्त जमीन अपने परवरदिगार के नूर से जगमग आ उठेगी। जमीन नूर, रहमत और मोहब्बत से भर जाएगी।  




मुसन्निफ़ा (लेखिका): सुमैय्या रमज़ान
किताब: क़ुरान पर अमल
हिंदी तरजुमा: मरियम फातिमा अंसारी



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