Shairillallah Kise Kehte Hai?

शाइरिल्लाह किसे कहते है?

सोशल मीडिया जब से ज्यादा एक्टिव हुआ है, तब से क़ुरआन के लफ्जी मायनों की गलत फ़हम और तर्जुमों की बाढ़ सी आ गयी है। यहाँ जिसे देखो अपनी ढपली, अपना राग अलाप रहा है। किसी को भी कदीमी असलाफ़ की फ़हम से कुछ लेना-देना नहीं है जो कि क़ुरआन को सही से समझने की बुनियाद है।

Facebook पे अक्सर बारिश में निकलने वाले मेंढकों की तरह, क़ुरआन वा हदीसों के खुद डिक्लेअरड आलिम फुदकते फिर रहे है। जों क़ुरआन की आयतों और हदीसों की गलत फ़हम, पोस्ट की शक्ल में उछाल कर, दींन का तमाशा बना रहे है। पढ़कर बहुत तकलीफ होती है। आखिर सबको ले-दे के इस्लाम ही मिला है, मज़ाक बनाने के लिये। ऐसी कोशिश करने वाले लोगों को अल्लाह से डरना चाहिये!!!


Shairillallah Kise Kehte Hai?


ऐसे ही एक फ़ितने के रुद्द में ये पोस्ट लिख रहा हूँ ताकि उम्मत को ये जानकारी दे सकूँ कि -

【शाइरिल्लाह की सही फ़हम क्या है...?】


शाइरिल्लाह

लफ्ज़ شعائر जमा है लफ्ज़ شعیرہ की। जिसका लफ्जी मायना निशान या निशानी (Mile Stone) के होते है। यानी इस कायनात में अल्लाह पाक ने - 

  •  जिन जगहों को अपना निशान ऐ इबरत करार दिया है
  • जिन जगहों की ताज़ीम का हुक्म दिया है
  • जिन जगहों की बेहुरमती से मनाह किया है
  • जिन जगहों के साथ एक इस्लामिक हिस्ट्री वा-बस्ता है  [यानी जिन जगहों के साथ उलुल अज़म पैगम्बरों की जिंदगी के साथ जुड़े हुए हादसात का कोई यादगार हिस्सा जुड़ा  हों।]
  •  जिनके साथ जुड़े हक़ायक़ (इतिहास) को बदलने की बहुत जद्दोजहद की गई हो 
  • जिन्हें शिर्क की गलाज़तो से पाक-साफ रखने का हमें ताक़ीदी हुक्म दिया गया है

शाइरिल्लाह कहलाती है। मसलन:- बैतुल्लाह, हजरे अस्वद, सफा वा मरवा की पहाड़ी, जमरात, कुर्बानी के जानवर इत्यादि।

शाइरिल्लाह की वज़ाहत में पेश किये गये उपरोक्त नुक्तों को मैं शाइरिल्लाह के रूप में पेश किये गये मकामों की अलग-अलग चर्चा में वाज़ेह करने की कोशिश करूंगा


1. बैतुल्लाह

मस्जिद अल हराम यानी बैतुल्लाह ही वों तारीखी मक़ाम है, जहाँ पर आदम अ० ने रब्बे कायनात से तौबा करना सीख कर, रो-रोकर अपनी गलती का ऐतराफ़ किया था और तौबा वा माफी-तलाफ़ी की थी। जो नूह अ० के दौर में जल-प्रलय की वजह से दरहम-बरहम और लापता हो गया था। दोबारा इसी मुकाम पर रब की निशानदेही पर, रब के हुक्म से ही इब्राहिम अ० ने अपने पहले पुत्र ईस्माइल अ० के साथ मिलकर काबे की इमारत खड़ी की थी। और जिसे मुसलमानों के लिये बतौर क़िब्ला (ईमान वालों का मरकज़) मुकर्रर कर दिया गया था। इसीलिये इसे शिर्क की गलाज़तो से पाक-साफ रखने का ताक़ीदी हुक्म दिया गया।


"और हमनें इब्राहिम अ० और ईस्माइल अ० से ये अहद लिया था कि (तुम और तुम्हारी औलादें) मेरे इस घर को तवाफ़ करने वालों और ऐतिकाफ करने वालों और रुकू वा सुज़ूद करने वालों के लिये पाक-साफ रखोंगे।" 

कुरआन (2:125, 22:26)

लेकिन ये मरकज अहले-किताब को कभी कुबूल ना था। लिहाज़ा बाद में इक़्तेदार हासिल होने पर, अहले किताब ने हसद वा तअस्सुब की बिना पर असली क़िब्ले इब्राहीमी (बैतुल्लाह) को मक्का से हटा कर बैतुल मुकद्दस (मस्जिद ऐ अक्सा) शिफ्ट कर देने की नापाक सई की थी। वों लोग बैतुल्लाह से जुड़ी हर यादगार को दुनियाँ के जेहनों से मिटा देना चाहते थे। इसके लिये बहुत सी झूठी हिकायते गढ़ कर रवायतों की शक्ल में मुआशरे में फैला दी गयी थी ताकि लोग असल को भूल कर नकल की पैरवी में लग जाये। और हुआ भी यहीं लोग असली बैतुल्लाह को भूल कर बैतूल मुकद्दस को अपना क़िब्ला मान बैठे थे।

खुद हमारें नबी स० को जब  बतौर ऐ नबी मबऊस किया गया तो आपने भी मदीना आकर 16 या 17 महीने नमाज़ बैतुल मुकद्दस की ओर रुख करके पढ़ी थी। बाद में ईमान वालों के इस मरकज (बैतुल्लाह) को अल्लाह पाक ने अपने आखिरी नबी अ० की शदीद ख्वाहिशों और दुआओं से तहवील करके दुबारा इसे मक्का में शिफ्ट कर दिया था।

जों काबा इब्राहिम अ० वा ईस्माइल अ० के दौर में शिर्क से बरी था। अहले किताब ने जब वहाँ से अपना मरकज़ शिफ्ट कर लिया तो शैतान ने धीरे-धीरे इस मुकाम को शिर्क का सबसे बड़ा अड्डा बना दिया। जिसे बाद में फिर मोहम्मद स० ने शिर्क की गलाज़तों से पाक किया था।


★ क़ुरआन इस काबे की तारीफ वा अहमियत बयान करते हुए कहता है -

"उसमें खुली हुई निशानियाँ हैं, इब्राहिम अ० की इबादत की जगह है, और उसका हाल ये है कि जो उसमें दाख़िल हुआ महफ़ूज़ हो गया। लोगों पर अल्लाह का ये हक़ है कि जो उस घर तक पहुँचने की ताक़त रखता हो, वो उसका हज करे, और जो कोई इस हुक्म की पैरवी से इनकार करे तो उसे मालूम हो जाना चाहिये कि अल्लाह तमाम दुनियावालों से बेनियाज़ है।" 

कुरआन  3:97


★ इस तरह एक तवील अरसे की जद्दोजहद और दुआओं से आज मक्का के मौजूदा काबे को ईमान वालों के मरकज़ का दर्जा हासिल हुआ है। लिहाज़ा हम ईमान वालों को इसकी बेहुरमती से बचना चाहिये और इसकी ताज़ीम करनी चाहिये। इसीलिये इसकी ताज़ीम का खुसूसी हुक्म दिया गया है...

~ یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا لَا تُحِلُّوۡا شَعَآئِرَ اللّٰہِ ...

" ऐ ईमान वालों! अल्लाह के शआइर की बेहुरमती मत करों।" 

कुरआन  5:2

लेकिन दुनियाँ में हो क्या रहा है ...?

आज अलग-अलग फिरकों (जमाअतों) ने अपना अलग-अलग मरकज़ बना रखा है।

  • किसी का मरकज़ अजमेर
  • तो किसी का निज़ामुद्दीन दिल्ली बन गया है
  • किसी का मरकज़ बगदाद की दरगाह है।
  • तो शियों ने मक्के की तरह ईरान में एक बैतुल्लाह मॉडल कायम कर लिया है।
  • इसी तरह यमनियों ने भी यमन में एक काबा ऐ सानिया की स्थापना की थी जिसे बाद में सहबियों ने मुसमार कर दिया था।

वों कहते है ना...

आशिक़ की गली का एक फेरा सौ हज़ के बराबर होता है।

  • लिहाज़ा कोई अजमेर यात्रा को हज़ के समतुल्य करार दे रहा है।
  • तो कोई निज़ामुद्दीन स्थित तब्लीगी मरकज़ की जियारत को उमरे के समतुल्य करार दे रहा है।
  • कोई बाद नमाज़ अब्दुल कादिर जिलानी के रोज़े की ओर रुख करके दुआँ गों है।
  • तो कोई बरेलवी पीर के रोज़े की जानिब...


★क्या ये लोग अल्लाह के तय करदा शाइरिल्लाह के मद्दे मुकाबिल दूसरे खुद साख्ता शआइर नहीं तराश रहे है?

★क्या ये शाइरिल्लाह की खुली तौहीन नहीं है?

ये वो अघोषित छुपा हुआ शिर्क है जों इन्हें अल्लाह ही समझायेंगा

इसके बरअक्स क़ुरआन वाज़ेह करता है कि जों मुत्तक़ी होते है सिर्फ वही शाइरिल्लाह की अज़मत के कायल होते है


"ये है असल मामला (इसे समझ लो), और जो अल्लाह के मुक़र्रर किये ‘शआइर’ (निशानियों) का ऐहतिराम करे तो ये दिलों के तक़वा (परहेज़गारी) से है।" 

कुरआन 22:32


2. हजरे अस्वद

ये पत्थर इब्राहिम अ० के अहद से इस रवायत का एक निशान है कि इसे बोसा दे कर या इसको हाथ लग कर बन्दा अपने रब के साथ किये अपने अहदों पैमान की तज़दीद करता है। चुनाँचे बाज़ हदीसों में इसको यमीन अल्लाह (अल्लाह का हाथ) लफ्ज़ से भी ताबीर किया गया है। जों इस बात की तरफ इशारा है कि जब बन्दा इसको हाथ लगाता है तो वों गोया अल्लाह के हाथों पे अपना हाथ रखकर अपनी बैअत को तज़दीद (Renew) करता है। और जब बन्दा इसको बोसा देता है तो गोया वों रब के प्रति अपनी स्वामिभक्ति और वफादारी का इज़हार करता है।


3. सफा वा मरवा पहाड़ी

इनके शाइरिल्लाह होने का सुबूत तो क़ुरआन की दर्जेजील आयत यूँ देती है...

 ~ اِنَّ الصَّفَا وَ الۡمَرۡوَۃَ مِنۡ شَعَآئِرِ اللّٰہِ ... 

" यक़ीनन सफा वा मरवा अल्लाह की निशानियों में से है।" 

कुरआन (2:158)


इन्हीं दों पहाड़ियों के दरमियान माई हाजरा ने अपने दुधमुँहे बच्चे की प्यास की शिद्दत को बुझाने के लिये, पानी की तलाश या किसी मदद के लिये दीवानावार सई की थी। इसीलिये इनके दरमियान सई  करने को हज़ का एक अहम अरकान डिक्लेअर कर दिया गया।

इब्राहिम अ० की असल कुर्बान गाह यहीं मरवा पहाड़ी है। इसी पहाड़ी पर उन्होंने अपने दुलारे बेटे को अल्लाह की राह में कुर्बान करने की कोशिश की थी। 

लेकिन अहले किताब ने इस हक़ीक़त से लोगों को दूर रखने के लिये, झूठी रवायतें गढ़ी कि -

  • इब्राहिम अ० ने ईस्माइल अ० की नहीं बल्कि इसहाक अ० की कुर्बानी का फ़रीज़ा अंज़ाम दिया था।
  • और ये कुर्बानी मरवा पहाड़ी पर नहीं बल्कि बैतुल मुकद्दस में की थी। 

और इन्हीं रवायतों को बुनियाद बनाकर बैतुल मुकद्दस को क़िब्ला ऐ इब्राहीमी बावर कराने की भरपूर कोशिश की गयी थी। लेकिन अल्लाह पाक ने क़ुरआन नाज़िल करके इनकी हर हरकत और साज़िश को बेनकाब कर दिया था।

कालांतर में मुशरिकों ने सफा पहाड़ी पे असाफ़ नाम का बुत स्थापित कर दिया था। और मरवा पहाड़ी पे नायला नामी बुत स्थापित कर दिया था  और ताइफ़ के मुशरिक इन बुतों का तवाफ़ करते और इनके बीच सईं करते थे। फिर फतेह मक्का के बाद इन बुतों को तोड़ कर इन पहाड़ियों को शिर्क मुक्त किया गया। 

बाद में अंसार को दौराने हज़ ये शक़ पेश आया कि कहीं सफा वा मरवा के दरमियान सई जिहालत के दौर के अमल में तो नहीं शुमार होंगी तो अल्लाह पाक ने दर्जे जील आयत नाज़िल करके इनके शक़ को दूर किया...

~ فَمَنۡ حَجَّ الۡبَیۡتَ اَوِ اعۡتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَیۡہِ اَنۡ یَّطَّوَّفَ بِہِمَا ؕ ...

" बस जों कोई हज़ या उमरा करे तो उस पर सफा वा मरवा के दरमियान सई करने में कोई गुनाह नहीं है।" 

कुरआन (2:158)


4. जमरात

ये निशानात इसलिये कायम किये गये है कि हुज़्ज़ाज़ इन पर कंकरिया मारकर अपने इस अज़म का इज़हार करते है कि वों बैतुल्लाह के दुश्मनों या इस्लाम के दुश्मनों पे [ख्वाह वों इब्लीश की जुर्रीयत से ताल्लुक रखने वाले हो या इंसानो के किसी गिरोह से] लानत करते है और इनके खिलाफ यलगार करने के लिये हम सदैव मुस्तैद है।


5. कुर्बानी

कुर्बानी हक़ीक़त ऐ इस्लाम का एक मज़हर है। इस्लाम की हक़ीक़त ये है कि बन्दा अपने आपको कुल्ली तौर पे अपने रब के हवाले कर दे। अपनी कोई महबूब से महबूब चीज़ हत्ता कि अपनी जान भी इसकी राह में कुर्बान करने से ना हिचके। इस हक़ीक़त का अमली मुज़ाहिरा जिस तरह इब्राहिम अ० ने अपने बेटे की कुर्बानी करके किया, वों तारीख ऐ इंसानी का एक बेनज़ीर वाक़्या है। इसलिये इस वाक़ये की यादगार में अल्लाह पाक ने जानवरों की कुर्बानियों को अपना एक शआइर करार दे दिया। ताकि इसके जरिये से लोगों में इस्लाम की हक़ीक़त बराबर ताज़ा रहे। क़ुरआन की दर्जे जील आयत भी इसकी दलील दे रही है...


"और (क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिये अल्लाह के ‘शआइर’ में शामिल किया है, तुम्हारे लिये उनमें भलाई है  तो उन्हें खड़ा करके उन पर अल्लाह का नाम लो और जब (क़ुर्बानी के बाद) उनकी पीठें ज़मीन पर टिक जाएँ तो उनमें से ख़ुद भी खाओ और उनको भी खिलाओ जो क़नाअत किये बैठे हैं और उनको भी जो अपनी ज़रूरत पेश करें। इन जानवरों को हमने इस तरह तुम्हारे मातहत किया है, ताकि तुम शुक्रिया अदा करो।" 

कुरआन  22:36


मुझे लगता है कि शाइरिल्लाह की बाबत इतनी तफसील पढ़के, मेरे दीनी भाइयों को, इंशा अल्लाह, शाइरिल्लाह का मुकम्मल इंट्रोडक्शन हासिल हो चुका होंगा।

【शाइरिल्लाह यानी सिराते मुस्तकीम पे चलने वाले मुसाफिरों को ये जानकारी देने के लिये कि वों सही मंज़िल की ओर बढ़ रहे है, अल्लाह पाक ने जो Mile Stone डिक्लेअर किये है। उन्हीं को शाइरिल्लाह कहा जाता है।】

कुछ मौलवियों की उस बात से सावधान रहें जो ये जुमे के मिम्बरों पे बघारते रहते है और मनमानी किसी भी शय को शाइरिल्लाह का दर्जा दे कर उम्मत को गुमराह करते है।

अल्लाह से दुआँ गों हूँ कि वों मेरे प्यारे रसूल की इस सादा लौह उम्मत को इन मक़्क़ार मौलवियों के इस फ़ितने से अपनी पनाह में रखे और उन्हें हक़ पहचानने और उस पर ईमान रखने की तौफ़ीक़ दे।

आमीन या रब्बुल आलमीन


आपका दीनी भाई
मुहम्मद रज़ा




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