Deen-Islam Me Kamyab Hone Ke tarike

Deen-Islam Me Kamyab Hone Ke tarike


कामयाब होने के लिए हमें क्या करना चाहिए?


अल्लाह की ज़ात पर पुख्ता यक़ीन, दुनिया में आने का मक़सद और यहाँ वक़्त किस तरह गुज़ारना है, आख़िरत की तैयारी कैसे करनी है, किस तरह खुद को अल्लाह के कहर से मेहफ़ूज़ रखना है, लोगों के साथ कैसा सुलूक करना है, किन कामो में फायदा और किनमे नुक़सानात हैं वगैरह की पहचान हो जाने के बाद इंसान के दिल में सबसे बड़ी ख्वाहिश यह पैदा होती है कि उसे कामयाब होने के लिए, अपने ख़ालिक़ को राजी करने के लिए क्या करना चाहिए? वो ऐसा क्या करे के उसका ख़ालिक़ उससे राज़ी हो जाये, उससे मोहब्बत करने लगे। हज़रत अबु हुरैरा (رَضِيَ ٱللَّٰهُ عَنْهُ) से रवायत है, रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

"जब अल्लाह तआला किसी बंदे से मुहब्बत करता है तो जिब्राईल (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) को आवाज़ देता है कि अल्लाह फ़ुलां बंदे से मुहब्बत करता है तुम भी उस से मुहब्बत करो। जिब्राईल (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) भी उस से मुहब्बत करने लगते हैं, फिर वो तमाम आसमान वालों में आवाज़ देते हैं कि अल्लाह फ़ुलां बंदे से मुहब्बत करता है, तुम भी उस से मुहब्बत करो, फिर तमाम आसमान वाले उस से मुहब्बत करने लगते हैं। उसके बाद वो ज़मीन में भी अल्लाह के बंदों का मक़बूल और महबूब बन जाता है।"
[सहीह बुखारी-6040]

अल्लाह ताला ने जिंदगी गुजारने का उसूल बताया है जिसके मुताबिक जिंदगी गुजारने का हुक्म दिया है। जिसने हमें बनाया उसे सबसे बेहतर इल्म था कि हमारे लिए क्या बेहतर है। जो चीजें हमारे लिए दुनिया और आखिरत में फायदेमंद थी उन्हें करने का हुक्म दिया है और जो चीजें हमारे लिए नुकसानदेह थी और खालिक को नापसंद थी उनसे दूर रहने का हुक्म दिया है। अल्लाह ताला सख्ती के साथ उन अहकामात पर अमल करवाना चाहता है और उन अहकामात को नजरअंदाज करने या पस-ए-पुश्त (पीठ-पीछे) डालने वालों को मुजरिम करार दीया है और उनके लिए आखिरत में दर्दनाक अज़ाब तैयार किया है। इस तरह हमारी जिंदगी का मकसद ना दुनिया को छोड़ना है और ना ही पूरी तरह से दुनिया को हासिल करना है बल्कि अपनी ख्वाहिशात को दीन के ताबे करके अल्लाह ताला की नाज़िलकरदह हुदूद के अंदर रहते हुए जिंदगी गुजारना मकसूद है और इसी में हमारी दुनिया व आखिरत के फायदे हैं।

अल्लाह ताला के अहकामात हुक्म और मनाही (do & don't) पर मुश्तमिल है। यानी जिन कामों को करने का हुक्म दिया उन्हें करना और जिन कामों से रोका उनसे दूर रहना। लिहाजा हमारी सबसे पहली जिम्मेदारी यह बनती है कि हम इस चीज का तफ़सीली इल्म हासिल करें के किन चीजों का हुक्म दिया गया है और किन चीजों से मना किया गया है। बुनियादी तौर पर हमारी जिम्मेदारियों को छः (पॉइंट्स) बड़ी चीजों में तक्सीम किया गया है:


1. अक़ीदा (Aqeedah/Faith) और नजरिया


अक़ीदह से मुराद वो मामले हैं जिन पर यक़ीन के साथ ईमान लाया जाये और दिल और जान से यक़ीन किया जाये। वो किसी शक या बे-यक़ीनी से दागदार न हो। अरबी लफ्ज़ 'अक़ीदह' 'अक़ादा /Aqada' से निकला है, जो यक़ीन,इसबात, तस्दीक़ वग़ैरह के मायने बयान करता है। कुरान में, अल्लाह ताला फरमाता है:

"अल्लाह तुम्हे तुम्हारी गैर-इरादी क़समों की सज़ा नहीं देगा, लेकिन वह तुम्हे तुम्हारी जानबूझकर खाई गई क़समों की सज़ा देगा " 
[क़ुरान 5: 89]

जानबूझ कर खाई गई क़समें यानि झूठी कस्मे जो एक ईमान वाला, जिसके अंदर अक़ीदह है वो कभी नहीं खायेगा। इस्लाम में अक़ीदह इल्म का मुआमला है। मुस्लमान को अपने दिल से ईमान लाना चाहिए, बगैर किसी शक के, क्यूंकि अल्लाह ताला ने अपनी किताब में और अपने रसूल (ﷺ) पर वही के ज़रिये अक़ीदह के बारे में बताया है। अक़ीदह के उसूल वो हैं जिन पर अल्लाह ताला ने हमें ईमान लाने का हुक्म दिया है जैसे कि इस आयत में बताया गया है,

"रसूल उस हिदायत पर ईमान लाया है जो उसके रब की तरफ़ से उस पर उतरी है। और जो लोग इस रसूल के माननेवाले हैं, उन्होंने भी इस हिदायत को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका कहना ये है कि “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते। हमने हुक्म सुना और फ़रमाँबरदार हुए। मालिक ! हम तुझसे ग़लतियों पर माफ़ी चाहते हैं और हमें तेरी ही तरफ़ पलटना है।"
 [क़ुरान 2: 285]

आसान लफ़्ज़ों में इसे इन पाँच पॉइंट्स में बाँट कर समझा जा सकता है:

  1. अल्लाह को माबूद बरहक मानना, अकेला मानना और शिर्क से बचना। 
  2. हजरत मोहम्मद (ﷺ) को रसूल तस्लीम करना, आप (ﷺ) के साथ अकीदा और मोहब्बत रखना। 
  3. इस चीज़ पर ईमान रखना के इस जिंदगी के बाद आखिरत में नतीजा निकलेगा, हमे दोबारा जिंदा किए जाने के बाद हिसाब के लिए अल्लाह की बारगाह में पेश होना है। 
  4. पिछले रसूलों और किताबों पर ईमान रखना और 
  5. अल्लाह की तरफ से नाज़िल करदा कुरान मजीद को इंसानियत के नाम आखिरी पैगाम तस्लीम करना।


2. अमल (The Process)


किसी भी चीज पर अक़ीदह होने के बाद जो दूसरी बात आती है वह है उस पर 'अमल'। जब हम किसी चीज़ पर अकीदा कर लेते हैं तो उसे अपनी जिंदगी में शामिल कर लेते हैं उसी के मुताबिक अपनी जिंदगी को बसर करने लग जाते हैं। कुछ लोग यकीन तो करते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते। जैसे कि इस जमाने में ही देख ले मुसलमान तो बहुत हैं और सब को अल्लाह की ज़ात, उसके रसूल, उसकी किताबों, उसके फरिश्तों पर यकीन है लेकिन जो बातें इस्लाम में बताई गई है जिन पर हमें अमल करना है वह उन पर अमल नहीं करते।

अल्लाह ताला यह चाहता है कि लोग अमन और सुकून के साथ कामयाब जिंदगी गुजार सकें। इसलिए अल्लाह ताला ने इंसान की जिंदगी से जुड़े हुए बहुत ही सख्त नियम नाज़िल फरमाए हैं। वह कुछ बुनियादी इंसानी अमल जिनको बहुत होशियार रहने की जरूरत है और जो हमारी दुनियावी जिंदगी के वजूद के लिए भी जरूरी है, वो ये हैं:

  1. नाइंसाफी 
  2. वालीदैन के साथ हुस्ने सुलूक
  3. औलाद को कत्ल ना करना
  4. ईफ़ा-ए-'अहद
  5. जान व माल की हिफाजत
  6. सूद 
  7. ग़ीबत 
  8. फिजूलखर्ची
  9. बदगुमानी और तजस्सुस 
  10. बे-हयाई से मुकम्मल इज्तिनाब
  11. दूसरे बड़े और बुरे इंसानी अमल 


2.1. नाइंसाफी (Injustice)

दुनिया के फायदे और अहमियत इंसान को नाइंसाफी पर मजबूर करते हैं जिसका नतीजा लोगों के साथ जुल्म, ज्यादती और उनका हक मारना निकलता है। हमेशा अकल और समझ का इस्तेमाल करते हुए अदल-ओ-इंसाफ़ से काम लेना चाहिए बेशक वक्ति नुकसान भी उठाना पड़े। ऐसी सूरत में अल्लाह ताला ने हुक्म दिया:


وَ اِذَا قُلۡتُمۡ فَاعۡدِلُوۡا وَ لَوۡ کَانَ ذَا قُرۡبٰی ۚ وَ بِعَہۡدِ اللّٰہِ اَوۡفُوۡا
"और जब बात कहो इन्साफ़ की कहो, चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो। "
[कुरान 6:152]


इस आयत के मुताबिक इंसान को हक का फैसला करना चाहिए चाहे वह आपका रिश्तेदार ही क्यों ना हो यानी इंसाफ के मुताबिक अगर तुम्हारे करीबी रिश्तेदार के खिलाफ फैसला निकले तो भी हक का फैसला करो। फैसला करने वाले इंसान को कभी भी गलत करने वाले के हक में फैसला नहीं सुनाना चाहिए। हां अगर वह गलती से गलत की तरफ फैसला सुना देता है तो उसके लिए अल्लाह उसे माफ फरमाता है।


2.2. वालीदैन के साथ हुस्ने सुलूक

वालीदैन की बेअदबी, उनके साथ बदसुलूकी और उनकी नाफरमानी से हर मुमकिन बचा जाए। और माल के साथ हुस्ने सुलूक किया जाए। वालीदेन से अच्छा बर्ताव एक ऐसा अमल है जिससे मोहब्बत की खुशबू महकती है। यह अल्लाह की मुस्तकिल फरमाबरदारी करने का सबूत है, मतलब यह कि वालीदैन से हुस्ने सुलूक का सुमार उन बुनियादी खूबियों में होता है जिन की तरबियत मुस्लिम कौम के तमाम लोगों को मिलनी चाहिए। न सिर्फ कुरान मजीद ने बल्कि रसूले करीम (ﷺ) ने भी वालीदैन के साथ हुस्ने सुलूक की ताकिद फरमाई है। अल्लाह ताला फरमाता है,


فَلَا تَقُلۡ لَّہُمَاۤ اُفٍّ وَّ لَا تَنۡہَرۡہُمَا وَ قُلۡ لَّہُمَا قَوۡلًا کَرِیۡمًا
[कुरान 17:23]
"उन्हें उफ़ तक ना कहो ना उन्हें छिड़ककर जवाब दो बल्कि उनसे अदब के साथ बात करो।"


हकीकत में वालीदैन की खिदमत करना, उनसे नेक सुलूक करना इतना आसान नहीं। उसके लिए अल्लाह पर गहरा और मजबूत ईमान चाहिए, सब्र और बर्दाश्त चाहिए। सबसे बढ़कर एक औलाद के लिए जरूरी है कि वह अपने वालिदैन के लिए मीठी जुबान का इस्तेमाल करे। अल्लाह ताला ने वालिदैन के साथ लगातार हुस्न सुलूक का हुक्म दिया है।


2.3. औलाद को कत्ल ना करना

रिज़्क के खौफ या किसी और वजह से औलाद का कत्ल बहुत बड़ा गुनाह है। यह बात इंसान की एक बहुत बड़ी गलती में से है कि वह दुनियावी जरूरतों और खुराक की तंगी के डर से अपनी औलाद को कत्ल कर देता है, जो अपनी नस्ल के बढ़ने के सिलसिले को रोक देता है। अल्लाह ताला फरमाता है,


وَ لَا تَقۡتُلُوۡۤا اَوۡلَادَکُمۡ خَشۡیَۃَ اِمۡلَاقٍ ؕ نَحۡنُ نَرۡزُقُہُمۡ وَ اِیَّاکُمۡ ؕ اِنَّ قَتۡلَہُمۡ کَانَ خِطۡاً کَبِیۡرًا 
"और अपनी औलाद को ग़रीबी के डर से क़त्ल न करो। हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। हक़ीक़त में उनका क़त्ल एक बड़ी ख़ता है।" 
[क़ुरान 17:31]


 इंसान का नफ्स इंसान को यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि उसके रिज़्क का सिलसिला उसके हाथ में है हालांकि यह हमारे खालिक के हाथ में है जिसने हमें इस जमीन पर बसाया है। जिस तरह वह पहले आने वालों को रिज़्क देता रहा है उसी तरह वह तुझे भी देगा और अगली आने वाली नस्लों को भी देता रहेगा। तारीख का तजुर्बा भी यही बताता है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में खाने वालों की आबादी जितनी रफ्तार से बढ़ती गई है उतने ही रफ्तार से अनाज, फल, सब्जियां और जानवरों की तादाद बढ़ती गई है। इसलिए इंसान का यह सोचना कि वह औलाद को रिज़्क फराहम नहीं करा सके गया, उसको पाल नहीं सकेगा तो यह उसकी हिमाकत है।अनस बिन मलिक (رَضِيَ ٱللَّٰهُ عَنْهُ) से रिवायत है की रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,


"माँ के पेट में अल्लाह ताला ने एक फरिश्ता मुक़र्रर किया है, वो कहता है ऐ रब ये नुतफा (Semen) है,  ऐ रब अब ये अलक़ा (Clot) हो गया है,  ऐ रब अब ये मुदगा (little lump of flesh) हो गया है, फिर जब अल्लाह चाहता है की उसकी खलक़त पूरी करे तो (फरिश्ता) पूछता है लड़का है या लड़की?, बदबख्त या नेक बख़्त? रोज़ी कितनी मिलेगी? और उमर कितनी है? फिर माँ के पेट में ही ये तमाम बातें लिख दी जाती है।"
[सही बुखारी-318]


अल्लाह ताला ने इंसान की तख्लीक को बेहद उम्दाह तरीके से अंजाम दिया है। एक बच्चे के इस दुनिया में आने से पहले ही अल्लाह ताला मां के पेट में उसके रिज़्क का इंतजाम कर देता है तो भला क्या वह उसके दुनिया में आने के बाद उसके रिज़्क का इंतजाम करने से कासिर है। हम इंसान कौन होते हैं जो किसी जान को कत्ल कर दें।


2.4. ईफ़ा-ए-'अहद (अहद और कौल-ओ-क़रार का पूरा करना)

अहद और कौल-ओ-क़रार का पूरा करना। पूरी दुनिया के मा'मिलत कौली या अमली अहद-ओ-पैमान है। जब किसी से वादा किया जाए तो उसे पूरा करना जरूरी है। अल्लाह ताला फरमाता है,


وَ اَوۡفُوۡا بِالۡعَہۡدِ ۚ اِنَّ الۡعَہۡدَ کَانَ مَسۡئُوۡلًا
"अहद [ वचन] की पाबन्दी करो। बेशक अहद के बारे में तुमको जवाबदेही करनी होगी।"
[क़ुरान 17:34]


अल्लाह ताला ने वादा पूरा करने वाले इंसान के लिए दुनिया और आखिरत में बड़े फायदे रखे हैं। ऐसे लोगों को समाज में भी इज्जत मिलती है, लोग उन पर भरोसा करते हैं और जरूरत पड़ने पर उनकी मदद के लिए तैयार खड़े रहते हैं। वादा पूरा करना दुनिया में अमन कायम करने, खून खराबे से खुद की हिफाजत करना, मुसलमानों और काफिरों के हुकूक की हिफाजत का सबब बनता है।


2.5. जान व माल की हिफाजत

किसी को नाहक कत्ल ना किया जाए, किसी का हक ना मारा जाए, बगैर इजाजत किसी का माल इस्तेमाल ना किया जाए। किसी ने अमानत रखवाई है तो उसे उसी तरह वापस कर दिया जाए। यतीम के माल की हिफाजत की जाए ताकि लोग उससे माल छीन ना लें। रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,


"एक मुसलमान का खून, माल और इज्जत दूसरे मुसलमान पर हराम है।"
[अबू दाऊद-4882, सहीह]


कोई मुसलमान किसी मुसलमान का माल बगैर उसकी इजाज़त के ना ले, किसी की इज्जत का तमाशा ना बनाएं, किसी मुसलमान को ना-हक और ज़ुल्मन क़त्ल ना करें क्योंकि यह सब सख्त जुर्म है। इरशाद ए इलाही है,


قَتَلَ نَفۡسًۢا بِغَیۡرِ نَفۡسٍ اَوۡ فَسَادٍ فِی الۡاَرۡضِ فَکَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِیۡعًا ؕ وَ مَنۡ اَحۡیَاہَا فَکَاَنَّمَاۤ اَحۡیَا النَّاسَ جَمِیۡعًا
"जिसने किसी इन्सान को ख़ून के बदले या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल किया, उसने मानो तमाम इन्सानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो तमाम इन्सानों को ज़िन्दगी बख़्श दी।"
[क़ुरान 5:32]


अगर किसी इंसान के दिल में दूसरे इंसान की जान का अहतराम मौजूद है तो वह इंसान अपनी जिंदगी के बदले में उससे मोहब्बत करता है और उसकी मदद के लिए तैयार रहता है। यही दूसरी तरफ अगर एक इंसान दूसरे इंसान का कत्ल कर सकता है तो इसका मतलब यह है कि वह किसी का भी कत्ल कर सकता है, उसके दिल में किसी भी तरह का कोई रहम किसी के लिए नहीं होगा, उसके दिल में कोई हमदर्दी नहीं होगी, सारी इंसानियत का दुश्मन बन बैठेगा। इसलिए हमें नाहक कत्ल करने और दूसरे के माल को हड़पने से गुरेज़ करना चाहिए। और अल्लाह ताला जो दे उसी में सब्र और शुक्र करके खुश रहना चाहिए।


2.6. सूद (Interest)

किसी की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उसे कर्ज देकर ज्यादा माल वापस लेने का तकाज़ा करना यह बहुत बड़ा गुनाह है। आज हमारे समाज में सूद लेना-देना दोनों आम हो गया है। मुस्लिम हराम और हलाल का फर्क भूलते जा रहे है, उन्हें सिर्फ माल से मतलब है फिर वो कैसे भी आये। रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,


"सूद 70 गुनाहों के बराबर है जिसमें से सबसे छोटा गुना यह है कि आदमी अपनी मां के साथ ज़िना (निकाह) करें
[इब्ने माजा-2274, हसन]


इस हदीस में 70 की तादाद से मुराद गुनाह की ज़्यादती है। और उन सत्तर गुनाहों में सबसे छोटा गुनाह अपनी खुद की माँ के साथ ज़िना करने के बराबर है, क्या आप इस गुनाह का तसव्वुर भी सकते है। वहीं दूसरी तरफ,


रसूल अल्लाह (ﷺ) ने
"सूद खाने वाले, खिलने वाले, सूद की गवाही देने वाले और सूद का हिसाब रखने वाले पर लानत भेजी है।"
[इब्ने माजा-2277, सहीह]

 बैंक में सूद का कारोबार बहुत तेज़ी से चल रहा है, और हम मुस्लमान भाई-बहन सूद की रक्म लेने या बैंक से लोन लेकर ये रक्म अदा करने को सहीह साबित करने में लगे हुए है। अगर आपकी नज़र में सूद लेना-देना दोनों सही है तो इस हदीस से मुतअल्लिक़ आप क्या कहेंगे? सूद के ताल्लुक से अल्लाह ताला ने कुरान में फरमाया:


یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰہَ وَ ذَرُوۡا مَا بَقِیَ مِنَ الرِّبٰۤوا اِنۡ کُنۡتُمۡ مُّؤۡمِنِیۡنَ- فَاِنۡ لَّمۡ تَفۡعَلُوۡا فَاۡذَنُوۡا بِحَرۡبٍ مِّنَ اللّٰہِ وَ رَسُوۡلِہٖ ۚ
فَاِنۡ لَّمۡ تَفۡعَلُوۡا فَاۡذَنُوۡا بِحَرۡبٍ مِّنَ اللّٰہِ وَ رَسُوۡلِہٖ ۚ وَ اِنۡ تُبۡتُمۡ فَلَکُمۡ رُءُوۡسُ اَمۡوَالِکُمۡ ۚ لَا تَظۡلِمُوۡنَ وَ لَا تُظۡلَمُوۡنَ 
"ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो ! अल्लाह से डरो और जो कुछ तुम्हारा सूद लोगों पर बाक़ी रह गया है, उसे छोड़ दो अगर हक़ीक़त में तुम ईमान लाए हो। लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, तो आगाह हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से तुम्हारे ख़िलाफ़ जंग का ऐलान है।"
[क़ुरान 2:278-279]


अभी भी वक़्त है हमें इस गुनाह से तौबा कर लेनी चाहिए और जिन पर ये रक्म बाकी है उसे भूल जाना ही हमारे हक़ में है। सूद हराम है और हराम माल में कोई नफा नहीं है बल्कि ये हमारी आख़िरत के लिए नुकसानदेह है।


2.7. ग़ीबत (Backbiting)

ग़ीबत का मतलब "किसी की गैर मौजूदगी में उसकी की जाने वाली बुराई या आदमी किसी इंसान की पीठ पीछे उसके बारे में ऐसी बात कहे जो अगर उसे मालूम हो तो उसे ना-गवार गुज़रे।" यह अल्लाह की बहुत बड़ी नाफरमानी है जिसने सोसाइटी को अपनी लपेट में लिया हुआ है। ग़ीबत ज़िना से ज्यादा संगीन गुनाह है।  अल्लाह ताला ने कुरान में फरमाया:


وَ لَا یَغۡتَبۡ بَّعۡضُکُمۡ بَعۡضًا ؕ اَیُحِبُّ اَحَدُکُمۡ اَنۡ یَّاۡکُلَ لَحۡمَ اَخِیۡہِ مَیۡتًا فَـکَرِہۡتُمُوۡہُ
"और तुम में से कोई किसी की ग़ीबत न करे। क्या तुम्हारे अन्दर कोई ऐसा है जो अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाना पसन्द करेगा? देखो, तुम ख़ुद इससे घिन खाते हो।"
[क़ुरान 49:12]


ग़ीबत को मुर्दा इंसान का गोश्त खाने के बराबर करार दिया गया है इसके बावजूद इंसानों का गोश्त खाया जा रहा है। रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,


"जिस ने किसी भाई पर जुल्म किया हो उसे चाहिए कि इस से दुनिया में माफ करा ले क्योंकि आखिरत में रुपए पैसे नहीं होंगे इससे पहले माफ करवा ले वरना उसके भाई के लिए उसकी नीतियों में से हक दिलाया जाएगा, और अगर उसके पास ने किया नहीं होंगी तो उस मसरूम भाई की बुराइयां उस पर डाल दी जाएंगी।"
[सही बुखारी-6534]


हर वह इंसान जो किसी भी तरह की ग़ीबत या बुरी नियत से किसी की बुराई करता है उसे तौबा और अस्तगफार करना चाहिए और यह उसके और अल्लाह के दरमियान है। 
अगर उसे मालूम हो कि उसकी कोई बात उस इंसान तक पहुंची जिसके बारे में वह कह रहा था तो उसे चाहिए कि उसके पास जाए और उससे माफी मांगे। लेकिन अगर वह नहीं जानता तो उसे ना बताएं। वह उसके लिए मग़फिरत की दुआ करें और उसके लिए दुआ करें और उसकी गैरमौजूदगी में उसके बारे में अच्छा कहे जैसा कि उसने उसके खिलाफ किया था। इसी तरह अगर वह जानता है कि उसके कहने से दुश्मनी पैदा होगी तो उसके लिए दुआ करना, उसके बारे में अच्छा कहना और उसके लिए मगफिरत की दुआ करना काफी है। 

इसी तरह झूठ, तकब्बुर (arrogance, हक बात को झुठलाना और दूसरों को हकीर जानना), हसद (जलन), बुग़्ज़ (वह दुश्मनी जो मन ही मन में बढ़ायी जाय) बहुत बड़े-बड़े गुनाह है।


2.8. फिजूलखर्ची (Wasteful Spending)

फिजूलखर्ची का मतलब बेवजह फालतू का खर्च करना। जो नेमतें अल्लाह ने दी हैं उन्हें जरूरत के मुताबिक किफायत से इस्तेमाल करना चाहिए ना की बेकार कामों में वक़्त और पैसा दोनों बर्बाद किया जाये। फ़ुज़ूलख़र्च के ताल्लुक से अल्लाह ताला ने कुरान में फरमाया:


اِنَّ الۡمُبَذِّرِیۡنَ کَانُوۡۤا اِخۡوَانَ الشَّیٰطِیۡنِ
"फ़ुज़ूलख़र्च लोग शैतान के भाई हैं।"
[क़ुरान 17:27]


बिना जरूरत माल खर्च करने वालों को शैतान का भाई क़रार दिया गया है। हमारे समाज में ये अमल भी तेज़ी से अपनाया जा रहा है। लोग ज़रुरत से ज़्यादह खाना बना कर या होटल से खाना लाकर उसे बर्बाद कर सकते है, जानवरों को खिला सकते हैं पर अपने भूखे पडोसी या रिश्तेदार का पेट नहीं भर सकते। अल्लाह ताला फरमाता है:


ۖوَ لَا تُسۡرِفُوۡا ؕ اِنَّہٗ لَا یُحِبُّ الۡمُسۡرِفِیۡنَ
और फ़ुज़ूलख़र्ची न करो। याद रखो! वह फ़ुज़ूलख़र्ची करने वाले लोगों को पसन्द नहीं करता।
[क़ुरान 6:141]


अल्लाह ताला फ़िज़ूलखर्च करने वालों को बिलकुल पसंद नहीं करता। हमें उन लोगों में बनना है जिन्हे अल्लाह पसंद करता है, उनसे मोहब्बत करता है तो हमें इस न-पसंदीदा अमल से दूर रहना होगा। रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,

 "खाओ, सदका करो और पहनो लेकिन इसराफ (फिजूलखर्ची) और गुरुर (घमंड और तकब्बुर) से बचो।"
[सुनान नसई-2560, सहीह]


अल्लाह ताला ने जो भी चीजें हमें दी हुई है हमें उनका इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन बेवजह किसी चीज का इस्तेमाल करना मसलन बिना जरूरत शॉपिंग में पैसे खर्च करना, कोई ऐसा सामान लाकर रखना जिसकी कोई जरूरत ना हो यह फिजूलखर्ची में आता है और इस चीज से अल्लाह ताला ने मना किया है। हमें चाहिए कि हम फिजूलखर्ची से बचें और यही पैसे जो हम इधर उधर खर्च करते हैं उसे नेक राह में लगा सकते हैं जैसे मदरसे के बच्चों पर खर्च कर सकते हैं, गरीबों की मदद कर सकते हैं, अपने गरीब रिश्तेदारों पर खर्च कर सकते हैं वगैरह।


2.9. बदगुमानी और तजस्सुस (Assumption and Investigation)

बदगुमानी और तजस्सुस न करो, दूसरों के राज़ ना टटोलो। एक दूसरे के ऐब अपना तलाश करो। दूसरों के हालात कैसे हैं और वह कैसे गुजर-बसर कर रहे हैं इसकी खोज मैं ना रहो। यह हरकत बस गुमानी की वजह से की जाए या बुरी नियत से किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए की जाए, या सिर्फ अपनी जिज्ञासा दूर करने के लिए की जाए हर हाल में तो तजस्सुस से मना किया गया है। गुमान करने से नहीं रोका गया है बहुत ज्यादा गुमान से काम लेने और हर तरह के गुमान की पैरवी करने से मना किया गया है और इसकी वजह यह बताई गई है कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं। अल्लाह ताला फरमाता है:


یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا اجۡتَنِبُوۡا کَثِیۡرًا مِّنَ الظَّنِّ ۫ اِنَّ بَعۡضَ الظَّنِّ اِثۡمٌ وَّ لَا تَجَسَّسُوۡا
"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बहुत गुमान करने से बचो कि बहुत-से गुमान गुनाह होते हैं। तजस्सुस न करो (टोह में न लगो)।"
[क़ुरान 49:12]


एक मोमिन का यह काम नहीं है कि जिन के हालात पर पर्दा पड़ा हुआ है उसकी खोज करके और पर्दे के पीछे झांकन कर यह मालूम करने की कोशिश करें यह किस में क्या ऐप है और किसकी कौन सी कमजोरी छुपी हुई है। दूसरों के फोन की छानबीन करना, के पर्सनल मैसेज पढ़ना, कान लगाकर दो या दो से ज्यादा लोगों के बीच में होने वाली बातों को सुनना, दूसरों के घरों में झांकना और इसी तरह की दूसरी हरकतों से दूसरों की जिंदगी में छानबीन करना बद-अखलाकी है।


2.10. बे-हयाई से मुकम्मल इज्तिनाब

अल्लाह ताला बहुत बा-हया है शैतान बहुत बेहया है। शैतान की हर मुमकिन कोशिश है कि बे-हयाई और बे-परदादी आम हो जाए। ज़ालिम शैतान लोगों को हुकमन बे-हयाई पर अमादा करता है जिसका जिक्र हमारे खालिक ने यू किया:


اَلشَّیۡطٰنُ یَعِدُکُمُ الۡفَقۡرَ وَ یَاۡمُرُکُمۡ بِالۡفَحۡشَآءِ
"शैतान तुम्हें ग़रीबी और तंगदस्ती से डराता है और तुम्हें बेहयाई का हुक्म देता है।"
[कुरान 2:268]


अगर सोचा जाए तो बे-हयाई किसी के फायदे में भी नहीं। हर तो जरूर चाहता है कि उसकी बेटी, बहन की इज्जत महफूज रहे तो दूसरों की बहन बेटी के लिए भी ऐसा ही सोचना चाहिए। यह बात आपको समझ आ गई है तो यकीनन इस हुक्म की वजह आप समझ चुके होंगे। अल्लाह ताला ने इस गुनाह से बचने का सख्त हुक्म यू दिया:


وَ لَا تَقۡرَبُوا الۡفَوَاحِشَ مَا ظَہَرَ مِنۡہَا وَ مَا بَطَنَ
"और बेशर्मी की बातों के क़रीब भी न जाओ [ 130] चाहे वो खुली हों या छिपी।"
[कुरान 6:151]


बे-हयाई और बे-पर्दागी से पूरी तरह दूर रहने का हुक्म दिया गया है क्योंकि यह चीजें आगे चलकर बदकारी का जरिया बनती है। इस सख्त हुक्म के बावजूद इस दौर में ज़ालिम शैतान कामयाब हो चुका है और बे-पर्दागी हर रंग में अपने उरूज पर है। औरत के हुकूक ज़बरदस्ती छीने नहीं गए बल्कि इसके अपने फायदे और इज्जत-ओ-आबरू की हिफाजत के लिए मर्दों के ताल्लुक से सख्ती से मना किया गया है। इसलिए यह जरूरी है कि औरतों की तालीम और तबीयत के लिए अलग इंतजाम किया जाए। तमाम लोगों से अपील है के अल्लाह ताला के इस हुक्म के सामने सर झुका दे और कुछ दिनों की खुशियों के लिए आखिरत के फायदे पर हरगिज तर्जी ना दे। अल्लाह हम सबको माफ करें। आमीन


2.11. दूसरे बड़े और बुरे इंसानी अमल 

इसके अलावा मायूसी, लोगों का मजाक उड़ाना, किसी पर तोहमत लगाना, बद-एख्लाकी, शराब, जुआ वगैरह भी बड़े अमल में शामिल है। बहुत बड़ी शहादत तो ये है कि दूसरों को आसानियां, खुशियां और फायदे पहुंचाएं जाए। अपने फायदे पर दूसरों को तरजीह देना बहुत बड़ी अज़मत है अगर किसी को नसीब हो। अगर हम इन चीजों पर अमल करें तो आखिरत के साथ-साथ हमारी दुनिया की जिंदगी भी पुर-सुकून हो जाए।


3. इबादत (Worship)


इंसानी इतिहास की शुरुआत के बाद से, इबादत ने लोगों की ज़िन्दगी में एक अहम किरदार निभाया है। रीति-रिवाजों और कई तरह की मान्यताओं में फर्क के बावजूद एक इबादतगुज़ार इंसान की इबादत इंसानो को एक साथ बांधती है। हम अक्सर इबादत को अलग-अलग धार्मिक कामो के साथ जोड़ते हैं। हालाँकि, इस्लाम में इबादत की कैसे की जाती है ये हर तरफ़ फैला हुआ और इसमें इबादत के साथ-साथ रोज़मर्रा के काम भी शामिल हैं। इस्लाम में, इबादत ही हमारे वजूद का असल मक़सद है। कुरान में अल्लाह फरमाता है,

وَمَا خَلَقْتُ ٱلْجِنَّ وَٱلْإِنسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ
"मैंने जिन्न और इंसान को इस के सिवा किसी काम के लिए नहीं बनाया के वो मेरी बंदगी (इबादत) करें।"
क़ुरान 51:56]

मुसलमान अल्लाह की इबादत मोहब्बत और ताबेदारी से करते हैं, जो कायनात का ख़ालिक़ और पालनेवाला है। वही एक अल्लाह है जो पूरी तरह से अनोखा है और सिर्फ वही इबादत करने के मुस्तहिक़ है। इस्लाम के पाँच अरकान हैं जो ईमान और इबादत के लिए जरूरी होते हैं:

  • शहादत देना
  • नमाज़ कायम करना
  • ज़कात देना
  • रोजा रखना
  • हज करना

मुसलमान होने के लिए सबसे पहले शहादत देना यानी इस बात को तस्लीम करना कि "अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और हजरत मोहम्मद (ﷺ) उसके बंदे और रसूल हैं।" यह पहली बुनियाद है जिस की शहादत हर मुसलमान को देनी होती है उसके बाद आती है "नमाज" एक अच्छा और सच्चा इबादतगुज़र बनने के लिए हमें इन छः बातों पर अमल करना चाहिए: 

  1. तरजीह के साथ नमाज का एहतिमाम
  2. खुशी के साथ जकात अदा करना
  3. रमजान के रोजे रखना
  4. हैसियत हो तो हज करना
  5. कुर्बानी करना
  6. तस्हीह नियत (नियत दुरुस्त करना)


3.1. तरजीह के साथ नमाज का एहतिमाम

मुस्लमान जानता हैं कि इस्लाम मे पांच (5) वक्त की नमाज़ फर्ज़ है। नमाज को सुकून के साथ ख़ुशू'-ओ-ख़ुज़ू' अख्तियार करते हुए रुकन को अलहदा अलहदा तसल्ली से अदा करना बिल-ख़ुसूस नमाज के फराइज़ हैं। जब नमाज का वक्त हो जाए पहली फुर्सत में तरजीह के साथ जमात के साथ नमाज अदा करना साथ ही नमाज को ता-खैर से पढ़ना और जमात छोड़ने का मतलब यह है कि अल्लाह हमारी तरजीह अव्वल नहीं बल्कि जिन कामों की वजह से हमने नमाज में ताखीर की वह हमारी तरजीह है। कोई मजबूरी हो तो ठीक है लेकिन यह तो लोगों की आदत बन चुकी है। कुरान में अल्लाह फरमाता है,


اِنَّ الصَّلٰوۃَ کَانَتۡ عَلَی الۡمُؤۡمِنِیۡنَ کِتٰبًا مَّوۡقُوۡتًا
"नमाज़ हक़ीक़त में ऐसा फ़र्ज़ है जो वक़्त की पाबन्दी के साथ ईमानवालों पर लाज़िम किया गया है।"
[क़ुरान  4:103]


आज का मुसलमान नमाज की तरफ रूज़ू करना ही नहीं चाहता, उसे पाँच मिनट की नमाज पाँच घंटों या पाँच महीनों सी मालूम होती है। हमें चाहिए के हम खुद को नमाज़ी बनाये साथ ही अव्वल वक़्त पर अदा करें। नबी-ए-करीम (ﷺ) ने फ़रमाया: 


"सबसे अफज़ल अमल अव्वल वक्त पर नमाज पढ़ना है।"
[इब्न हिब्बान-280]


नबी-ए-करीम (ﷺ) हमेशा नमाज अव्वल वक्त पर अदा करते थे। अलबत्ता बाज़ मौके पर नमाज ताखीर से भी अदा की है। मतलब यह नहीं कि हम हर नमाज में ताखीर करें। नमाज को अव्वल वक्त पर अदा करने का ज्यादा सवाब है।


3.2. खुशी के साथ जकात अदा करना

नमाज और ज़कात हर ज़माने में दीन इस्लाम के अहम तरीन अरकान रहे हैं। हर मुसलमान पर फर्ज है कि वह अपनी सालाना कमाई का ढाई प्रतिशत (2.5%) हिस्सा गरीब और जरूरतमंद को दे। और यह दिया हुआ जकात हमारी हलाल कमाई का होना चाहिए। 


وَ اَقِیۡمُوا الصَّلٰوۃَ وَ اٰتُوا الزَّکٰوۃَ
"नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो।"
[क़ुरान 2:43]


ज़कात देने में किसी तरह की कोताही ताकि नहीं करनी चाहिए हमेशा वक्त पर खुशी के साथ जकात अदा करते रहना चाहिए जरूरी नहीं कि सिर्फ ढाई प्रतिशत ही आप जकात के पैसे अदा करें बल्कि इससे ज्यादा भी आप देना चाहे तो दे सकते हैं। जकात हमें जहन्नम की आग से बचाता है और गुनाहों को मिटाता है। सदक़ा कभी भी लोगों को जाता कर या दिखा कर नहीं देना चाहिए बल्कि यह इस तरह से दिया जाए कि दाएं हाथ से दें और बाएं हाथ को भी पता ना चले। कुछ लोग दिखावे की खातिर ज़कात देते हैं जो कि बिल्कुल गलत है। हम जो भी खर्च करें वह अल्लाह की राह में खर्च करें ना कि दिखावे के लिए।


3.3. रमजान के रोजे रखना

दीन ए इस्लाम में रोजा चौथा अरकान है। ये एक ऐसे इबादत है जिसमें मुसलमान दिन के वक्त कुछ नहीं खाते- पीते, झूठ, धोखा, बुराई और रोजे के दौरान जिस्मानी तालुकात से दूर रहते हैं। इस्लामी महीने रमजान में पूरा एक महीना रोजा रखा जाता है जिसमें लोग अल्लाह की खूब इबादत करते हैं, कुरान पढ़ते हैं, फर्ज नमाज़ के साथ तरावीह भी पढ़ते हैं।


یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا کُتِبَ عَلَیۡکُمُ الصِّیَامُ کَمَا کُتِبَ عَلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ لَعَلَّکُمۡ تَتَّقُوۡنَ 
"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ कर दिये गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के माननेवालों पर फ़र्ज़ किये गए थे। इससे उम्मीद है कि तुममें परहेज़गारी की सिफ़त [ गुण] पैदा होगी।"
[क़ुरान 2:183]


अल्लाह हमारे लिए आसानी चाहता है। वह हम पर सख्ती नहीं चाहता। 1 महीने के रोजे से हमारा तक्वा बढ़ता है। हम बुराई से दूर होते हैं और दिन-रात अल्लाह की इबादत में लगे रहते हैं। लेकिन कुछ घरों का हाल यह है कि रमजान में तो वह खुद इबादत करते हैं लेकिन रमजान खत्म होने के बाद ही उनकी सारी इबादतें खत्म हो जाती हैं ना नमाज अदा करते हैं ना कुरान पढ़ते हैं। हमें इस बात का ख्याल रखने की जरूरत है कि अल्लाह ने हमें अपनी इबादत के लिए पैदा किया और हमें अपनी पूरी जिंदगी उसकी इबादत करनी है।


3.4. हैसियत हो तो हज करना

हर वह मुसलमान जो सेहतमंद और मालदार भी चाहिए कि वह अपनी पूरी जिंदगी में कम से कम एक दफा हज करें। हालांकि हज का मक़सद मुसलमानों पर बोझ नहीं है और मुसलमानों को सिर्फ तब हज करना है जब यह उनके हैसियत के मुताबिक हो। बहुत कमजोर, बीमार, बूढ़े या दूसरी सूरत में जिस्मानी तौर पर माज़ूर मुसलमान को हज करने से मना किया गया है। रसूल अल्लाह ने फरमाया:


"जिसने अल्लाह की रजा के लिए हज किया और अपनी बीवी से सोहबत नहीं की और ना कोई बुराई और गुनाह किया तो वह (हज के बाद तमाम गुनाहों से पाक) ऐसे लौटेगा जैसे वह नए सिरे से पैदा हुआ हो।"
[सही बुखारी-1521]


हज मुसलमानों को अपने रूहानी नफ्स को ताजा करने, उनके गुनाहों से पाक करने और अल्लाह के करीब होने का मौका देता है।


3.5. कुर्बानी करना

इस्लाम में कुर्बानी अल्लाह के लिए खालिस नियत के साथ जानवर की कुर्बानी का अमल है। दुनिया भर के तमाम मुसलमान ईद-उल-अज़हा के पहले तीन दिनों में बकरी, भेड़, गाय और ऊंट की कुर्बानी करते हैं। ईद-उल-अज़हा ज़िल्हिज्जा की 10 से 13 तारीख को मनाई जाती है। यह हमें हजरत इब्राहिम (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) की हजारों साल पहले की कुर्बानी की याद दिलाता है, जिन्होंने अल्लाह के लिए अपने बेटे की जान कुर्बान करने के लिए खुद को तैयार किया। अल्लाह ताला ने हमें कुरान में कुर्बानी करने की हिदायत दी है। यह आयत मुसलमानों के लिए कुर्बानी की अहमियत को जा़हिर करती है:


قُلۡ اِنَّ صَلَاتِیۡ وَ نُسُکِیۡ وَ مَحۡیَایَ وَ مَمَاتِیۡ لِلّٰہِ رَبِّ الۡعٰلَمِیۡنَ 
"कहो : मेरी नमाज़, मेरी इबादत की सारी रस्में, [ 143] मेरा जीना और मेरा मरना, सब कुछ अल्लाह, सारे जहानों के रब के लिये है।"
[क़ुरान 6:162]


मेरी इबादत की सारी रस्में का ताल्लुक कुर्बानी से भी है। इसलिए कुर्बानी हर मुसलमान को अदा करनी चाहिए अगर वह इसकी ताकत रखता है। इस्लाम में कुर्बानी की बड़ी फजीलत है। कुर्बानी के सही अहकाम के साथ अल्लाह की रजा़ के लिए कुर्बानी का अमल अंजाम देने वाले के लिए बेहतरीन अजर है।


3.6. तस्हीह नियत (नियत दुरुस्त करना)

अमाल अल्लाह की रज़ा की खातिर करना, दुनिया की शोहरत, इज्जत और नाम के बजाय अल्लाह को राजी करने की नियत से नेक अमल करना, अगर नियत ठीक हो तो अक्सर दुनियावी काम भी दीनी बन जाते हैं। जैसे अल्लाह की रजा की खातिर मुल्क और कौ़म की तामीर और तरक्की मैं हिस्सा लेना, तालीम हासिल करना, रिज़्क हलाल कमाना वगैरा।


4. दीन को दूसरों तक पहुंचाना (फ़रीज़ा दावत-ओ-तबलीग)


किसी भी अक़ीदह को हकीकी जिंदगी में लागू करने के सिलसिले में, या उसके सीखने, उसकी तबलीग करने, दूसरों को उसकी तरफ बुलाने और उसके खिलाफ जाने वालों को हिकमत और खूबसूरत तबलीग के ज़रिए किया जाता है। इस तरह अकीदा फैलता है और उसके असरात जा़हिर होते हैं ताकि हम लोग उससे फायदा उठा सकें।नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"अल्लाह तआला उस शख़्स को तर-ओ-ताज़ा रखे जिसने मेरी कोई हदीस सुनी और उसे दूसरों तक पहुंचा दिया, इसलिए की बहुत से वो लोग जिन्हें हदीस पहुंचाई जाती है वो सुन ने वालों से ज़्यादा याद रखने वाले होते हैं।"
[इब्न माजा-232, सहीह]

जिस तरह हदीस पहुँचाने की बात कही गई है उसी तरह अपनी सलाहियतों के हिसाब से हक़ बात को अपने दूसरे भाइयों तक पहुंचाना ताकि वह भी ख़सारे से बचकर फायदा हासिल करने वाले बन जाए, खास तौर पर अपने हल्क़ा-ए-असर तक बात पहुंचाने की कोशिश करना जरूरी है। इसी तरह जुल्म और नाइंसाफी या बुराई होती दिखे तो हिकमत से अच्छा सलूक इख्तियार करते हुए उसे मना किया जाए। एक हदीस की रिवायत है, रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया: 

"जो शख़्स कोई बुराई देखे तो चाहिए की इस बुराई को अपने हाथ से रोक दे, जिसे इतनी ताक़त ना हो वो अपनी ज़बान से उसे रोक दे और जिसे इस की ताक़त भी ना हो वो अपने दिल में उसे बुरा जाने और ये ईमान का सबसे कमतर दर्जा है।"
[तिर्मिज़ी-2172, सहीह]

बुलंद दर्जा यही है कि अपने जान-ओ-माल के नुकसान पर बुराई और जुल्म के खात्मे को तरजीह दी जाए और हाथ से रोका जाए। हाथ से ना रोक सके तो ज़ुबान से मना किया जाए। अगर खतरे की वजह से जुबान से मना ना कर सके तो उस ज़ुल्म को दिल में बुरा जाने जोकि ईमान का सबसे छोटा दर्जा है।


5. तकलीफ पर सब्र करना


सब्र यह है कि किसी कि रुह को बेसब्री और नाराजगी से रोके, जुबान को शिकायत से और जिस्म के हिस्सों को खुद को या दूसरों को नुकसान पहुंचाने से रोके। सब्र का तकाजा़ कुरान और सुन्नत में कई मुकामात पर आया है जो सब्र की फजी़लत और अस्मत को ज़ाहिर करता है। अल्लाह ताला के नजदीक और इस्लाम में सब्र को बड़ा दर्जा हासिल है। सबसे बेहतरीन अमल है और इसका अजर अज़ीम है जिसकी कोई हद नहीं है। अल्लाह ताला ने कुरान में फरमाया:

اِنَّمَا یُوَفَّی الصّٰبِرُوۡنَ اَجۡرَہُمۡ بِغَیۡرِ حِسَابٍ
"सब्र करनेवालों को तो उनका बदला बेहिसाब दिया जाएगा।
[क़ुरान 39:10]

हम में से सिर्फ उन लोगों के लिए बड़ा अजर है जो अपने रब के हुक्म पर सब्र करते हैं। इस दुनिया में हमें बहुत सी मुश्किलात या आज़माइशों और मुसीबतों ना करना पड़ता है लेकिन हमें सब्र करना पड़ता है क्योंकि अल्लाह ताला मुश्किल वक्त में सब्र करने वालों को पसंद करता है। नबी करीम (ﷺ)  ने फ़रमाया: 

"नमाज़ नूर है, सदक़ा दलील है, सब्र रोशनी है।"
[सहीह मुस्लिम-223]

यह जिंदगी हर एक के लिए एक जैसी नहीं, खुश है तो कोई गम में है। इस बात को दिमाग में रखते हुए कि सिर्फ यही जिंदगी नहीं बल्कि असल जिंदगी तो इसके बाद शुरू होने वाली है, जैसे भी हालात हों अल्लाह पर यकीन रखते हुए जिंदगी में जो परेशानियां, मुसीबतें, बीमारियां वगैरह आए उन पर सब्र करना, बेसब्री ना करना। अल्लाह ताला ने उन लोगों के लिए जो आज़माइशों और मुसीबतों का सामना कर रहे हैं कहा कि वह उनकी रहनुमाई और मदद कर के और उन्हें खुले तौर पर कामयाबी देकर उनके साथ है। अल्लाह ने फरमाया:

اِنَّ اللّٰہَ مَعَ الصّٰبِرِیۡنَ
"यक़ीनन अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।"
[क़ुरान 8:46]

जो लोग सब्र करते हैं वही कयादत के हकदार होते हैं इसलिए हम कह सकते हैं कि कयादत सब्र के साथ आती है। सब्र करने वाले जन्नत में दाखिल होंगे जहां ना थकान होगी, ना बीमारी, ना गम और ना तकलीफे़। हम अपने मुश्किल वक्त में जिन आज़माइशों और मुसीबतों से गुजरते हैं उनके पीछे अल्लाह का बहुत बड़ा फैसला होता है। हम जिन आफत का सामना करते हैं और जो मुसीबतें हमारे रास्ते पर आती हैं वो हमें पहले से ज्यादा मजबूत बनाती हैं। अल्लाह हमें सब्र के साथ मुश्किलात का मुकाबला करने की तौफीक अता फरमाए। आमीन

6. ग़ैरत इस्लामी (दीनी ग़ैरत और खुद्दारी)


अल्लाह से हक़ीकी मोहब्बत ये तकाज़ा करती है के इंसान मे दीनी ग़ैरत और खुद्दारी हो। अल्लाह और रसूल, इस्लाम और इस्लाम की शान-ओ-अज़मत और ग़ैरत-ओ-आबरू की हिमायत करना अपना बुनियादी फराइज़ समझता हो और उनकी तक़रीर-ओ-तौहीन करने वाले को हरगिज़ दोस्त ना रखता हो। हाँ अगर किसी की इस्लाह खैर ख़्वाही के लिए ताल्लुक़ हो तो हर्ज नहीं। इसके साथ ही कुरान-ओ-सुन्नत मे बहुत रहनुमाई मौजूद है, बात को समझने के लिए सिर्फ एक आयत करीमा पेश-ए-खिदमत है अल्लाह ताला ने फरमाया:

وَ قَدۡ نَزَّلَ عَلَیۡکُمۡ فِی الۡکِتٰبِ اَنۡ اِذَا سَمِعۡتُمۡ اٰیٰتِ اللّٰہِ یُکۡفَرُ بِہَا وَ یُسۡتَہۡزَاُ بِہَا فَلَا تَقۡعُدُوۡا مَعَہُمۡ حَتّٰی یَخُوۡضُوۡا فِیۡ حَدِیۡثٍ غَیۡرِہٖۤ ۫ ۖاِنَّکُمۡ اِذًا مِّثۡلُہُمۡ ؕ اِنَّ اللّٰہَ جَامِعُ الۡمُنٰفِقِیۡنَ وَ الۡکٰفِرِیۡنَ فِیۡ جَہَنَّمَ جَمِیۡعَا 
"अल्लाह इस किताब में तुमको पहले ही हुक्म दे चुका है कि जहाँ तुम सुनो की अल्लाह की आयतों के ख़िलाफ़ कुफ़्र बका जा रहा है और उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है वहाँ न बैठो, जब तक कि लोग किसी दूसरी बात में न लग जाएँ। अब अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम भी उन्हीं की तरह हो। यक़ीन जानो कि अल्लाह मुनाफ़िक़ों और हक़ का इनकार करनेवालों को जहन्नम में एक जगह जमा करनेवाला है।"
[कुरान 4:140]

इसके अलावा कुरान को समझने का अहद कारें, इसके लिए ज़रूर कुछ वक्त निकलें। ज़रूरी अहकाम देखने के लिए सूरह मोमीनून (आयत 1 से 11), सूरह बकराह (आयत 177), सूरह अनाम (आयत 151 से 153), सूरह हुजरात और नूर का मुत'आला करें।

अगर आप गौर करें तो बताये गये अहकामात का ज्यादा हिस्सा हमारी दुनियावी जिंदगी की बेहतरी के लिए है जिसके बगैर हमारी दुनियावी जिंदगी आरामदायक नहीं हो सकती। सूराह असर मे इन्सान की निजात के काम से कम लाज़िम बयान किए गए हैं जिनमे से किसी एक को भी छोड़ कर निजात मे दाखिल हो सकता है। अल्लाह ने फरमाया:

وَ الۡعَصۡرِ-اِنَّ الۡاِنۡسَانَ لَفِیۡ خُسۡرٍ- اِلَّا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَ عَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَ تَوَاصَوۡا بِالۡحَقِّ ۬ ۙ وَ تَوَاصَوۡا بِالصَّبۡرِ
"ज़माने की क़सम! इनसान दरहक़ीक़त बड़े ख़सारे में है, सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए, और नेक आमाल करते रहे, और एक-दूसरे को हक़ की नसीहत और सब्र की तलक़ीन करते रहे।"
[क़ुरान 103: 1-2-3]

ये ख़सारा (नुकसान, loss) मामूली नहीं! अगर हम संजीदा ना हुए तो आखिरत का नुकसान कोई मामूली नुकसान नहीं। जगह जहां हमे हमेशा रहना हो, जहां वक्त खत्म ना हो, ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता इधर फस गए तो क्या बनेगा। यह तो तंगी और मुसीबत का वक्त भी गुजर जाता है अच्छे वक्त की उम्मीद भी होती है लेकिन वहां क्या करेंगे? अक्लमंद वही है जो थोड़े दिन की जिंदगी की खातिर आखिरत को दाव पर हरगिज़ ना लगाए। आखिरत में फसने वाला इंसान यूं हसरत करेगा:

وَ لَا یَسۡئَلُ حَمِیۡمٌ حَمِیۡمًا - ۖ یُّبَصَّرُوۡنَہُمۡ ؕ یَوَدُّ الۡمُجۡرِمُ لَوۡ یَفۡتَدِیۡ مِنۡ عَذَابِ یَوۡمِئِذٍ ۢ بِبَنِیۡہِ- وَ صَاحِبَتِہٖ وَ اَخِیۡہِ - وَ فَصِیۡلَتِہِ الَّتِیۡ تُـئۡوِیۡہِ - وَ مَنۡ فِی الۡاَرۡضِ جَمِیۡعًا ۙ ثُمَّ یُنۡجِیۡہِ - کَلَّا ؕ اِنَّہَا لَظٰی- نَزَّاعَۃً لِّلشَّوٰی - ۖتَدۡعُوۡا مَنۡ اَدۡبَرَ وَ تَوَلّٰی -
"और कोई जिगरी दोस्त अपने जिगरी दोस्त को न पूछेगा हालाँकि वो एक दूसरे को दिखाए जाएँगे। मुजरिम चाहेगा कि उस दिन के अज़ाब से बचने के लिये अपनी औलाद को अपनी बीवी को, अपने भाई को अपने क़रीब तरीन ख़ानदान को जो उसे पनाह देने वाला था,और पूरी ज़मीन के सब लोगों को फ़िदये में दे दे और ये तदबीर उसे नजात दिला दे। हरगिज़ नहीं। वो तो भड़कती हुई आग की लपट होगी जो गोश्त-पोस्त को चाट जाएगी, पुकार-पुकार कर अपनी तरफ़ बुलाएगी हर उस शख़्स को जिसने हक़ से मुँह मोड़ा और पीठ फेरी।"
[कुरान 70: 10-17]

अगर कोई इंसान इस्लाम की कुछ तसलीमा पर अमल करता है कुछ को नजरअंदाज करता है, कुछ वाजिबात की अदायगी में कोताही करता है, हराम कामों पर अमल करता है तो यह उसके ईमान और मोहब्बत में कमजोरी है अपने खालिक और उसके दीन के लिए। इबादत करने से ईमान बढ़ता है और गुनाह करने से कम होता है यह कोताहियां ईमान को मिटा देती हैं। वह इंसान इस्लाम मुर्तद हो जाता है जैसे कि नमाज पढ़ना छोड़ देता है।

मुसलमानों को ऐसे लोगों की जरूरत है जो उन्हें खा़लिस सही अक़ीदह की वजा़हत करें जोकि सालेह सलफ के फहम के मुताबिक कुरान और सुन्नत पर मबनी हो। जैसे जहालत, बिदअत, खुराफात और मुख्तलिफ मकातिब (schools) के वजूद की वजह से है।


By Islamic Theology

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