Tawheed (Monotheism) aur madiyatparasti (Materialism)

Tawheed (Monotheism) aur madiyatparasti (Materialism)


तौहीद (एकेश्वरवाद) और मादापरस्ती (भौतिकवाद)


इस क़िस्से का मक़सद हमें ये समझाना है कि सिर्फ़ बुतपरस्ती ही शिर्क नहीं होता जिस चीज़ को अल्लाह से ज़्यादा तरजीह दी जाए वो हमारा माबूद बन जाता है। बाग़ वाले का असल शिर्क मादियतपरस्ती  (مادیت پرستی /Materialism/भौतिकवाद) है। मादा परस्त (materialistic) इंसान अल्लाह पर ईमान लाकर दुनिया की आरज़ी (temporary) नेअमतों में मस्त हो कर अल्लाह और आख़िरत से दूर हो जाता है।ऐसा इंसान अपनी ज़िंदगी का असल मक़सद भूलकर अपना सारा वक़्त और सलाहियत सिर्फ़ अपने कारोबार या नौकरी को दे देता है। वो भूल जाता है कि अल्लाह रज्ज़ाक है। जिसके दिल में माल की मुहब्बत हो वहां अल्लाह की मुहब्बत और मारिफ़त कैसे आ सकती है?

क्या आज हममें से ज़्यादातर का यही हाल नहीं है? चाहे वो मर्द हो या औरत। हदीस में मिलता है कि इस उम्मत का फ़ितना (test) माल है।


अल्लाह की अता हुई नेअमतें


क़िस्सा कुछ इस तरह है कि अल्लाह ने दो शख़्सों में से एक शख़्स को अग़ूरो के दो ऐसे बाग़ अता किये थे जो खजूरों के दरख़्तो से घिरे हुए थे।वो खजूरों के दरख़्त कमज़ोर अंगूर की बेलों की तेज़ हवा, आंधी, तूफ़ान से चार दीवारी की तरह हिफ़ाज़त कर रहे थे। अल्लाह ने दोनों बाग़ों के बीच में खेती का इंतेजाम भी कर दिया था। अल्लाह के ही हुक्म से दोनों बाग़ हर मौसम में बिना कुछ कमी के ख़ूब फल उगाते थे। पानी की ज़रूरियात के लिए अल्लाह ने उनके बीच में एक नहर भी निकाल दी थी।

हर लिहाज़ से ये एक मिसाली बाग़ था। 

अल्लाह ने तीन आयतों में (32 से  34 तक) उस शख़्स की नेअमतों को बयान किया है।इसे समझना ज़रूरी है।


बाग़ वाले की गुफ्तगू

 

दूसरे शख़्स से गुफ्तगू के दौरान मालदार शख़्स तकब्बुर में आकर उसे कमतर होने का अहसास कराने लगा।इस तरह उसने ग़रीब शख़्स को ताना देकर दिल दुखाने का भी गुनाह किया। जबकि माल या औलाद में कमी या ज़्यादती होना अल्लाह की तरफ़ से एक आज़माईश होती है। अल्लाह की लिखी तक़दीर भी होती है और तक़दीर पर ईमान लाना भी फ़र्ज़ है।

अल्लाह के नबी का फरमान है कि तुम्हें रोज़ी भी ग़रीबों की वजह से मिलती है।दूसरी हदीस का मफ़हूम है कि नबी ने मिसकीनों में ज़िन्दा रहने, बैठने और मिसकीनों में ही हश्र करने की दुआ की है।

कुछ देर हमे यहां अपना जायज़ा भी लेने की ज़रूरत है कि हममें अपनी किन- किन नैअमतों का कितना किब्र (arrogance) समां गया? और हम उससे तौबा करें इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।

अल्लाह ने सब कुछ अता किया और वो शख़्स इसे सिर्फ़ अपनी मेहनत का नतीजा समझ रहा था। अपनी ज़बान से कुफ्र के अल्फ़ाज़ बोल रहा था।

एक हदीस का मफ़हूम भी यही है कि तकब्बुर हक़ को छिपाना और दूसरो को हक़ीर समझना है।

जैसे कोई फेरीवाला है या शोरूम का मालिक तो ये सब अल्लाह की तरफ़ से है। या जो लोग महंगी शादियां करके फख़्र करते हैं। उन फक़्शन में ग़रीब वेटर और ग़रीब  मेहमान भी शामिल होते हैं। क्या अपनी दौलत की नुमाईश करके, मुफलिस लोगों को कमतरी का अहसास करा कर मालदार लोग अल्लाह के ग़ज़ब में नहीं आएंगे?

लोग अपने हर तरह के फ़ोटो या स्टेटस सोशल मीडिया पर डालकर जाने-अज़ाने में लोगों के लिए मसला बन रहें हैं‌ क्या इस तरह रियाकारी के गुनाह नहीं बढ़ रहें हैं? दूसरी तरफ हसद और बदनज़री का भी शिकार हो जाते हैं। 

ज़्यादा माल, दौलत, औलाद,  इज़्ज़त का होना अल्लाह के हमसे राज़ी होने की निशानी नहीं है? और न ही गुनाह है। ये सख़्त आज़माईश है।अल्लाह ने नेंअमतो को एन्जॉय करने से मना नहीं किया, लेकिन फ़िज़ूलखरची, रियाकारी, और कंजूसी से मना किया है। नेअमतें शुक्र करने के लिए होती है, ग़रीबों का हक़ अदा करने के लिए होती है ।दूसरो को नीचा दिखाने के लिए नहीं होती‌।

وَدَخَلَ جَنَّتَهٗ وَهُوَ ظَالِمٌ لِّنَفۡسِهٖ‌ ۚ قَالَ مَاۤ اَظُنُّ اَنۡ تَبِيۡدَ هٰذِهٖۤ اَبَدًا

इस आयत का मफ़हूम ये है कि अपने बाग़ की नेअमतों को देखकर शुक्र करने के बजाय उसने बाग़ कभी न ख़त्म होने का भी गुमान कर लिया और आख़िरत का भी इंकार कर बैठा। 

यहां उसने اَبَدًا (हमेशा) अल्फ़ाज़ कहा और ये लफ़्ज़ अल्लाह ने जन्नत और जहान्नुम के लिए कहें हैं।

वो दावा भी कर बैठा कि अगर वो अल्लाह की तरफ़ लौट भी गया तो उसे इससे ज़्यादा नेअमतें दी जाएगी।(क़यामत का इंकार कर रहा है और मौत का भी  कुछ-कुछ यक़ीन है।)

अगर हम अपने मकान, फ्लैट और प्रोपर्टी के लिए भी उस बाग़ वाले की तरह सोच रहें हैं तो हम अपनी इस्लाह कर लें। बेशक जन्नत आसानी से मिल जाने वाली कामयाबी नहीं है। अल्लाह की रहमत से ही लोग जन्नत में दाखिल होंगे।जैसा कि हदीस में आता है कि राई के दाने बराबर क़िब्र  रखने वाला जन्नत में दाखिल नहीं होगा। और ये हदीस में आता है कि अल्लाह (इख़्लास से)शुक्र करने वालों को और ज़्यादा अता करता है।


साहिबे ईमान की नसीहत


दूसरा साहिबे ईमान जो माल, दौलत, औलाद में उससे कम था लेकिन उसे अल्लाह की मारिफ़त हासिल थी। उसने आख़िरत के इंकारी को बुराई से रोकने का हक़ अदा करते हुए  तौहीद की हिदायत की और गुमराही और  ग़ुरूर से रोका ,साथ ही पांच नसीहतें भी कीं:

1. उसकी हक़ीक़त याद दिलाई कि अल्लाह ही ख़ालिक़ है। मिट्टी और नापाक पानी से पैदा करने वाला। यानि क़यामत की भी याद दिलाई।

2.अक़ीदा तौहीद की दावत की। ( बाग़ वाले ने अल्लाह के साथ माल और नेअमत को भी अपना माबूद बना कर कुफ्र कर लिया था, अपने असबाब पर भरोसा कर लिया था।) मादियतपरस्ती, नफ़्सपरस्ती, वतनपरस्ती भी शिर्क की किस्में हैं।

3. लहलहाते खेत और बाग़ो को देखकर उसने माशा अल्लाह ला हव ल वला क़ुव्वता क्यो नहीं कहा कि ये मेरा कमाल नहीं बल्कि अल्लाह की देन है जो असल ताक़त और इख़्तियार का मालिक है।माशा अल्लाह वो कलमा है जिसमें तौहीद कूट कूट कर भरी है। जो अल्लाह चाहता है वही होता है। असबाब व वसाईल भी कुछ नहीं कर सकते। (अपनी नेअमतो पर हमें भी ये कहना चाहिए।)

4.आज कोई माल और औलाद में कम है अल्लाह कल हालात बदलने पर भी क़ादिर है। किसी को हक़ीर नहीं समझना चाहिए।

5.अल्लाह आसमानी आफ़त या जिस तरह भी चाहे, सब ख़त्म भी कर सकता है या (water level) पानी गहराई में इतना नीचे हो जाए कि हासिल न हो सके।  जैसे चलते दरिया सूख जाते हैं। बोरिंग करने पर पानी नहीं निकलता।

आसमानी आफ़त कोई रोक नहीं सकता।हवा के बिना हम रह नहीं सकते लेकिन वही हवा अल्लाह के हुक्म से अज़ाब ले आती है।


मुफ़स्सिरीन लिखते हैं कि उस मोमिन शख़्स ने बद्दुआ नहीं की बल्कि उस ग़ुरूर शख़्स की इस्लाह की फिर कुछ वक़्त के बाद उस पर अज़ाब आया।

हमें समझने की ज़रूरत है कि शैतान को बहकाने कोई दूसरा शैतान नहीं आया था बल्कि उसके किब्र ने अल्लाह को नाराज़ किया उसके बाद तौबा भी नहीं की।


बाग़ वाले की नेअमतो का ज़़वाल


अल्लाह ने हक़ीक़त समझाने के लिए उस शख़्स से वो नेअमते छीन ली और अपनी क़ुदरत को उस पर ज़ाहिर कर दिया। हालांकि उस शख़्स ने अपना वक़्त और पैसा लगाया था लेकिन वक़्त यानि ज़िंदगी भी अल्लाह की अता, सलाहियत भी अल्लाह की, पैसा और पानी भी अल्लाह का, मिट्टी भी अल्लाह की और हम अल्लाह की नेअमतों को गिन भी नहीं सकते।

जब उसके बाग़ का फल पकने का वक़्त आया तो उसका बाग़ तबाह हो गया और कोई उसकी मदद भी नहीं कर सका। जिस बाग़ को वो परमानैन्ट समझ रहा था उसकी तबाही से हाथ मलता रह गया कि काश उसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं किया होता।


सबक


क़िस्सा हमें आजिज़ी सिखाता है कि हमारा कुछ नहीं। सब कुछ अल्लाह की तरफ़ से है और अल्लाह ही के लिए है ।
उस शख़्स ने अपनी मालदारी, अपने असबाब पर भरोसा कर लिया था।
यही वो मादियतपरस्ती का शिर्क था, जिसे हमें पहचानना और उससे बचना है। मादियतपरस्ती इंसान दज्जाल से भी नहीं बच सकता। 
इस सूरह का आग़ाज़ भी अलहम्दुलिल्लाह से हुआ है इस तरह हमें शुक्र करना भी सिखाती है। अल्लाह हमें शुक्र करने वाला बना दे और ज़वाल ए नेअमत से हिफ़ाज़त फ़रमाये। 
आमीन



मुसन्निफ़ा (लेखिका): तबस्सुम शहज़ाद 


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2 टिप्पणियाँ

  1. Mashallah ❤️🤲
    बहुत ही बेहतरीन आर्टिकल है
    उम्दा नसीहत है इंशनो के लिय
    अल्लाह तआला अमल की तौफीक अता फरमाए

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