क़ुरान पर अमल: लड़ना, झगड़ना और नाराज़गी
लड़ने, झगड़ने और फिर नाराज होकर कतआ (सबसे कट कट कर रहना) ताल्लुक कर लेने से बहुत से लोग मुश्किल में मसलो का आसान तरीन हल समझते हैं। खासतौर से औरतें सच्चाई से बच निकलने के लिए कतआ ताल्लुक ( सबसे कट कट कर रहना) और नाराजगी को अपना हथियार समझती हैं। अपनी नादानी से वह उसे अपना हांमी व मददगार जानती हैं। हालांकि नाराजगी सबसे ज्यादा नुकसानदेह चीज है।
सोचने की बात यह है कि क्या यह सारे रिश्तेदार और पड़ोसी काफिर हैं, क्योंकि इस आयत में तो काफिरों से अलग हो जाने का हुक्म है। अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ तो सिला-रहमी की ताकीद की गई है जब ऐसी रंज रखने वाली झगड़ालू औरतों से पूछा जाता है कि क्या यह सारे लोग काफिर है तो उनका जवाब इनकार में होता है जब आप भी मुसलमान हैं यह भी मुसलमान हैं तो उनसे कटकट कर रहना क्यों?
यह हकीकत हर मुसलमान पर वाजेह है कि जो मुसलमान दूसरे मुसलमान से कट कट कर ताल्लुक कर लेता है तो उसका कोई अमल भी उस वक्त तक आसमान की बुलंदियों की तरफ नहीं पहुंचता जब तक कि ताल्लुकात बहाल ना हो और नाराजगी खत्म ना हो जाए। झगड़ा एक ऐसा तीर है जिसका निशाना दुश्मन नहीं होता बल्कि हमारा अपना गिला होता है।
मैं इस आयत का मुद्दा और मतलब जाहिर किया और बहनों को बताया कि इस आयत पर अमल करने के लिए हमें अल्लाह पर कामिल ए यकीन और मुसलसल सब्र व बर्दाश्त से काम लेना होगा। मैंने दुआ की कि अल्लाह ताला इस आयत के मकसद पर अमल करने और उसके मुताबिक चलने की तौफीक अता फरमाए।
अब हमें अमल के नतीजे का इंतजार करना होगा अब तक हम अपने मसाइल (बहुत सारे मसले) को नजरअंदाज करते रहे हैं। हमें मुश्किलात से बच निकलने की आदत पड़ चुकी है। हमें अब हकीकत का सामना करना होगा। हम में से हर एक को अपने मुखालिफ (विरोधी/आपके खिलाफ रहने वाला) के साथ एक अमल तजुर्बा करना होगा फिर हम देखेंगे कि दुश्मन को जिगरी दोस्त में तब्दील करने में कितना वक्त लगता है और कितनी मेहनत की जरूरत होती है। हो सकता है कि आप मे से कोई अगले हफ्ते के दरस ए कुरान में आकर रो-रोकर यह बताएं कि जी मैं तो अपनी फला मुखालिफ के पास गई थी उसे मनाने और राजी करने के लिए बहुत कोशिश की लेकिन मुझे कामयाबी नहीं हुई।
मैं अपनी उन बहनों से कहूंगी कि वह अपने साथ सब्र व बर्दाश्त की दौलत भी लेकर जाएं। आप मुखालिफ के पास अकेली ना जाइए अपने साथ सब्र को भी लेकर जाइए बार-बार जाइए मायूस ना हो।
1. पहला वाक़्या:
इस पर हाजिर होने वालों में से एक ने बताया: "अल हमदुलिल्ला मुझे इस पर अमल करने की तौफीक मिली है। मेरा अपनी ननद के साथ झगड़ा था। मुझे उससे पसंदीदा ना गवार बातें सुननी पडती थी इसलिए मैंने उससे ना मिलने का फैसला कर लिया था। उसने मेरे इस फैसले का ज्यादा से ज्यादा जवाब दिया, मैं उसे पसंद करती हूं क्योंकि वह मेरे शौहर की बहन है, मेरी ननद है, मेरे बच्चों की फूफी है।"
मगर होता यह है कि शैतान हमें बहकाता है। हमारे गलत काम खुशनुमा बना कर पेश करता है तो हम उन्हें अच्छा समझने लगते हैं।
जब यहां दरसे कुरान ए करीम में इस आयत के बारे में तय किया तो मैंने घर जाकर इस आयत ए करीमा को बार-बार पड़ा और फैसला किया कि मैं दिल ओ जान से एक आयत पर अमल करूंगी। फैसला कर लेना तो आसान था मगर इस पर अमल इतना आसान न था। खतरा था कि, मेरी ननंद नहीं मानेगी रुकावट डालेगी।
मैं मुनासिब मौके की तलाश में थी ताकि इस नाराजगी को खत्म करूं। मुझे जल्द ही मौका मिल गया। मुझे मालूम हुआ कि मेरी ननंद अस्पताल में दाखिल है। उसके यहां तीसरे बच्चे की पैदाइश हुई थी। मैंने अपने शोहर से रिक्वेस्ट किया कि वह मुझे अपने साथ अस्पताल ले जाए ताकि मैं उसकी बहन से मुलाकात करूं।
पहले तो वह हैरान हुआ। फिर बड़ी खुशी से वह मुझे अपने साथ अस्पताल ले गया। मेरा दिल जो़र से धड़क रहा था। धक-धक कर रहा था।
मैंने दरवाजा खोला और मुस्कुराहट के साथ अंदर चली गई। मैंने अपनी ननद को बच्चे की पैदाइश पर और उसकी जान की सलामती पर मुबारकबाद दी, मगर वह मेरी तरफ ध्यान ना दी। और अपने भाई से ही बातें करती रही। मेरा शौहर परेशान था और उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। मैंने बच्चे को उठाया उसे प्यार किया। मैंने ननंद को खुशखबरी दी कि उसका बच्चा खूबसूरत है और इंशा अल्लाह ताला शआदतमंद बनेगा।
मेरी यह बातें सुनकर वह हल्की सी मुस्कुराई। खैर हमारी मुलाकात खत्म हुई। मैं कार में बैठी तो मैंने लंबी सांस ली, जो मेरे शौहर ने सुन ली। मैंने उसी वक्त अपने दिल में इरादा कर लिया की मैं कभी हार नहीं मानूंगी। अल्लाह का कलाम सच्चा है मेरा डर गलत है। मैंने तो अच्छा बरताव किया है, अब सिर्फ जिगरी दोस्त बनना रह गया है। मुझे सब्र करना होगा घर पहुंचते ही मैंने जो मेरे दिल में डर था उसे निकालकर झटक दिया और बुराई को नेकी से दफा करने का पक्का इरादा कर लिया।
मैंने बच्चों के लिए खाना तैयार किया और खाना लेकर ननंद के घर जा पहुंची उनकी खैरियत मालूम की और वापस घर आकर मैं रात को इंतिहाई सुकून से सोई। मुझे अल्लाह के हुक्म की तामील की खुशी थी और इस बात का यकीन था कि इसका नतीजा जल्द सामने आएगा।
अगले दिन मैंने अपनी ननद के नज़रअंदाजी के बारे में मालूम किया तो मालूम हुआ कि वह मेरे इस अमल से बहुत खुश है और मेरी शुक्रगुजार है।
मैंने उसके बच्चों के साथ जो सलूक किया था उसका उस पर खुशगवार असर पड़ा। मैंने उस दिन भी खाना तैयार किया, यह खाना पहले खाने से बढ़कर था। मैं खाना लेकर फिर ननंद के घर गई अब मेरी कोशिशों और मेहनत का नतीजा सामने आने लगा था। मैं उसके बच्चों का ख्याल रखने लगी। अब मेरी ननंद मेरे साथ मोहब्बत व नरमी से बातें करने लगी।
उसने मुझे अपने बेटे के अकीके में शामिल होने के लिए कहा। मुझे क्या इनकार हो सकता था जब मैं अकीके मैं शामिल होने के लिए उसके घर गई तो उसने बड़ी गर्मजोशी से मेरा इस्तकबाल किया।
यूं मालूम होता था कि वह एक लंबी जुदाई के बाद मुझसे मिल रही है। मैंने उसे गले लगा लिया मुझे बहुत खुशी हुई। अल्लाह ने मेरे अमल को कुबूल फरमा लिया था और मुझे इनाम से नवाजा था। अब मुझे अपनी ननद सब औरतों से ज्यादा पसंदीदा थी, हालांकि शैतान ने हमारे दरमियान गलतफहमी डाल दी थी।
एक और खातून ने कहा: "क्या आपके पास इतना वक्त है कि मैं अपना तजुर्बा बयान करूं मुझे खुद इस तजुर्बे के नतीजे का यकीन नहीं आ रहा मगर यह एक हकीकत है।"
उस वक्त मैं पुकार उठी की सब्र तो मैंने किया ही नहीं। मैं मस्जिद से दरस ए कुरान से वापस आई तो मैंने यह पक्का अहद कर लिया था कि मैं बार-बार कोशिश करती रहूंगी और नाकामी से बचने के लिए सब्र करती रहूंगी मेरी यह नाराज़ सहेली चौथी मंजिल पर रहती थी। हर सीढ़ी पर शैतान यही कहता था कि वापस चली जाओ मगर मेरा पक्का इरादा शैतानी बहकावे का शिकार होने से मुझे रोकता रहा और मैं बराबर सीढ़ियां चढ़ती चली गई।
अब मैं अपनी सहेली के घर के दरवाजे के सामने खड़ी थी। मैंने एक बार उस तोहफे को देखा जो मैं उसके लिए लाई थी। घर की घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया तो सोचा कुछ भी हो सकता है। मैंने हर किस्म की बात का सामना करने के लिए अपने आपको तैयार कर रखा था क्योंकि मैं यहां अपनी पड़ोसन के लिए नहीं आई बल्कि अल्लाह के लिए आई हूं। मेरा मकसद उसकी रजा हासिल करना है। दरवाजा खुला तो मेरी सहेली मेरे सामने खड़ी थी। मैंने पूरे यकीन और मोहब्बत से कहा, क्या आप मुझे अंदर आने की इजाजत देंगी?
उसने एकदम पूरा दरवाजा खोल दिया। मुझे अंदर ले गई। वह एक लंबी जुदाई के बाद मेरे वहां आ जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। हमने बातें शुरू की हर किस्म के बातों पर मुझे ऐसे मालूम हो रहा था कि मैं अपनी सहेली के घर में नहीं बल्कि अल्लाह रहमान और रहीम के बाग में बैठी हूं। मैंने कुछ देर वहां बैठने और बातें करने के बाद सोचा कि अल्लाह ताला की एक आयत पर चलने और उसके मुताबिक हरकत करने के नूर ने मेरे रूहे बदन को अंधेरों की मनहूसियत से निकाल दिया। अब मेरी पड़ोसन मेरी गर्मजोश जिगरी सहेली बन चुकी है।
मैंने सब्र से काम लिया, सब्र का दामन हाथ से नहीं छोड़ा बुराई का बदला अच्छाई से दिया मायूस नहीं हुई। मुझे अपनी खुशकिस्मती पर नाज है। मैं अपनी खुशी का इजहार लफ्जों की सूरत में बयान नहीं कर सकती और आपकी शुक्रगुजार हूं।
एक औरत अपने ससुराल वालों से लड़ झगड़ कर बोलचाल बंद कर लेती है। दूसरी औरत अपनी पड़ोसन से झगड़ा करने के बाद आना जाना बंद कर देती है। कोई खातून अपने भाई और अपने भाई के घर वालों से दिल मे नाराज़गी रखती है। कोई अपनी ननद से बेज़ार है और उससे लगातार टकराव होता रहता है। यहां तक कि कई औरतें अपने मां बाप से भी तालुकात खत्म कर लेती हैं। जब उन औरतों से उसकी वजह पूछा जाती है तो वह जवाब देती हैं कि क्या अल्लाह ताला ने अपनी किताब में यह नहीं फरमाया,
وَاہۡجُرۡہُمۡ ہَجۡرًا جَمِیۡلًا
[कुरान 73:10]
"और शराफत के साथ उनसे अलग हो जाओ।"
सोचने की बात यह है कि क्या यह सारे रिश्तेदार और पड़ोसी काफिर हैं, क्योंकि इस आयत में तो काफिरों से अलग हो जाने का हुक्म है। अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ तो सिला-रहमी की ताकीद की गई है जब ऐसी रंज रखने वाली झगड़ालू औरतों से पूछा जाता है कि क्या यह सारे लोग काफिर है तो उनका जवाब इनकार में होता है जब आप भी मुसलमान हैं यह भी मुसलमान हैं तो उनसे कटकट कर रहना क्यों?
यह हकीकत हर मुसलमान पर वाजेह है कि जो मुसलमान दूसरे मुसलमान से कट कट कर ताल्लुक कर लेता है तो उसका कोई अमल भी उस वक्त तक आसमान की बुलंदियों की तरफ नहीं पहुंचता जब तक कि ताल्लुकात बहाल ना हो और नाराजगी खत्म ना हो जाए। झगड़ा एक ऐसा तीर है जिसका निशाना दुश्मन नहीं होता बल्कि हमारा अपना गिला होता है।
अगर हमारे नेक आमाल कुबूल ना हो तो ऐसी दुनिया का हमें क्या फायदा। कई ख्वातीन का रवैया यह होता है कि वे नाराजगी और कट कट रहने के तालुकात के जरिए सुकून मैं आ जाती है। मुश्किलो से बच जाती हैं, उनका किसी से इत्तेफाक होता है ना झगड़ा।
उनका यह इत्तेफाक सरासर गलत है इसलिए कि हम अपने करीबी रिश्तेदारों के बगैर कैसे जिंदा रह सकते हैं। क्या कोई औरत अपने शौहर से नाराज़गी मोल लेकर सुकून से जिंदगी गुजार सकती है? क्या ऐसी जिंदगी, जिंदगी है? क्या ऐसी औरत या मर्द खुश रह सकते हैं? लड़ना झगड़ना कट कट कर रहना नाराजगी तो मुस्लिम मुआशरे के लिए इंतिहाई खतरनाक है।
इससे मोहब्बतें खत्म हो जाती हैं, चाहते बाकी नहीं रहती, उल्फत खत्म हो जाती है। यह और बात है कि कोई मुसलमान मर्द या औरत कबूतर की तरह आंखें बंद कर ले हकीकत से नज़रे चुरा ले और अपनी बदनसीबी को अपनी कामयाबी समझते हैं।
मैंने अपने एक हफ्ता वार दरस ए कुरान में अपनी तमाम सुनने वालियों से अपील की है कि आइए हम सआदत्त की कैची पकड़े और फिर उसे इस्तेमाल करके देखें कि हमें कितना सुकून ओ चैन और करार मिलता है। हम पर अबदी सआदत्त के दरवाजे कैसे खुलते हैं?
मैंने अर्ज किया कि आज की कुंजी यह इरशाद ए इलाही है:
उनका यह इत्तेफाक सरासर गलत है इसलिए कि हम अपने करीबी रिश्तेदारों के बगैर कैसे जिंदा रह सकते हैं। क्या कोई औरत अपने शौहर से नाराज़गी मोल लेकर सुकून से जिंदगी गुजार सकती है? क्या ऐसी जिंदगी, जिंदगी है? क्या ऐसी औरत या मर्द खुश रह सकते हैं? लड़ना झगड़ना कट कट कर रहना नाराजगी तो मुस्लिम मुआशरे के लिए इंतिहाई खतरनाक है।
इससे मोहब्बतें खत्म हो जाती हैं, चाहते बाकी नहीं रहती, उल्फत खत्म हो जाती है। यह और बात है कि कोई मुसलमान मर्द या औरत कबूतर की तरह आंखें बंद कर ले हकीकत से नज़रे चुरा ले और अपनी बदनसीबी को अपनी कामयाबी समझते हैं।
मैंने अपने एक हफ्ता वार दरस ए कुरान में अपनी तमाम सुनने वालियों से अपील की है कि आइए हम सआदत्त की कैची पकड़े और फिर उसे इस्तेमाल करके देखें कि हमें कितना सुकून ओ चैन और करार मिलता है। हम पर अबदी सआदत्त के दरवाजे कैसे खुलते हैं?
मैंने अर्ज किया कि आज की कुंजी यह इरशाद ए इलाही है:
اِدۡفَعۡ بِالَّتِیۡ ہِیَ اَحۡسَنُ فَاِذَا الَّذِیۡ بَیۡنَکَ وَ بَیۡنَہٗ عَدَاوَۃٌ کَاَنَّہٗ وَلِیٌّ حَمِیۡمٌ
[कुरान 41:34]
"तुम बुराई को इस नेकी से दफा करो जो बेहतरीन हो तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ जिसकी दुश्मनी पड़ गई थी वह तुम्हारा जिगरी दोस्त बन गया है।"
मैं इस आयत का मुद्दा और मतलब जाहिर किया और बहनों को बताया कि इस आयत पर अमल करने के लिए हमें अल्लाह पर कामिल ए यकीन और मुसलसल सब्र व बर्दाश्त से काम लेना होगा। मैंने दुआ की कि अल्लाह ताला इस आयत के मकसद पर अमल करने और उसके मुताबिक चलने की तौफीक अता फरमाए।
अब हमें अमल के नतीजे का इंतजार करना होगा अब तक हम अपने मसाइल (बहुत सारे मसले) को नजरअंदाज करते रहे हैं। हमें मुश्किलात से बच निकलने की आदत पड़ चुकी है। हमें अब हकीकत का सामना करना होगा। हम में से हर एक को अपने मुखालिफ (विरोधी/आपके खिलाफ रहने वाला) के साथ एक अमल तजुर्बा करना होगा फिर हम देखेंगे कि दुश्मन को जिगरी दोस्त में तब्दील करने में कितना वक्त लगता है और कितनी मेहनत की जरूरत होती है। हो सकता है कि आप मे से कोई अगले हफ्ते के दरस ए कुरान में आकर रो-रोकर यह बताएं कि जी मैं तो अपनी फला मुखालिफ के पास गई थी उसे मनाने और राजी करने के लिए बहुत कोशिश की लेकिन मुझे कामयाबी नहीं हुई।
मैं अपनी उन बहनों से कहूंगी कि वह अपने साथ सब्र व बर्दाश्त की दौलत भी लेकर जाएं। आप मुखालिफ के पास अकेली ना जाइए अपने साथ सब्र को भी लेकर जाइए बार-बार जाइए मायूस ना हो।
कई दिन बीत गए कई हफ्ते गुजर गए। अभी हमने क़ुरआन ए करीम की इस आयत पर होने वाले अमल का जायजा नहीं लिया था।
एक दिन मैंने इज़्ज़तदार खवातीन से कहा: "आज आप लोगों के तजुर्बात सुनने का वक्त आ पहुंचा है। वह कौन-कौन खुश किस्मत है जिन्होंने इस आयत ए करीमा पर यकीन करने और इसे दिल में जगह देने के बाद अपने होश ओ हवास से भी इस पर अमल किया है।"
एक दिन मैंने इज़्ज़तदार खवातीन से कहा: "आज आप लोगों के तजुर्बात सुनने का वक्त आ पहुंचा है। वह कौन-कौन खुश किस्मत है जिन्होंने इस आयत ए करीमा पर यकीन करने और इसे दिल में जगह देने के बाद अपने होश ओ हवास से भी इस पर अमल किया है।"
1. पहला वाक़्या:
इस पर हाजिर होने वालों में से एक ने बताया: "अल हमदुलिल्ला मुझे इस पर अमल करने की तौफीक मिली है। मेरा अपनी ननद के साथ झगड़ा था। मुझे उससे पसंदीदा ना गवार बातें सुननी पडती थी इसलिए मैंने उससे ना मिलने का फैसला कर लिया था। उसने मेरे इस फैसले का ज्यादा से ज्यादा जवाब दिया, मैं उसे पसंद करती हूं क्योंकि वह मेरे शौहर की बहन है, मेरी ननद है, मेरे बच्चों की फूफी है।"
मगर होता यह है कि शैतान हमें बहकाता है। हमारे गलत काम खुशनुमा बना कर पेश करता है तो हम उन्हें अच्छा समझने लगते हैं।
जब यहां दरसे कुरान ए करीम में इस आयत के बारे में तय किया तो मैंने घर जाकर इस आयत ए करीमा को बार-बार पड़ा और फैसला किया कि मैं दिल ओ जान से एक आयत पर अमल करूंगी। फैसला कर लेना तो आसान था मगर इस पर अमल इतना आसान न था। खतरा था कि, मेरी ननंद नहीं मानेगी रुकावट डालेगी।
मैं मुनासिब मौके की तलाश में थी ताकि इस नाराजगी को खत्म करूं। मुझे जल्द ही मौका मिल गया। मुझे मालूम हुआ कि मेरी ननंद अस्पताल में दाखिल है। उसके यहां तीसरे बच्चे की पैदाइश हुई थी। मैंने अपने शोहर से रिक्वेस्ट किया कि वह मुझे अपने साथ अस्पताल ले जाए ताकि मैं उसकी बहन से मुलाकात करूं।
पहले तो वह हैरान हुआ। फिर बड़ी खुशी से वह मुझे अपने साथ अस्पताल ले गया। मेरा दिल जो़र से धड़क रहा था। धक-धक कर रहा था।
मैंने दरवाजा खोला और मुस्कुराहट के साथ अंदर चली गई। मैंने अपनी ननद को बच्चे की पैदाइश पर और उसकी जान की सलामती पर मुबारकबाद दी, मगर वह मेरी तरफ ध्यान ना दी। और अपने भाई से ही बातें करती रही। मेरा शौहर परेशान था और उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। मैंने बच्चे को उठाया उसे प्यार किया। मैंने ननंद को खुशखबरी दी कि उसका बच्चा खूबसूरत है और इंशा अल्लाह ताला शआदतमंद बनेगा।
मेरी यह बातें सुनकर वह हल्की सी मुस्कुराई। खैर हमारी मुलाकात खत्म हुई। मैं कार में बैठी तो मैंने लंबी सांस ली, जो मेरे शौहर ने सुन ली। मैंने उसी वक्त अपने दिल में इरादा कर लिया की मैं कभी हार नहीं मानूंगी। अल्लाह का कलाम सच्चा है मेरा डर गलत है। मैंने तो अच्छा बरताव किया है, अब सिर्फ जिगरी दोस्त बनना रह गया है। मुझे सब्र करना होगा घर पहुंचते ही मैंने जो मेरे दिल में डर था उसे निकालकर झटक दिया और बुराई को नेकी से दफा करने का पक्का इरादा कर लिया।
मैंने बच्चों के लिए खाना तैयार किया और खाना लेकर ननंद के घर जा पहुंची उनकी खैरियत मालूम की और वापस घर आकर मैं रात को इंतिहाई सुकून से सोई। मुझे अल्लाह के हुक्म की तामील की खुशी थी और इस बात का यकीन था कि इसका नतीजा जल्द सामने आएगा।
अगले दिन मैंने अपनी ननद के नज़रअंदाजी के बारे में मालूम किया तो मालूम हुआ कि वह मेरे इस अमल से बहुत खुश है और मेरी शुक्रगुजार है।
मैंने उसके बच्चों के साथ जो सलूक किया था उसका उस पर खुशगवार असर पड़ा। मैंने उस दिन भी खाना तैयार किया, यह खाना पहले खाने से बढ़कर था। मैं खाना लेकर फिर ननंद के घर गई अब मेरी कोशिशों और मेहनत का नतीजा सामने आने लगा था। मैं उसके बच्चों का ख्याल रखने लगी। अब मेरी ननंद मेरे साथ मोहब्बत व नरमी से बातें करने लगी।
उसने मुझे अपने बेटे के अकीके में शामिल होने के लिए कहा। मुझे क्या इनकार हो सकता था जब मैं अकीके मैं शामिल होने के लिए उसके घर गई तो उसने बड़ी गर्मजोशी से मेरा इस्तकबाल किया।
यूं मालूम होता था कि वह एक लंबी जुदाई के बाद मुझसे मिल रही है। मैंने उसे गले लगा लिया मुझे बहुत खुशी हुई। अल्लाह ने मेरे अमल को कुबूल फरमा लिया था और मुझे इनाम से नवाजा था। अब मुझे अपनी ननद सब औरतों से ज्यादा पसंदीदा थी, हालांकि शैतान ने हमारे दरमियान गलतफहमी डाल दी थी।
मेरी अजीज बहनों, पुराने अल्फाज बड़े हिकमत वाले हैं। नफस ए इंसानी जब अल्लाह की पैरवी कर लेता है तो उसमें कितनी बड़ी सुधार पैदा हो जाती है। उस खातून ने अपना तजुर्बा बयान कर लिया तो मैंने उस खातून से कहा: "आप की ननंद में तब्दीली इसलिए आई की आपने पहल की आपके सामने एक मकसद था, वह था अल्लाह की रज़ा। आपने इस मकसद के लिए कुरानी जरिया अपनाया। आपने कुरान मजीद पर अमल किया अल्लाह से मदद तलब की और सब्र से काम लिया। तो अल्लाह ताला जो दिलों का खालिक और जिस्मो का मालिक है उसने दिलों को आपके लिए नरम कर दिया और दुश्मनी को दोस्ती में बदल दी।"
2. दूसरा वाक़्या:
2. दूसरा वाक़्या:
एक और खातून ने कहा: "क्या आपके पास इतना वक्त है कि मैं अपना तजुर्बा बयान करूं मुझे खुद इस तजुर्बे के नतीजे का यकीन नहीं आ रहा मगर यह एक हकीकत है।"
मैंने उसे अपना वाक़्या बयान करने के लिए इजाजत दी तो वह यू बोली: "मेरी एक पड़ोसन थी जिसे मैं बहुत पसंद करती थी। मुझे उस से इतनी मोहब्बत हो गई कि मैंने अपने कई राज उसे बताया। बात यह है कि मेरे मायके वाले यहां से दूर है। कोई और करीबी अजीज भी यहां नहीं रहता। इसलिए यह पड़ोसन ही मेरी करीबी और अजीज थी। मोहब्बत और दोस्ती के कुछ साल बाद मैंने देखा कि मेरी पड़ोसन का रवैया बदल गया है। वह मेरे बारे में बदगुमानी में मुब्तिला हो गई। मुझसे खींची खींची रहने लगी। वह मेरे ऊपर ऐसी बातों का इल्जाम लगाने लगी जो मैंने कभी की ही ना थी।
मैंने उसे मनाने और उसकी गलतफहमियां दूर करने की हर मुमकिन कोशिश की मगर कुछ ना हुआ। वह शैतान के बहकावे में आकर मुझसे कट कट कर रहने लगी, बोलचाल, आना जाना सब बंद हो गया। वह अब मेरे साथ बैठना भी पसंद नहीं करती थी। अब तो मैंने भी अपनी इज्जत व अहमियत उसी में समझी कि उसके साथ तालुकात खत्म कर दूं। यही सूरते हाल जारी था कि मै दरस ए कुरआन में शामिल हो गई और मैंने सूरह (हम सजदा) कि इस आयत पर अमल करने का फैसला किया। जब इस आयत की तसरीह हो रही थी तो मैं सोच रही थी, मैंने तो कोशिश की मगर मेरी कोशिश बेकार गई। ईमैं यह सोच ही रही थी कि हमारी उस्ताद साहिबा ने इस अल्फाज की तिलावत की,
मैंने उसे मनाने और उसकी गलतफहमियां दूर करने की हर मुमकिन कोशिश की मगर कुछ ना हुआ। वह शैतान के बहकावे में आकर मुझसे कट कट कर रहने लगी, बोलचाल, आना जाना सब बंद हो गया। वह अब मेरे साथ बैठना भी पसंद नहीं करती थी। अब तो मैंने भी अपनी इज्जत व अहमियत उसी में समझी कि उसके साथ तालुकात खत्म कर दूं। यही सूरते हाल जारी था कि मै दरस ए कुरआन में शामिल हो गई और मैंने सूरह (हम सजदा) कि इस आयत पर अमल करने का फैसला किया। जब इस आयत की तसरीह हो रही थी तो मैं सोच रही थी, मैंने तो कोशिश की मगर मेरी कोशिश बेकार गई। ईमैं यह सोच ही रही थी कि हमारी उस्ताद साहिबा ने इस अल्फाज की तिलावत की,
وَمَا یُلَقّٰہَاۤ اِلَّا ذُوۡحَظٍّ عَظِیۡمٍ
[ कुरान 41:34]
"और यह बात उन्हीं को नसीब होती जो सब्र करते हैं। "
उस वक्त मैं पुकार उठी की सब्र तो मैंने किया ही नहीं। मैं मस्जिद से दरस ए कुरान से वापस आई तो मैंने यह पक्का अहद कर लिया था कि मैं बार-बार कोशिश करती रहूंगी और नाकामी से बचने के लिए सब्र करती रहूंगी मेरी यह नाराज़ सहेली चौथी मंजिल पर रहती थी। हर सीढ़ी पर शैतान यही कहता था कि वापस चली जाओ मगर मेरा पक्का इरादा शैतानी बहकावे का शिकार होने से मुझे रोकता रहा और मैं बराबर सीढ़ियां चढ़ती चली गई।
अब मैं अपनी सहेली के घर के दरवाजे के सामने खड़ी थी। मैंने एक बार उस तोहफे को देखा जो मैं उसके लिए लाई थी। घर की घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया तो सोचा कुछ भी हो सकता है। मैंने हर किस्म की बात का सामना करने के लिए अपने आपको तैयार कर रखा था क्योंकि मैं यहां अपनी पड़ोसन के लिए नहीं आई बल्कि अल्लाह के लिए आई हूं। मेरा मकसद उसकी रजा हासिल करना है। दरवाजा खुला तो मेरी सहेली मेरे सामने खड़ी थी। मैंने पूरे यकीन और मोहब्बत से कहा, क्या आप मुझे अंदर आने की इजाजत देंगी?
उसने एकदम पूरा दरवाजा खोल दिया। मुझे अंदर ले गई। वह एक लंबी जुदाई के बाद मेरे वहां आ जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। हमने बातें शुरू की हर किस्म के बातों पर मुझे ऐसे मालूम हो रहा था कि मैं अपनी सहेली के घर में नहीं बल्कि अल्लाह रहमान और रहीम के बाग में बैठी हूं। मैंने कुछ देर वहां बैठने और बातें करने के बाद सोचा कि अल्लाह ताला की एक आयत पर चलने और उसके मुताबिक हरकत करने के नूर ने मेरे रूहे बदन को अंधेरों की मनहूसियत से निकाल दिया। अब मेरी पड़ोसन मेरी गर्मजोश जिगरी सहेली बन चुकी है।
मैंने सब्र से काम लिया, सब्र का दामन हाथ से नहीं छोड़ा बुराई का बदला अच्छाई से दिया मायूस नहीं हुई। मुझे अपनी खुशकिस्मती पर नाज है। मैं अपनी खुशी का इजहार लफ्जों की सूरत में बयान नहीं कर सकती और आपकी शुक्रगुजार हूं।
मैंने उस बहन से कहा: "आप मेरा शुक्रिया अदा ना करें बल्कि खालिक ए कायनात और मालिक के जिस्म और जान का शुक्र अदा करें, जिसने हमें अपने ख्वाहिशात का शिकार नहीं बनने दिया। हमें दूसरों की ख्वाहिश का निशाना बनने के लिए तन्हा नहीं छोड़ दिया बल्कि अपने कलामें मुक़द्दस से हमारी रहनुमाई फरमाई, कुरान मजीद पर अमल करने की तौफीक फरमाई।"
खालिक ए नफस व जान ही बेहतर जानता है कि इंसानों की भलाई किसमें है। बस लातादाद शुक्र है उस जात की जिसने इंसानों के लिए अपनी आखिरी किताब अपने आखिरी रसूल (ﷺ) के जरिए दुनिया में भेजा। अल्लाह से दुआ है कि लिखने में जो भी गलती हुई है माफ करना दे।
खालिक ए नफस व जान ही बेहतर जानता है कि इंसानों की भलाई किसमें है। बस लातादाद शुक्र है उस जात की जिसने इंसानों के लिए अपनी आखिरी किताब अपने आखिरी रसूल (ﷺ) के जरिए दुनिया में भेजा। अल्लाह से दुआ है कि लिखने में जो भी गलती हुई है माफ करना दे।
मुसन्निफ़ा (लेखिका): सुमैय्या रमज़ान
किताब: क़ुरान पर अमल
हिंदी तरजुमा: मरियम फातिमा अंसारी
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