हक़ीक़त से वाकिफ ना रहने की बुनियादी वजह
जब हम छोटे थे तो कितना मुश्किल होता था किसी भी चीज के बारे में जानना, उसे समझना और उस पर यकीन कर लेना। बचपन में हमने बहुत सी चीजों पर यकीन किया, बहुत सी चीजों परनहीं आया। जैसे जैसे हम बड़े होते गए परिवार से निकलकर स्कूल गए, वह तरह-तरह के बच्चों को देखा, मेलजोल बढ़ाया, अलग-अलग मजहब को जाना और उनसे मुतासिर होकर हमने अपने आपको कहीं गवाही दिया।
जब हम मासूम थे तब क्या थे? और आज जब हम समझदार हैं तब हम क्या हैं? यह सवाल हमें अपने आप में ही झिंझोड कर रख देता है। हम हकीकत को देख नहीं पा रहे हैं या फिर देखना ही नहीं चाहते? इस मसरूफ जिंदगी में अब तो सवाल और जवाब का वक्त ही नहीं रह गया। अगर हम गहराई से सोचें तो अब भी हम अपने लिए वक्त निकाल सकते हैं और हकीकत से वाकिफ होने के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं। तो क्यों ना आज हम थोड़ा सा वक्त निकाल कर इसे समझे। रोजमर्रा की जिंदगी के काम और आमाल का दारोमदार तीन चीजों पर है:
- इल्म
- तजुर्बा
- यकीन (भरोसा)
मिसाल के तौर पर: अगर आप आग से बचते हैं और सांप से डरते हैं तो इसकी वजह ये है कि आपके इल्म में ये बात आ चुकी है कि आग जलाती है और सांप डस्ता है। इस बात का आपको तजुर्बा हो चुका है। कई लोगों को आपने देखा या सुना होगा कि उनको उन चीजों से नुकसान पहुंचा। इस तरह आपको इस बात का यकीन हो चुका है कि ये खतरनाक चीजें हैं इसलिए आप इन से बचते हैं। अगर किसी के इल्म में यह बात नहीं, तो वह नहीं डरेगा।
इसी तरह बच्चे अल्लाह के साथ जो ताल्लुक बनाते हैं वह सिर्फ उसके नाम से बनाते हैं, वह सिर्फ उसके नाम को जानते हैं और उसी नाम से वो डरते हैं और उसी नाम से वह मोहब्बत करते हैं।
1. इल्म:
किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए सबसे पहले हमारे पास इल्म का होना जरूरी है। जिसके बारे में हम नहीं जानते, उस चीज को बिल्कुल भी नहीं समझ सकते और जब बात अल्लाह ताला की आती है तो बच्चों को अल्लाह के बारे में सबसे पहले उनके परिवार से पता चलता है। उनके वालीदैन से, उनके भाई बहनों से, उनके दादा-दादी और जो भी घर में रहते हैं उनसे। बच्चा उनकी जुबान से अल्लाह का जिक्र सुनता है, अल्लाह की इबादत करते हुए देखता है और इस पर तरह तरह के सवाल करता है। यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने बच्चों को सिर्फ अल्लाह के नाम से ना डर आए बल्कि उसकी नेमतों से उन्हें रूबरू कराएं, उन्हें बताएं, उन्हें समझाएं कि यह जो भी चीजें हमारे पास है, जो भी नेमतें हमारे पास है, उसको देने वाला सिर्फ अल्लाह है।
अल्लाह ने हमें किस लिए पैदा किया? अल्लाह ने हमें जो चीजें दी है वह किस लिए दी है? इन सब बातों का इल्म उन्हें देना हमारा फर्ज है।
मिसाल के तौर पर: दो बच्चों, अब्दुल्ला और खालिद की मिसाल से हम समझ सकते हैं।
अब्दुल्ला की परवरिश एक दीनी परिवार में हुई। वह बचपन से अपने परिवार के हर फर्द को दीनी तालीम हासिल करते हुए देख रहा है, हर किसी की जुबान पर अल्लाह का जिक्र, घर में नमाज और कुरान सबकी आदत में शामिल है, रोज़ा रखना जकात अदा करना, सदका और खैरात करना, दूसरों के साथ अदब से पेश आना, जरूरतमंदों की मदद करना वगैरह।
उसे यह पता होगा कि अल्लाह कौन है? कहां है? उसने हमारे लिए क्या किया? हमें क्यों पैदा किया? हमें जिलाता मारता कौन है? हमारी ख्वाहिशात कौन पूरी करता है? वगैरा-वगैरा और उसी के मुताबिक वह अपनी जिंदगी बसर करेगा।
किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए सबसे पहले हमारे पास इल्म का होना जरूरी है। जिसके बारे में हम नहीं जानते, उस चीज को बिल्कुल भी नहीं समझ सकते और जब बात अल्लाह ताला की आती है तो बच्चों को अल्लाह के बारे में सबसे पहले उनके परिवार से पता चलता है। उनके वालीदैन से, उनके भाई बहनों से, उनके दादा-दादी और जो भी घर में रहते हैं उनसे। बच्चा उनकी जुबान से अल्लाह का जिक्र सुनता है, अल्लाह की इबादत करते हुए देखता है और इस पर तरह तरह के सवाल करता है। यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने बच्चों को सिर्फ अल्लाह के नाम से ना डर आए बल्कि उसकी नेमतों से उन्हें रूबरू कराएं, उन्हें बताएं, उन्हें समझाएं कि यह जो भी चीजें हमारे पास है, जो भी नेमतें हमारे पास है, उसको देने वाला सिर्फ अल्लाह है।
अल्लाह ने हमें किस लिए पैदा किया? अल्लाह ने हमें जो चीजें दी है वह किस लिए दी है? इन सब बातों का इल्म उन्हें देना हमारा फर्ज है।
मिसाल के तौर पर: दो बच्चों, अब्दुल्ला और खालिद की मिसाल से हम समझ सकते हैं।
अब्दुल्ला की परवरिश एक दीनी परिवार में हुई। वह बचपन से अपने परिवार के हर फर्द को दीनी तालीम हासिल करते हुए देख रहा है, हर किसी की जुबान पर अल्लाह का जिक्र, घर में नमाज और कुरान सबकी आदत में शामिल है, रोज़ा रखना जकात अदा करना, सदका और खैरात करना, दूसरों के साथ अदब से पेश आना, जरूरतमंदों की मदद करना वगैरह।
उसे यह पता होगा कि अल्लाह कौन है? कहां है? उसने हमारे लिए क्या किया? हमें क्यों पैदा किया? हमें जिलाता मारता कौन है? हमारी ख्वाहिशात कौन पूरी करता है? वगैरा-वगैरा और उसी के मुताबिक वह अपनी जिंदगी बसर करेगा।
दूसरी तरफ खालिद की परवरिश एक मॉडर्न फैमिली में हुई। एक ऐसी फैमिली जहां किसी के पास किसी के लिए कोई वक्त नहीं, सबके अपने अपने काम अपने अपने मसाईल, सुबह सवेरे वॉक पर जाना, अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाई करना, सलाम की जगह गुड मॉर्निंग जैसे अल्फाज का इस्तेमाल करना, नमाज की जगह एक्सरसाइज करना, कुरान की जगह नोवेल्स पढ़ना, सिनेमा हॉल में जाकर मूवीस देखना और फिर दिन भर बच्चे को आया के भरोसे छोड़कर मां-बाप का जॉब पर चले जाना। उसे उसके परिवार से इस बारे में कोई इल्म हासिल नहीं हुआ और उसे सिर्फ यह पता है कि अल्लाह है।
अब बताएं क्या ऐसे माहौल में रहने वाले बच्चे को अल्लाह का इल्म उतना होगा जितना एक दीनी माहौल में पलने वाले बच्चे को होता है।
2. तजुर्बा:
किसी भी चीज को अमल में लाने के लिए उसका तजुर्बा होना बहुत जरूरी है। अगर हमें किसी चीज का तजुर्बा नहीं है तो हम उसके लिए कुछ भी गलत सलत सोच सकते हैं। अगर अल्लाह का इल्म होता है तो हम उसकी दी हुई नेअमतों से उसके होने का तजुर्बा कर सकते हैं।
जैसे हम किसी परेशानी में आते हैं तो अल्लाह से दुआ करते हैं और वह परेशानी दूर हो जाती है। अगर हम अल्लाह के वजूद का इल्म अपने बच्चों को नहीं देंगे तो हमारे बच्चों को कभी यह पता नहीं चलेगा कि तजुर्बा क्या होता है?
मिसाल के तौर पर: एक बच्चे के सामने दो चीजें रख दी जाए, जलती हुई मोमबत्ती और मिठाई। अगर उस बच्चे को मिठाई का ज़ायका नहीं मालूम तो वाह मोमबत्ती की तरफ भागेगा। क्योंकि मोमबत्ती की लौ उसे बहुत अच्छी चीज नजर आती है लेकिन जैसे ही उसे हाथ लगाता है बदल जाता है और रोने लगता है। उस मोमबत्ती का देखना यानी बच्चे के इल्म में आना के यह मोमबत्ती है और उसे छूना, जल जाना और दर्द का महसूस करना उसका तजुर्बा है।
3. यकीन (भरोसा):
यकीन जिंदगी का तीसरा मरहला है किसी भी चीज का इल्म हो जाना फिर उसे अपनी जिंदगी में शामिल कर लेना यानी उसका तजुर्बा हासिल कर लेना, उसके बाद हमें उस चीज पर यकीन होता है। तो अगर हम इसे एक बच्चे से जोड़ कर देखें तो किसी भी बच्चे को जब हम उसके इल्म में डाल देते हैं कि अल्लाह है। इस बात का तजुर्बा भी हो जाता है तो उसे अल्लाह की बात पर यकीन भी आ जाता है। सबसे पहले इल्म का होना बेहद जरूरी है अगर नहीं होगा हमें ना उसका तजुर्बा होगा और ना ही उस पर यकीन होगा।
मिसाल के तौर पर: बच्चे और मोमबत्ती की मिसाल को देखें तो बच्चे को इल्म हासिल हुआ तजुर्बा भी हुआ फिर उसे यकीन भी हो गया कि मोमबत्ती को छूने पर उसे तकलीफ होगी।
मुसलमान होने की हैसियत से हमें जिंदगी के इन तीनों मरहलों में कामयाब होना है। एक अच्छा इंसान बनना है। अपने परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों और अपने जानने वालों को दीन के इल्म की तरफ लाना जिम्मेदारी है। खुद भी नेकी का रास्ता अख्तियार करना है और दूसरों को भी इस रास्ते पर चलने की इस्लाह करनी है। दीन का इल्म हर मुसलमान पर फर्ज है। और इसके लिए हमें सबसे पहले अपने घर के अंदर के माहौल को दीनी बनाना होगा अपने बच्चों की परवरिश दीनी तौर-तरीकों पर करनी होगी। खुद भी अल्लाह के करीब जाना है अपने अपनों को भी उसके करीब करने की भरपूर कोशिश करनी है। हमें दिल से पुख्ता इरादा करना है और अल्लाह से दुआ करनी है, उसकी मदद मांगनी है और दिल ओ जान से इस काम में लग जाना है। अल्लाह अकबर चलने वालों के साथ है इंशा अल्लाह वह हमारी मदद जरूर करेगा। आमीन
By Islamic Theology
2 टिप्पणियाँ
Allah hame sirate mustaqeem per qayam rakhe
जवाब देंहटाएंaameen
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।