Ashab e kahf, Hamara Iman Aur Dajjal

Surah Kahf: Dajjal, Ashab e kahf Aur Hamara Iman


सूरह कहफ़: असहाब ए कहफ, आज के नौजवान और दज्जाल


सूरह कहफ का पहला क़िस्सा कुछ चंद नौजवानों से शुरू होता हैं जो अपने ईमान और जान की हिफ़ाज़त के लिए एक ग़ार (गुफा) में पनाह लेते हैं जो कि उनकी एक हिजरत ही थी। अल्लाह के लिए हिजरत करना, अपना घर, रिश्तेदार, ऐश-ओ-आराम, माल, औलाद छोड़ना भी बड़ी क़ुरबानी हैं। जिसको हासिल करने के लिए इंसान अपनी पूरी ज़िन्दगी खपा देता हैं इन्हीं सब चीज़ों की मुहब्बत में पड़ कर अपने ईमान को भी दाँव पर लगा देता है।

तौहीद को क़ायम करने के लिए दुनिया क़ायम हुई, तो इस लिहाज़ से भी तौहीद पर ईमान एक ऐसी दौलत हैं जो सब चीज़ो से बढ़कर हैं ।इसलिए नौजवानों के क़िस्से को शुरू करने से पहले हम पहले ईमान पर रोशनी डालेंगे।

असहाब ए कहफ का ईमान

बेशक़ ईमान वो बड़ी दौलत हैं जो आखिरत की कामयाबी की कुंजी हैं क्यूकि अल्लाह सुब्हानहु-वतआला शिर्क माफ़ नहीं करेगा उस के अलावा अपनी रहमत से जो गुनाह चाहेगा माफ़ कर सकता हैं। बेशक, अल्लाह क़ादिर हैं।(अल्लाह मेरी और आपकी हर तरह के शिर्क से हिफ़ाज़त फरमाए) आमीन

असहाबे कहफ़

कहफ़ एक बड़ी गुफा को कहते हैं। उन नौजवानों ने जिन्हे असहाबे ए कहफ (गुफा वाले सहाबी ) कहा गया , अपना सिर बातिल के सामने नहीं झुकाया। मुशरिक़ क़ौम अपने बनाए बुतों (idols) के नाम की नज़र - नियाज़ करती थी और वहां का ज़ालिम गुमराह बादशाह अपनी क़ौम के लोगो को भी बुतपरस्ती और अपने शिरकिया अक़ीदे की तरफ दावत देता था और क़ौम को अकीदा मानने के लिए मजबूर किया जाता था जो उसे नहीं मानता ,उस के लिए सिर्फ सज़ा ए मौत थी।लोग अपने तौहीद के अक़ीदे को भी ख़ुफ़िया रखते थे।इन नौजवानों का ईमान भी ख़ुफ़िया था जब तक लोगों को ख़बर नहीं हुई।

वो नौजवान भी चुपचाप किसी एक जगह अल्लाह की इबादत करते थे। फिर उन्होंने तौहीद की दावत की जब उनके अक़ीदे की खबर उस ज़ालिम गुमराह बादशाह तक पहुंची तो उनको गिरफ्तार कर दरबार में बुलाया गया। वहाँ उन्होंने अपनी तौहीद पर ईमान क़बूल किया। उनको कुछ वक़्त की मोहलत भी दी गई अगर वो तौहीद के अक़ीदे को नहीं छोड़ेंगे तो उनका हाल भी बाकी लोगो की तरह होगा यानि सज़ा ए मौत। 

इस मोहलत पर ही वो नौजवान अपने ईमान और जान की हिफाज़त के लिए एक बड़ी गुफा (कहफ़) में जाकर छिप गए और दुआ करने लगे:

"رَبَّنَآ ءَاتِنَا مِن لَّدُنكَ رَحْمَةً وَهَيِّئْ لَنَا مِنْ أَمْرِنَا رَشَدًا"
"ऐ हमारे रब! हमें अपनी बारगाह से रहमत अता फरमा और हमारे वास्ते हमारे काम में दुरुस्ती मुहैया कर।" [सूरह अल कहफ़:10]

मजबूर होकर उन्होंने हिजरत की होगी। यक़ीनन सोचा होगा कि जायें तो जाये कहां। इसी बीच न जाने उन्होंने क्या- क्या बर्दाश्त किया होगा क्यो कि क़ुरआन एक तारीख़ी किताब नहीं इसलिए ऐसी तफ़सीलात का ज़िक्र नहीं जिसका ताल्लुक हिदायत के साथ न हो। वो कौन थे, किस बस्ती के रहने वाले थे ये नहीं बयान किया। बस जिस बात का खुलासा किया कि वो उम्र में कम नौजवान थें और अक़ीदा तौहीद पर उनके साथ शदीद इख़तिलाफ हुआ। 

अल्लाह ने उन्हें एक ऐसी ग़ार की तरफ़ रहनुमाई की जो बहुत कुशादा थी। 

एक दूसरे से गुफ्तगू करते हुए और हौसला अफजाई करते ग़ार में पनाह लेने का इरादा किया। उन्होंने हिकमत से काम लेते हुए जान और ईमान की हिफ़ाज़त भी की और दुआ भी की। अल्लाह पर तवक्कल के साथ कोशिश भी की जो नबियों की भी सुन्नत है। इसके बाद अल्लाह ने उनकी सालों हिफ़ाज़त करके हमारे लिए एक निशानी बना दिया।

बादशाह ने कुफ्र पर मजबूर किया) तो उठ खड़े हुए और कहने लगे, 

"हमारा रब तो बस वही है जो सारे आसमान व ज़मीन का मालिक है हम तो उसके सिवा किसी माबूद की हरगिज़ इबादत न करेगें। अगर ऐसा किया तो बिल्कुल बेजा बात कही। [सूरह अल कहफ़:14]

वो अपनी तौहीद पर जमे हुए थे और अपनी क़ौम के लिए फिक्रमन्द भी हुए कि बिना किसी मज़बूत दलाईल के ये किस तरह अल्लाह के सिवा दूसरे खुदा बना बैठे। अल्लाह फ़रमाता है :(नौजवान)

"खड़े होकर बोले कि हमारा रब वह है जो आसमान और ज़मीन का रब है हम उसके सिवा किसी मअबूद को न पूजेंगे ऐसा हो तो हमने ज़रूर हद से गुज़री हुई बात कही।।यह जो हमारी क़ौम है उसने अल्लाह के सिवा ख़ुदा बना रखे हैं, क्यों नहीं लाते उनपर कोई रौशन सनद {प्रमाण} तो उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूठ बांधे।" [सूरह अल कहफ़:15]

नौजवानो की बहादुरी

जिस ज़माने में तौहीद पर ईमान लाने वाले लोग अपने ईमान को बादशाह के डर से ख़ुफ़िया रख रहे थे या बादशाह के झूठे ख़ुदाओं को मानने पर मजबूर थे। ऐसे में उन नौजवानों ने दरबार में अपने ईमान का ऐलान किया और ज़ालिम बादशाह के सामने बहादुरी का सबूत दिया क्योंकि ज़ब हुकूमत ज़ुल्म करने पर आती है तो सबसे बड़ा ज़ुल्म उसका यही होता हैं उस की जनता भी उसके ही दीन पर हो । नौजवानों को मोहलत मिलना भी उनकी बहादुरी, हिक्मत या उनका दौलतमंद होना भी हो सकता है। अल्लाह बेहतर जानता है।

इस किस्से में एक कुत्ते का भी ज़िक्र है। कुत्ते के बारे में दोनों ही बाते मिलती हैं कि रास्ते में उन्हें एक गड़रिया भी मिला जो दिल से तौहीद पर ईमान रखता था। मगर उसका ईमान ख़ुफ़िया था। उस गड़रिये के साथ एक कुत्ता भी था वो भी कुत्ते के साथ उनके साथ हो लिया। और ये भी मिलता हैं कि कुत्ता उन नौजवानों के पीछे लग गया था।

बहरहाल क़ुरआन से जो साबित हैं वो उस कहफ यानी ग़ार के दाहिनी तरफ दहलीज पर पहरे के लिए सैकड़ों सालों तक बैठा रहा। इस तरह अल्लाह ने उनके हालात पर रोब डाल कर उनकी हिफाज़त की इस तरह कि कुत्ते के खौफ से भी वहां कभी भटकते हुए भी भूले से अंदर न जायेकि कही कुत्ता उन पर हमला न कर दे। जैसा कि क़ुरआन में बयान है कि वो एक ख़ौफनाक मंज़र था तुम देखते तो भाग जाते।

काफ़िर क़ौम उन नौजवानों के लापता हो जाने पर उन्हें तलाश करने में उसी तरह नाकाम रही, जिस तरह नबी ए करीम (ﷺ) और हज़रत अबू बकर रज़. को ग़ार-ए-सौर के पास जाकर भी तलाश नहीं कर सके।

अल्लाह ने उन नौजवानों को उस ग़ार (Cave) में सैकड़ों सालों तक (300 या 309) गहरी नींद सुला दिया कानों पर पर्दा डालना यानि र और हर आहट से महफूज़। सुलाने के बाद भी अल्लाह ने उनके जिस्मो की हिफाज़त की जो सालों तक भी सड़े -गले नहीं, न ही उन के जिस्मो को कीड़ो ने खाया। और करवटें दिलाने से उन्हें पीठ पर ज़ख़्म भी न नहीं हुए। सुब्हानअल्लाह

जैसे अज़कार पढ़कर बावुज़ू सोने पर फरिश्तो के ज़रिये भी अल्लाह हमारी हिफाज़त करता है।

इस तरह का  वाक़्या या सूरत अल बक़रा 259 में एक वली का एक सौ साल तक सो जाने का भी मिलता है। ये  वाक़्या भी अल्लाह की निशानियों में से है। अल्लाह ताआला सूरह कहफ की आयत 9 में फरमाता हैं:

"क्या तुम ये समझते हो कि असहाबे कहफ और कुतबे ( रक़ीम ) वाले हमारी बड़ी अजीब निशानियों में से थे ?"

(रक़ीम के मायने में इख़्तिलाफ हैं ग़ार पर असहाबे कहफ के बारे में लिखी तख्ती को भी रक़ीम कहा हैं और बस्ती के नाम को भी रक़ीम कहा है।)

अल्लाह की निशानियां क़ुरआन की आयतों में बेइंतहा बयान हुई है कि सबको यहां पेश भी नहीं किया जा सकता।

असहाबे कहफ़ सालों बाद सो कर उठने के बाद अपनी सोने की मुद्दत भी सही नहीं बता सके कि ये इल्म अल्लाह के पास है। उनकी पहली तलब (इच्छा) पाक और अच्छा खाना ही था। अक़ीदे के मुताबिक हलाल खाना भी ईमान वाले की तरजीह होती है और बाहर जाने वाले साथी को नरमी से बात करने के हुक्म के साथ ही (وَلۡيَتَلَطَّفۡ क़ुरआन का दरमियानी अल्फ़ाज़ यही है) होशियारी से काम का हुक्म भी दिया कि अगर ज़रा भी चूक हुई तो गुमराह क़ौम से वो पकड़े जायेंगे और संगसार कर दिये जायेंगे या वो उन्हें फिर अपने दीन पर ले जायेंगे और ऐसा होने पर कामयाबी नहीं पा सकेंगे। यानि आखि़रत की कामयाबी नहीं मिल सकेगी।

यहां भी हम देखते हैं कि ईमान वालों में जो मोमिन हों, बहस में नहीं उलझना, पाक-अच्छा खाना जो सेहतमंद हो, बहादुरी, हिकमत, नरमी और ईमान की हिफ़ाज़त और आख़िरत की कामयाबी की फ़िक्र भी ईमान का हिस्सा होती है।

वो साथी बाहर आकर ज़माने के बदलाव देख रहा था। उनके हुलिये और चांदी के पुराने सिक्के से लोगों पर उनका राज़ फ़ाश हो गया जिससे वो नौजवान खुद भी अनजान थे कि वो लोग सैकड़ो सालों तक सोए रहे ।

पूरी क़ौम तौहीद के साथ ईसाई मज़हब पर आ चुकी थी। उन नौजवानों का क़िस्सा लोगों में मशहूर चला आ रहा था इसलिए पहचान करना भी आसान हो गया।

उस ज़माने का ईसाईं बादशाह और सारे लोग इकट्ठे ग़ार में पहुंचे। ये अल्लाह की निशानी थी कि क़यामत का आना यक़ीनी है और लोग मौत के बाद ज़िन्दा उठाये जाने पर ईमान लाएं।

अफसोस! इबरत कम ही लोग हासिल करतें हैं ।

अल्लाह ने फिर नौजवानों को हक़ीकी मौत दे दी जहां फिर दो गिरोह के बीच इख़्तिलाफ हुआ कि क़ब्र बने या इबादतगाह। मगर दबदबे वाले लोगों की राय पर वहां मस्जिद (इबादत गाह) बना दी गई ।

क़यामत पर अक़ीदा दुरुस्त करने के बजाय वो बहस में उलझ गए। असल मकसद तो इस पूरे क़िस्से से इबरत हासिल करना था। ध्यान रहे कि असहाबे कहफ़ जिस दौर में सोकर उठे हैं तब भी ज़्यादातर लोग क़यामत के इनकारी थे।

असहाबे कहफ़ उन लोगों के लिए एक निशानी बनें कि क़यामत भी यकीनी है और जिस दौर में उन्होंने ग़ार में पनाह ली वहां के ईमान लाने वालो के लिए भी असहाबे कहफ़ एक निशानी बने कि किसी भी सूरत में भी ईमान दांव पर नहीं लगाना और हमारे लिए भी नसीहत बने कि हर जुमा इस क़िस्से को दोहराये।

इस पूरे क़िस्से में अल्लाह पर तवक्कल रखने वालो के लिए भी बहुत सबक हैं।

ज़्यादातर नौजवान क़ौम, आखिरत को लेकर संजीदा नहीं होती लेकिन अगर नौजवानो को हिदायत मिलती है तो एक इंकलाब (क्रान्तिकारी बदलाव) मुआशरे में आ जाता है ।क्यों कि उनमे जोश भी होता है, लेकिन अगर होश खो बैठे तो मुआशरा पस्ती (downfall) की तरफ जाता है।

अल्लाह तआला ने कुछ आदमी नहीं बल्कि नौजवान ही लफ्ज़ क़ुरआन में असहाबे कहफ के क़िस्से में नाज़िल किये,जिन्हे अपने साथ- साथ क़ौम के भी ईमान की फ़िक्र थी।आयत 10 मे "फ़ितया" का लफ़्ज़ आया है जिसके मायने 14 साल से लेकर 28 साल तक के जवान है। नौजवानी की उम्र बलूग़त से 40 साल के बीच की होती है, जिसमे इंसान ख्वाहिशात की तरफ ज़्यादा झुकता है ।

हम ये भी देखते है कि साहबा इकराम भी ज़्यादातर नौजवान ही थे इसके लिए सहाबा किराम की ज़िंदगी पर भी नज़र डालनी होगी। और ये भी मालूम हो कि जंग के दौरान भी जवान लोगों का दबदबा ज़्यादा होता है इसलिए बालों में ख़िज़ाब यानि काला रंग लगाना जंग के दौरान जायज़ है।

असहाब ए कहफ़ के इस क़िस्से में उनका मिशन भी छिपा है और ये नौजवानों के लिए बड़ा सबक है।

उनका क़िस्से ये भी सबक देता है कि ऐसे सवालों या बातों में खुद को ना उलझाये जिससे कोई फायदा नहीं, असल मक़सद और सबक पर ध्यान देने का इशारा भी हमें यही मिलता है।

जिस तरह असहाबे कहफ़ की तादाद पर अल्लाह ने हुक्म दिया कि अल्लाह ही बेहतर जानता है।

दज्जाल का इस क़िस्से से ताल्लुक

संक्षेप में हम इतना इस क़िस्से से समझें कि दज्जाल भी एक नौजवान होगा जो ईमान वालों को गुमराह करेगा और बड़े से बड़ा मोमिन भी गुमराह होगा। अगर बादशाह के डर से ईमान छोड़ने वालों की तरह उनके ईमान में कमज़ोरी हुई। उसके चालीस साल के दिन कितने लम्बे होंगे ये अल्लाह ही तादात जानता है। हमें इस बहस में नहीं पड़ना। अल्लाह ताआला हमारी हिफ़ाज़त फ़रमाये और हमे भी हिदायत में बढ़ा दें। आमीन

सूरत कहफ़ की शुरुआत की 10 आयात और किसी हदीस में आखिर की 10 आयात को दज्जाल से हिफ़ाज़त के लिए याद करने का हुक्म है।इनको समझकर ज़रूर याद करें। नौजवानों का क़िस्सा आयत 9 से शुरू है इस पर कुछ आ़लिम की राय है कि आयत न.11 में अल्लाह ने नौजवानों को सुला दिया और हमें दज्जाल का मुकाबला सोकर नहीं करना।

(दज्जाल पर हमारा अगला पार्ट भी देखें)

आज के नौजवान

आजकल के नौजवान का ज़्यादातर वक़्त फिज़ूलयात में बर्बाद होता है, बेहूदा बुक्स, गेमिंग, ड्रामास, सीरिअल्स, मूवीज, थिएटर, स्टेज शो भी इनमे शामिल है जो मुआशरे में बेहूदगी फैलाते हैं।

इस्लामिक क़ानून अल्लाह के हुक्म को आसानी से अमल करने के लिए ही इन बेहूदा चीज़ो को बैन कर देता है और आज के ज़माने में इस्लामी क़ानून अल्लाह के क़ानून के खिलाफ जाकर दज्जालियत की तरफ बढ़ रहे हैँ और जिसे वो तरक्की समझ रहे हैँ ,खुली सोच समझ रहे हैं, वो हक़ीक़त में दौर ए जाहिलयत की तरफ दोबारा जा रहे हैं जो पस्ती का सबब है और इसमें कोई खैर नहीं। और अगर इस बीच में किसी भी उम्र में जाहिलयत की हालत पर मौत हो गयी तो आखिरत में नाकामी और हमेशा के लिए जहन्नुम है। अल्लाह हम सबको अपनी हिफाज़त में रखे। आमीन
दुनिया में बदलाव भी अल्लाह की किताब को क़ायम करने से ही आ सकता है अफ़सोस है कि क़ुरआन का हक़ अदा नहीं हो रहा है और क़ुरआन और नबी (ﷺ) के अलावा कही और रास्ता तलाशना भी गुमराही है। जो ज़माना शिर्क को पसंद करे उनका टारगेट नौजवान नस्ल ही होती है ।वो ऐसी चीज़े बाजार में देते हैं जो ईमान को कमज़ोर करती है अल्लाह भी फितनो के माहौल में दीन पर जमे रहने वाले और सुन्नत को ज़िंदा रखने वाले के लिए ज़्यादा अजर व सवाब देता है।

"क़यामत के दिन अल्लाह जिन सात (ख़ासियत वाले) आदमियों को पनाह देंगे उनमें वह जवान भी है जिसकी जवानी अल्लाह की इबादत में गुज़री, उसे अल्लाह ता’ला रोज़े महशर अपने अर्श का साया अता फ़रमाएँगे”। [सहीह बुख़ारी 6806]

रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमाया: "कयामत के दिन इब्ने आदम ( औलाद ) के क़दम अपने रब के पास से उस वक़्त तक हरकत नहीं करेंगे ,ज़ब तक उससे पांच सवाल नहीं कर लिए जाये:

1. उसकी उम्र (age) के बारे में के किस काम में ख़त्म की?
2. उसकी जवानी के बारे में के किस काम में लगा दी?
3. उस के माल के बारे में के कहां से कमाया? 
4. कहां खर्च किया?
5. और जितना इल्म था उस पर कितना अमल किया?
[अलसिलसिला अस सहीह 2690]


वक़्त और सेहत के लिए भी रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया के:

"दो नेअमते ऐसी हैं जिनकी लोग क़द्र नहीं करते ;सेहत और फरागत (free time) अच्छा काम करने के लिए।" [सहीह बुखारी 6412]

नौजवानो को मालूम ही नहीं कि आज का सबसे बड़ा फितना (ट्रायल ,टेस्ट आज़माइश ) सोशल मीडिया हैं।

♦️किस तरह सोशल मीडिया का आप इस्तेमाल कर रहे हैं? खैर के कामो में या फ़िज़ूल बातो में?
♦️क्या नबी (ﷺ) हमारा मोबाइल चेक करे तो हम दिखा पाएंगे?
♦️क्या मरने के बाद हमारा मोबाइल चेक किया जाये तो उसका कंटेंट और हिस्ट्री पाक-साफ होंगी?

सुरह कहफ का संदेश

सुरह कहफ सिर्फ़ नौजवानो के लिए नही बल्कि सभी इंसानो के लिए एक सबक़ और नसीहत है क्योकि पूरा क़ुरआन ही इंसानो की हिदायत के लिए है। हमे अपने मक़सद हर जुमा याद दिलाये जाते है। ईमान और अपनी आख़िरत की फिक्र , साथ ही क़ौम की फिक्र, कंटेमपरेरी हालात मे फितनो का मुकाबला और किसी भी क़ीमत पर ईमान नही खोना। और इस मक़सद को याद दिलाने के साथ ही हमारे लिए सुरह कहफ की तिलावत और ग़ौरो-फिक्र मे सवाब और नूर है। दज्जाल भी ईमान के टेस्ट के लिए सबसे बड़ा फ़ितना होगा। तो सबसे बड़ी दौलत ईमान है और नेक अ़मल ईमान को मज़बूत करते है।

बाक़ी 3 क़िस्सों का ज़िक्र अगले हिस्से मे किया जायेगा। इंशाअल्लाह

अल्लाह से दुआ है कि अल्लाह हमे ईमान पर साबित क़दम रखे। आमीन



मुसन्निफ़ा (लेखिका): तबस्सुम शहज़ाद 

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