Ek ladki ki nikah ke baad ki zimmedariyan

Ek ladki ki nikah ke baad ki zimmedariyan


निकाह के बाद की ज़िम्मेदारियाँ 

अल्लाह तआ'ला हम सब पर बड़ा मेहरबान है, उसने हमें पैदा किया फिर हमारे साथ बड़ी-बड़ी ज़रूरतें लगा दी और फिर उनको पूरा करने का इंतजाम भी कर दिया, जैसे इंसानों में ख़्वाहिशात रखी और उसके लिए उन्हीं में से जोड़ा बनाया। 

अल्लाह तआ'ला फ़रमाते हैं:

وَّخَلَقۡنٰكُمۡ اَزۡوَاجًا 

"और तुम्हें (मर्दों और औरतों के) जोड़ों की शक्ल में पैदा किया।" [क़ुरआन 78:8]

अब हम बात करते हैं इंसानों की जिम्मेदारियों की, तो एक इंसान की रिश्ते की तरबियत क्या होनी चाहिए। सबसे पहले हम बात करते हैं मर्द हज़रात की, तो उनके रिश्ते की तरबियत में सबसे पहले आते हैं:

  • वालिदैन (माता-पिता)
  • बीवी (पत्नी)
  • औलाद (बच्चे)
  • रिश्तेदार (रिश्तेदार)

औरत का भी लगभग वही है लेकिन जैसे ही लड़की की शादी होती है उसकी तरजीहात (प्राथमिकता) बदल जाती है। उसके रिश्ते की तरबियत में आते हैं:

  • शौहर (पति)
  • वालिदैन (माता-पिता)
  • औलाद (बच्चे)
  • रिश्तेदार (रिश्तेदार)

पर अक्सर ख्वातीन या तो माँ-बाप को तजही (महत्व) पर रखती हैं या बच्चों को, जबकि यह बिल्कुल ग़लत है।

अल्लाह ने शौहर को क़व्वाम बनाया है और क़व्वाम होने के नाते औरत को चाहिए कि शौहर पर उसकी तजही (महत्व) पहले हो। अल्लाह तआ'ला यहाँ मर्दों से फरमाते हैं:

اَلرِّجَالُ قَوَّامُوۡنَ عَلَى النِّسَآءِ. القرآن

"मर्द औरतों पर क़व्वाम हैं।" [क़ुरआन 4:34]

और वो इसलिए कि वो उन पर अपना माल खर्च करते हैं। पर आजकल मर्द अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझते, वो क़व्वाम होने का मतलब ही नहीं जानते। अल्लाह के रसूल मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से एक शख्स ने पूछा बीवी पर शौहर के क्या हकूक हैं?

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

"जब खुद खाए तो उसे खिलाए, जब खुद पहने तो उसे पहनाए, उसकी नाफरमानी का खतरा महसूस करे तो अल्लाह के हुक्म के मुताबिक समझाए।" [अबू दावूद  2142]

तो माँ-बाप को चाहिए कि अपने बेटों की तरबियत करें, उन्हें यह बताएं कि जिस वक्त तुम अपने परिवार के हेड (मुखिया) बनोगे, सरपरस्त बनोगे तो जिस्मानी तौर पर, जान बूझ कर, माली तौर पर और रूहानी तौर पर (spiritually) काबिल होने चाहिए कि आप एक आज़ाद ख़ानदान को संभाल सकते हो।

और औरतों को भी चाहिए कि वो अपने शौहर की इताअत करें। वो औरतें स्वालेह होती हैं जो अपने शौहर की गैर-मौजूदगी में अपनी, उसके घर की और अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करती हैं।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया,

"बेहतरीन बीवी वो है कि जब तुम उसे देखो तो तुम्हारा दिल खुश हो जाए, जब तुम उसे किसी बात का हुक्म दो तो वो तुम्हारी इताअत करे, और जब तुम घर में न हो तो वो तुम्हारे माल की और अपने नफ़्स की हिफ़ाज़त करे।" [सुन्नन नसाई 3231] 

मगर यह बात भी अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि एक औरत को अपने शौहर से पहले अपने ख़ालिक की इताअत करनी है, लिहाज़ा अगर कोई शौहर किसी गुनाह को करने का हुक्म दे या अल्लाह के दिए हुए फराइज को अदा न करने की कोशिश करे तो उसका इनकार करना औरत का फ़र्ज़ है।

और हमारे समाज में एक फ़ितना और है जो इनलॉस (ससुराल वाले) के साथ नाइत्तिफ़ाक़ियात (differences) है। इसे हम फ़ितना ही कहेंगे क्योंकि यह घरों और रिश्तों में फसाद डालता है, कटा ताल्लुकी करवाता है। तो इन तमाम मसाइल की जड़ इल्म की और तरबियत की कमी है।

अक्सर माँ अपनी बेटियों को मज़बूत बनाने के लिए अलग-अलग तरह के कोर्स कराती हैं, वो हर काम में माहिर तो होती हैं पर वो उन्हें यह नहीं बताती कि अगले घर जाकर उस घर के हर फ़र्द को अपना समझे, सास को अपनी माँ और ननद को बहन समझना है। कहीं जगह बनाने के लिए खुद को साबित करना पड़ता है कि आप भी उस घर का हिस्सा हो। आपका यह घर पराया था, वो घर ही आपका अपना है। मायके में सिर्फ़ लड़की कुछ साल रहती है और ससुराल में ही उसकी पूरी ज़िंदगी कटती है। अगर एक लड़की अपने ससुराल वालों को इज़्ज़त देगी तो उसे भी इज़्ज़त और सम्मान मिलेगा। जिस तरह एक कोयले की क़ीमत हीरा बनने पर पता चलती है, उसी तरह एक लड़की को अपने ससुराल में अपनी क़ाबिलियत दिखानी पड़ती है, सब साथ लेकर और सूझ-बूझ से काम लेना पड़ता है। और यही एक माँ का कर्तव्य होना चाहिए कि वो अपनी बेटी की तरबियत इस तरह करे कि वो कहीं भी चली जाए अपनी तरबियत और अपनी हदें जानती हो। उसे अपने और दूसरों के हक़ूक़ पता हो।

जैसे अगर सास ननदों ने कुछ बोल दिया तो सब्र से काम ले, उस बात को लेकर न बैठे और दिल में किसी भी तरह का गुस्सा या शिकायत न रखे।

हाँ, हम यह सोचते हैं कि उनकी ख़िदमत करना न हमारा फ़र्ज़ न वाजिब, पर कम से कम शौहर के वालिदैन होने के नाते वो आपके हुस्न-ए-सुलूक के मुस्तहिक़ हैं। इस्लाम में सिर्फ़ फराइज़ और वाजिबात को पूरा करना नहीं है, और बहुत से काम जो फराइज़ भी नहीं हैं हम करते हैं न?

बहन-भाइयों से, दोस्तों से मोहब्बत, दूर के रिश्तेदारों की ख़ातिरदारी करना, यह सब फराइज़ में तो नहीं आते। अगर हम अपना मुहासिबा करें तो कहीं दूर न जाएं, घरबारी और बच्चों की देखभाल में ख़्वातीन मुआज़ अल्लाह नमाज़ तक क़ज़ा कर देती हैं। हम फराइज़ तक में हमारा अमल मज़बूत नहीं होता और जहां ससुराल की बात आती है वहाँ हमें फरज़ और वाजिब याद आते हैं।

हमारी समझ नहीं आती कि ससुराल वाले कौन सी अलग मखलूक़ हैं जो लड़कियों को उनसे इतना बैर होता है। इस्लाम में तो जानवर से भी मोहब्बत करने का अज्र मिलता है। उस औरत ने सिर्फ़ प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया था और वो न उसका फ़र्ज़ था न उस पर वाजिब। कम से कम अपने शौहर की आख़िरत का ही ख़याल कर ले। क्या फ़ायदा ऐसी बीवी जो आख़िरत तबाह कर दे, आपका फ़र्ज़ नहीं पर उसका तो है। ऐसा भी नहीं कहा जा रहा कि आप हर बात बर्दाश्त करें, कुछ बातों में आपको आवाज़ भी उठानी है जैसे:

  • अगर कोई आप पर हाथ उठाए।
  • हराम रिज़्क़ आए।
  • आपके शौहर के गैर-तआल्लुक़ किसी गैर-औरत से हो।

यह सब बर्दाश्त नहीं करना मतलब इस पर बात करनी है। और इसके लिए माँ-बाप अपनी बेटी को बइख़्तियार (अधिकार) बनाए, अच्छी तालीम दे, उसके बात करने के तरीक़ों और उसका आत्मविश्वास बढ़ाए कि जब वो हराम रिज़्क़ को मना करे तो वो इतनी क़ाबिल हो कि खुद भी कमा सके। और हराम को मना कर हलाल हासिल कर सके।

بَّنَا هَبْ لَنَا مِنْ أَزْوَاجِنَا وَذُرِّيَّاتِنَا قُرَّةَ أَعْيُنٍ وَاجْعَلْنَا لِلْمُتَّقِينَ إِمَامًا

"ऐ हमारे रब! तू हमें हमारी बीवियों और औलाद से आँखों की ठंडक अता फरमा और हमें परहेज़गारों का इमाम बना।" [क़ुरआन 25:74]

आमीन


आपकी दीनी बहन 
अजरा नफीस

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