Muslimah aur 8 March (women's day)

Muslimah aur 8 March (women's day)


इस्लाम में औरत का मकाम बनाम 8 मार्च (विमेंस डे)

दुनिया के मुख्तलिफ मुल्कों का जायज़ा लें, सभी मज़हब के इतिहास पर नजर डालें, आप महिलाओ के हालात देखें तो समझ आयेगा हर ज़माने में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया गया। मर्दों की तुलना में उन्हें कमतर समझा गया, बल्कि यूं कहें कि उन्हें सिर्फ़ भोग की वस्तु समझा गया। गलतियों का पिटारा समझ कर हर दौर में ज़लील किया गया। एक लंबे समय तक उन्हें अपने हक़ से महरूम रखा गया।

जहलियत का वो दौर जब बेटी की पैदाइश को मनहूस समझा जाता था, बच्चियों को ज़िंदा दफ़न कर दिया जाता था, जब शौहर के मर जाने के बाद विधवा का जीवन जहन्नम के अज़ाब से कम न था। उनके साथ जानवर से भी बदतर व्यवहार किया जाता था। औरत को अशुभ मान कर सती होने और जौहर करने पर विवश किया जाता था, दूसरी तरफ देवदासी प्रथा के नाम पर उन्हें वैश्या वृति करने पर मजबूर किया जाता था। चारो तरफ़ अंधकार ही अंधकार छाया हुआ था।

लेकिन ऐसे में नबी अकरम (ﷺ) अंधेरे में एक चिराग़ की रौशनी की मानिंद रहनुमा बन कर उभरे,ये इस्लाम ही है कि बिन्ते हव्वा को एक आला मकाम अता फरमा कर उन्हें इज्जत बख्शी।

आइए क़ुरआन और हदीस की रोशनी में इस्लाम में औरत के हक़ को देखते हैं- 


1. जिंदगी जीने का अधिकार:

शायद आपको हैरत हो कि इस्लाम ने साढ़े चौदह सौ साल पहले औरत को दुनिया में आने के साथ ही अधिकारों की शुरुआत कर दी और उसे जीने का अधिकार दिया सबूत देखिए कुरआन की यह आयत,

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ऐसे लोगों को फटकार लगाई जो बेटी के पैदा होने पर मुंह बना लेते हैं:

"और जब इनमें से किसी को बेटी की पैदाइश का समाचार सुनाया जाता है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह दु:खी हो उठता है। इस 'बुरी' खबर के कारण वह लोगों से अपना मुँह छिपाता फिरता है। (सोचता है) वह इसे अपमान सहने के लिए जिन्दा रखे या फिर जीवित दफ्न कर दे? कैसे बुरे फैसले हैं जो ये लोग करते हैं।" [कुरआन 16:58-59]

अल्लाह तआला फरमाता है:

"और जब जिन्दा गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा, बता तू किस अपराध के कारण मार दी गई?" कुरआन 81:8-9]


2. जीवन साथी चुनने का अधिकार: 

इस्लाम ने औरत को यह अधिकार दिया है कि अगर औरत को कोई पसंद आ जाए तो निकाह का पैग़ाम दे सकती है और कोई ऐसा रिश्ता जो उसे ना पसंद हो तो वो निकाह से इंकार कर सकती है।


3. संपत्ति (विरासत) में अधिकार:

"मर्दों के लिये उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, चाहे थोड़ा हो या बहुत, और औरतों के लिये भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, चाहे थोड़ा हो या बहुत, और ये हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुक़र्रर है।" [क़ुरआन 4:7]

शरियत ए इस्लामिया औरत को बेटी के रूप में उसके वालिद की जायदाद और बीवी के रूप में उसके शौहर की जायदाद का हिस्सेदार बनाया यानी उसे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही संपत्ति में अधिकार दे दिया गया।

इस्लाम पर आरोप लगाया जाता है कि यह महिलाओं को उनका हक नहीं देता। जिन लोगो को यकीन नहीं की इस्लाम ने औरतों उनका हक़ नहीं दिया उन्हें दबा कर रखा उन्हें यह किताब पढ़नी चाहिए- "हमें खुदा कैसे मिला?" इस किताब में आधुनिक और प्रगतीशील कहे जाने वाले यूरोपीय देशों की महिलाओं के इंटरव्यू है, वे बताती हैं कि आखिर उन्होंने इस्लाम क्यों अपनाया?

इस्लाम में औरत के अधिकार को समझाने के लिहाज से ऐसी बहुत सी किताबें जो इस्लाम को समझने में सहायक सिद्ध होंगी जैसे - 

  1. 'पैगम्बर ﷺ और महिला का सम्मान'
  2. 'स्टेटस ऑफ वुमन इन इस्लाम' 
  3. 'वुमन राइट्स इन इस्लाम'

अल्लाह ताला ने औरत को हर तरह से ज़ीनत बख्शी है। उसका हर रूप खुबसूरत बनाया है। एक बेटी के रुप में अपने वालिदैन के ज़िगर का टुकड़ा, अपने भाई की ताकत और गुरूर, बीवी के रुप में मर्द के सुकुन का जरिया और उसके नस्ल को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने वाली, और सबसे उम्दा मकाम उसका तब होता है जब वो एक मां का दर्जा पाती है अल्लाह ने उसके कदमों तले जन्नत रख दी।


4. बेटी के रुप में औरत का मकाम:

बेटी अल्लाह की रहमत होती है और रहमत कभी बोझ नहीं होती।

नबी ﷺ ने फ़रमाया, "जिस शख़्स ने दो लड़कियों की उनके बालिग़ हो जाने तक परवरिश की, क़ियामत के दिन वह और मैं इस तरह आएँगे, और आप ﷺ ने अपनी उँगलीयों को मिलाया।" [सहीह मुस्लिम : 2631]  


5. बीवी का मकाम:

"औरतों से अच्छा सुलूक करो।"

पैगम्बर मुहम्मद ﷺ ने फरमाया, "औरतों के बारे में मेरी वसीयत का हमेशा ख्याल रखना, पस औरतों के बारे में मेरी नसीहत मानो। औरतों से अच्छा सुलूक करो।" [सहीह बुखारी 3331]

पैगम्बर मुहम्मद ﷺ ने फरमाया, "तुम में से सर्वश्रेष्ठ इंसान वह है जो अपनी बीवी के लिए सबसे अच्छा है।" [तिरमिजी,अहमद]

औरत और मर्द एक दुसरे के लिए लिबास हैं अल्लाह ताला फरमाता है वे (बीवियाँ) तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम (शौहर) उनके लिए लिबास हो।

सूरह 2 बकरा आयत खुलासा: इस आयत में अल्लाह ने मियाँ बीवी को ‘एक दूसरे के लिये लिबास’ कहकर निहायत खूबसूरत और जामेअ मिसाल दी है।

इसलिए अल्लाह तआला ने क़ुरआन में मर्दों को ख़ास ज़ोर दिया है कि "अपनी बीवीयों के साथ भले तरीक़े से ज़िन्दगी गुज़ारो।" [सूरह निसा 19]

नबी करीम ﷺ की जिन्दगी हमारे लिए नमूना है। हमारे नबी ﷺ जिनकी मक्का की 13 साला ज़िन्दगी कुफ्फारे मक्का की बेशुमार अजियतों, दुःख और तकलीफ़ बर्दाश्त करते हुऐ गुज़री और मदीना की दस साला ज़िन्दगी जिसमें हर पल यह डर लगा रहता था कि कब कहाँ से हमला हो जाए और मुसलमान समेत नबी ﷺ हर वक़्त चौकन्ना रहते थे, ऐसे डर और गम भरे माहौल मेंआप ﷺ ने ख़ुद अपने किरदार से यह साबित किया कि औरतों के साथ निहायत प्यार व मोहब्बत और लगावट से रहना चाहिए और उनकी हर ज़रूरयात के साथ-साथ उनकी नफ़्सयाती ज़रूरयात का भी ख़्याल रखा जाना चाहिए।

अल्लामा इब्न कैय्युम (रदि.) ने ज़ादुल-माद में इस सिलसिले में क्या ही उम्दा लिखा है कि "अंसार की लड़कीयां हजरत आयशा (रजि०) के पास खेलने के लिए आया करती थीं, आप ﷺ ने कभी भी उन्हें उनके साथ खेलने से मना नहीं फ़रमाया, हजरत आयशा (रजि०) बर्तन में जिस जगह पानी पीतीं, आप ﷺ भी अपना होंठ वहीं रखते और पानी पीते।

नबी करीम ﷺहजरत आयशा (रजि०) की गोद में सर रख कर क़ुरआन पढ़ते, उनकी गोद में सर रख कर आराम करते, जब कुछ हब्शी मस्जिद-ए-नबवी के सामने अपने करतब दिखा रहे थे तो आप ﷺ ने अम्मी आयशा(रजि०) को वह खेल दिखाया और वह आप (अम्मी आयशा) ﷺ के कंधों का सहारा लिए हुए थीं।" [ज़ादुल-माद १/ १६४]


6. माँ का मकाम: 

क़ुरआन में अल्लाह तआला ने वालदेन के साथ बेहतर व्यवहार करने का आदेश दिया है,

"तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि तुम लोग किसी की इबादत न करो, मगर सिर्फ़ उसकी। माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो। अगर तुम्हारे पास इनमें से कोई एक या दोनों, बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे एहतिराम के साथ बात करो।" [क़ुरआन 17:23-24]

"हमने इंसान को हिदायत की कि वो अपने माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करे। उसकी माँ ने तकलीफ़ उठा कर उसे पेट में रखा और तकलीफ़ उठाकर ही उसको जन्म दिया..." [कुरान 46:15]

हदीस बयान की जाती है की माँ के साथ अच्छा व्यवहार करने का अन्तिम ईश्दुत मुहम्मद (ﷺ) ने भी आदेश दिया,

एक सहाबी नबी ﷺ के पास आए और पूछा कि मेरे अच्छे व्यवहार का सब से ज्यादा अधिकारी कौन है?
नबी करीम ﷺ ने फरमायाः तुम्हारी मां,
फिर पूछाः फिर कौन ?
फर्माया:तुम्हारी मां.
पूछाः फिर कौन ?
फरमाया :तुम्हारी मां,
पूछाः फिर कौन ? 
आखरी बार फरमाया तुम्हारे वालिद।
साबित हुआ कि मां को वालिद की तुलना में तीनगुना अधिकार प्राप्त है। 
[इब्ने माजह 3658]


एक और हदीस बयान की जाती है,

एक सहाबी अल्लाह के रसूल ﷺ के पास आये और जिहाद में जाने की इजाजत मांगने लगे तो उन्होने कहा, क्या तुम्हारी माँ है? तो सहाबी ने कहा हां है तो नबी ﷺ ने कहा की, "जाओ उनकी खिदमत करो इज्जत करो और उनसे चिमट जाओ क्योकि आपकी माँ के पैरों निचे जन्नत है।" [सहीह बुख़ारी 3004]

अब बात करते है नारी सशक्तिकरण के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की जो 8 मार्च को मनाया जाता है आईए इसके इतिहास पर एक नज़र डालें फिर विश्लेषण करेंगे नारी सशक्तिकरण के नाम पर पश्चिमी देशों ने औरत को कहां पहुंचा दिया है।


महिला दिवस मनाए जाने का इतिहास

महिला दिवस को मनाने के पीछे साल 1908 में न्यूयॉर्क में हुई एक रैली का अहम योगदान है। चुंकि इसके पीछे एक उद्देश्य था की काम काजी महिलाओ के शोषण को रोका जाए, इस साल न्यूयॉर्क में 12 से 15 हजार महिलाओं ने एक रैली का आयोजन किया था। रैली का नेतृत्व क्लारा ज़ेटकिन ने किया, इन महिलाओं की मांग थी कि उनकी नौकरी के कुछ घंटे कम किए जाए। साथ ही उन्हें वेतन भी उनके काम के मुताबिक दिया जाए।

ये आंदोलन महज़ कामकाजी महिलाओं की तरफ़ से था जिनका आर्थिक रुप से शोषण हो रहा था। मगर आज इसे इस्लाम के खिलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। और अब वर्तमन नारी वादी सोच जो उफान पर है जिसमें फेमिनिजम, मेरा जिस्म मेरी मर्जी, लैंगिक समानता, समलैंगिक विवाह, नाजायज संबंध को सहमति, मर्दों से बराबरी, बेहयाई और नंगापन को प्रमोट किया जा रहा है, जिसे नारी सशक्तिकरण का नाम देकर औरत को मर्दों के बराबर ला खड़ा किया है या ये कहें कि मर्दों से आगे निकल जाने की होड़ ने औरत को चलती फिरती मशीन बना दिया है।

पश्चिमीकरण का शिकार होने वाली महिलाएं और वो मर्द जो इस सोच को प्रमोट करने वाले हैं उन्हें जान लेना चाहिए कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को मिट्टी से पैदा किया और हज़रत हव्वा को हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की टेढ़ी पसली से, तो सोचिए ज़रा औरत मर्द के जरिए से पैदा की गई हैं तो मेरा सवाल है, कि औरत मर्द के बराबर कैसे हो सकती है?

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हर मखलूक को अलग अलग सलाहियतों से नवाजा है। अल्लाह ने मर्द को औरत पर एक दर्जा फजीलत दी है क्योंकि वो औरत की तमाम जिम्मेदारियों को उठाता है। अल्लाह ने कमाने की ज़िम्मेदारी औरत पर नहीं डाली, इसलिए मर्द को कव्वाम कहा है।


मर्द सर्दी गर्मी के थपेड़े, दर बदर की ठोकरें, 

गैरों की झिड़कियों पर मुस्कुरा देता है। 

अपनों के लिए आंसुओ को भी छुपा लेता है,

मर्द यूहीं नहीं कमाता है, खुद को मिटा देता है।।


कुछ औरतें कहती हैं कि हम अपने खर्चे ख़ुद से उठा सकते हैं, हम खुद भी कमा सकते हैं। बेशक यह सही है, मगर ये तब हो सकता है की आप बेहद मजबूर हों। मसलन जब हालात ऐसे हों कि आप के वालदेन को कोई बेटा न हो तो आप अपने वालदेन के लिए बेटे की जिम्मेदारी निभा सकती हैं वो भी इसलाम के दायरे में रह कर। फिर ऐसी ही कोई सूरत हो के आप के बच्चों के सर पर वालिद का साया न हो तो आप अपने बच्चों के लिए मां और बाप की जिम्मेदारी उठा सकती हैं। अल्लाह ने आप को इतनी सलहियतें दी हैं।

अब यहां कुछ बहनों के मन में सवाल आता है कि क्या औरत बिजनेस नहीं कर सकती? क्या वो फाइनेंशियल तौर पर ख़ुद को स्ट्रॉन्ग नहीं कर सकती? तो इसका जवाब भी हमें नबी करीम ﷺकी सीरत से मिलती है, अल्लाह के नबी ﷺ को सबसे पहले नुबूवत के हालत में देखने वालीं और आप पर ईमान लाने वालीं पहली औरत हैं.... हज़रत खदीजा (अल्लाह आपसे राज़ी हो) ये इस्लाम ही क्या पुरी दुनियां में एक कामयाब बिजनेस वुमन रहीं जिनका व्यापार दुनिया के अधिकतर मुल्कों में फैला था। इन्होंने अल्लाह के नबी ﷺ को अपनी जान,माल से, हर तरह से मदद की और राहत पहुंचाई, जिस वक्त सबने आपका ﷺ इंकार किया।

दीन ए इस्लाम में ऐसी औरतें गुजरी हैं जो मर्दों से भी से बाजियां मार चूकी हैं। सबसे पहले शहीद होने वाली औरत ही हैं जिन्होंने ने शहादत का दर्जा पाया। ..... हज़रत सुमैया।


जन्नती औरतों को सरदार:

जन्नत में औरतों की चार सरदार होंगी। 

سَيِّدَاتُ نِسَاءِ الْجَنَّةِ أَرْبَعٌ مَرْيَمُ بِنْتُ عِمْرَانَ وَخَدِيجَةُ بِنْتُ خُوَيْلِدٍ وَفَاطِمَةُ ابْنَةُ مُحَمَّدٍ وَآسِيَةُ"

"जन्नत की औरतों में चार सरदार होंगी मरयम बिन्ते इमरान, फ़ातिमा बिन्ते रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, ख़दीजा बिन्ते ख़ुवैलिद, और आसिया होंगी।" [मुस्तदरक हाकिम 4853, मुसनद अहमद 10412/ मुसनद बनी हाशिम अब्दुल्लाह बिन अब्बास]

इनकी फजीलत में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने (सूरह 66 अत तहरीम आयत 12) पेश की अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस आयत की तफ़सीर में फ़रमाया:

كَمَلَ مِنْ الرِّجَالِ كَثِيرٌ وَلَمْ يَكْمُلْ مِنْ النِّسَاءِ إِلَّا آسِيَةُ امْرَأَةُ فِرْعَوْنَ وَمَرْيَمُ بِنْتُ عِمْرَانَ وَإِنَّ فَضْلَ عَائِشَةَ عَلَى النِّسَاءِ كَفَضْلِ الثَّرِيدِ عَلَى سَائِرِ الطَّعَامِ

"मर्दो में कमाल को बहुत से लोग पहुंचे हैं लेकिन औरतों में केवल फ़िरऔन की बीवी आसिया और मरयम बिन्ते इमरान ही पहुँची हैं और आयेशा की फ़ज़ीलत औरतों पर ऐसी है जैसे तमाम खानों पर सरीद को फ़ज़ीलत हासिल है।" [सही बुख़ारी 3411, 3433, 4769, 5418/ किताबुल मनाक़िब अहादीसूल अंबिया , सूरह अत तहरीम आयत 11 की तफ़्सीर में, सही मुस्लिम 5418, मिश्कातुल मसाबीह 5724]

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने औरतों के छोटी छोटी नेकियों पर भी बड़े इनाम रखें हैं मिसाल के तौर पर,

1. मर्द को मस्जिद में नमाज़ अदा करना है मगर औरत को घर पर नमाज़ पढ़ने पर उतना अजर मिलता है जितना मर्द को मस्जिद में अदा करने पर उसे मिलता है।

2. दूसरी मिसाल मर्द जिहाद का हुक्म दिया गया है लेकिन औरत को नहीं, फिर भी औरत को जिहाद का अजर मिलता है। क्योंकि वो पर्दे में रहती हैं और अपनी आबरू और शौहर के अमानत की हिफाज़त करती हैं।

3. तीसरी मिसाल औरत हैज़ से होती है तो नमाज़ माफ़ कर दिया गया है, अलबत्ता रोज़ा की कजा लाज़िम है, लेकिन अल्लाह ने औरत को मां बनने की जो नेमत अता की है उसमें भी अजर वा सवाब रखा है कि वो मर्द के बराबर पहुंच जाती हैं।

अब बताएं इतनी सारी खूबियां, इतनी सारी नेमेतें, इतने सारे अजर ओ सवाब के बाद भी हम औरतों को कौन सी आज़ादी चाहिए?

वो आज़ादी जो बेहयायी और फहाशी की तरफ़ ले जाए, जिसका अंजाम जहन्नम की आग है या वो आज़ादी जो इस्लाम अता करता है चादर और चार दिवारी का तहफ्फुज़ जिसके बदले जन्नत की बेशुमार नेमतें हैं।

तो फ़ैसला आप को करना है की कौन सा रास्ता चुनना है जन्नत या जहन्नम।

मेरी प्यारी बहनों पश्चिमी कल्चर को फॉलो मत कीजिए, फेमिनिजम से बचिए।

अल्लाह का फ़रमान है :

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बचाओ अपने-आपको और अपने अहलो-अयाल को उस आग से जिसका ईंधन इन्सान और पत्थर होंगे , जिस पर बहुत ही बहुत ग़ुस्सेवाले और सख़्ती करनेवाले फ़रिश्ते मुक़र्रर होंगे जो कभी अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी नहीं करते और जो हुक्म भी उन्हें दिया जाता है उसे पूरा करते हैं।" [अल तहरीम आयात 6]

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हम सब को हिदायत दे और सही दीन पढ़ने समझने और अमल करने की तौफीक अता फरमाए आमीन या रब्बल आलमीन


आपकी दीनी बहन 
फ़िरोज़ा 

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