Khulasa e Qur'an - surah 4 | surah an-nissa

Khulasa e Qur'an - surah | quran tafsir

खुलासा ए क़ुरआन - सूरह (004) अन निसा


بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ


सुरह (004) अन निसा

 

(i) आलमी भाई चारे के पैग़ाम

दुनिया में जितने भी महिला पुरुष हैं सभी एक इंसान यानी आदम की संतान हैं। सभी बराबर हैं इसलिए कोई ऊंचा नीचा नहीं, (आयत 01)

 

(ii) बीवियों की तादाद

एक मर्द एक वक़्त में चार निकाह से ज़्यादा नहीं कर सकता, चार भी इस शर्त के साथ उनके हुक़ूक़ की अदायगी में इंसाफ़ से काम लिया जाय (03)


(iii) महर

औरतों के महर ख़ुशी ख़ुशी दो। (04)


(iv) यतीमों का हक़

यतीमों का माल उनके हवाले कर दिया जाय क्योंकि जो लोग यतीम का माल खाते हैं वह अपने पेट में जहन्नम की आग भरते हैं। (6, 10)


(v) विरासत का क़ानून


◆ वारेसीन की तीन क़िस्में हैं 

  1. ज़विल फुरूज़ 
  2. असबा, 
  3. ज़विल अरहाम

◆ विरासत की तक़सीम मय्यत के क़र्ज़ और वसीयत की अदायगी के बाद होगी। 

◆ मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है। 

◆ अगर मय्यत की वारिस दो या दो से ज़्यादा लड़कियां हों तो विरासत के दो तिहाई (2/3) हिस्से में वह सब शामिल होंगी। 

◆ अगर मय्यत के सिर्फ़ एक ही लड़की हो तो वह विरासत के आधा (1/2) हिस्सा की हक़दार होगी।

◆ अगर मय्यत के औलाद हो तो मां को छठा (1/6) और बाप को छठा (1/6) हिस्सा मिलेगा। 

◆ अगर मय्यत के औलाद न हो और भाई बहन भी न हों तो मां तिहाई (1/3) की हकदार होगी बाकी विरासत का मालिक बाप होगा। 

◆ अगर मय्यत के भाई बहन हों तो मां छठा (1/6) हिस्से की हक़दार होगी। 

◆ अगर बीवी का इंतेक़ाल हो जाय और उसके औलाद हो तो शौहर को चौथाई (1/4) हिस्सा मिलेगा और अगर औलाद न हो तो आधा (1/2) हिस्सा होगा। 

◆ अगर शौहर का इंतेक़ाल हो जाय और उसकी औलाद हो तो बीवी को आठवां (1/8) हिस्सा मिलेगा और अगर औलाद न हो तो चौथाई (1/4) हिस्सा होगा। 

◆ कलालह: अगर मय्यत के केवल मां जाये एक भाई और एक बहन हों तो प्रत्येक को छठा (1/6) हिस्सा मिलेगा और अगर ज़्यादा हों तो तिहाई (1/3) में सभी शामिल होंगे। 

◆ कलालह: अगर मय्यत के केवल सुल्बी (सगी) या अल्लाती (सौतेली) एक बहन हो तो उसे आधा (1/2) हिस्सा मिलेगा, अगर दो या दो से ज़्यादा बहनें हों तो दो तिहाई (2/3) में सभी शामिल होंगी। अगर मय्यत का एक ही भाई है तो वह कुल विरासत के वारिस होगा और अगर भाई बहन दोनों हों तो भाई का हिस्सा बहन से दुगना (double) होगा।

◆ गोद लिए हुए बच्चे (Adopted children) का विरासत में कोई हिस्सा नहीं होगा। 

◆यह अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए हिस्से हैं इसलिए विरासत के मामले में कोई कमी कमी बेशी न की जाय और न किसी को नुक़सान पहुंचाया जाय।

◆ किसी की विरासत की तक़सीम उसकी मौत के बाद होगी पहले नहीं।

◆ यह अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं जो अल्लाह और रसूल की नाफ़रमानी करेगा वह हमेशा जहन्नम में रहेगा। (11 से 14 और 176)

◆ अपनी मिल्कियत में से तिहाई (1/3) से ज़्यादा की वसीयत नहीं की जा सकती (सही मुस्लिम 4213, से 4215)

◆ वारिस को वसीयत नहीं की जा सकती। (सुनन अबी दाऊद 2870)

◆ काफ़िर का वारिस मोमिन और मोमिन का वारिस काफ़िर नहीं हो सकता। (सुनन अबी दाऊद 2911)

◆ रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया: मर्द और औरत दोनों साठ वर्ष तक अल्लाह की इताअत के काम में लगे रहते हैं। फिर जब उनकी मौत का वक़्त आता है तो वह ग़लत वसीयत करके वारिसों को नुक़सान पहुंचाते हैं तो उनके लिए जहन्नम वाजिब हो जाती है। शहर बिन हौशब कहते हैं: इस मौक़ा पर, अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने (सूरह अन निसा की आयत 11, 12) " مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ ....... وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ पढ़ी। "जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मरने वाले ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, शर्त यह है कि किसी को नुक़सान न पहुंचाया जाय। यह अल्लाह का आदेश है और अल्लाह अलीम, और हलीम (सहनशील) है। यह अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा उसे अल्लाह ऐसी जन्नत में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वह हमेशा उसमें रहेगा, यही बड़ी कामयाबी है। (सुनन अबी दाऊद 2867/ किताबुल वसाया)


(vi) महरम औरतें 

वह औरतें जिन से निकाह हराम है मां, बहन, बेटी, फूफी, ख़ाला, भतीजी, भांजी, रज़ाई माएं (दूध पिलाने वाली), रज़ाई बहन (दूध शरीक बहनें), सास, सौतेली बेटियां, बहु। (23)


(vii) मौत से पहले पहले तौबा 

तौबा मौत से पहले होनी चाहिए, मौत के समय कोई तौबा क़ुबूल नहीं होती और जो बग़ैर तौबा के मर जाए उसके लिए दर्दनाक अज़ाब है। (18)


(viii) गुनाह कबीरा 

1, नाहक़ किसी का माल खाना या लेना, 2, अल्लाह के साथ शिर्क करना 3, जादू 4, किसी का नाहक़ क़त्ल करना 5, यतीम का माल खाना, 6, सूद (ब्याज) खाना 7, लड़ाई के दिन पीठ दिखाना 8, भोली और पाकदामन औरत पर इल्ज़ाम लगाना, 9, मां बाप की नाफ़रमानी, 10, झूठी गवाही और झूठी क़सम। (आयत 29, 36 और 37, सही मुस्लिम 89, सही बुख़ारी 6870)

  

(ix) ख़ानादारी की तदाबीर

पहली हिदायत तो यह दी गई है कि मर्द ही औरत का मुखिया है, फिर नाफ़रमान बीवी से मुतअल्लिक़ मर्द को 3 तदबीरें बतायी गयीं। 

(1) उसको समझाए और नसीहत करे। 
(2) समझाने और नसीहत करने पर न मानने पर बिस्तर से अलग कर दे। 
(3) अगर फिर भी न माने तो अगला क़दम उठाते हुए (हद में रहते हुए) उसकी पिटाई भी की जा सकती है। 

अगर उसके बाद भी बात न बने तो एक फ़ैसला करने वाला एक मर्द की तरफ़ से और एक औरत की तरफ़ से हो और वह दोनों बनाव और सुधार की पूरी कोशिश करें। (34, 35)


(x) अदल व एहसान और ईमानदारी (इंसाफ़ और भलाई)

अद्ल व एहसान और अमानत को उनके मालिकों के हवाले करने का हुक्म दिया गया ताकि इज्तेमाई (सामुहिक) ज़िन्दगी भी दुरुस्त हो सके। (58)


(xi) शिर्क सबसे भयानक जुर्म है

अल्लाह मुशरिक को कभी माफ़ नहीं करेगा उसके इलावा जिसे चाहेगा माफ़ कर देगा। (48, 116)


(xii) अल्लाह और उसके रसूल की इताअत फ़र्ज़ है

ईमान वालो! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से हुक्म देने का अधिकार रखते हों। फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा (इख़्तेलाफ़) हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो। अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। काम करने का यही एक सही तरीक़ा है और अंजाम के लिहाज़ से भी बेहतर है। (59)


(xiii) जिहाद (संघर्ष) की तर्ग़ीब

जिहाद (हक़ के लिए लड़ने) की तर्ग़ीब दी कि मौत से न डरो वह तो बिस्तर पे भी आ सकती है। न जिहाद में निकलना मौत को यक़ीनी बनाता है न ही घर मे पड़े रहना ज़िन्दगी के सुरक्षा की ज़मानत है। (74, 78)


(xiv) क़त्ल की सज़ाएं

क़त्ल की सज़ाएं बयान करते हुए बहुत सख़्त लहजा अख़्तियार किया गया हैं:

وَمَن يَقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاؤُهُ جَهَنَّمُ خَالِدًا فِيهَا وَغَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهُ وَأَعَدَّ لَهُ عَذَابًا عَظِيمًا 

जो किसी मोमिन को जान बूझ कर क़त्ल कर दे तो उस का बदला जहन्नम है जिसमें वह हमेशा रहेगा। वह अल्लाह के गज़ब और लानत का मुस्तहिक़ हुआ और अल्लाह ने उस के लिए बड़ा अज़ाब तैयार कर रखा है। (93)


(xv) हिजरत और सलातुल ख़ौफ़ 

जिहाद की तर्ग़ीब दी गई थी। इसमें हिजरत (migrate) करना पड़ता है। लेकिन नमाज़ किसी भी हालत में माफ़ नहीं है यहां तक कि जिहाद व हिजरत के दौरान भी नहीं। चूंकि उस वक़्त नमाज़ पढ़ते हुए दुश्मन का खौफ़ होता है। इसलिए सलातुल खौफ़ कहा गया है। (101, 102)


(xvi) एक वाक़िआ 

क़बीला ए बनी ज़फ़र के एक आदमी तअमा या बशीर बिन उबैरिक़ ने एक अंसारी की ज़िरह (कवच) चुरा ली और जब उसकी छान-बीन शुरू हुई तो चोरी का माल एक यहूदी के यहां रख दिया। ज़िरह के मालिक ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने मसअला रखा और तअमा पर अपना शक ज़ाहिर किया। मगर तअमा और उसके भाई-बन्धुओं और क़बीला ए बनी-ज़फ़र के बहुत से लोगों ने आपस में साँठ गाँठ करके उस यहूदी पर इल्ज़ाम थोप दिया। यहूदी से पूछा गया तो उसने कहा कि मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं। लेकिन ये लोग तअमा की हिमायत में ज़ोर व शोर से वकालत करते रहे और कहा कि यह शरारती यहूदी, जो हक़ और अल्लाह के रसूल का इंकार करने वाला है, इसकी बात का क्या भरोसा, बात हमारी तस्लीम की जानी चाहिए क्योंकि हम मुसलमान हैं। क़रीब था कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस मुक़द्दमे की ज़ाहिरी रिपोर्ट को देखते हुए उस यहूदी के ख़िलाफ़ फ़ैसला कर देते और मुक़द्दमा करने वाले ज़िरह के मालिक को भी बनी-उबैरिक़ पर इल्ज़ाम लगाने पर ख़बरदार करते। इतने में वही नाज़िल हुई और मामले की सारी हक़ीक़त खोल दी गई। (105, सुनन तिर्मिज़ी 3036)


(xvii) मोमिन के लिए ईमान लाना जरूरी है

(1) अल्लाह पर 
 (2) रसूल पर 
 (3) आसमानी किताबों पर 
 (4) फरिश्तों पर 
(5) आख़िरत के दिन पर।


(xviii) मुनाफ़िक़ीन की मुज़म्मत और उनकी सिफ़ात

मुनाफ़िक़ीन की मुज़म्मत करके मुसलमानों को उन से होशियार किया गया है और उनका अंजाम बताया गया है कि वह जहन्नम के सबसे निचले हिस्से में होंगे। मुनाफ़िक़ीन की निम्नलिखित विशेषताएं गिनाई गई हैं:

(i) वह मोमिनों को छोड़कर दूसरों को दोस्त बनाते हैं कि समाज में उन्हें इज़्ज़त हासिल हो हालांकि इज़्ज़त तो अल्लाह के हाथ में है। 
(ii) वह ख़ुद को धोखा देते हैं हालांकि वह समझते हैं कि अल्लाह को धोखा दे रहे हैं। 
(iii) नमाज़ के लिए जाते हैं तो कसमसाते हुए। 
(iv) दिखावे के लिए नमाज़ पढ़ते हैं। 
(v) अल्लाह को कम ही याद करते हैं। 
(vi) तज़बज़ुब (शक) में पड़े रहते हैं यानी सही और ग़लत की तमीज़ नहीं होती। 

(142 से 145)


(xix) बुराई की तशहीर

किसी को खुल्लमखुल्ला बुरा कहने से मना किया गया मगर मज़लूम को अख़्तियार दिया गया कि ज़ालिम के ज़ुल्म को लोगों के सामने बयान करे ताकि वह ज़ुल्म से तौबा कर ले। (148, 149)


(xx) तमाम अंबिया पर ईमान

अल्लाह के रसुल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उनसे पहले जितने भी अंबिया गुज़रे हैं उन पर ईमान लाना लाज़मी (अनिवार्य) क़रार दिया गया। उन के दरमियान किसी तरह की तफ़रीक़ (किसी को मानने और किसी को न मानने) को कुफ़्र क़रार दिया गया। (152)

 

(xxi) यहूद की मुज़म्मत और उनके मुतालिबात 

यहूदियों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुतालिबा (demand) किया कि हमारी तरफ़ आसमान से कोई तहरीर नाज़िल क्यों नहीं की जाती तो अल्लाह ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यक़ीन दहानी कराई कि यह आप से पहले भी इस से बड़ी बड़ी demand रख चुके हैं कि जबतक हम अल्लाह को अपनी आँखों से न देख लें ईमान नहीं लायेंगे। चुनांचे उनके फ़ालतू सवालात और सरकशी की वजह से उन पर बिजली का अज़ाब नाज़िल हुआ। (153)


(xxii) यहूदियों के करतूत 

(i) अल्लाह से किये हुए अहद (इक़रार) को तोड़ा, 
(ii) मरयम अलैहस्सलाम पर बुहतान ए अज़ीम (झूठा इल्ज़ाम) बांधा, 
(iii) ईसा अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने की कोशिश (मगर अल्लाह तआला ने ईसा अलैहिस्सलाम की हिफ़ाज़त फ़रमाई और उन्हें आसमान पर उठा लिया) 
(iv) अल्लाह की आयात का इंकार और अंबिया का क़त्ल, 
(v) सूद का लेन देन (जैसा आज हम में कुछ लोग हलाल कर रहे है और लंबे चौड़े दलाएल दे रहे हैं) 
(vi) लोगों का माल बातिल तरीक़े से खाना, 
(vii) दीन में ख़ुराफ़ात व बिदआत दाख़िल करना, 
(viii) सब्त का क़ानून तोड़ना 
(ix) कोई बात ख़ुद कह कर उसे अल्लाह की तरफ़ मंसूब करना। (x) बहुत सी हराम चीज़ों को जाएज़ ठहरा लेना। 
(xi) जब जंग पर जाने के लिए आदेश दिया गया तो कहा "तुम जाओ और तुम्हारा ख़ुदा जाए हम तो यहीं बैठे रहेंगे'। 

(155 से 161)


(xxiii) ईमान के तक़ाज़े

पुख़्ता इल्म वाले, ईमानदार और अज्र ए अज़ीम के मुस्तहिक़ अल्लाह के नज़दीक वह लोग हैं जो कुछ आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर नाज़िल हुआ और जो कुछ पहले नाज़िल हुआ उस पर ईमान लाते हैं, नमाज़ और ज़कात की पाबंदी करते हैं और आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं। (162)

 

(xxiv) ख़ुशख़बरी सुनाने वाले और डराने वाले

दुनिया में कोई क़ौम ऐसी नहीं गुज़री जहाँ नबी न भेजे गए हों ताकि कोई हुज्जत बाकी न रह जाय। सभी रसूल सच्चे और हक़ बात लेकर आए थे। वह ख़ुशख़बरी सुनाने वाले और डराने वाले थे। और जिस तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर वही (وحی) नाज़िल हुई वैसे ही नूह, इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक़ और दूसरे अंबिया पर नाज़िल हुई। आख़िर में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अल्लाह तआला ने तसल्ली दी है कि जो नहीं मानता न माने। जो कुछ आप पर नाज़िल किया गया है वह अल्लाह ने अपने इल्म से नाज़िल किया है उसपर फ़रिश्ते भी गवाह हैं और वैसे तो केवल अल्लाह की गवाही काफ़ी है। (163 से 166)


(xxv) नसारा (christian) की मुज़म्मत

ईसाई ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में गुलु (Extreme) का शिकार हो (हद से आगे बढ़) कर अक़ीदा ए तस्लीस (Trinity = तीन ख़ुदा) के मानने वाले हो गए। हालांकि हक़ीक़त यह है कि अल्लाह एक है, उस का कोई बेटा नहीं है वह इन तमाम ऐब से पाक है। (171)


(xxvi) तकब्बुर (घमंड) करने वाले

जो लोग घमंड करते हैं और अल्लाह की ग़ुलामी को अपने लिए शर्म का बाइस समझते हैं और उसके रास्ते से रोकते हैं तो एक वक्त आएगा जब अल्लाह सब को अपने सामने घेर लेगा। ईमान लाने वाले, नेक अमल करने वाले, और घमंड से बचने वालों के लिए बेहतरीन बदले का अल्लाह ने वादा किया है। (167 से 170)


आसिम अकरम (अबु अदीम) फ़लाही

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