वैलेंटाइन्स डे
आज हम जिस तरह के समाज में रह रहे हैं इस समाज में हक़ और बातिल का फ़र्क करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। क्योंकि इस समाज में कुछ निहायत ही मुफाद परस्तों ने कभी मज़हब के नाम पर तो कभी रिश्तों के नाम पर इस ढंग से ऐसे बहुत से नए नए रस्म, रिवाज़ और त्यहारों को ईजाद कर दिया है जिसकी हकीकत जानने की भी लोग ज़रूरत नहीं समझते हैं। और उन लोगों की साजिशों का हिस्सा बनते जा रहे हैं। उन्हीं साज़िशों में एक जिसे वेलेंटाइनस डे के नाम से मशहूर करके लोगों को बर्बाद करने में तक़रीबन कामयाब होते जा रहे हैं तो इससे बचने की औरों को बचाने की कोशिश करते हैं। (इंशा अल्लाह)
वैलेंटाइन्स डे का इतिहास
इसके इतिहास के बारे में बहुत सी कहानी बताई जाती है हकीकत क्या है? वल्लाहु आलम लेकिन उन तमाम कहानियों में एक बात मुश्तर्का (कॉमन) है वो ये कि सब कहानियों का ताल्लुक़ ईसाईयों (ईसाईयत को मानने वालों) से जा मिलता है। जो तक़रीबन 300 ई० से शुरू होती है। यानि खुलासा ये है कि इसका ताल्लुक़ किसी इस्लामी शरियत से नहीं है। ईसाईयत भी इस्लामी शरियत थी लेकिन नबी करीम ﷺ पर नुजुल ए क़ुरआन से पहले तक।
हर उम्मत के लिये हमने इबादत का एक तरीक़ा मुक़र्रर किया है जिसकी वो पैरवी करती है।
कुरान 22.67
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हर उम्मत को एक शरीयत/कानून दिया था लेकिन ये रस्म ईसा अलैहिस्सलाम को दुनिया से उठाए जाने के सदियों बाद शुरु हुआ।
वैलेंटाइन्स डे मनाना कैसा है?
हज़रत इब्ने-उमर (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: जिसने किसी क़ौम से मुशाबिहत इख़्तियार की तो वो उन्ही में से हुआ। (सुन्न अबू दाऊद: 4031)
इस रिवायत के मुताबिक़ अगर किसी ने कौम/मज़हब का तरीक़ा अपनाया तो वो भी उसी कौम का हो जाएगा और अगर तौबा करने से पहले मौत ने उसे आ पकड़ा तो हो सकता अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त उसे उसी कौम के साथ उठाए।
इस्लाम एक दीन है जिसका मतलब ज़िंदगी जीने का तरीक़ा, यानि इस्लाम हमें रस्मों रिवाज़ो और त्यहारों में नहीं उलझाता है। और ऐसा नहीं है कि जो तरीक़ा इस्लाम ने हमें दिया है वो लज़्ज़ातों से ख़ाली हैं। इस्लाम ने हमें जो ज़िंदगी जीने का तरीक़ा बताता है उसमें असल ज़िंदगी का असल मक़सद भी पोशीदा है। यानि हम यहां उस तरीक़े पर अमल पैरा हो कर दोनो ज़िदगियों में सुरखुरू हो सकते हैं।
हज़रत अनस (रज़ि०) बयान करते हैं कि नबी करीम ﷺ मदीने में तशरीफ़ लाए। और उन लोगों के यहाँ दो दिन थे कि वो उन में खेल कूद किया करते थे। आप ने पूछा: ये दो दिन क्या हैं? उन्होंने कहा कि हम दौरे-जाहिलियत में उन दिनों में खेल कूद किया करते थे। तो नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: बेशक अल्लाह रबुल इज़्ज़त ने तुम्हें उनके बदले उन से अच्छे दिन दिये हैं। अज़हा (क़ुरबानी) का दिन और फ़ित्र का दिन।
सुन्न अबू दाऊद: 1134
दौर ए जहालत में जो भी होता आया था उसे नबी करीम ﷺ ने ख़त्म करके हम मुसलमानों को साल में दो खुशियों और मुसर्रतों के दिनों से नवाज़ा। यानि ऐसा नहीं है कि इस्लाम ने इस अर्जी ज़िंदगी में बिल्कुल भी कोई लज़्ज़त नहीं रखा है। बल्कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने तो हमारे लिए वो नेअमत तैयार की है जिनका तसव्वुर भी मुमकिन नहीं, हमारा रब चहता है कि इस अर्जी ज़िंदगी में नहीं बल्कि दायमी और कायमी ज़िंदगी में लज़्ज़तों से लुत्फ अंदोश हों।
और अगर हम इस अर्जी ज़िंदगी में रस्म रिवाज़ और त्यहारों में उलझ जाएंगे तो फिर कैसे अपने असल मक़सद की तरफ़ बढ़ पाएंगे या हासिल कर पाएंगे।
इस्लाम में हया की अहमियत-
दीन ए इस्लाम ने पाकीज़गी शर्म हया हलाल जायज़ चीज़ों पर बहुत ज़ोर दिया है। इस्लाम के मुताबिक़ हया जिस भी चीज़ में होती है वो खूबसूरत बना देती है और बेहयाई बदनुमाई का सबब होता है। हम इन्सानों को जानवरों से यही शर्म हया गौरो फिक्र करना ही तो अगल करता है। और आज हम इंसान ख़ुद इन्हीं इम्तियाजी खूबी से महरूम कर रहें हैं।
नबी अकरम ﷺ ने फ़रमाया: "ईमान की सत्तर से ज़्यादा शाख़ें हैं और हया भी ईमान की एक शाख़ है।
(सहीह मुस्लिम: 152)
अगर इंसान ईमान का दावा करता तो उसके अंदर हया होनी चाहिए। क्योंकि हया तो ईमान है।
हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत है, नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
हर दीन में कोई न कोई ख़ास और अख़लाक़ी ख़ूबी होती है। इस्लाम की ख़ास ख़ूबी हया है।
(सुन्न इब्ने माजा: 4181)
अगर कोई बेहयायी की तरफ़ जाता है तो वो ख़ुद को अख्लाक से ख़ाली कर देता है। और आज कल अख़लाक़ का मयार ही बदल कर बेहयाई को आम करने की हर मुमकिन कोशिशों में लोग लगे हुए हैं। और देखें इश्क़ मोहब्बत और प्यार के नाम पर बे हया तो बना ही रहे हैं और साथ ही साथ इस जज़्बे की हकीकी रूहानियत से भी महरूम कर रहे हैं। आप इस जज़्बे की सदाकत और रूहानियत को महसूस करें उससे पहले ही इसके नाम पर हुए ज़ुल्म आपको एहसास ए निदामत में मुब्तला कर देते हैं।
आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दींन मुकम्मल कर दिया और अपनी नेंअमत तुम पर पूरी कर दी और इस्लाम को बाहैसियत दींन तुम्हारे लिए पसंद कर लिया।"
कुरान 5.3
इस्लाम हमारा दीन है और इस दीन में किसी नई ईजाद चीज़ की कोई गुंजाइश नहीं। और दीन के मुताबिक़ हमारा हिसाब होना है इससे बाहर जा कर हमने जो कुछ भी किया है वो सब हराम है जिसकी बहुत सख़्त पकड़ है।
ऐ ईमान लानेवालो! तुम पूरे-के-पूरे इस्लाम में आ जाओ और शैतान की पैरवी न करो कि वो तुम्हारा खुला दुश्मन है।
(कुरान 2.208)
इस आयत के मुताबिक़ हमें दीन में, ये पसंद ये नहीं वो पसंद नहीं बल्कि पसंद की कोई जगह नहीं इसे अपना लिया उसे छोड़ दिया। और ये शैतान के हरबे होते हैं वो कब चाहेगा कि हमें नेमतों वाली जन्नत में दाखिल किया जाय। उसने तो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से हमें गुमराह करने का वादा किया है।
जो वैलेंटाइन्स डे को मानते हैं उनके लिए चंद बातें:
ऊपर ज़िक्र की गई बातें तो सभी के लिए हैं लेकिन आज कल कम उम्र नौजवान लड़की और लड़के इस तरह बुराई में हद से ज़्यादा घिरे हैं उन्हें कोई भी बा आसानी अपनी साज़िशों का हिस्सा बना सकता है। ऐसा क्यों है? क्या आप लोगों को सोचने समझने की सलाहियतें नहीं अता की गई हैं? जिस उम्र में आप लोग साजिशों का हिस्सा बनते जा रहे हैं दरअसल इसी उम्र आप लोग हिंदुस्तान के मुश्किल तरीन कंपीटीशन को पास करते हैं और अपना अपना मुस्तकबिल बनाने में लगे रहते हैं तो ख़ुद के खिलाफ़ ही साजिशों को समझने से इतना क़ासिर क्यों है? और दर हकीकत मुस्तकबिल तो वो जो इस ज़िंदगी के साथ मक़सद दिया गया, उसका हुसूल है।
क्या आप लोगों ने कभी सोचा हर दिन नई प्रोडक्ट्स की तरह कोई नई रस्म नया त्योहहार कैसे और क्यों ईजाद हो रहा है?
आप लोग बाज़ार जाते ही होंगे कभी इस तरह के मौकों पर बाज़ार जा कर गौर करें,
आपको वहां ऐसी ऐसी चीज़ नज़र आएंगी जिनका रोज़ मररा की ज़िंदगी में कोई काम ना हो। यानि खुलासा ये है कि हर रस्म रिवाज़ और त्यैहार में लोग अपना अपना धंधा चमकाते हैं उनको आप लोगों की ज़िंदगियों से कोई सरोकार नहीं।
कौन आ रहा है आपको बताने कि आप क्यों और किस लिए इस दुनियां में आए हैं? क्या ज़िंदगी देने वाला हम से इस ज़िंदगियों का हिसाब नहीं लेगा? वो बेशक लेगा और उसी कवानीन के तहत लेगा जिसके ताबे उसने हमें किया है। और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फरमान है:
और ज़िना के क़रीब भी न जाओ! बेशक वो बुराई और बुरी राह है।
[अल-इसरा आयत 32]
ज़िना बहुत ही बड़ा गुनाह है यहां से बुराइयों की राह खुलती चली जाती है और करने वाले को अंदाज़ा भी नहीं होता कि किस हद तक बुराई में धस चुका है। इससे बचने के लिए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हिम्मत बताई है।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फरमाता है:
ऐ नबी ﷺ! ईमानवाले मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों कि हिफ़ाज़त करें, ये उनके लिये ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है, जो कुछ वो करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।
कुरान 24.30
अल्लाह ने बराहे रास्त मर्दों को मुखातिब करते हुए उन्हें हुक्म दे रहा है कि पाकीज़ा तरीक़ा अपनाओ और पाकीज़गी में ही फलाह और कामयाबी है।
फ़लाह पा गया वो जिसने पाकीज़गी इख़्तियार की।
कुरान 87.14
इस्लाम सिर्फ़ ज़ाहिरी या जिस्मानी पाकीज़गी की बात नहीं करता बल्कि रूहानी भी और जिस्मानी पाकीज़गी ही में असल ज़िंदगी की कामयाबी रखी है।
अब सोचें क्या हम सब इस बात के लिए अपने रब के आगे जवाब देने को तैयार हैं? क्या हमनें अपनी रूहानी पाकीज़गी की हिफाज़त की है?
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त औरतों को हुक्म दे रहा है:
अपने घरों में टिककर रहो और पिछले जाहिलियत के दौर की-सी सज-धज न दिखाती फिरो।
कुरान 33.33
इस आयत के मुताबिक़, अपने घरों में ही रहा करो अपनी ज़ीनत की हिफाज़त करो यानि उन्हीं पर ज़ाहिर करो जो तुम्हारे लिए महरम हों। क्योंकि औरत होती ही है ढकने और छिपाने वाली शय और जब औरत घर से बाहर जाती है तो शैतान उसके पीछे लग जाता है। और शैतान का काम ही है इंसान को गुमराह करना।
और जो हक़ तुम्हारे पास आया है उससे मुँह मोड़कर उनकी ख़ाहिशों की पैरवी न करो। हमने तुम इनसानों में से हर एक के लिये एक शरीअत और अमल का एक रास्ता मुक़र्रर किया।
कुरान 5.48
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमें ज़िंदगी के हर शोबे में तरबियत दी है और ऐसे ही नहीं बल्की उसका अमली नमूना भी पेश किया नबी करीम ﷺ की सूरत में। और अगर हम इन तालीम और तरबियत के बाद भी ख्वाहिशात की तरफ़ भागते रहे तो इन ख्वाहिशों की पैरवी हम इंसानों की तबाही का सबब बन जाएंगी क्योंकि ख्वाहिशात जब इंसानों पर हावी होता है तो हक़ और बातिल का फ़र्क मिटा देता है।
प्यार मोहब्बत इश्क़ ये कोई बुरी शय नहीं अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ही इंसानों के अंदर इसकी तलब रखी है। लेकिन एक पाकीज़ा तरीक़े से इसकी तकमील का तरीक़ा भी बताया। जिसे निकाह के नाम से जाना जाता है। आज कल इस समाज में कोई कम उम्र में निकाह करना चाहे तो लोग उसका मज़ाक बनाना शुरू कर देतें हैं जबकि इसी उम्र कोई गुमराही में या ज़िना की तरफ़ जाता तो फिर वो आज़ादी या उसे प्यार मोहब्बत इश्क़ के नाम दे दिए जाते हैं। जबकि इस्लाम में ज़िना बहुत ही बड़ा गुनाह करार दिया है। बल्कि इस्लाम तो गैर शादी शुदा मर्द और औरत को एक साथ बैठने से भी रोकता है
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
जब कोई मर्द किसी औरत के साथ तन्हाई में होता है तो उसके साथ तीसरा शैतान होता है।
(तिर्मिज़ी: 2165)
जब मर्द और औरत एक साथ नहीं होंगे तो उनमें इस प्यार मोहब्बत इश्क़ की कोई गुंजाईश ही नहीं होगी और क्या प्यार मोहब्बत इश्क़ की इंसान को साल सिर्फ़ एक बार ज़रूरत होती है? और बाक़ी दिनों में इंसान सुकून और क़रार हासिल करने के लिए कहां जाएगा? प्यार मोहब्बत इश्क़ किसी के साथ अपनी नफ्सियाती ख्वाहिशत को पूरा करने का नाम तो नहीं है ये तो एक तरह की हवस है जिसके पूरा होते दोनों के नज़र एक दूसरे के लिए कोई इज़्ज़त और कद्र बाक़ी नहीं रहती है।
इस बुराई से कैसे बचें?
किसी भी किस्म की बुराई से बचना ना आसान है और ना मुश्किल आसान इस लिए नहीं क्योंकि असर बुराईयां बहुत ही पुर कशिश होती हैं कभी कभी ऐसा भी लगता है कि ये फितरत इससे क्यों और कैसे बचा जाए? ये सच है कि जिंसी ख्वाहिश या मर्द का औरत की तरफ़ और औरत का मर्द तरफ़ कशिश होना फितरत है लेकिन इस फितरत को पूरा करने का एक जायज़ तरीक़ा (निकाह) भी दिया गया है। उसके ज़रिए अपनी इस ख्वाहिश को तकमील देने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए वरना हदीस के मुताबिक़ रोज़ा रख कर अपनी ख्वाहिशात पर काबू पाएं।
बुराई से बचना मुश्किल इस लिए नहीं है क्यों कि अगर हमें ये कामिल यक़ीन हो जाय कि ना दिखने वाला हमारा खुदा वाहिद हमें हर देख रहा है। जिसे हमें हिसाब देना है अगर वही उस गुनाह का गवाह है तो फिर हम उसकी पकड़ से कैसे बचें?
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फरमाता है:
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो जैसा कि उससे डरने का हक़ है। तुमको मौत न आए मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम [फ़रमाँबरदार] हो।
कुरान 3.102
अकसर ये सुनने को मिलता है कि उसकी ज़ात से मायूस नहीं होना चाहिए इस लिए कि वो बहुत रहीम है, बेशक वो बहुत ही रहीम और उसकी रहमत से मायूस भी नहीं होना चाहिए लेकिन उससे डरना भी उसका हक़ है और हम उससे डरते रहेंगे तो यकीनन हमारे ज़हनो में गुनाहों का ख्याल भी नहीं आएगा। और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमसे मुतालबा भी करता है कि हम मरते दम तक उसी के गुलाम ही रहें।
इस बुराई से रोकने की कोशिश कैसे करें?
बुराई से रोकने और नेकी की तरफ़ बुलाने का हुक्म दिया गया है और हम तो अल्हुमदुलिलाह उस नबी की उम्मत हैं जिसके बाद कोई नबी नहीं आने वाला है यानी दावतों तबलीग अब हमारी जिम्मेदारी है।
नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
तुम में से जो शख्स किसी बुराई को देखे उस पर लाजिम है कि
उसे अपने हाथ से बदल दे।
और अगर इसकी ताक़त न रखता हो तो अपनी जबान (बयान) से इसको बदल दे
और अगर इसकी भी ताक़त न रखता हो तो अपने दिल से (इसे बुरा समझे और लगातार इसे बदलने का जज्बा रखते हुए इसके खात्मे की फिक्र करे) और ये सबसे कमजोर ईमान (का दर्जा) है।
(सहीह मुस्लिम:177/49)
इस हदीस के मुताबिक़ ईमान के तीन दर्जे का ज़िक्र हुआ है और हमनें शायद इसमें से किसी एक दर्जे के हिसाब से अपनी तहरीर के मुताबिक़ कोशिश की आप भी (कराईंन/readers) इसे पढ़ें और दूसरों से भी इसके ज़रिए और अपनी सलाहियतों के मुताबिक़ रोकने की कोशिश करें बराए करम।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से दुआ वो हमें कहने सुनने से ज़्यादा अमल की तौफीक दे।
1 टिप्पणियाँ
Assalamu Alaikum बेशक जो आपने लिखा है दिल छू लेने वाली बात है 💯
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।