Muh bole bete/beti ka islam mein kya hukm hai?

Muh bole bete/beti ka islam mein kya hukm hai?


मुँह बोले बेटे/बेटी की इस्लाम में क्या हैसियत है?


क्या किसी का बच्चा ले लेना चाहिए? 

क्या किसी के बच्चे को अपना नाम देना चाहिए?

हमने समाज में देखा है कि जब किसी के घर में औलाद नहीं होती है तो वो किसी का बच्चा ले लेता है और उसको अपना नाम दे देता है।  

मक्का मे ये ही रस्म आम थी मक्का के लोग किसी का बच्चा लेकर उसको अपना नाम दे दिया करते थे पर ये रस्म अल्लाह को तोड़नी थी अल्लाह की तदबीर देखे।

नुबूबत से कुछ साल पहले कल्ब नामक क़बीले के एक आदमी हारिसा-बिन-शराहील थे उनका एक बेटा था उसका नाम ज़ैद बिन हारिसा था और उनकी माँ सुअदा-बिन्ते-सअलबा क़बीला तै की एक शाख़ बनी-मअन से थीं। जब ये आठ साल के बच्चे थे, उस वक़्त उनकी माँ उन्हें अपने मायके लेकर गईं। वहाँ बनी-क़ैन-बिन-जसर के लोगों ने उनके पड़ाव पर हमला किया और लूटमार के साथ जिन आदमियों को वो पकड़कर ले गए, उनमें हजरत ज़ैद भी थे फिर उन्होंने ताइफ़ के क़रीब उकाज़ के मेले में ले जाकर उनको बेच दिया। ख़रीदनेवाले हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के भतीजे हकीम-बिन-हिज़ाम थे। उन्होंने मक्का लाकर अपनी फूफी साहिबा की ख़िदमत में भेंट कर दिया। नबी (सल्ल०) से हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का जब निकाह हुआ तो नबी (सल्ल०) ने उनके यहाँ ज़ैद को देखा और उनके तौर तरीक़े आप (सल्ल०) को इतने ज़्यादा पसन्द आए कि आप (सल्ल०) ने उन्हें हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से माँग लिया। इस तरह ये ख़ुशक़िस्मत लड़का दुनिया की इस सबसे बेहतर शख़्सियत की ख़िदमत में पहुँच गया, जिसपर कुछ साल बाद अल्लाह का पैग़ाम आने वाला था। उस वक़्त हज़रत ज़ैद (रज़ि०) की उम्र 15 साल थी। 

कुछ मुद्दत बाद उनके बाप और चाचा को पता चला कि हमारा बच्चा मक्का में है। वो उन्हें तलाश करते हुए नबी (सल्ल०) तक पहुँचे और अर्ज़ किया कि आप जो फ़िदया चाहें हम देने को तैयार हैं, आप हमारा बच्चा हमें दे दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि मैं लड़के को बुलाता हूँ और उसी की मर्ज़ी पर छोड़े देता हूँ कि वो तुम्हारे साथ जाना चाहता है या मेरे पास रहना पसन्द करता है। अगर वो तुम्हारे साथ जाना चाहेगा तो मैं कोई फ़िदया न लूँगा और उसे यूँ ही छोड़ दूँगा। लेकिन अगर वो मेरे पास रहना चाहे तो मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ कि जो शख़्स मेरे पास रहना चाहता हो, उसे ख़ाह-मख़ाह निकाल दूँ। उन्होंने कहा, ये तो आपने इन्साफ़ से भी बढ़कर दुरुस्त बात कही है। आप बच्चे को बुलाकर पूछ लीजिये। नबी (सल्ल०) ने ज़ैद (रज़ि०) को बुलाया और उनसे पूछा कि इन दोनों साहिबों को जानते हो? उन्होंने कहा, जी हाँ, ये मेरे बाप हैं और ये मेरे चाचा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, अच्छा, तुम इनको भी जानते हो और मुझे भी। अब तुम्हें पूरी आज़ादी है कि चाहो इनके साथ चले जाओ और चाहो तो मेरे साथ रहो। उन्होंने जवाब दिया, मैं आपको छोड़कर किसी के पास नहीं जाना चाहता। उनके बाप और चाचा ने कहा, ज़ैद, क्या तू आज़ादी पर ग़ुलामी को अहमियत देता है और अपने माँ-बाप और ख़ानदान को छोड़कर ग़ैरों के पास रहना चाहता है? उन्होंने जवाब दिया कि मैंने इस शख़्स की जो ख़ूबियाँ देखी हैं,उनका तजरिबा कर लेने के बाद मैं अब दुनिया में किसी को भी इससे बढ़कर अहमियत नहीं दे सकता। ज़ैद का ये जवाब सुनकर उनके बाप और चाचा ख़ुशी से राज़ी हो गए। 

नबी(सल्ल०) ने उसी वक़्त ज़ैद को आज़ाद कर दिया और हरम में जाकर क़ुरैश के बीच सबके सामने एलान किया कि आप सब लोग गवाह रहें, आज से ज़ैद को ज़ैद बिन-मुहम्मद (मुहम्मद का बेटा ज़ैद) कहने लगे। ये सब वाक़िआत मुहम्मद (सल्ल०) के नुबूबत के ऐलान से पहले के हैं। 

फिर जब मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह की तरफ़ से वही आना शुरू हुई तो अल्लाह ने ये हुकुम उतारा,

"और न उसने तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारा सगा बेटा बनाया है। ये तो वो बातें हैं जो तुम लोग अपने मुँह से निकाल देते हो, मगर अल्लाह वो बात कहता है जो हक़ीक़त पर मबनी है और वही सही तरीक़े की तरफ़ रहनुमाई करता है।" [कुरान 33:4]

मुँह बोले बेटों को उनके बापों के ताल्लुक़ से पुकारो, ये अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा इन्साफ़वाली बात है। और अगर तुम्हें मालूम न हो कि उनके बाप कौन हैं तो वो तुम्हारे दीनी भाई और साथी हैं। अनजाने में जो बात तुम कहो उसके लिये तुमपर कोई पकड़ नहीं है, लेकिन उस बात पर ज़रूर पकड़ है जिसका तुम दिल से इरादा करो। अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।" [कुरान 33:5]

क़ुतैबा-बिन-सईद ने हमें हदीस बयान की, कहा : हमें याक़ूब बिन-अब्दुर्रहमान अल-क़ारी ने मूसा-बिन-अक़बा से हदीस बयान की, उन्होंने सालिम-बिन-अब्दुल्लाह ( बिन-उमर ) से, उन्होंने अपने वालिद से रिवायत की कि वो कहा करते थे : हम ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) को ज़ैद-बिन-मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा और किसी नाम से नहीं पुकारते थे, यहाँ तक कि क़ुरआन में ये आयत नाज़िल हुई : उन (ले-पालक) को उन के अपने बापों की निस्बत से पुकारो, अल्लाह के नज़दीक यही ज़्यादा इन्साफ़ की बात है। [सहीह मुस्लिम : 6262]

रसूलुल्लाह (सल्ल०) के आज़ाद किये हुए ग़ुलाम ज़ैद-बिन-हारिसा को हम हमेशा ज़ैद-बिन-मुहम्मद कह कर पुकारा करते थे यहाँ तक कि क़ुरआन करीम में आयत नाज़िल हुई। ( ادعوهم لآبائهم هو أقسط عند الله‏ ) कि "उन्हें उन के बापों की तरफ़ मंसूब करो कि यही अल्लाह के नज़दीक सच्ची और ठीक बात है।'' [सहीह बुख़ारी 4782]

अल्लाह हमें हिदायत दे,

आमीन।


By गुलफाम हुसैन

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