Anbiya ke waqyaat Bachchon ke liye (Part-2): Yusuf alaihissalam

Anbiya ke waqyaat Bachchon ke liye (Part-2): Yusuf alaihissalam


अंबिया के वाक़िआत बच्चों के लिए (पार्ट-2)

सैयदना यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का वाक़्या (बच्चों के लिए)
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1- अजीब ख़्वाब

यूसुफ़ छोटा बच्चा था उसके ग्यारह भाई थे। यूसुफ़ अति सुंदर लड़का था और ज़हीन भी था। उसके पिता याक़ूब उसके तमाम भाइयों से ज़्यादा उसको चाहते और मुहब्बत करते थे।

एक रात यूसुफ़ ने अजीब ख़्वाब देखा। उसने देखा कि ग्यारह सितारे हैं और सूरज और चांद भी और यह सभी उसको सज्दा कर रहे हैं। छोटा यूसुफ़ सख़्त हैरान हुआ।

यूसुफ़ को ख़्वाब समझ में नहीं आया कि ग्यारह सितारे, सूरज और चांद उसे कैसे सज्दा कर सकते हैं। छोटा यूसुफ़ अपने पिता याक़ूब के पास गया और अपना यह अजीब व ग़रीब ख़्वाब बयान किया।

उसने कहा, हे मेरे बाबा! मैंने ग्यारह सितारे, सूरज और चांद देखा है कि वह मुझे सज्दा कर रहे हैं। (01)

उसके पिता याक़ूब तो नबी थे। इसलिए वह इस ख़्वाब से बहुत ज़्यादा प्रसन्न हुए। कहा, 

अल्लाह बरकत दे तुम्हें युसूफ़। जल्दी ही तुम्हारी बहुत इज़्ज़त होगी

यह ख़्वाब इल्म और नबुवत की बशारत है और अल्लाह एहसान कर चुका है तुम्हारे दादा इस्हाक़ पर और तुम्हारे दादा इब्राहीम पर भी। अल्लाह तुम्हें भी नवाज़ेगा और याक़ूब की औलाद को भी।

उस समय याक़ूब काफ़ी बूढ़े हो चुके थे और वह लोगों की तबीयत को जानते थे। वह जानते थे कि शैतान कैसे ग़ालिब आ जाता है और यह भी जानते थे शैतान कैसे इंसान के साथ खेलता है।

चुनांचे उन्होंने कहा ऐ मेरे बेटे! अपने किसी भाई से इस ख़्वाब का ज़िक्र मत करना नहीं तो वह तुमसे हसद जलन करने लगेंगे और तुम्हारे दुश्मन हो जायेंगे।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 04

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2- भाइयों का हसद 

यूसुफ़ का उसकी मां की तरफ़ से एक दूसरा भाई भी था जिसका नाम बिनयामीन था।

याक़ूब इन दोनों भाइयों से बेइंतहा मुहब्बत करते थे और वैसी मुहब्बत किसी से नहीं करते थे।

तमाम भाई यूसुफ़ और बिनयामीन से हसद करते थे, वह ग़ुस्से में भरे रहते थे और कहते थे हमारे पिता यूसुफ़ और बिन्यामीन से क्यों इतनी ज़्यादा मुहब्बत करते हैं।

हमारे पिता यूसुफ़ और बिन्यामीन से क्यों इतनी ज़्यादा मुहब्बत करते हैं हालांकि वह दोनों छोटे भी हैं और कमज़ोर भी।

यह बड़ा अजीब रहस्य है कि "हम ताक़तवर जवान हैं और हमारे पिता यूसुफ़ और बिन्यामीन से मुहब्बत करते हैं" (1)

यूसुफ़ छोटे बच्चे थे, उन्होंने अपना ख़्वाब भाईयों से बयान कर दिया। ख़्वाब का सुनना था कि भाईयों का पारा चढ़ गया और उनका हसद और भी बढ़ गया।

भाईयों ने एक बैठक बुलाई और कहने लगे "या तो यूसुफ़ को क़त्ल कर दिया जाय या कहीं बहुत दूर फेंक दिया जाय। तभी तुम्हारे पिता केवल तुम्हारे पिता रहेंगे और मुहब्बत भी केवल तुम्हीं से करेंगे। एक ने सलाह दी, नहीं! "ऐसा मत करो बल्कि उसे सड़क के किनारे किसी कुंए में डाल दो वहां से कोई मुसाफ़िर उसे उठा ले जायेगा" (2) इस बात पर तमाम भाइयों का इत्तेफ़ाक़ हो गया।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 08

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 09

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3 - याक़ूब के पास

जब एक राय पर सभी की सहमति हो गई तो वह याक़ूब के पास गए। याक़ूब यूसुफ़ के सिलसिले में बहुत ज़्यादा खौफ़ज़दह रहते थे, उन्हें पता था कि यूसुफ़ के भाई उनसे हसद करते हैं, मुहब्बत नहीं करते। याक़ूब इसीलिए यूसुफ़ को उनके भाईयों के साथ नहीं भेजते थे। यूसुफ़ भाइयों के साथ खेलते तो थे लेकिन उनके साथ ज़्यादा दूर नहीं जाते थे और भाई इसे बुरा समझते थे। उन्होंने कहा, हे पिता! आप हमारे साथ यूसुफ़ को क्यों नहीं भेजते आप को किस बात का डर है? वह तो हमारा प्यारा और छोटा भाई है, हम एक बाप के बेटे हैं और सभी सदैव इकट्ठे खेलेंगे इसलिए हम क्यों न जाएं और इकट्ठे खेलें। आप सुबह हमारे साथ उसे भेज दीजिए वह हमारे साथ खेल कूद लेगा, आप विश्वास कीजिए हम उसकी पूरी सुरक्षा करेंगे। (1) याक़ूब काफ़ी बूढ़े हो गए थे, वह अक़्लमंद भी थे और हलीम (सहनशील) भी। वह नहीं चाहते थे कि यूसुफ़ उनसे दूर हो जायें। उनके मामले में वह बहुत डरते थे। उन्होंने बेटों से कहा, "मुझे डर है कि उसको कोई भेड़िया न खा जाए और तुम खेलते ही रह जाओ" (2) बेटों ने कहा ऐसा कभी नहीं हो सकता, भला हमारी मौजूदगी में भेड़िया उसे कैसे खा जाएगा जबकि हम ताक़तवर जवान भी हैं। यह सुन कर याक़ूब ने इजाज़त दे दी।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 11, 12

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 13

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4 - जंगल की तरफ़

याक़ूब ने यूसुफ़ को साथ ले जाने की अनुमति क्या दी कि भाई तो ख़ुशी से फूले न समाये। वह जंगल गए और यूसुफ़ को जंगल के एक (अंधे) कूएं में डाल दिया, (1) उन्हें छोटे यूसुफ़ पर बिल्कुल दया न आई और न बूढ़े पिता पर ही रहम आया।

यूसुफ़ छोटे बच्चे थे इसलिए उनका दिल भी छोटा था। वह अकेले भी थे जबकि कुंआ गहरा भी था और अंधेरा भी। लेकिन "अल्लाह ने यूसुफ़ को ख़ुशख़बरी सुनाई कि न ग़म कर, न दुखी हो, वास्तव में अल्लाह तेरे साथ है" जल्द ही तेरी इज़्ज़त होगी। यह भाई तेरे सामने होंगे और तुम उनके कारनामे याद दिलाओगे।

यूसुफ़ को कूंए में फेंक कर सभी भाई एक जगह इकट्ठे हुए और प्लानिंग करने लगे कि हम अपने पिता से क्या कहेंगे।

कुछ ने कहा कि हमारे पिता ने कहा था "मुझे डर है कि उसे कहीं भेड़िया न खा जाए"। हम यही कहेंगे कि पिता जी आप की बात सच ही हो गई, वाक़ई भेड़िये ने उसे खा लिया। इस राय पर तमाम भाई सहमत हो गए और बोले, हां, हम यही कहेंगे कि "हे पिता जी यूसुफ़ को भेड़िये ने खा लिया"।

कुछ ने कहा, "लेकिन इसका सुबूत क्या होगा?"

बाक़ी ने उत्तर दिया कि सुबूत "ख़ून" होगा

फिर उन्होंने ने एक दुंबा पकड़ा, उसे मार डाला, यूसुफ़ की क़मीज़ उठाई और उसे ख़ून से रंग दिया और बहुत ख़ुश हुए कि अब हमारे पिता हमारी बात का ज़रूर विश्वास कर लेंगे।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 15

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5 - याक़ूब के सामने

शाम को वह रोते चिल्लाते हुए अपने पिता के पास आए और कहने लगे, हे पिता! "हम आगे निकल गए और यूसुफ़ को पीछे सामान के पास छोड़ दिया तभी उसे भेड़िये ने खा लिया" (1)

वह उसकी क़मीज़ पर झूठा ख़ून लगा लाए और कहा यह यूसुफ़ का ख़ून है।

उनके पिता तो नबी थे और बहुत बूढ़े भी थे और अपनी औलाद से ज़्यादा अक़्ल वाले थे।

याक़ूब जानते थे कि भेड़िया जब इंसान को खाता है तो पहले उसे ज़ख़्मी करता है और कपड़े फाड़ता है। और यूसुफ़ की क़मीज़ सही सालिम और ख़ून में रंगी हुई थी। उन्हें पता था कि यह झूठा ख़ून है और भेड़िये का क़िस्सा इनका अपना घड़ा और बनाया हुआ है।

उन्होंने बच्चों से कहा: यह तुम्हारी अपनी घड़ी हुई कहानी है, मैं सब्र करूंगा।

याक़ूब यूसुफ़ के ग़ायब होने पर बहुत दुखी हुए लेकिन उन्होंने ख़ूब खूब सब्र किया।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 16, 17

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6 - यूसुफ़ कुंएं में

भाई घर की तरफ़ लौटे और उन्होंने यूसुफ़ को कुंएं में छोड़ दिया, तमाम भाईयों ने खाना खाया और बिस्तर पर सोये और यूसुफ़ कूएं में थे उनके लिए न बिस्तर था और न खाना था।

भाई यूसुफ़ को भूल गए और सो भी गए लेकिन यूसुफ़ न सो सके और न किसी को भुला पाए। याक़ूब युसुफ़ को याद करते रहे और यूसुफ़ याक़ूब को याद करते रहे जबकि यूसुफ़ कूएं में थे और कूंआ गहरा भी था। कुंआ जंगल में था और जंगल डरावना था, रात का समय था और रात भी अंधेरी थी।

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7 - कूएं से महल तक

एक क़ाफ़िला का गुज़र उस जंगल से हुआ उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने कुंआ तलाश किया, एक कुंआ नज़र आया उन्होंने एक आदमी को भेजा कि वह उनके लिए पानी लाए। वह आदमी कुंएं पर गया और डोल कुंएं में डाला उसे खींचा तो बहुत भारी लगा। उसने डोल निकाला तो क्या देखता है कि डोल के साथ तो एक लड़का है।

आदमी डरा और पुकारने लगा, ऐ क़ाफ़िले वालो! ख़ुशख़बरी है यह तो एक लड़का है। लोग बहुत ख़ुश हुए और उसे छुपा लिया फिर वह मिस्र गए और वहां बाज़ार में खड़े होकर आवाज़ लगाने लगे। "इस लड़के को कौन ख़रीदेगा, कोई है जो इस लड़के को ख़रीदे?

अज़ीज़ ने यूसुफ़ को चंद दिरहम में को ख़रीद लिया। क़ाफ़िले वालों ने बेच दिया और वह यूसुफ़ के विषय में कुछ भी न जान सके।

अज़ीज़ यूसुफ़ को अपने महल में ले गया और "अपनी पत्नी से कहा, "इसे इज़्ज़त के साथ रखो बेशक यह एक अच्छा लड़का है।" (1)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 21

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8 - वफ़ा और अमानत 

अज़ीज़ की पत्नी ख़यानत करने के लिए यूसुफ़ पर डोरे डालने लगी लेकिन यूसुफ़ ने इनकार कर दिया और कहा, हरगिज़ ऐसा नहीं हो सकता। मैं अपने उस मालिक के साथ ख़यानत नहीं करूंगा जिसने मुझ पर उपकार किये और मुझे इज़्ज़त दी, (1) मैं तो अल्लाह से डरता हूँ।

अज़ीज़ की पत्नी ग़ुस्से में भर गई और अपने पति से शिकायत की।

अज़ीज़ को पता चल गया कि पत्नी झूठी है और यूसुफ़ अमीन और सच्चा है। उसने अपनी पत्नी से कहा, तेरी ही ग़लती है।

यूसुफ़ की ख़ूबसूरती का चर्चा पूरे मिस्र में हो गया। जब उन्हें कोई देखता तो कहता "यह कोई इंसान नहीं बल्कि बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है।" (2)

अज़ीज़ की पत्नी का ग़ुस्सा और भी भड़क उठा और उसने यूसुफ़ से कहा, "अब तुम जेल जाओगे"

यूसुफ़ ने कहा "मैं अपने हक़ में जेल जाना ही ज़्यादा बेहतर समझता हूं।" (3)

कुछ दिन बाद अज़ीज़ ने यूसुफ़ को जेल भेज दिया हालांकि वह जानता था कि यूसुफ़ बेगुनाह हैं। और इस तरह यूसुफ़ जेल में पहुंच गए।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 23

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 31

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 32

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9 - क़ैदी की नसीहत

यूसुफ़ जेल चले गए तो जेल के तमाम लोग समझ गए कि यह एक बुज़ुर्ग नौजवान है। यह बहुत ज्ञान रखता है। यूसुफ़ के सीने में दयालु दिल है।

जेल के साथियों को यूसुफ़ से मुहब्बत हो गई और सभी उनका बहुत आदर करते थे।

लोग यूसुफ़ से ख़ुश रहते और उनकी प्रशंसा करते न थकते थे।

उनके साथ दो लोग और भी जेल गए उन्होंने अपना ख़्वाब बयान किया 

"एक ने कहा, मैं देखता हूं कि शराब निचोड़ रहा हूं दूसरे ने कहा मैंने देखा है कि मैं सिर पर रोटी उठाये हुए हूं और चिड़ियां उसे नोच नोच कर खाए जा रही हैं।" (1)

उन दोनों ने यूसुफ़ से ताबीर पूछी, यूसुफ़ तो ख़्वाब के ताबीर के माहिर थे। यूसुफ़ अंबिया के ख़ानदान से थे और ख़ुद भी नबी थे।

उनके ज़माने में मिस्र के लोग अल्लाह के इलावा दूसरे की पूजा करते थे, उन्होंने अपने मनघडंत बहुत से माबूद घड़ रखे थे, 

वह कहते, यह कूएं का रब है, यह समुद्र का ख़ुदा है, यह रिज़्क़ का ख़ुदा है और यह बारिश का ख़ुदा है।

यूसुफ़ यह सब देखते और हंसते थे, वह सब कुछ जानते थे और रोते थे। यूसुफ़ उन्हें अल्लाह की दावत देना चाहते थे और अल्लाह की मर्ज़ी थी कि वह जेल में रहें।

क्या जेल के साथियो को नसीहत की ज़रुरत नहीं है? क्या जेल के साथी रहमत के मुस्तहिक नहीं है? 

क्या जेल के साथी अल्लाह के बन्दे नहीं है? क्या जेल के साथी आदम की सन्तान नहीं है?

यूसुफ़ जेल में थे लेकिन आज़ादी के साथ चल फिर सकते थे।

यूसुफ़ फ़क़ीर थे लेकिन जव्वाद और सख़ी थे।

बेशक अंबिया हक़ का ऐलान हर जगह करते हैं। और हर समय ख़ैर के तलबगार होते हैं।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 36

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10 - यूसुफ़ की हिकमत

यूसुफ़ ने दिल में सोचा, ज़रूरत इन दोनों को मेरे पास खींच लाई है और ज़रूरतमंद तो तबीअत के नरम और कोमल होते हैं वह बात भी मानते हैं और सुनते भी हैं। अगर मैं इन दोनों से कुछ कहूं तो यह ज़रूर सुनेंगे और जेल वाले भी सुनेंगे। लेकिन यूसुफ़ ने कोई जल्दबाज़ी नहीं की बल्कि उन्होंने उन दोनों से कहा, "तम्हारा खाना आने से पहले पहले मैं तुम्हें ख़्वाब की ताबीर बता दुंगा। (1) वह दोनों बैठ गए और उन्हें इत्मीनान हो गया। 

फिर उन दोनों से यूसुफ़ ने कहा "मैं ख़्वाब की ताबीर का ज्ञाता हूं यह मेरे रब ने मुझे सिखाया है।" (2) चुनांचे वह दोनों ख़ुश भी हुए और संतुष्ट भी हए। यहां अब यूसुफ़ ने मौक़ा ग़नीमत समझ कर उन्हें नसीहत की।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 37

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 37

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11 - तौहीद की दावत

यूसुफ़ ने कहा, "यह मेरे रब ने मुझे सिखाया है" (1) लेकिन अल्लाह प्रत्येक व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं देता।

अल्लाह किसी मुशरिक को यह इल्म नहीं देता। क्या तुम जानते हो कि मेरे रब ने मुझे यह इल्म क्यों सिखाया है।

क्योंकि मैंने शिर्क का रास्ता छोड़ दिया है और अपने पिता इब्राहीम, इस्हाक़, और याक़ूब की पैरवी करता हूं। और हम अल्लाह के साथ किसी को भी साझी नहीं बनाते" (2)

यूसुफ़ ने कहा, यह तौहीद केवल हमारे लिए नहीं है बल्कि यह सभी के लिए है।

यह तो हम पर अल्लाह का फ़ज़ल है लेकिन ज़्यादातर लोग शुक्र अदा नहीं करते। (3) यहां यूसुफ़ थोड़ी देर ख़ामोश रहे फिर उनसे पूछा आप लोग कहते हैं, यह सूखी ज़मीन का मालिक है, यह समुद्र का मालिक है, यह रिज़्क़ का मालिक है और यह बारिश का मालिक है।

हम कहते हैं कि अल्लाह तमाम संसार का स्वामी है क्या बहुत से स्वामी मानना बेहतर है या एक अल्लाह को जो सभी को कंट्रोल किए हुए है" (4)

ख़ुश्की का स्वामी कहां है, समुद्र का स्वामी कहां है, रिज़्क़ का स्वामी कहां है और बारिश का स्वामी कहां है?

"मुझे बताओ तो सही, क्या उन्होंने या यह धरती पैदा की है या आकाश में उनका कोई साझा है" 

ज़रा देखो तो आकाश और धरती को और इंसान को भी देखो "यह अल्लाह की मख़लूक़ हैं मुझे बताओ तो सही, इन्हें अल्लाह के इलावा किसने पैदा किया है" 

भला कैसे हैं ख़ुश्की के स्वामी, समुद्र के स्वामी, रिज़्क़ के स्वामी और बारिश के स्वामी ?

"यह तो उसके (सिफ़ाती) नाम हैं जिन्हें तुम और तुम्हारे बाप दादा पुकारते हो" आदेश अल्लाह का, मुल्क (इक़्तेदार) अल्लाह का, ज़मीन अल्लाह की और तमाम मामलात अल्लाह के हैं।

"तुम अल्लाह के इलावा किसी और कि पूजा (इबादत) न करो। यही अस्ल दीन है लेकिन ज़्यादातर लोग जानना नहीं चाहते" (5)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 37

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 38

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 38

4. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 39

5. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 40

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12 - ख़्वाब की ताबीर

जब यूसुफ़ नसीहत से फ़ारिग़ हुए तो उन दोनों को ख़्वाब की ताबीर बताई

कहा, "तुममें एक अपने मालिक को शराब पिलायेगा और दूसरे को फांसी दी जाएगी और उसका सिर परिंदे नोच नोच कर खाएंगे।" (1)

यूसुफ़ ने पहले व्यक्ति से कहा, अपने मालिक को मेरे बारे में बताना।(2)

वह दोनों जवान बाहर आये पहला राजा को शराब पिलाने लगा, और दूसरे को फांसी दे दी गई। शराब पिलाने वाला राजा से यूसुफ़ के बारे में बताना भूल गया और यूसुफ़ कई वर्ष जेल में पड़े रहे। (3)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 41

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 41

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 42

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13 - राजा का ख़्वाब 

मिस्र के राजा ने एक अजीब व ग़रीब ख़्वाब देखा

"उसने देखा कि सात मोटी गायें हैं जिन्हें सात दुबली गायें खा रही हैं और राजा ने यह भी देखा कि सात बालें हरी हैं और सात बालें सूखी।" (1)

राजा को इस अजीब व ग़रीब ख़्वाब से हैरानी हुई उसने अपने दरबारियों से ख़्वाब की ताबीर चाही।

उन्होंने कहा, इसमें कुछ भी नहीं है। जिस ख़्वाब में सोने वाला बहुत सी चीज़ें देखे ऐसे ख़्वाब की कोई हक़ीक़त नहीं होती। (2)

लेकिन साक़ी बोल पड़ा, नहीं! मैं तुम्हें बताऊंगा इस ख़्वाब की ताबीर। साक़ी क़ैदख़ाने गया और यूसुफ़ से राजा के ख़्वाब की ताबीर पूछी।

यूसुफ़ तो दाता और नेक थे, वह अल्लाह की मख़लूक़ पर बड़े मेहरबान थे, वह तो कंजूसी जानते ही न थे। चुनांचे उन्होंने ख़्वाब की ताबीर भी बताई और तदबीर भी।

उन्होंने कहा, "तुम सात साल खेती करोगे, तुम जो कुछ उगाओ उसे बालों में ही छोड़ दो मगर उतना ही बालों से अलग करो जितना तुम्हें ज़रूरत हो। इसके बाद सात वर्ष समान्य अकाल (क़हत) पड़ेगा उसमें जितना तम्हारे पास होगा सब खा जाओगे केवल थोड़ा ही बचेगा। यह अकाल लगातार सात वर्ष रहेगा। (3)

उसके बाद मदद आएगी और लोग ख़ुश ख़ुश रहने लगेंगे।

साक़ी वहां से गया और राजा को उसके ख़्वाब की ताबीर बताई।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 43

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 44

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 47 से 4

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14 - राजा यूसुफ़ के पास भेजता है

जब राजा ने अपने ख़्वाब की यह ताबीर और तदबीर सुनी तो अत्यधिक प्रसन्न हुआ और बोला, किस व्यक्ति ने यह ताबीर बताई?

राजा ने फिर कहा, कौन है वह महान इंसान जिसने हमें राह सुझाई और तदबीर बताई है?

साक़ी बोला, वह है मेरा मित्र यूसुफ़! वही है जिसने मुझे बताया था "मैं अपने मालिक राजा का साक़ी बनूंगा"

राजा को यूसुफ़ से मुलाक़ात का शौक़ पैदा हुआ और यह कहते हुए यूसुफ़ को बुला भेजा "उसे मेरे पास लाओ ताकि मैं ख़ुद उसे आज़ाद करूं" (1)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 50

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15 - यूसुफ़ जांच की मांग करते हैं

जब यूसुफ़ को बुलाने के लिए राजा का दूत आया और कहा, राजा आप को बुला रहे हैं।

यूसुफ़ ऐसे जेल से निकलने पर राज़ी नहीं हुए। लोग कहते फिरेंगे "यही यूसुफ़ है जो कल जेल में था और इसने अज़ीज़ की (अमानत में) ख़यानत की थी"

बेशक यूसुफ़ को अपने नफ़्स पर बड़ा कंट्रोल था। वह अक़्लमंद और ज़हीन थे।

अगर यूसुफ़ के स्थान पर कोई और व्यक्ति जेल में होता और उसके पास कोई राजा का दूत बुलाने के लिए आता और कहता कि "राजा आप को बुला रहे हैं और आप का इन्तेज़ार कर रहे हैं" तो वह इंसान जल्दी करता और जेल से तत्काल निकलता।

लेकिन यूसुफ़ ने कोई तेज़ी नहीं दिखाई न कोई जल्दबाज़ी की बल्कि उन्होंने राजा के दूत से कहला भेजा कि "मैं अपने मामले की जांच (judiciary enquiry) चाहता हूं।

राजा ने जांच कराई तो तमाम लोंगों को पता चल गया कि "यूसुफ़ बेगुनाह हैं" (1)

यूसुफ़ बेगुनाह साबित होकर क़ैदख़ाने से निकले और राजा ने उन्हें अत्यधिक सम्मान दिया।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 51

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16 - ज़मीन के ख़ज़ाने पर

यूसुफ़ को मालूम था कि अमानतदार कम लोग होते हैं। और उन्हें यह भी मालूम था कि ख़यानत करने वाले लोग ज़्यादा हैं।

यूसुफ़ देख रहे थे कि लोग अल्लाह के माल में ख़यानत करते हैं, वह देख रहे थे कि ज़मीन में ख़ज़ाने तो बहुत हैं लेकिन उनकी बर्बादी हो रही है। यह बर्बादी यूं हो रही हैं कि दौलत व शुहरत वाले अल्लाह से डरते नहीं हैं चुनांचे उनके कुत्ते तो (पेट भर कर) खाते हैं और लोगों को खाने के लिए कुछ मुयस्सर नहीं होता। उनके घरों को तो कपड़े पहनाये जा रहे हैं और लोगों को इतना भी नहीं मिलता कि वह शरीर ढक सकें।

ज़मीन के ख़ज़ाने से लोगों को फ़ायदा नहीं पहुंचा सकते जबतक कि उसपर एक माहिर ज़िम्मेदार व्यक्ति मुक़र्रर न हो।

जो इसकी हिफ़ाज़त करने वाला होगा अगर वह माहिर नहीं होगा तो वह नहीं जान सकेगा कि ज़मीन का ख़ज़ाना कहाँ है और कैसे उससे फ़ायदा उठाया जाय। और जो माहिर होगा और हिफ़ाज़त करने वाला न हुआ तो वह उसे ख़ुद हड़प कर जाएगा और ख़यानत करेगा। यूसुफ़ तो माहिर भी थे और ज़िम्मेदार भी।

यूसुफ़ नहीं चाहते थे कि वह यह ज़िम्मेदारी तो छोड़ दें और दौलत व शुहरत वाले लोगों का माल हड़प कर जाएं। यूसुफ़ लोगों को भूखे रहना और मरता न देख सकते थे।

यूसुफ़ हक़ के इज़हार से शर्माते नहीं थे। उन्होंने राजा से कहा, "ज़मीन के ख़ज़ाने पर मुझे ज़िम्मेदार बना दीजिए निसंदेह मैं एक माहिर ज़िम्मेदार हूं।" (1)

इस प्रकार यूसुफ़ मिस्र के ख़ज़ाने के सेक्रेटरी (Finance Minister) हो गए। लोग बहुत ख़ुश हुए और अल्लाह की प्रशंसा करने लगे।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 55

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17 - यूसुफ़ के भाइयों का आगमन

मिस्र और शाम (सीरिया) में भूखमरी फैली हुई थी जैसा कि यूसुफ़ ने पहले ही ख़बरदार कर दिया था

सीरिया के लोगों ने और याक़ूब ने भी सुना कि मिस्र में एक बहुत दयालू व्यक्ति है, वह बहुत दाता भी है और वह ज़मीन के ख़ज़ाने पर हाकिम भी है। लोग उसके पास जाते हैं और ग़ल्ला ले आते हैं। याक़ूब ने भी अपने बच्चों को माल देकर मिस्र भेजा ताकि वह भी ग़ल्ला ले आएं।

बिन्यामीन अपने पिता के पास रुक गया क्योंकि याक़ूब उस से ज़्यादा मुहब्बत करते थे, वह उसे अपने से दूर करना नहीं चाहते थे, उन्हें उसके बारे में भी अंदेशा था जैसा कि उन्होंने यूसुफ़ के विषय मे किया था। यूसुफ़ के भाई यूसुफ़ पर ख़ास नज़र रखते थे, वह नहीं समझते थे कि यूसुफ़ उनके भाई भी हैं।

उन्हें क्या पता था कि यह वही यूसुफ़ है जो कूएं में था। उनका तो ख़्याल था कि वह मर गया होगा। भला वह कैसे नहीं मरते जबकि वह कूंए में पड़े थे, कूआं बहुत गहरा था और कूआं जंगल में था, जंगल डरावना था, रात का समय भी था और रात भी घनघोर अंधेरी थी।

यूसुफ़ के भाई आए, प्रवेश किया यूसुफ़ ने उन्हें पहचान लिया लेकिन वह यूसुफ़ को न पहचान सके। (1)

वह यूसुफ़ से नफ़रत करते थे इसलिए उन्हें पहचान न सके जबकि यसूफ़ ने उनसे नफ़रत नहीं की इसलिए उन्होंने पहचान लिया।

यूसुफ़ को पता था कि यही वह लोग हैं जो उन्हें क़त्ल करना चाहते थे लेकिन अल्लाह ने हिफ़ाज़त की।

इसके बावजूद यूसुफ़ ने उन्हें कुछ नहीं कहा और न उनकी फ़ज़ीहत (अपमान) ही की।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 58

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18 - यूसुफ़ और उनके भाईयों के दरमियान बातचीत

यूसुफ़ ने उनसे बात की और पूछा, तुम कहां से आए हो?

भाई: किनआन से,

यूसुफ़: तुम्हारे पिता कौन हैं?

भाई: याक़ूब बिन इस्हाक़ बिन इब्राहीम (उनपर अल्लाह की सलामती हो)

यूसुफ़ : तुम्हारा कोई दूसरा भाई भी है?

भाई: जी! हमारा एक भाई और है जिसका नाम बिन्यामीन है।

यूसुफ़: वह तुम्हारे साथ क्यों नहीं आया?

भाई: क्योंकि पिता जी उसे अकेला नहीं छोड़ते और उन्हें पसंद नहीं कि वह उनसे दूर हो।

यूसुफ़: किस कारण वह उसे नहीं छोड़ते क्या वह छोटा बच्चा है?

भाई: नहीं! बल्कि उसका एक भाई जिसका नाम यूसुफ़ था, एक बार वह हमारे साथ गया, हम आगे निकल गए और यूसुफ़ को सामान के पास छोड़ दिया वहां उसे भेड़िया खा गया।

यूसुफ़ दिल ही दिल मे हंसे लेकिन उनसे कुछ नहीं कहा। अलबत्ता बिन्यामीन से मिलने के लिए बेचैन हो गए। और अल्लाह ने याक़ूब को दूसरी बार इम्तिहान में डालने का इरादा किया।

यूसुफ़ ने उनको खाना खिलाने का आदेश दिया।

और उनसे कहा "अपने सौतेले भाई को ले आना। तुम्हें ग़ल्ला नहीं मिलेगा अगर तुम उसे नहीं लाए" (1)

यूसुफ़ के आदेशानुसार उनकी पूंजी को भी उनके सामान में रख दिया गया। (2)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 60

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 62

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19 - याक़ूब और उनकी औलाद के दरमियान बात चीत

यूसुफ़ के भाई अपने पिता के पास पहुंचे और पूरी बात बताई और यह भी कहा कि हमारे साथ बिन्यामीन को भेजिए वरना हमें अज़ीज़ के यहां से ग़ल्ला नहीं मिल सकेगा। (1)

उन्होंने याक़ूब से बिन्यामीन को भेजने की सिफ़ारिश की और बोले "हम इसकी हिफ़ाज़त करेंगे"

याक़ूब बोले, हां, मैं तुमपर वैसे ही भरोसा कर लूं जैसा कि उसके भाई यूसुफ़ के मामले में पहले कर चुका हूं।

क्या तुम यूसुफ़ का वाक़िआ भूल गए? तुम बिन्यामीन की वैसी ही हिफ़ाज़त करोगे ना जैसी हिफ़ाज़त यूसुफ़ की की थी। अल्लाह ही बेहतरीन हिफ़ाज़त करने वाला और रहम करने वालों से बढ़ कर रहम करने वाला है।" (2)

उन्हें उनकी पूंजी भी सामान में मिली तो अपने पिता से कहने लगे, अज़ीज़ एक शरीफ़ इंसान है उसने तो हमारी पूंजी भी हमें वापस कर दी है। आप हमारे साथ बिन्यामीन को भेज ही दें ताकि उसका हक़ भी वहां से ले आएं"

याक़ूब बोले, मैं उसको तुम्हारे साथ नहीं भेजूंगा जबतक कि तुम अल्लाह की क़सम न खाओ कि तुम उसके साथ लौटोगे मगर यह कि तुम्हें कोई ऐसी मुश्किल पेश आ जाए जहां तुम कुछ न कर सको। (3)

उन्हीने अल्लाह की क़सम खाई और याक़ूब ने कहा जो कुछ हम कह रहे हैं उसपर अल्लाह वकील है और याक़ूब ने अपने बच्चों को नसीहत की, "ऐ मेरे बेटो! एक दरवाज़ें दाख़िल मत होना बल्कि अलग अलग दरवाज़ों से दाख़िल होना।" (4) 

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 63

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 64

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 66

4. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 66, 67

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20 - बिन्यामीन यूसुफ़ के पास

तमाम भाई अलग अलग दरवाज़े से दाख़िल हुए जैसा कि उनके पिता उन्हें आदेश दिया था और यूसुफ़ के पास पहुंचे। यूसुफ़ ने जब बिन्यामीन को देखा तो उन्हें अपार हर्ष हुआ उसे अपने घर में बिठाया और बिन्यामीन से बोले "मैं तेरा भाई हूं" बिन्यामीन को इत्मिनान हो गया। यूसुफ़ एक बहुत लंबे समय के बाद बिन्यामीन से मिले थे चुनांचे माता पिता के बारे में बात हुई, घर और बचपन का तज़किरा हुआ और यूसुफ़ ने इरादा बना लिया कि वह बिन्यामीन को अपने पास ही रखेंगे। उसकी देखभाल करेंगे, बातें करेंगे, और घर के विषय मे पूछेंगे।

लेकिन कैसे यह रास्ता निकलेगा, बिन्यामीन तो कल सुबह किनआन लौटने वाला है। लेकिन कैसे यह रास्ता निकल सकता है जबकि भाईयों ने अल्लाह की क़सम खाई है कि वह अपने साथ उसे लौटा कर ले जाएंगे।

भला यूसुफ़ के लिए बेग़ैर किसी कारण के बिन्यामीन को रोकना कैसे संभव हो सकेगा।

लोगों में चर्चा होने लगेगी कि युसूफ़ ने तो एक किनआनी को बिना कारण ही रोक रखा है। यह तो बड़ा ज़ुल्म होगा।

लेकिन यूसुफ़ तो ज़हीन भी थे और अक़्लमंद भी थे। यूसुफ़ के पास एक क़ीमती प्याला था जिसमें वह पानी पीते थे। इसी प्याले को बिन्यामीन के सामान में रख दिया और पुकारने वाले ने आवाज़ लगाई "क़ाफ़िले वालो! तुम सब चोर हो।" (1)

भाई मुड़े, और पूछने लगे "तुम्हारी क्या चीज़ गुम हो गई है? (2)

उन्होंने कहा, 'हमारे मलिक का प्याला गुम हो गया है और जो उसे ले आए उसके लिए माल लदा ऊंट इनआम है।

भाई बोले, अल्लाह की क़सम तुम्हें याद अच्छी तरह मालूम है कि हम ज़मीन में फ़साद फैलाने नहीं आये और न हमारा काम चोरी करना है। (3)

उन्होंने पूछा, "क्या बदला होगा अगर तुम झूठे निकले।"(4)

भाई बोल पड़े, "जिसके के सामान में मिले वही उसका बदला है "और इसी तरह हम ज़ालिमों को बदला देते हैं" (5)

प्याला बिन्यामीन के सामान से निकला, भाई शर्मिंदा हुए लेकिन वह फिर भी ढिटाई से बोले:

"अगर इस (बिन्यामीन) ने चोरी की है तो क्या हुआ इस से पहले इसका भाई यूसुफ़ भी चोरी कर चुका है। यूसुफ़ ने यह झूठा इल्ज़ाम सुना लेकिन चुप रहे, ग़ुस्सा नहीं हुए क्योंकि यूसुफ़ बहुत शरीफ़ और नरम दिल थे।" (6)

भाईयों ने निवेदन किया, “ऐ अज़ीज़! इसका बाप बहुत बूढ़ा आदमी है, इसकी जगह आप हममें से किसी को रख लीजिए। हम आपको बड़ा ही नेक दिल इंसान पाते हैं।" (7)

यूसुफ़ ने कहा, “अल्लाह की पनाह! दूसरे किसी व्यक्ति को हम कैसे रख सकते हैं? जिसके पास हमने अपना माल पाया है उसको छोड़कर दूसरे को रखेंगे तो हम ज़ालिम होंगे।” (8) 

 इस तरह बिन्यामीन यूसुफ़ के पास रह गए और दोनों भाई ख़ुश हो गए। बेशक यूसुफ़ एक लंबे समय से अकेले थे और घर वालों में से किसी को भी नहीं देखा था।

अल्लाह में बिन्यामीन को उनके पास भेज दिया, भला वह बिन्यामीन को क्यों न रोकते कि उसे देखें और उससे बातें करें। और किसी भाई का अपने भाई के पास रुकना ज़ुल्म नहीं हो सकता। कभी नहीं कभी नहीं हो सकता।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 70

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 71

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 72, 73

4. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 74

5. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 75

6. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 77

7. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 78

8. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 79

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21 - याक़ूब की तरफ़

तमाम भाई सख़्त हैरान थे कि वह किस मुंह से पिता के पास लौटें? वह सोच विचार में जुट गए कि वह पिता से भला क्या कहें?

कल वह इकट्ठे होकर यूसुफ़ के बारे में सोच विचार कर रहे थे और आज बिन्यामीन के बारे में सोच विचार के लिए इकट्ठे हुए। उनमें से बड़े भाई ने पिता के पास लौटने से ही इंकार कर दिया और भाईयों से कहा: "तुम जाकर अपने पिता से कहो कि ‘हे पिता! आपके बेटे ने चोरी की है। हमने उसे चोरी करते हुए नहीं देखा, जो कुछ हमें मालूम हुआ है केवल वही हम बयान कर रहे हैं, और ग़ैब पर तो हमारी नज़र थी नहीं।" (1) 

याक़ूब ने जब यह कहानी सुनी तो बोले सब कुछ अल्लाह के हाथ में है और अल्लाह परीक्षा ले रहा है।

कल उन्हें यूसुफ़ के सिलसिले में तकलीफ़ पहुंचाई गई थी और आज बिन्यामीन के सिलसिले में तकलीफ़ पहुंचाई जा रही है निःसंदेह अल्लाह उनपर दो मुसीबतें इकट्ठी नहीं करेगा और न दो बेटों की तकलीफ़ उन्हें देगा। बेशक अल्लाह दो बेटों यूसुफ़ और बिन्यामीन का दुख नहीं देगा।

बेशक इसमें अल्लाह की जानिब से छुपी हुई मदद आएगी। यक़ीनन इसमें अल्लाह की कोई हिकमत छुपी हुई होगी।

अल्लाह अपने बन्दे को बराबर आज़माता है फिर उसे ख़ुशी देता है और नेअमतों की बौछार करता है।

फिर बड़ा बेटा भी मिस्र में ही ठहरा रहा और किनआन लौटने से इंकार कर दिया।

क्या उन्हें तीसरे बेटे के सिलसिले में भी तकलीफ़ दी जाएगी जबकि इससे पहले दो के बारे में तकलीफ़ दी जा चुकी थी ऐसा नहीं होगा। और यहां याक़ूब को इत्मीनान हो गया। उन्होंने कहा, "उम्मीद है कि अल्लाह उन सबको मुझसे ला मिलाएगा। वह सबकुछ जानता है और उसके तमाम काम हिकमत से भरे हैं।” (3)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 81

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 83

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22 - भेद खुलता है

लेकिन याक़ूब इंसान थे, उनके सीने में इंसानी दिल था कोई पत्थर का टुकड़ा तो था नहीं। इसलिए वह यूसुफ़ को बराबर याद करते रहे और उनका ग़म नया होता रहा। वह कहते हॉय अफ़सोस यूसुफ़ पर" (1) उनकी औलाद उनको मलामत करते हुए कहती, "आप तो बराबर यूसुफ़ को याद कर रहे हैं आप उसके ग़म में ख़ुद को मार डालेंगे। (2)

याक़ूब ने कहा "मैं अपनी परेशानी और अपने ग़म की फ़रियाद अल्लाह के सिवा किसी से नहीं करता, और अल्लाह को जैसा मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते। (3)

याक़ूब जानते थे कि मायूसी कुफ़्र है और याक़ूब को अल्लाह से बड़ी उम्मीदें थीं।

याक़ूब ने अपने बेटों को मिस्र भेजा कि वह यूसुफ़ और बिन्यामीन को तलाश करने में पूरी कोशिश झोंक दें। और उनसे यह भी कहा "अल्लाह की रहमत से कभी मायूस न हों" चुनांचे तमाम भाई तीसरी बार मिस्र पहुंचे।

वह यूसुफ़ के पास पहुंचे और उनसे अपनी ग़रीबी और परेशानी की शिकायत करने लगे और यूसुफ़ से मदद भी मांगी। यह सुनकर यूसुफ़ के दिल में ग़म और मुहब्बत का तूफ़ान उठा, वह ख़ुद पर क़ाबू न रख सके कि नबी के बेटे अपनी ग़रीबी और मुसीबत का शिकवा राजा के एक हाकिम के पास कर रहे हैं। मैं कब तक इनसे मामले को छुपाये रखूं और कब तक मैं इन्हें इस हाल में देखता रहूं? और कब तक अपने पिता को न देखूं?

यूसुफ़ को अब खुद पर कंट्रोल नहीं रहा, बोल पड़े

“तुम्हें कुछ याद भी है कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया था जबकि तुम नादान थे?” (4) 

भाई भली भांति जानते थे कि इस राज़ से यूसुफ़ और हमारे इलावा कोई और वाक़िफ़ नहीं था। चुनांचे उन्हें एहसास हो गया कि यही यूसुफ़ है।

(लेकिन अब उनके दिमाग़ में अनेक ख़्याल आने लगे)

पवित्र है अल्लाह की ज़ात! क्या यूसुफ़ जीवित हैं! क्या कूएं में इसकी मौत नहीं हुई?

या सलाम ! क्या यूसुफ़ ही अज़ीज़ ए मिस्र है?

वही ज़मीन के ख़ज़ाने का ज़िम्मेदार है?

वही है जिसके आदेश से हमें अनाज मिलता है।

अब उनके पास शक की कोई गुंजाईश नहीं थी कि उनसे जो बात कर रहे थे वह याक़ूब के बेटे यूसुफ़ ही हैं।

चुनांचे वह (हैरत से) बोल पड़े "क्या तुम ही यूसुफ़ हो"

यूसुफ़ ने उत्तर दिया, हां! मैं यूसुफ़ हूं और यह मेरा भाई है, अल्लाह ने हम पर एहसान किया और निःसंदेह जो अल्लाह से मुहब्बत करेगा और सब्र करेगा तो अल्लाह उसके अच्छे अमल को बर्बाद नहीं करेगा।" (5)

उन्होंने कहा, “अल्लाह की क़सम! तुमको अल्लाह ने हमपर फ़ज़ीलत दी, वास्तव में हम ग़लती पर थे” (6)

यूसुफ़ ने उनके कामों पर कोई मलामत न की बल्कि यह दुआ की "अल्लाह तुम्हें मुआफ़ करे वह रहम करने वालों से बढ़ कर रहम करने वाला है।" (7)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 84

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 85

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 86

4. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 89

5. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 90

6. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 91

7. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 92

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23 - यूसुफ़ भेजते हैं याक़ूब की तरफ़

यूसुफ़ याक़ूब से मुलाक़ात के लिए उत्साहित हुए, और वह कैसे न उत्साहित होते जबकि जुदाई को एक लंबा समय गुज़र चुका था। भला अब कैसे सब्र कर पाते जबकि राज़ खुल चुका था। और कैसे वह उम्दा खाना खाते और पीते जबकि उनके पिता को न अच्छा खाना मुयस्सर था, न पानी और न सोने की जगह।

अब तो राज़ खुल चुका था और सब कुछ ज़ाहिर हो चुका था अब तो अल्लाह का इरादा था कि याक़ूब की आंख को ठंडक पहुंचाए क्योंकि याक़ूब तो यूसुफ़ के ग़म में रोते रोते अंधे हो चुके थे। 

यूसुफ़ ने कहा, "मेरी यह क़मीज़ ले जाओ और उनके चेहरे पर डाल देना मेरे पिता की रौशनी लौट आएगी और अपने तमाम घर वालों को यहीं ले आओ।" (1)

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 93

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24 - याक़ूब यूसुफ़ के पास

जब लोग यूसुफ़ की क़मीज़ लेकर किनआन की ओर चले तो याक़ूब को यूसुफ़ की ख़ुशबू महसूस हुई चुनांचे वह घर वालों से कहने लगे, "मुझे यूसुफ़ की ख़ुशबू महसूस हो रही है तुम लोग कहीं यह न कहने लगो कि मैं बुढ़ापे में सठिया गया हूँ। घर वाले बोल पड़े, “अल्लाह की क़सम! आप अभी तक अपने उसी पुराने ‘ख़ब्त’ में पड़े हुए हैं।" (1)

फिर जब ख़ुशख़बरी लाने वाला आया तो उसने यूसुफ़ की क़मीज़ याक़ूब के मुँह पर डाल दी और यकायक उनकी आँखों की रौशनी लौट आई। तब उन्होंने कहा, “मैं तुमसे कहता न था? मैं अल्लाह की तरफ़ से जो कुछ जानता हूँ वह तुम नहीं जानते।” (2)

सभी भाई बोल उठे, “हे पिता जी! आप हमारे गुनाहों की बख़्शिश के लिये दुआ करें, सच में हम ग़लती पर थे"

याक़ूब ने कहा, “मैं अपने रब से तुम्हारे लिये माफ़ी की विनती करूँगा। वह बड़ा माफ़ करने वाला और रहीम है (3)

जब याक़ूब मिस्र पंहुचे तो यसूफ़ ने उनका स्वागत किया फिर उन दोनों की ख़ुशी और हर्ष के बारे में न पूछो। यह मिस्र में बरकत और ख़ुशी का दिन था। "यूसुफ़ ने अपने माता पिता को अर्श (सिहांसन) पर बिठाया और तमाम यूसुफ़ के सामने सज्दे में गिर गए। फिर यूसुफ़ ने कहा, "यह है मेरे ख़्वाब की ताबीर जिसे मेरे रब ने सच कर दिखाया। (4)

मैन देखा था कि ग्यारह सितारे, चांद और सूरज मुझे सज्दा कर रहे हैं" यूसुफ़ ने अल्लाह की ख़ूब ख़ूब हम्द बयान की और इस एहसान पर शुक्र अदा किया।

याक़ूब और उनकी औलाद लंबे समय तक मिस्र में रहती रही और मिस्र में ही याक़ूब और उनकी पत्नी का स्वर्गवास हुआ।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 94, 95

2. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 96

3. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 97,98

4. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 100

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25 - अच्छा अंत

इस इक़्तेदार ने यूसुफ़ को अल्लाह से ग़ाफ़िल नहीं किया और न उनमें कोई तब्दीली आयी।

यूसुफ़ अल्लाह को याद करते थे, उसकी इबादत करते थे, और उसी से डरते थे।

यूसुफ़ अल्लाह के आदेशानुसार फ़ैसला करते थे और अल्लाह के हुक्म को लागु करते थे।

यूसुफ़ राजपाट को कोई बड़ी चीज़ नहीं समझते थे और न बड़ी चीज़ों में उसे गिनते थे?

यूसुफ़ नहीं चाहते थे कि वह राजा की मौत मरें और (क़यामत के दिन) उन्हें राजाओं के साथ उठाया जाय बल्कि वह एक आम बंदे और ग़ुलाम की मौत मरना चाहते थे और यह ख़्वाहिश रखते थे कि कल क़यामत के दिन उन्हें नेक लोगों के साथ उठाया जाय।

यूसुफ़ की तो दुआ थी:

رَبِّ قَدۡ ءَاتَيۡتَنِي مِنَ ٱلۡمُلۡكِ وَعَلَّمۡتَنِي مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَنتَ وَلِيِّۦ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ تَوَفَّنِي مُسۡلِمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ

"ऐ मेरे रब! तूने मुझे हुकूमत दी और मुझको बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। ज़मीन और आसमान के बनाने वाले, तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा सरपरस्त है। मेरा अंत इस्लाम पर कर और आख़िरी अंजाम के तौर पर मुझे नेक लोगों के साथ मिला।” (1)

अल्लाह ने उन्हें मुसलमान की हालत में मौत दी और आप को उनके बाप दादा इब्राहीम, इस्हाक़, और याक़ूब के साथ मिला दिया, यूसुफ़ अलैहिस्सलाम और हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो।

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1. सूरह 12 यूसुफ़ आयत 101

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किताब: कसास उन नबीयीन
मुसन्निफ़: सैयद अबुल हसन नदवी रहमतुल्लाहि अलैहि 
अनुवाद: आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही 

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