Allah se dhokha aur bagawat (part-3) | 2. namaz ki niyat

Allah se dhokha aur bagawat (part-3) | 2. namaz ki niyat


अल्लाह से धोका और बगावत (मुसलमान ज़िम्मेदार)

3. बिदअत का आगाज़ और बचाव (पार्ट 03)

3.2. ज़ुबान से नमाज़ की नियत करना


उम्मत में यें एक बिदअत इस तरह फैली है मानो इसका हुक्म नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दिया हो। कोई औरत या मर्द जब नमाज़ के लिए नियत करती है या करता है तो इस तरह कहते हैं-

"नियत की मैंने, दो (या चार या तीन रकात) नमाज़ फजर, वास्ते अल्लाह तआला, पीछे इस इमाम के, मुँह मेरा क़ाबा शरीफ की तरफ को, अल्लाहु अकबर"

जान लीजिये हर वो अमल जिस पर नबी अलैहिस्सलाम की तालीम ना हो वो अमल बिदअत है। इस्लाम की बुनियाद 05 अरकानों पर क़ायम है उस एक रुक्न में नमाज़ भी है। इस नमाज़ के बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ताक़ीद है।

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं, "नमाज उस तरह पढ़ो जिस तरह पढ़ते हुए मुझे देखा।" [बुख़ारी 631]

यानी नमाज एक ऐसा अमल है कि नबी ने उसे पर यह कहा कि तुम नमाज मेरी तरह पढ़ना। अब नबी ने जो नमाज पढ़ी है उसमें कहीं भी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम से यह जिक्र नहीं आया कि आप ने कभी इस तरह नियत की हो, जैसे लोग करते हैं यानी नबी अलैहिस्सलाम की तालीम से हटकर ऐसी दुआ करना, जो ना क़ुरआन में है ना हदीस है, वो अमल क़ुबूल कैसे होगा?

पहले जाने लेते हैं नियत किसको कहते हैं?

تَعَلُّقُ القَلبِ نَحوَ الفِعلِ إِبتِغَاء لِمَرضَاة اللّٰہِ

यानी अल्लाह तआला की रज़ा के खातिर दिल को किसी फेल व अमल के मुताल्लक़ कर देने का नाम नियत है।

यानी नियत का ताल्लुक़ ज़ुबान से नहीं बल्कि दिल के इरादे का नाम है। कोई शख्स किसी अमल को जुबान से तो अदा कर रहा है लेकिन उसका दिल नहीं चाह रहा। ये नियत नहीं होगी क्यूंकि उसके लिए उसको ज़ाहिरी नहीं बल्कि दिल के इरादे से क़ुबूल करना होगा।

इसलिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, "आमाल का दारोमदार नियत पर है।" [बुख़ारी 01]

क्यूंकि नमाज़ भी एक अमल है और इस अमल के लिए हमें ज़ुबान से नहीं बल्कि दिल के इरादे से तस्लीम करना होगा।

कुछ लोग ये भी कह सकते हैं कि इसमें क्या खराबी है हम दिल से भी कर लेंगे और जुबान से भी कर लेंगे। तो अर्ज़ ये है दिल से करने कि दलील तो हमें क़ुरआन ओ हदीस से मिल गयी लेकिन ज़ुबान से नियत करके हम दीन में नया काम ईजाद कर रहें हैं।

दूसरी बात यें कैसी नियत है जो दिल से तो कर ली लेकिन उसके बाद भी आपको इत्मीनान नहीं इसीलिए तो ज़ुबान से नियत कर रहें हो?

नबी और नबी के सहाबा ने भी नमाज़ पढ़ी। क्या उन्होंने ऐसा अमल अंजाम दिया पूरी नमाज़ अरबी में है और नियत उर्दू में क्यूं?

फिर तो वुज़ू से पहले भी नियत किया करें कि "मै नियत करता हूँ वुज़ू की" क्यूंकि वुज़ू भी एक अमल है और हर अमल के लिए नियत ज़रूरी है।

तीसरी बात यें है की नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब नमाज़ शुरू करते थे तो देख लेते हैं उनका अमल क्या था?

हज़रत आयशा (रज़ि०) से रिवायत की, उन्होंने कहा: "रसूलुल्लाह ﷺ नमाज़ की शुरुआत तकबीर से और क़िरअत की शुरुआत सूरा फ़ातिहा से करते।" [मुस्लिम 498]

मज़ीद फ़रमाया, "तुम जब नमाज़ के लिये खड़े हो तो पहले अल्लाहु-अकबर कहो और फिर जितना क़ुरआन करीम तुम आसानी के साथ पढ़ सकते हो वो पढ़ो।" [मुस्लिम 397]

एक हदीस का मफ़हूम है,

"तकबीर से नमाज़ में दाखिल हो और सलाम पर ख़त्म करो।" [अबू दाऊद 618]

इन दलाइल से वाज़ेह हुआ की ज़ुबान से नमाज़ में दाखिल ही नहीं होना। इसकी कोई दलील नहीं है यें एक बिदअत है।

जिस नबी का कलिमा हम पढ़ते हैं। अफ़सोस उन्ही की बताई गई तालीम को छोड़ देतें हैं। वजह सिर्फ यही की हमने अपने बड़ो, आलिमों, बुज़ुर्गो को ऐसे ही करते देखा। याद रहें मक्का के मुशरिक भी हक़ बात इसीलिए छोड़ देते थे क्योंकि वह भी यही कहा करते थे कि हमने अपने बड़े, बाप दादाओ से यही सुना है।

तो क्या करें?

हमें सिर्फ इतना करना है, जिस वक़्त की भी नमाज़ हो जितनी रकात हो बस अपने दिल में ख्याल कर ले की इस वक़्त और इतनी रकात नमाज़ पढ़ रही हुँ /रहा हुँ ज़ुबान से ना कहें यही सुन्नत तरीक़ा है।

 

अल्लाह ताला हमें बिदअत से बचाये। अल्लाह दीन समझने की तौफीक अता फरमाए।

आमीन 

जुड़े रहे आगे हम बताएंगे की उम्मत के अंदर कौन-कौन सी बिदअते ईजाद की गयीं हैं।


आपका दीनी भाई
मुहम्मद रज़ा

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