Qur'an (series 3): Ek muajjizah (chamatkaar)

Qur'an (series 3): Ek muajjizah (chamatkaar)


कुरआन: एक मोजिज़ा (चमत्कार)


मुहम्मद (ﷺ) ने फ़रमाया:

"हर नबी को ऐसे-ऐसे मोजिज़ा (चमत्कार) अता किये गए कि उन्हें देख कर लोग उन पर ईमान लाए (बाद के ज़माने में उन का कोई असर नहीं रहा) और मुझे जो मोजिज़ा (चमत्कार) दिया गया है वो क़ुरआन है जो अल्लाह तआला ने मुझ पर नाज़िल किया है।" (उसका असर क़ियामत तक बाक़ी रहेगा)

[सहीह बुखारी : 4981]


जब मुहम्मद ﷺ ने मक्का में पैगंबरी का ऐलान किया और लोगों को एक रब की बंदगी (इबादत) करने के लिए दावत देनी शुरू की तो मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ मुहम्मद (ﷺ) से मोजिज़ा माँगते थे, ताकि उस निशानी को देखकर उन्हें इत्मीनान हो कि वाक़ई आप (ﷺ) ये पैग़ाम ख़ुदा की तरफ़ से लाए हैं। इस्लाम मुखालिफो के इस सवाल का मकसद ये नहीं था कि हम कोई मोजिज़ा देखकर मुहम्मद ﷺ पर ईमान ले आए बल्कि हक़ के इनकारियों के इस सवाल में एक खुले ताने का अन्दाज़ पाया जाता था। यानी उनके कहने का मतलब ये था कि जिस तरह तुम नबी बन बैठे हो उसी तरह कोई मोजिज़ा (चमत्कार) भी छाँटकर अपने लिये बना लाए होते। लेकिन आगे देखिएगा कि इस ताने का जवाब अल्लाह ने कुरआन में जगह जगह किस शान से दिया है।


وَ اِذَا لَمۡ تَاۡتِہِمۡ بِاٰیَۃٍ قَالُوۡا لَوۡ لَا اجۡتَبَیۡتَہَا ؕ قُلۡ اِنَّمَاۤ اَتَّبِعُ مَا یُوۡحٰۤی اِلَیَّ مِنۡ رَّبِّیۡ ۚ ہٰذَا بَصَآئِرُ مِنۡ رَّبِّکُمۡ وَ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃٌ لِّقَوۡمٍ یُّؤۡمِنُوۡنَ ﴿۲۰۳﴾

"ऐ नबी! जब तुम इन लोगों के सामने कोई निशानी [ यानी मोजिज़ा] पेश नहीं करते तो ये कहते हैं कि तुमने अपने लिये कोई निशानी क्यों न चुन ली?

इनसे कहो, “मैं तो सिर्फ़ उस वह्य (प्रकाशना) की पैरवी करता हूँ जो मेरे रब ने मेरी तरफ़ भेजी है। ये बसीरत की रौशनियाँ [आँखों खोल देनेवाली दलीलें] हैं तुम्हारे रब की तरफ़ से और हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिये जो इसे अपनाएँ।”

[कुरआन 7:203]


यानी अल्लाह ने मुहम्मद ﷺ की जुबान से इस्लाम मुखालिफों को यह कहलवा दिया कि मेरा मंसब ये नहीं है कि जिस चीज़ की माँग हो या जिसकी मैं ख़ुद ज़रूरत महसूस करूँ उसे ख़ुद ईजाद या गढ़कर पेश कर दूँ। मैं तो एक रसूल हूँ और मेरा मंसब सिर्फ़ ये है कि जिसने मुझे भेजा है उसकी हिदायत पर अमल करूँ। मोजिज़े के बजाय मेरे भेजनेवाले ने जो चीज़ मेरे पास भेजी है वो ये क़ुरआन है। इसके अन्दर सीधी राह दिखाने और हिदायत देनेवाली रौशनियाँ मौजूद हैं और इसकी सबसे नुमायाँ ख़ूबी ये है कि जो लोग इसको मान लेते हैं उनको ज़िन्दगी का सीधा रास्ता मिल जाता है और उनके अच्छे अख़लाक़ में अल्लाह की रहमत के आसार साफ़ ज़ाहिर होने लगते हैं।

जब भी इस्लाम मुखलिफों की तरफ से तंज के तौर पर किसी निशानी की मांग की गई तो उसपर यही फ़रमाया गया कि अगर हक़ीक़त में किसी को ईमान लाने के लिये निशानी की तलब है तो खुली किताब की यानी कुरआन की आयतें मौजूद हैं।


تِلۡکَ اٰیٰتُ الۡکِتٰبِ الۡمُبِیۡنِ ﴿۲﴾

"ये खुली किताब की आयतें हैं।"

[कुरआन 26:2]


यानी ये आयतें उस किताब की आयतें हैं जो अपना मंशा और मक़सद साफ़-साफ़ खोलकर बयान करती हैं, जिसे पढ़कर या सुनकर हर शख़्स समझ सकता है कि वो किस चीज़ की तरफ़ बुलाती है, किस चीज़ से रोकती है, किसे हक़ (सत्य) कहती है और किसे बातिल (असत्य) ठहराती है। मानना या न मानना अलग बात है, मगर कोई शख़्स ये बहाना कभी नहीं बना सकता कि इस किताब की तालीम उसकी समझ में नहीं आई और वो इससे ये मालूम ही न कर सका कि वो उसको क्या चीज़ छोड़ने और क्या अपनाने की दावत दे रही है।

उपर की आयत में असल अरबी में क़ुरआन को अल-किताबुल-मुबीन कहा गया है। इसका एक दूसरा मतलब भी है, और वो ये कि इसका अल्लाह की किताब होना बिलकुल खुली और वाज़ेह (स्पष्ट) बात है। इसकी ज़बान, इसका बयान, इसके मज़ामीन (विषय), इसकी पेश की हुई हक़ीक़तें और इसके उतरने के हालात, सब-के-सब साफ़-साफ़ दलील दे रहे हैं कि ये सारे जहानों के ख़ुदा ही की किताब है। इस लिहाज़ से हर जुमला, जो इस किताब में आया है, एक निशानी और एक मोजिज़ा (आयत) है। कोई शख़्स अक़ल और समझ से काम ले तो उसे मुहम्मद (ﷺ) की पैग़म्बरी का यक़ीन करने के लिये किसी और निशानी की ज़रूरत नहीं, खुली किताब की यही आयतें (निशानियाँ) उसे मुत्मइन करने के लिये काफ़ी हैं।

सूरह यासीन में अल्लाह ने फरमाया:


وَ الۡقُرۡاٰنِ الۡحَکِیۡمِ ۙ﴿۲﴾ اِنَّکَ لَمِنَ الۡمُرۡسَلِیۡنَ ۙ﴿۳﴾

"क़सम है हिकमतवाले क़ुरआन की, कि तुम यक़ीनन रसूलों में से हो।"

[कुरआन 36:2-3]


इस आयत में इस तरह बात की शुरुआत करने की वजह ये नहीं है कि अल्लाह की पनाह मुहम्मद (ﷺ) को अपने नबी होने में कोई शक था और आप (ﷺ) को यक़ीन दिलाने के लिये अल्लाह को ये बात कहने की ज़रूरत पड़ी, बल्कि इसकी वजह ये है कि उस वक़्त क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ लोग पूरी शिद्दत के साथ मुहम्मद (ﷺ) को ख़ुदा का पैग़म्बर मानने से इनकार कर रहे थे, इसलिये अल्लाह ने किसी तमहीद के बिना तक़रीर की शुरुआत ही इस जुमले से की कि तुम यक़ीनन रसूलों में से हो। यानी वो लोग सख़्त ग़लती कर रहे हैं जो मुहम्मद ﷺ के पैगम्बर होने का इनकार कर रहे हैं। फिर इस बात पर क़ुरआन की क़सम खाई गई है और क़ुरआन की सिफ़त में लफ़्ज़ हकीम इस्तेमाल किया गया है। इसका मतलब ये है कि तुम्हारे पैगम्बर होने का खुला हुआ सुबूत ये क़ुरआन है जो सरासर हिकमत से भरा हुआ है। ये चीज़ ख़ुद गवाही दे रही है कि जो शख़्स ऐसा हिकमतों से भरा कलाम पेश कर रहा है वह यक़ीनन ख़ुदा का रसूल है। कोई इंसान ऐसा कलाम घड़ ही नहीं सकता और जिन लोगों ने मुहम्मद (ﷺ) की जिंदगी को पढ़ा है वो हरगिज़ इस ग़लतफ़हमी में नहीं पड़ सकते कि ये कलाम आप (ﷺ) ख़ुद घड़-घड़कर ला रहे हैं, या किसी दूसरे इन्सान से सीख-सीखकर सुना रहे हैं। क्योंकि अल्लाह ने मुहम्मद ﷺ के सच्चे पैगम्बर होने की निशानी भी इस कुरआन को बताया है कि एक बिना किसी से पढ़े लिखें इंसान का कुरआन जैसा कलाम पेश करना खुद एक मोजिज़ा (चमत्कार) है;


وَ مَا کُنۡتَ تَتۡلُوۡا مِنۡ قَبۡلِہٖ مِنۡ کِتٰبٍ وَّ لَا تَخُطُّہٗ بِیَمِیۡنِکَ اِذًا لَّارۡتَابَ الۡمُبۡطِلُوۡنَ ﴿۴۸﴾

(ऐ नबी) "तुम इससे पहले कोई किताब नहीं पढ़ते थे और न अपने हाथ से लिखते थे, अगर ऐसा होता तो बातिल-परस्त (असत्यवादी) लोग शक में पड़ सकते थे।"

[कुरआन 29:48]


بَلۡ ہُوَ اٰیٰتٌۢ بَیِّنٰتٌ فِیۡ صُدُوۡرِ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡعِلۡمَ ؕ وَ مَا یَجۡحَدُ بِاٰیٰتِنَاۤ اِلَّا الظّٰلِمُوۡنَ ﴿۴۹﴾

"असल में ये रौशन निशानियाँ हैं उन लोगों के दिलों में जिन्हें इल्म दिया गया है, और हमारी आयतों का इनकार नहीं करते मगर वो जो ज़ालिम हैं।"

[कुरआन 29:49]

 

وَ قَالُوۡا لَوۡ لَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡہِ اٰیٰتٌ مِّنۡ رَّبِّہٖ ؕ قُلۡ اِنَّمَا الۡاٰیٰتُ عِنۡدَ اللّٰہِ ؕ وَ اِنَّمَاۤ اَنَا نَذِیۡرٌ مُّبِیۡنٌ ﴿۵۰﴾

ये लोग कहते हैं कि “क्यों न उतारी गईं इस शख़्स पर निशानियाँ इसके रब की तरफ़ से?” कहो, “निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और मैं सिर्फ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ खोल-खोलकर।”

[कुरआन 29:50]


اَوَ لَمۡ یَکۡفِہِمۡ اَنَّاۤ اَنۡزَلۡنَا عَلَیۡکَ الۡکِتٰبَ یُتۡلٰی عَلَیۡہِمۡ ؕ اِنَّ فِیۡ ذٰلِکَ لَرَحۡمَۃً وَّ ذِکۡرٰی لِقَوۡمٍ یُّؤۡمِنُوۡنَ ﴿۵۱﴾

"और क्या इन लोगों के लिये ये (निशानी) काफ़ी नहीं है कि हमने तुमपर किताब उतारी जो इन्हें पढ़कर सुनाई जाती है? हक़ीक़त में इसमें रहमत है और नसीहत उन लोगों के लिये जो ईमान लाते हैं।"

[कुरआन 29:51]


मुहम्मद ﷺ के उम्मी (अनपढ़) होने के बावजूद आप ﷺ पर क़ुरआन जैसी किताब का उतरना, क्या ये अपनी जगह ख़ुद इतना बड़ा मोजिज़ा नहीं है कि,

  • मुहम्मद ﷺ के पैग़म्बर होने पर यक़ीन लाने के लिये ये काफ़ी हो? 
  • इसके बाद भी किसी और मोजिज़े की ज़रूरत बाक़ी रह जाती है?


दूसरे मोजिज़े तो जिन्होंने देखे उनके लिये वो मोजिज़े थे। मगर ये मोजिज़ा तो हर वक़्त तुम्हारे सामने है। तुम्हें आए दिन पढ़कर सुनाया जाता है। तुम हर वक़्त उसे देख सकते हो।  


कुरआन का एक मोजिज़ा ये है कि इसने पिछली सब आसमानी किताबों की तालीम का निचोड़ बता दिया;


وَ قَالُوۡا لَوۡ لَا یَاۡتِیۡنَا بِاٰیَۃٍ مِّنۡ رَّبِّہٖ ؕ اَوَ لَمۡ تَاۡتِہِمۡ بَیِّنَۃُ مَا فِی الصُّحُفِ الۡاُوۡلٰی ﴿۱۳۳﴾

"वो कहते हैं कि ये शख़्स अपने रब की तरफ़ से कोई निशानी (मोजिज़ा) क्यों नहीं लाता? और क्या इनके पास अगले सहीफ़ों (आसमानी किताबों) की तमाम तालीमात (शिक्षाओं) का साफ़-साफ़ बयान नहीं आ गया?"

[कुरआन 20:133]


यानी क्या ये कोई कम मोजिज़ा है कि एक उम्मी (बिना पढ़े-लिखे) शख़्स ने वो किताब पेश की है जिसमें शुरू से अब तक कि तमाम आसमानी किताबों के मज़ामीन और तालीमात का इत्र निकालकर रख दिया गया है। इन्सान की हिदायत और रहनुमाई के लिये उन किताबों में जो कुछ था, वो सब न सिर्फ़ ये कि इसमें जमा कर दिया गया, बल्कि उसको ऐसा खोलकर वाज़ेह भी कर दिया गया कि रेगिस्तान में रहनेवाले बद्दू (देहाती) तक उसको समझकर फ़ायदा उठा सकते हैं।


कुरआन किन किन हैसियतों से मोजिज़ा है?


قٓ ۟ ۚ وَ الۡقُرۡاٰنِ الۡمَجِیۡدِ ﴿۱﴾ۚ

"क़ाफ़, क़सम है क़ुरआन मजीद की।"

[कुरआन 50:1]


मजीद का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में दो मानो के लिये इस्तेमाल होता है। एक, बुलंद, अज़मतवाला, बुज़ुर्ग और इज़्ज़त व शर्फ़वाला। दूसरे, करीम, बहुत ज़्यादा देने वाला,बहुत फ़ायदा पहुँचानेवाला। क़ुरआन के लिये ये लफ़्ज़ इन दोनों मानो में इस्तेमाल फ़रमाया गया है। 

क़ुरआन इस लिहाज़ से अज़ीम है कि दुनिया की कोई किताब उसके मुक़ाबले में नहीं लाई जा सकती। अपनी ज़बान और अदब के लिहाज़ से भी वो मोजिज़ा है, और अपनी तालीम और हिकमत के लिहाज़ से भी मोजिज़ा। जिस वक़्त वो नाज़िल हुआ था, उस वक़्त भी इंसान उसके जैसा कलाम बना कर लाने में बेबस थे और आज भी बेबस हैं। उसकी कोई बात कभी किसी ज़माने में ग़लत साबित नहीं की जा सकी है, न की जा सकती है। बातिल न सामने से इसका मुक़ाबला कर सकता है, न पीछे से हमलावर हो कर इसे शिकस्त दे सकता है। और इस लिहाज़ से वो करीम है कि इंसान जिस क़द्र ज़्यादा उससे रहनुमाई हासिल करने की कोशिश करे उतना ही ज़्यादा वो उसको रहनुमाई देता है, और जितनी ज़्यादा इसकी पैरवी करे उतनी ही ज़्यादा उसे दुनिया और आख़िरत की भलाइयाँ हासिल होती चली जाती हैं। इसके फ़ायदे और लाभ की कोई हद नहीं है जहाँ जा कर इंसान उससे बे-नियाज़ हो सकता हो, या जहाँ पहुँच कर उसकी नफ़ा बख़्शी ख़त्म हो जाती हो।


کَذٰلِکَ اَرۡسَلۡنٰکَ فِیۡۤ اُمَّۃٍ قَدۡ خَلَتۡ مِنۡ قَبۡلِہَاۤ اُمَمٌ لِّتَتۡلُوَا۠ عَلَیۡہِمُ الَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ وَ ہُمۡ یَکۡفُرُوۡنَ بِالرَّحۡمٰنِ ؕ قُلۡ ہُوَ رَبِّیۡ لَاۤ اِلٰہَ اِلَّا ہُوَ ۚ عَلَیۡہِ تَوَکَّلۡتُ وَ اِلَیۡہِ مَتَابِ ﴿۳۰﴾

"ऐ नबी! इसी शान से हमने तुम्हें रसूल बनाकर भेजा है, एक ऐसी क़ौम में जिससे पहले बहुत-सी क़ौमें गुज़र चुकी हैं, ताकि तुम इन लोगों को वो पैग़ाम सुनाओ जो हमने तुमपर उतारा है, इस हाल में कि ये अपने बहुत-ही मेहरबान ख़ुदा के इनकारी बने हुए हैं। इनसे कहो कि वही मेरा रब है, उसके सिवा कोई माबूद नहीं है, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की तरफ़ मुझे पलटकर जाना है।"

[कुरआन 13:30]


By इस्लामिक थियोलॉजी

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