Qur'an (series 2): Qur'an ke challange ki haqeeqat

Qur'an (series 2): Qur'an ke challange ki haqeeqat


कुरआन के चैलेंज की हक़ीक़त क्या है?


وَ اِنۡ کُنۡتُمۡ فِیۡ رَیۡبٍ مِّمَّا نَزَّلۡنَا عَلٰی عَبۡدِنَا فَاۡتُوۡا بِسُوۡرَۃٍ مِّنۡ مِّثۡلِہٖ ۪ وَ ادۡعُوۡا شُہَدَآءَکُمۡ مِّنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ اِنۡ کُنۡتُمۡ صٰدِقِیۡنَ ﴿۲۳﴾

"और अगर तुम्हें इस मामले में शक है कि ये किताब जो हमने अपने बन्दे पर उतारी है, ये हमारी है या नहीं, तो इस जैसी एक ही सूरा बना लाओ, अपने सारे हिमायतियों को बुला लो, एक अल्लाह को छोड़कर बाक़ी जिसकी चाहो मदद ले लो, अगर तुम सच्चे हो तो ये काम करके दिखाओ।"

[कुरआन 2:23]


فَاِنۡ لَّمۡ تَفۡعَلُوۡا وَ لَنۡ تَفۡعَلُوۡا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِیۡ وَقُوۡدُہَا النَّاسُ وَ الۡحِجَارَۃُ ۚ ۖ اُعِدَّتۡ لِلۡکٰفِرِیۡنَ ﴿۲۴﴾

"लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, और यक़ीनन कभी नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से जिसका ईंधन बनेंगे इन्सान और पत्थर, जो तैयार की गई है हक़ का इनकार करने वालों के लिये।"

[कुरआन 2:24]


अल्लाह ने ये चैलेंज इस्लाम मुखलिफों को तीन बार मक्का मुकर्रमा में और फिर आख़िरी बार मदीना मुनव्वरा में दिया। मगर कोई इसका जवाब देने की न उस वक़्त हिम्मत कर सका न उसके बाद आज तक किसी की ये जुर्रत हुई कि क़ुरान के मुक़ाबले में किसी इंसानी लेख को ले आए।

कुछ लोग इस चैलेंज की हक़ीक़ी नौइय्यत को न समझने की वजह से ये कहते हैं कि एक क़ुरआन ही क्या, किसी शख़्स के स्टाइल में भी दूसरा कोई शख़्स नस्र या नज़म (गद्य या पद्य) लिखने पर क़ादिर नहीं होता। होमर, रूमी, शकेस्पेअर, गोएटे, ग़ालिब, टैगोर, इक़बाल, सब ही इस लिहाज़ से बे मिसाल हैं कि उनकी नक़ल उतार कर उन्ही जैसे कलाम बना लाना किसी के बस में नहीं है। क़ुरआन के चैलेंज का ये जवाब देने वाले दरअसल इस ग़लत फहमी में हैं कि फ़ल यातू बि हदीसिम मिसलिहि का मतलब क़ुरआन के स्टाइल में उस जैसी कोई किताब लिख देना है। हालाँकि उससे मुराद स्टाइल में समानता नहीं है, बल्कि मुराद ये है कि इस पाए और इस शान और इस मर्तबे की कोई किताब ले आओ जो सिर्फ़ अरबी ही में नहीं, दुनिया की किसी ज़बान में उन ख़ुसुसियात के लिहाज़ से क़ुरआन की मद्दे मुक़ाबिल क़रार पा सके जिनकी बिना पर क़ुरआन एक चमत्कार है। मुख़्तसर तौर पर चँद बड़ी बड़ी ख़ुसुसियात निम्न लिखित हैं जिनकी बिना पर क़ुरआन पहले भी चमत्कार था और आज भी चमत्कार है: 

1. जिस ज़बान में क़ुरआन मजीद नाज़िल हुआ है, उसके अदब का वो बुलंद तरीन और मुकम्मल तरीन नमूना है। पूरी किताब में एक लफ्ज़ और एक जुमला भी मैयार से गिरा हुआ नहीं है। जिस मज़मून को भी अदा किया गया है, मुनासिब तरीन अल्फ़ाज़ और मुनासिब तरीन अंदाज़े-बयान में अदा किया गया है। एक ही मज़मून बार बार बयान हुआ है और हर मर्तबा बयान का तरीक़ा नया है, जिससे तकरार की बद नुमाई कहीं पैदा नहीं होती। अव्वल से ले कर आख़िर तक सारी किताब में अलफ़ाज़ ऐसे बिठाए गए हैं कि जैसे नगीने तराश तराश कर जड़े गए हों। कलाम इतना असरदार है कि कोई ज़बान दान आदमीं इसे सुन कर सुर धुनें बगैर नहीं रह सख्ता, हत्ता कि इंकार करने वाले और मुख़ालिफ़ की रूह भी वज्द करने लगती हो। 1400 बरस गुज़रने के बाद भी आज तक ये किताब अपनी ज़बान के अदब का सबसे आला नमूना है, जिसके बराबर तो दर किनार, जिसके क़रीब भी अरबी ज़बान की कोई किताब अपनी अदबी क़ुदरत व क़ीमत में नहीं पहुँचती। यही नहीं, बल्कि ये किताब अरबी ज़बान को इस तरह पकड़ कर बैठ गई है कि 14 सदियां गुज़र जाने पर भी इस ज़बान का मैयारे-फसाहत वही है जो इस किताब ने क़ायम कर दिया था, हालाँकि इतनी मुद्दत में ज़बानें बदल कर कुछ से कुछ हो जाती हैं। दुनिया की कोई ज़बान ऐसी नहीं है जो इतनी तवील मुद्दत तक इमला, निबंध, मुहावरे, ज़बान के क़ायदे और अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल में एक ही शान पर बाक़ी रह गई हो। लेकिन ये सिर्फ़ क़ुरआन की ताक़त है जिसने अरबी ज़बान को अपने मक़ाम से हिलने न दिया। उसका एक लफ्ज़ भी आज तक छूटा नहीं है। उसका हर मुहावरा आज तक अरबी अदब में प्रयोग में है। उसका अदब आज भी अरबी का मैयार अदब है, और ज़बान व क़लम में आज भी अदबी ज़बान वही मानी जाती है जो 1400 बरस पहले क़ुरआन में इस्तेमाल हुई थी। क्या दुनिया की किसी ज़बान में कोई इंसानी तस्नीफ़ इस शान की है? 

2.ये दुनिया की वाहिद किताब है जिसने नौए-इंसानी की सोच, अख़लाक़, तहज़ीब और तर्ज़े ज़िन्दगी पर इतने विस्तार, इतनी गहराई और इतनी हमागीरी के साथ असर डाला है कि दुनिया में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। पहले इसके असर ने एक क़ौम को बदला, और फिर उस क़ौम ने उठ कर दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से को बदल डाला। कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं है जो इस क़दर इन्क़िलाब अंगेज़ साबित हुई हो। ये किताब सिर्फ़ काग़ज़ के पृष्ठों पर लिखी नहीं रह गई है, बल्कि अमल की दुनिया में इसके एक-एक लफ्ज़ ने खयालात को शक्ल दी और एक मुस्तक़िल तहज़ीब की तामीर की है, 1400 बरस से इसके इन असरात का सिलसिला जारी है, और रोज़ बरोज़ इसके ये असरात फैलते चले जा रहे हैं। 

3. जिस मौज़ू से ये किताब बहस करती है वो एक बहुत ही बड़ा विषय है। जिसका दायरा आदि से अंत तक पूरी काएनात पर हावी है। वो कायनात की हक़ीक़त और उनके आगाज़ व अंजाम और उसके नज़म व क़ायदों पर कलाम करती है। 

वो बताती है कि इस कायनात का रचियता और कार्य वाहक और सँभालने वाला कौन है? क्या उसके गुण हैं, क्या उसके इख़्तियारात हैं, और वो सबसे बड़ी हक़ीक़त क्या है जिसपर उसने ये पूरा निज़ामे-आलम क़ायम किया है। वो इस जहाँ में इंसान की हैसियत और उसका मक़ाम ठीक ठीक तय करके बताती है कि ये उसका फ़ितरी मक़ाम और ये उसकी पैदाइशी हैसियत है जिसे बदल देने पर वो क़ादिर नहीं है। 

वो बताती है कि इस मक़ाम और इस हैसियत के लिहाज़ से इंसान के लिये फ़िक्र व अमल का सही रास्ता क्या है जो इस हक़ीक़त के पूरा मुताबिक़ है और ग़लत रास्ते क्या हैं जो हक़ीक़त से टकराते हैं। सही रास्ते के सही होने और ग़लत रास्तों के ग़लत होने पर वो ज़मीन व आसमान की एक-एक चीज़ से, निज़ामे-क़ायनात के एक-एक गोशे से, इंसान के अपने नफ़्स और उसके वजूद से और इंसान की अपनी तारीख़ से बे शुमार दलाइल पेश करती है। 

इसके साथ वो ये भी बताती है कि इंसान ग़लत रास्तों पर कैसे और किस असबाब से पड़ता रहा है, और सही रास्ता, जो हमेशा से एक ही था और एक ही रहेगा, किस ज़रिये से उसको मालूम हो सकता है, और किस तरह हर ज़माने में उसको बताया जाता रहा है। वो सही रास्ते की सिर्फ़ निशान दही करके नहीं रह जाती, बल्कि उस रस्ते पर चलने के लिये एक पूरे निज़ामे-ज़िन्दगी का नक़्शा पेश करती है, जिसमें आस्था, अख़लाक़, नफ़्स को पाक करने, इबादत, रोज़ी रोटी कमाने, सभ्यता व संस्कृति, न्याय, क़ानून, गरज़ इन्सानी ज़िन्दगी के हर पहलु से सम्बंधित एक दूसरे से बहुत जुड़ा हुआ तरीक़ा बयान कर दिया गया है। और फिर यह कि वो पूरी तफ़सील के साथ बताती है कि इस सही रास्ते की पैरवी करने और उन ग़लत रास्तों पर चलने के क्या नतीजे दुनिया में हैं और क्या नतीजे दुनिया का मौजूद निज़ाम ख़त्म होने के बाद एक दूसरे आलम में रुनुमा होने वाली हैं। 

वो इस दुनिया के ख़त्म होने और दूसरा आलम बरपा होने की निहायत तफ्सील से क़ैफ़ियत बयान करती है, इस बदलाव के तमाम मरहले एक-एक करके बताती है, दूसरे आलम का पूरा नक़्शा निगाहों के सामने खीँच देती है, और फिर बड़ी स्पष्टता के साथ बयान करती है कि वहां इंसान कैसे एक दूसरी ज़िन्दगी पाएगा, किस तरह उसकी दुनयावी ज़िन्दगी के आमाल का हिसाब होगा, किन कामों की उससे पूछ ताछ होगी, कैसी नाक़ाबिले-इनकार सूरत में उसका पूरा नामाए-अमाल उसके सामने रख दिया जाएगा, कैसी ज़बरदस्त गवाहियाँ उसके सबूत में पेश की जाएँगी, जज़ा और सज़ा पाने वाले क्यों जज़ा और सज़ा पाएँगे, जज़ा पाने वालों को कैसे इनआमात मिलेंगे और सज़ा पाने वाले किस किस शकल में अपने आमाल के नतीजे भुगतेंगे। 

इस फैले हुए मज़मून पर जो कलाम इस किताब में किया गया है, वो इस हैसियत से नहीं है कि इसका मुसन्निफ़ (लिखनेवाला) कुछ छोटी-मोटी बातें जोड़कर कुछ गुमानों और अन्दाज़ों की एक इमारत तामीर कर रहा है, बल्कि इस हैसियत से है कि इसका मुसन्निफ़ हक़ीक़त का बराहे-रास्त इल्म रखता है, उसकी निगाह शुरू से आख़िर तक सब कुछ देख रही है, तमाम सच्चाइयाँ और हक़ीक़तें उसपर खुली हुई हैं, कायनात पूरी की पूरी उसके सामने एक खुली किताब की तरह है, इन्सानों की पैदाइश से लेकर उसके ख़ात्मे तक ही नहीं बल्कि ख़ात्मे के बाद उसकी दूसरी ज़िन्दगी तक भी वो उसको एक ही नज़र में देख रहा है, और अटकल व अन्दाज़ों की बुनियाद पर नहीं बल्कि इल्म की बुनियाद पर इंसान की रहनुमाई कर रहा है। 

जिन सच्चाइयों और हक़ीक़तों को इल्म की हैसियत से वो पेश करता है, उनमें से कोई एक भी आज तक ग़लत साबित नहीं की जा सकी है। कायनात और इन्सान के बारे में जो नज़रिया वो पेश करता है, वो तमाम ज़ाहिरी तौर पर दिखनेवाली निशानियों और घटनाओं की सटीक वजह बयान करता है जो इल्म के हर शोबे (मैदान) में तहक़ीक़ की बुनियाद बन सकता है। फ़लसफ़ा और साइंस और सामाजिक विज्ञान के तमाम आख़िरी मसलों के जवाबात उसके कलाम में मौजूद हैं और उन सब के बीच ऐसा मन्तक़ी और फ़ितरी रब्त है कि उनपर एक मुकम्मल, आपस में जुड़ा हुआ और जामेअ (व्यापक) निज़ामे-फ़िक्र क़ायम होता है। फिर अमली हैसियत से जो रहनुमाई उसने ज़िन्दगी के हर पहलू के बारे में इंसान को दी है, वो सिर्फ़ इंतिहाई माक़ूल व मुनासिब और इंतिहाई पाकीज़ा ही नहीं है बल्कि 14 सौ साल से पूरी ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में अनगिनत इंसान अमली तौर पर उसकी पैरवी कर रहे हैं और तजुर्बे ने उसको बेहतरीन साबित किया है। क्या इन्सानों की लिखी हुई इस शान की कोई किताब दुनिया में मौजूद है? या कभी मौजूद रही है जिसे इस किताब के मुक़ाबले में लाया जा सकता हो?

4. ये किताब पूरी की पूरी बएक वक़्त लिख कर दुनिया के सामने पेश नहीं कर दी गई थी, बल्कि चंद शुरआती हिदायात के साथ एक तहरीके-इस्लाह का आग़ाज़ किया गया था और उसके बाद 23 साल तक वो तहरीक जिन जिन मरहलों से गुज़रती रही, उनके हालात और उनकी ज़रुरियात के मुताबिक़ इसके हिस्से उस तहरीक के रहनुमा की ज़बान से कभी लम्बे ख़ुत्बों और कभी मुख़्तसर जुमलों की शकल में अदा होते रहे। फिर इस मिशन के पूरा होने पर मुख़्तलिफ़ वक़्तों में सादिर होने वाले वक़्तों उस मुकम्मल किताब की सूरा में मुरत्तब करके दुनिया के सामने रख दिये गए जिसे क़ुरआन के नाम से मौसूम किया गया है। तहरीक के रहनुमा का बयान है कि ये ख़ुत्बे और जुमले उसके पैदा किये हुए नहीं है, बल्कि ख़ुदावन्दे आलम की तरफ़ से उसपर नाज़िल हुए हैं। 

अगर कोई शख़्स उन्हें ख़ुद उस रहनुमा के पैदा किये हुए क़रार देता है तो वो दुनिया की पूरी तारीख़ से कोई मिसाल ऐसी पेश करे कि किसी इंसान ने साल्हा साल तक लगातार एक ज़बरदस्त इज्तिमाई तहरीक की बतौर ख़ुद रहनुमाई करते हुए कभी एक उपदेशक और अख़लाक़ की तालीम देने वाले की हैसियत से, कभी एक मज़लूम जमाअत के सरबराह की हैसियत से, कभी एक हुकूमत के फ़रमारवां की हैसियत से, कभी एक बरसरे जंग फौज के लीडर की हैसियत से, कभी एक फ़ातेह की हैसियत से, कभी एक शरीअत देने वाले और कानूनदाँ की हैसियत से, गरज़ बकसरत मुख़्तलिफ़ हालात और वक़्तों में बहुत सी मुख्तलिफ हैसियतों से जो मुख्तलिफ तक़रीरें की हों या बातें कहीं हो, वो जमा हो कर एक मुकम्मल, जुड़ा हुआ और जामे (व्यापक) निज़ामे-फ़िक्रों-अमल बना दें, उनमें कहीं कोई कमी और विरोध न पाया जाए, उनमें इब्तिदा से इंतिहा तक एक ही मरकज़ी ख़्याल और सिलसिलाए-फ़िक़्र कारफ़रमा नज़र आए, उसने अव्वल रोज़ से अपनी दावत की जो बुनियाद बयान की हो, आख़िरी दिन तक उसी बुनियाद पर वो अक़ाइद व आमाल का एक ऐसा हमागीर निज़ाम बनता चला जाए जिसका हर हिस्सा दूसरे हिस्सों के बिल्कुल मुताबिक़ हो, और इस मजमुए को पढ़ने वाला कोई समझदार आदमी ये महसूस किये बगैर न रहे कि तहरीक का आग़ाज़ करते वक़्त उसके लीडर के सामने आखिरी मरहले तक का पूरा नक़्शा मौजूद था, और ऐसा कभी नहीं हुआ कि बीच के किसी मक़ाम पर उसके ज़हन में कोई ऐसा ख़याल आया हो जो पहले उस पर न खुला था या जिसे बाद में उसको बदलना पड़ा। इस शान का कोई इंसान अगर कभी गुज़रा हो जिसने अपने ज़हन की रचना का ये कमाल दिखाया हो तो उसकी निशानदेही की जाए। 

5. जिस रहनुमा की ज़बान पर ये ख़ुतबे और जुमले जारी हुए थे, वो यकायक किसी गोशे से निकल कर सिर्फ़ इनको सुनाने के लिये नहीं आ जाता था और उन्हें सुनाने के बाद कहीं चला नहीं जाता था। वो इस तहरीक के आग़ाज़ से पहले भी इंसानी समाज में ज़िन्दगी बसर कर चुका था और उसके बाद भी वो ज़िन्दगी की आखरी घड़ी तक हर वक़्त उसी समाज में रहता था। उसकी गुफ़्तुगू और तक़रीरों की ज़बान और तर्ज़े-बयान से लोग बख़ूबी वाक़िफ़ थे। अहादीस में उनका एक बड़ा हिस्सा अब भी महफ़ूज़ है जिसे बाद के अरबीदान लोग पढ़ कर ख़ुद बाआसानी देख सकते हैं कि उस रहनुमा का अपना तर्ज़े-कलाम क्या था। उसके हम ज़बान लोग उस वक़्त भी साफ़ महसूस करते थे और आज भी अरबी ज़बान के जानने वाले ये महसूस करते हैं कि इस किताब की ज़बान और उसका स्टाइल उस रहनुमा की ज़बान उसके स्टाइल से बहुत मुख्तलिफ है, हत्ता कि जहाँ उसके किसी ख़ुत्बे के बीच में इस किताब की कोई इबारत आ जाती है, वहां दोनों की ज़बान का फ़र्क़ बिलकुल नुमाया नज़र आता है। सवाल यह है कि क्या दुनिया में कोई इंसान कभी इस बात पर क़ादिर हुआ है या हो सकता है कि सालों साल तक दो क़तई मुख़्तलिफ़ स्टाइलों में कलाम करने की दिक्कत को निबाहता चला जाए और कभी ये राज़ फाश न हो सके कि ये दो अलग स्टाइल दर असल एक ही शख़्स के हैं? आरज़ी और वक़्ती तौर पर इस क़िस्म के घड़ने में कामियाब हो जाना तो मुमकिन है। लेकिन मुसलसल 23 साल तक ऐसा होना किसी तरह मुमकिन नहीं है कि एक शख़्स जब ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वही के तौर पर कलाम करे तो उसकी ज़बान और स्टाइल कुछ हो और जब ख़ुद अपनी तरफ़ से गुफ़्तुगू या तक़रीर करे तो उसकी ज़बान और उसका स्टाइल बिलकुल ही कुछ और हो। 

6. वो रहनुमा इस तहरीक की क़ियादत के दौरान में मुख़्तलिफ़ हालात से दोचार होता रहा। कभी बरसों वो अपने हम वतनों और अपने क़बीले वालों की मज़ाक, तौहीन और सख़्त ज़ुल्म व सितम का निशाना बना रहा। कभी उसके साथियों पर इस क़दर हिंसा की गई कि वो मुल्क छोड़ कर निकल जाने पर मजबूर हो गए। कभी दुश्मनों ने उसके क़त्ल की साज़िशें कीं। कभी ख़ुद उसे अपने वतन से हिजरत करनी पड़ी। कभी उसको इंतिहाई मुश्किल में और फ़ाक़ाकशी की ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी। कभी उसे पैहम लड़ाइयों से साबिक़ा पेश आया जिनमें शिकस्त और फ़तह, दोनों ही होती रहीं। कभी वो दुश्मनों पर ग़ालिब आया और वही दुश्मन जिन्होंने उसपर ज़ुल्म तोड़े थे, उसके सामने सर झुकाए नज़र आए। कभी उसे वो इक़्तिदार नसीब हुआ जो कम ही किसी को नसीब होता है। इन तमाम हालात में एक इंसान के जज़्बात, ज़ाहिर है कि एक से नहीं रह सकते। उस रहनुमा ने इन मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर ख़ुद अपनी ज़ाती हैसियत में जब कभी कलाम किया, उसमें उन जज़्बात का असर नुमाया नज़र आता है जो ऐसे मौक़ों पर इंसान के दिल में पैदा होते हैं। लेकिन ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वही के तौर पर इन मुख़्तलिफ़ हालात में जो कलाम उसकी ज़बान से सुना गया, वो इंसानी जज़्बात से बिलकुल ख़ाली है। किसी एक मक़ाम पर भी कोई बड़े से बड़ा नक़्क़ाद ऊँगली रख कर ये नहीं बता सकता कि यहाँ इंसानी जज़्बात कारफ़रमा नज़र आते हैं। 

7. जो फैला हुआ और व्यापक इल्म इस किताब में पाया जाता है, वो उस ज़माने के अहले अरब और अहले रूम व यूनान व ईरान तो दर किनार, इस बीसवीं सदी के बड़े अहले इल्म में से भी किसी के पास नहीं है। आज हालात ये हैं कि फलसफा व साइंस और समाजी उलूम की किसी एक शाख के मुताअले में अपनी उम्र खपा देने के बाद आदमी को पता चलता है कि उस शोबए इल्म के आख़िरी मसाइल क्या हैं, और फिर जब वो गहरी निगाह से क़ुरआन को देखता है तो उसे मालूम होता है कि इस किताब में उन मसाइल का एक वाज़ेह जवाब मौजूद है। ये मामला किसी एक इल्म तक महदूद नहीं है, बल्कि उन तमाम उलूम के बाब में सही है जो कायनात और इंसान से कोई ताल्लुक़ रखते हैं। कैसे यक़ीन किया जा सकता है कि 14 सो बरस पहले रेगिस्ताने अरब में एक उम्मी (जो पढ़ा हुआ न हो) को इल्म के हर गोशे पर इतनी विस्तृत नज़र हासिल थी और उसने हर बुनियादी मसले पर ग़ौर व खोज करके उसका एक साफ़ और क़तई जवाब सोच लिया था?


ऐजाज़े क़ुरआन की अगरचे और भी कई वजहें हैं, लेकिन सिर्फ़ इन चंद वजहों ही पर अगर आदमी ग़ौर करे तो उसे मालूम हो जाए कि क़ुरआन का मोजिज़ा होना जितना नुज़ूले क़ुरआन के ज़माने में वाज़ेह था, उससे बदर्जा ज़्यादा आज वाज़ेह है और इंशाअल्लाह क़यामत तक ये वाज़ेह तर होता चला जाएगा।


By इस्लामिक थियोलॉजी

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