हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत।
मुहम्मद ﷺ पर ईमान लाने का तकाज़ा
मुहम्मद ﷺ पर ईमान लाने का मतलब ये नहीं है कि सिर्फ ज़बान से कुछ अल्फाज अदा करके आप ﷺ पर ईमान ले आओ और अपनी जिंदगी में पैरवी जिसकी चाहो करते फिरों बल्कि आप ﷺ पर ईमान लाने का मतलब ये है कि जो तालीम और कानून मुहम्मद ﷺ ने हमको सिखाए है उसके मुताबिक अपनी जिंदगी को ढाल लिया जाए। और पैरवी सिर्फ मुहम्मद ﷺ की जाए। इस बात को कुरआन में जगह जगह अलग अलग अंदाज से बयान किया गया है। लेकिन यहां मैं सिर्फ आपके सामने सूरह निसा की आयत 64 और 65 रखूंगा जिससे साफ हो जाएगा की मुहम्मद ﷺ पर ईमान लाने का तकाज़ा क्या है?
وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ رَّسُوۡلٍ اِلَّا لِیُطَاعَ بِاِذۡنِ اللّٰہِ ؕ وَ لَوۡ اَنَّہُمۡ اِذۡ ظَّلَمُوۡۤا اَنۡفُسَہُمۡ جَآءُوۡکَ فَاسۡتَغۡفَرُوا اللّٰہَ وَ اسۡتَغۡفَرَ لَہُمُ الرَّسُوۡلُ لَوَجَدُوا اللّٰہَ تَوَّابًا رَّحِیۡمًا ﴿۶۴﴾
"[इन्हें बताओ कि] हमने जो रसूल भी भेजा है इसी लिये भेजा है कि अल्लाह की इजाज़त से उसकी फ़रमाँबरदारी की जाए। अगर इन्होंने ये तरीक़ा अपनाया होता कि जब ये अपनी जानों पर ज़ुल्म कर बैठे थे तो तुम्हारे पास आ जाते और अल्लाह से माफ़ी माँगते और रसूल भी इनके लिये माफ़ी की दरख़ास्त करता तो यक़ीनन अल्लाह को बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला पाते।"
[कुरआन 4:64]
इस आयत में बताया गया है कि अल्लाह की तरफ़ से रसूल इसलिये नहीं आता है कि बस उसकी रिसालत (पैग़म्बरी) पर ईमान ले आओ और फिर इताअत जिसकी चाहो करते रहो, बल्कि रसूल के आने का मक़सद ही ये होता है कि ज़िन्दगी का जो क़ानून वो लेकर आया है, तमाम क़ानूनों को छोड़कर सिर्फ़ उसी की पैरवी की जाए और ख़ुदा की तरफ़ से जो अहकाम और हिदायतें वो देता है, तमाम अहकाम और हिदायतों को छोड़कर सिर्फ़ उन्हीं पर अमल किया जाए। अगर किसी ने यही न किया तो फिर उसका सिर्फ़ रसूल को मान लेना कोई मतलब नहीं रखता।
فَلَا وَ رَبِّکَ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ حَتّٰی یُحَکِّمُوۡکَ فِیۡمَا شَجَرَ بَیۡنَہُمۡ ثُمَّ لَا یَجِدُوۡا فِیۡۤ اَنۡفُسِہِمۡ حَرَجًا مِّمَّا قَضَیۡتَ وَ یُسَلِّمُوۡا تَسۡلِیۡمًا ﴿۶۵﴾
"नहीं, ऐ नबी! तुम्हारे रब की क़सम, ये कभी ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के इख़्तिलाफ़ों [ विवादों] में ये तुमको फ़ैसला करनेवाला न मान लें। फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उस पर अपने दिलों में भी कोई तंगी न महसूस करें, बल्कि पूरी तरह मान लें।"
[कुरआन 4:65]
इस आयत का हुक्म सिर्फ़ मुहम्मद (ﷺ) की ज़िन्दगी तक महदूद नहीं है, बल्कि क़ियामत तक के लिये है। जो कुछ अल्लाह की तरफ़ से मुहम्मद (ﷺ) लाए हैं और जिस तरीक़े पर अल्लाह की हिदायत व रहनुमाई के तहत आप (ﷺ) ने अमल किया है वो हमेशा-हमेशा के लिये मुसलमानों के दरमियान फ़ैसलाकुन सनद है। और इस सनद को मानने या न मानने ही पर आदमी के ईमानवाला होने और ईमानवाला न होने का फ़ैसला है।
हदीस में इसी बात को मुहम्मद (ﷺ) ने इस तरह कहा है कि "तुममें से कोई आदमी ईमानवाला नहीं हो सकता जब तक कि उसके दिल की ख़ाहिश उस तरीक़े की पाबन्द न हो जाए जिसे मैं लेकर आया हूँ।" [मिश्कात : 167]
नोट: इमाम बग़वी ने शरहुस्सुन्नह में इसे रिवायत किया है। इमाम नव्वी ने फ़रमाया: ये हदीस सही है। हम ने इसे सही सनद के साथ रिवायत किया है।
By इस्लामिक थियोलॉजी
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