Gumbad e khazra (Masjid e Nabawi) ka itihaas (history)

Gumbad e khazra (Masjid e Nabawi) ka itihaas (history)


गुम्बदे ख़ज़रा का इतिहास


असल शब्द खिज़रा नहीं बल्कि "ख़ज़रा" है, खज़रा अरबी शब्द है जो अख़ज़र का स्त्रीलिंग (female) है, जिसका अर्थ है "हरा रंग"। इस तरह गुम्बदे ख़ज़रा का अर्थ हुआ "हरे रंग का गुम्बद"। गुम्बदे ख़ज़रा को अरबी में अल कुब्बतुल ख़ज़रा (القبة الخضراء), अंग्रेज़ी में ग्रीन डोम (Green Dome) और उर्दू में सब्ज़ गुम्बद भी कहते हैं।

गुम्बदे ख़ज़रा नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ब्रे अनवर (जो मस्जिदे नबवी से मिला हुआ है) के ऊपर स्थित है। यह गुम्बद अपनी प्राचीनता के बावजूद अपनी सुंदरता और अनूठी शैली के निर्माण (Unique style construction) के कारण इस्लामी वास्तुकला (Islamic architecture) का अनोखा शाहकार (masterpiece) है। परंतु यह कार्य नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के उस आदेश के विरुद्ध है।  


अनस बिन मालिक रज़ि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि, 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का गुज़र एक गुम्बद के पास से हुआ जो एक अंसारी सहाबी के दरवाज़े पर बना हुआ था। 
आप ने पूछा, यह क्या है? 
लोगों ने कहा: यह गुम्बद है जो फ़ुलाँ ने बनाया है। 
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: जो माल भी इस तरह (बिला ज़रूरत ख़र्च) हो वह क़ियामत के दिन अपने मालिक के लिये वबाल का ज़रिआ होगा। 
 अंसारी सहाबी को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस फ़रमान का इल्म हुआ तो उन्होंने घर को गिरा कर ज़मीन के बराबर कर दिया। 
एक बार फिर जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहाँ से गुज़रे तो गुम्बद नज़र न आया। 
आप ने उसके बारे में पूछा, तो बताया गया कि अंसारी सहाबी को आप के फ़रमान का इल्म हुआ तो उन्होंने उसे हटा दिया। 
नबी ﷺ ने फ़रमाया: अल्लाह उस पर रहम फ़रमाए। अल्लाह उस पर रहम फ़रमाए।
[सुनन इब्ने माजा 4161/ किताबुज़ ज़ुह्द]

सुनन अबु दाऊद में यह रिवायत ज़रा विस्तार से है कि वह अंसारी सहाबी सलाम के लिए हाज़िर हुए तो आप ने उनकी तरफ़ तवज्जुह न दी फिर उन्होंने नाराज़गी का सबब पता किया और गुम्बद वाले घर को गिरा कर ज़मीन के बराबर कर दिया। [सुनन अबु दाऊद 5237/ किताबुल अदब, आदाब और अख़लाक़ का बयान]


गुम्बद के निर्माण का आदेश अंतिम पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नहीं दिया था, और न इसे किसी ख़लीफ़ा या सहाबा द्वारा बनाया गया। बल्कि इसका निर्माण सबसे पहले ममलूक सुल्तान सैफुद्दीन क़लाऊन ने 1279 ईस्वी (678 हिजरी) में कराया था। मूल ढाँचे में लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। उस समय पीला रंग कराया गया और वह अल क़ुब्बतुस सुफ़रा (पीला गुम्बद) कहलाया।

अगरचे बादशाह ने गुंबद को मस्जिद नबवी का एक हिस्सा समझ कर निर्माण कराया और उसकी नीयत यह थी कि इसके द्वारा मस्जिदे नबवी को सजाया जाए, लेकिन इसके बावजूद जिस समय इस गुम्बद का निर्माण हुआ उस दौर के दूरदर्शी उलेमा ए हक़ ने उसका खुल कर विरोध किया उन्हें डर था कि कहीं आगे चल कर यह फ़ितना की सूरत न इख़्तियार कर ले लेकिन सत्ता उन उलेमा के हाथ में नहीं थी बल्कि बादशाहों की हुकूमत थी इसलिए यह दुदर्शी उलेमा ए हक़ विरोध के इलावा और कर भी क्या सकते थे।

◼ 1481 ईसवी में मस्जिद में आग लगने की वजह से यह गुम्बद जल गया। ममलूक सुल्तान ज़ैनुद्दीन कतबग़ा ने दोबारा निर्माण कराया। इस बार ऐसे हादसात से सुरक्षा के लिए ढांचे में ईंटों का प्रयोग किया गया।

◼ सोलहवीं शताब्दी में उस्मानी ख़लीफ़ा सुलैमान आज़म ने लकड़ी के गुम्बद की हिफ़ाज़त के लिए सीसा का इस्तेमाल किया और उस पर सफ़ेद रंग किया गया। तब यह गुम्बद अल क़ुब्बतुल बैज़ाअ (सफ़ेद गुम्बद) कहलाया।

◼ कुछ समय बाद सफ़ेद रंग को नीले रंग से तब्दील कर दिया गया और यह गुम्बद अल क़ुब्बतुज़ ज़रक़ा (नीला गुम्बद) कहलाया जाने लगा।

◼ 1572 ईस्वी (980 हिजरी) में इसे अति सुंदर बनाया और उसको रंग बिरंगे पत्थरों से सजाया गया अब उसका एक रंग न रहा। मीनकारी के आकर्षक रूप के कारण उसे अल क़ुब्बतुल मुलव्वना (रंग बिरंगा गुंबद) कहा गया।

◼ 1818 ईसवी (1233 हिजरी) में उस्मानी सुल्तान मुहम्मद बिन अब्दुल हमीद ने नए सिरे से उसका निर्माण कराया। इस बार हरा रंग किया गया और अल क़ुब्बतुल ख़ज़रा (सब्ज़ गुम्बद के नाम से मशहूर हुआ। इससे पता चलता है कि गुम्बदे खज़रा की इतिहास केवल दो सौ साल का है।  

और अंत में वही हुआ जिसका डर उलेमा ए हक़ ने बादशाह सैफुद्दीन क़लाऊन के दौर में पहली बार क़ुब्बा के निर्माण के समय था। अब उसे मस्जिद के गुम्बद के बजाय क़ब्र के गुम्बद के तौर पर देखा जा रहा है और बहुत से लोगों ने अपनी आस्था इस से जोड़ रखी है। 

◼ 1925 में जब अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुर्रहमान अस सऊद का मदीना पर कब्ज़ा हो गया तो मदीना के कुछ उलेमा ने गुम्बदे ख़ज़रा को गिराने की पेशकश की तो उसके विरोध में उप महाद्वीपीय (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के उलेमा का एक प्रतिनिधि मंडल गया जिसके अमीर (शैख़ तारिक़ जमील साहब के मुताबिक़) शैखुल हिन्द शब्बीर अहमद उस्मानी थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ अस सऊद ने लोगों की बातें सुनीं और इख़्तेलाफ़ के डर से गुम्बदे ख़ज़रा को गिराने का इरादा छोड़ दिया और आजतक वह उसी हालत में है हालांकि सऊदी सरकार के इस फ़ैसले को दुरुस्त नहीं कहा जा सकता लेकिन हमें आशा है कि भविष्य में ऐसा समय ज़रूर आएगा जब लोगों की इस धारणा को जिसने अक़ीदे की जगह ले ली है को देखते हुए इसे ज़रूर हटा दिया जाएगा। इंशा अल्लाह।


गुम्बदे ख़ज़रा की खिड़की

एक वाक़िआ सुनन दारमी में आया है। 

मदीना के लोग सख़्त क़हत के शिकार हो गए तो आयेशा सिद्दिक़ा रज़ि अल्लाहु अन्हा से यह हालत बयान की गई तो उन्होंने कहा: "जाओ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़बर ऊपर की तरफ़ से थोड़ा सा ऐसे खोल दो कि क़ब्र और आसमान के बीच कोई छत न हो।" कहते हैं कि लोगों ने ऐसा ही किया तो अल्लाह ने ऐसी बारिश की कि हर तरफ़ हरियाली ही हरियाली हो गई, ऊंट इस क़दर तंदुरुस्त हो गए कि चर्बी की वजह से बॉडी पार्ट अलग अलग नज़र आने लगे। इस कारण इस वर्ष को आमुल फ़तक़ कहा जाने लगा। [सुनन दारमी रिवायत नंबर 92/ किताबुल मुक़ददमा, नबी की मौत के बाद भी अल्लाह ने उन्हें इज़्ज़त दी]


(1) यह रिवायत ज़ईफ़ है, इसमें क़ई रावियों पर कलाम किया गया है जैसे मुहम्मद बिन फ़ज़ल अस सदूसी, सईद बिन ज़ैद और अम्र बिन मालिक अन नुकरी वग़ैरह) इमाम अल्बानी रहमतुल्लाह अलैहि ने भी इस रिवायत को ज़ईफ़ करार दिया है।

(2) उम्मुल मोमेनीन आयेशा रज़ि अल्लाहु अन्हा का हुजरा मुकम्मल ढका हुआ नहीं था बल्कि कुछ खुला हुआ भी था इसकी दलील सही बुख़ारी व सही मुस्लिम की यह अहादीस हैं,

"अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अस्र की नमाज़ उस वक़्त पढ़ लेते थे जब धूप अभी उनके हुजरे में मौजूद होती थी।" [सही बुख़ारी हदीस नंबर 522/ मवाक़ीतुस सलाह, सही मुस्लिम 1381]

और यह भी साबित नहीं कि हुजरा ए आयेशा रज़ि अल्लाहु अन्हा को बाद में किसी ने ढकने की कोशिश की हो।

(3) छठे उमवी ख़लीफ़ा वलीद बिन अब्दुल मलिक ने अपने दौर में मस्जिदे नबवी का विस्तार करते हुए हुजरा ए आयेशा को मस्जिद में शामिल कर लिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ब्र के गिर्द ऊंची दीवार खड़ी कर के ढक दी अलबत्ता एक सुराख़ बाक़ी रखा ताकि सफ़ाई के लिए अंदर उतरा जा सके।

(4) दूसरे ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ रज़ि अल्लाहु अन्हु के ज़माने में क़हत (सूखा) पड़ा तो उन्होंने अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब को साथ लिया और यह दुआ की

اللَّهُمَّ إِنَّا كُنَّا نَتَوَسَّلُ إِلَيْكَ بِنَبِيِّنَا فَتَسْقِينَا

"ऐ अल्लाह! पहले हम तेरे पास अपने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का वसीला लाया करते थे तो तू पानी बरसाता था।" 

وَإِنَّا نَتَوَسَّلُ إِلَيْكَ بِعَمِّ نَبِيِّنَا فَاسْقِنَا

"और अब हम अपने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद उनके चचा (अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब) को वसीला बनाते है तू हम पर बारिश बरसा दे।"

[सही बुख़ारी हदीस नंबर 1010/ किताबुल जुमा, सूखा पड़ने पर इमाम से बारिश की दुआ करना]


आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही

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