बुलंद आवाज़ से दुआ करना कैसा है?
"तुम अपने परवर्दिगार को आजिज़ी (विनम्रता) के साथ चुपके-चुपके पुकारा करो। यक़ीनन वह हद से गुज़रने वालों को पसन्द नहीं करता।" [अल आराफ़: 55]
दुआ में आजिज़ी व इंकिसारी:
अल्लाह पाक अपने बन्दों को दुआ का तरीका सिखाता है जो दीन और दुनिया में उनका सबब बन सके। फ़रमाया कि "निहायत ख़ुलूस के साथ मख़फ़ी (छुपे) तकिया करो।" जैसा कि फ़रमाया, "रब को अपने दिल में याद किया करो।"
"और अपने रब का सुबह व शाम ज़िक्र किया करो, अपने दिल में भी, अ़ाजिज़ी और ख़ौफ़ के (जज़्बात के) साथ, और ज़बान से भी, आवाज़ बहुत बुलन्द किये बग़ैर। और उन लोगों में शामिल न हो जाना जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।" [अल आराफ़: 205]
लोग बहुत बुलंद आवाज़ से दुआएँ मांगने लगते थे तो रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया, “ऐ लोगों! अपने नफ़्सों पर रहम करो, तुम किसी बहरे और गायब को नहीं पुकार रहे हो जिससे तुम दुआ कर रहे हो वह क़रीबतर है वह सुन रहा है।” [सहीह बुख़ारी, किताबुल जिहाद, 2992; सहीह मुस्लिम : 2704; मुसनद अहमद : 4/402; अबू दाऊद : 1527; तिर्मिज़ी : 3371; इब्ने माजा : 3824; मुसनद अबू यअला : 7252]
दुआ में तज़ल्लुल और तज़र्रोअ इख्तियार करो और आजिज़ी के साथ मख़फ़ी तौर पर दुआ मांगो, ख़ुशू कल्ब (सुकूने दिल) हासिल रहे। उसकी वहदानियत पर यक़ीने कामिल हो, रियाकारी के तौर पर आवाज़ बुलंद करके दुआ नहीं मांगनी चाहिए।
रियाकारी से बचने के लिए पहले के लोग अगरचे हाफ़िज़ होते थे। लेकिन लोगों को इस बात का इल्म भी नहीं होता था, एक शख़्स बड़ा फ़क़ीह और आलिम होता और लोग उसके इल्म से वाक़िफ़ तक न होते। लोग रात को अपने घरों में लम्बी-लम्बी नमाज़ें पढ़ते और उनके घर में मेहमान होते मगर उन्हें ख़बर तक न होती। लेकिन आजकल हम ऐसे लोगों को पाते हैं जो अगरचे इबादत को छुपाकर करने की कुदरत रखते हैं लेकिन हमेशा ऐलानिया करते देखे गए हैं।
पहले के मुसलमान जब दुआ मांगते देखे जाते थे तो सिवाए खुसर फसर के उनके मुँह से आवाज़ सुनाई नहीं देती थी, क्योंकि अल्लाह तआला का हुक्म है कि तज़रोंअ के साथ और मख़फ़ी तौर पर दुआ मांगो। अल्लाह तआला अपने एक बरगुजीदा बन्दे का ज़िक्र फ़र्माता है कि वह जब अपने रब को पुकारता था तो बहुत ही पस्त आवाज़ में पुकारता था।
आवाज़ को बुलंद करना मकरूह है:
(इन्नहू ला युहिब्बुल मुअतदीन) की तफ्सीर में इब्ने अब्बास (रज़ि.) फ़र्माते हैं कि इससे मुराद यह है कि, "अपनी दुआ में हद से तजावुज़ करने को अल्लाह तआला पसंद नहीं करता।" [तफसीर तबरी : 12/486]
अबू मिज्लज़ कहते हैं कि, "मनाज़िले अम्बिया हासिल होने की दुआ मांगा करो।" [तफसीर तबरी : 12/486]
अब्दुल्लाह बिन मुग़फ़्फ़ल (रज़ि) ने अपने बेटे को देखा कि यूँ दुआ कर रहा है कि "ऐ अल्लाह! मैं जन्नत की सीधी तरफ़ का सफ़ेद महल माँगता हूँ।" तो कहा कि "ऐ बेटा अल्लाह तआला से सिर्फ़ जन्नत का सवाल कर और सिर्फ़ दोज़ख़ से पनाह मांग।" [अबूदाऊद, किताबुत् तहारत, बाब अल्इस्राफ़ फ़िल वुज़ू : 96; व सनदुहू सहीहून; इब्ने माजा : 3864;]*
*[अहमद : 4/187; हाकिम : 1/162; इब्ने हिब्बान : 6764]
अब्दुल कादर मंसूरी
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