तौहीद: अल्लाह की वहदानियत
तौहीद एक अल्लाह की इबादत को ही कहते हैं। कलिमा "ला-इलाह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह (ﷺ)" भी इसी तौहीद का ऐलान है। जिसका मतलब है, "नहीं है कोई इबादत के लायक सिवा अल्लाह के और मुहम्मद (ﷺ) अल्लाह के रसूल हैं"।
अगर हम में से कोई मुस्लमान दावत ए इस्लाम का काम कर रहा है तो वह तब तक लोगों तक हक़ बात नहीं पहुंचा सकता जब तक तौहीद को लोगों में आम न कर दे। यानी लोगों को तौहीद का मतलब बताए, पहली चीज़ जिस की तरफ़ लोगों को दावत देनी चाहिए कलमा ए शहादत होना चाहिए। यानी ये लोग अल्लाह ही को इलाह वाहिद (एक) माने और शिर्क का मतलब बता कर उन्हें इस कबीरा गुनाह से बचाने की ताकी़द करें।
और इसी तरह हम में से हर मुस्लामन का ये फर्ज़ है की पहले अपना अकीदा दुरुस्त करे और तौहीद को समझे तभी हमारा इमान मुकम्मल हो सकता है अगर हम में से कोई मुस्लमान सिर्फ़ पैदाइशी मुस्लिम होने की बिना पर ख़ुद को मुसलमां होने का दावा करता है और उसे तौहीद का मुक्कमल इल्म न हो तो वो मुस्लमान हो ही नहीं सकता यानी उसका दावा झूठा है।
अल्लाह जो पूरी कायनात का रब है वही सच्चा माबूद है जिसने हर चीज़, हर मखलूक को पैदा किया, वही अकेला रब है जो अपनी तमाम मख़लूक को रिज्क देता है तमाम जहां का अकेला मालिक है वो तमाम कायनात का निज़ाम चला रहा है वही इबादत के लायक़ है।
आइए तौहीद क्या है कुरान और अहादिस की रौशनी में समझते हैं:
सूरह इख़्लास में अल्लाह तआला फरमाते हैं-
“(ऐ रसूल कह दीजिए) वह अल्लाह एक है।अल्लाह बेनियाज़ है। न उसने (किसी को) जना न उसको (किसी ने) जना। और उसका कोई हमसर नहीं।" [अल-क़ुरआन सुरह इख़्लास]
तौहीद का माना
तौहीद लफ्ज़ वहद से बना है जिसका मतलब अकेला और बेमिसाल होना है। अल्लाह को उसकी जात व सिफ़ात में अकेला व बेमिसाल मान लेना और ये मानना की उसकी जात व सिफ़ात में कोई शरीक नही, तौहीद कहलाती है।
अल्लाह ही रब है यानी अल्लाह ही खालिक (बनाने वाला) है: अल्लाह ने ही तमाम कायनात बनाई है और वही दुनियां जहान का मालिक है।
अल्लाह ही मुदब्बिर है: यानी हर निज़ाम को चलाने वाला फैसले करने वाला अल्लाह रब्बुल इज़्जत ही है जो दुनियां को चलाने वाला रिज्क देने वाला जिन्दगी और मौत देने वाला है।
तौहीद की क़िस्मे
तौहीद तीन तरह की होती है-
- 1. तौहीद ए रबूबियत
- 2. तौहीद ए ऊलुहियत
- 3. तौहीद ए असमा व सिफ़ात
1.तौहीद ए रबूबियत:
तौहीद ए रबूबियत ये है की अल्लाह तआला को उसकी ज़ात मे अकेला, बेमिसाल और लाशरीक माना जाये। न उसकी बीवी हैं न औलाद, न मां न बाप, वह किसी से नही पैदा न ही कोई उसकी ज़ात का हिस्सा हैं।
इसी को अल्लाह तआला ने सूरह इखलास में साफ़ साफ़ बयान किया है।
अल्लाह तआला को उसके कामों जैसे कि इस दुनिया को बनाने, मालिक होने, दुनिया को चलाने, रोज़ी देने, जिंदगी देने, मौत देने, और बारिश बरसाने में अकेला मानने को तौहीद ए रबूवियत कहते हैं।
अल्लाह तआला फरमाता है-
“वह अल्लाह ही हैं जिसने ज़मीन और आसमान को और उन सारी चीज़ो को जो उनके दरम्यान हैं छ: दिनो मे पैदा किया और उसके बाद अर्श पर कायम हुआ| उसके सिवा न तुम्हारा कोई हामी व मददगार हैं और न कोई उसके आगे सिफ़ारिश करने वाला, फ़िर क्या तुम होश मे न आओगे। [सूरह 32 सजदा आयत 4]
खुलासा: वह अल्लाह ही है जिसकी मिल्कियत में सारी चीज़ें हैं, और उसी के हाथ में हर एक भलाई है, हर चीज़ पे उसकी कुदरत है और अच्छी और बुरी तक़्दीर अल्लाह ही की तरफ से है। सिर्फ अल्लाह तआला ही हर एक चीज़ का रब (पालनहार), मालिक, पैदा करने वाला और रोज़ी देने वाला है, और यह कि वही ज़िन्दा करने वाला, मारने वाला, नफा-नुक़सान पहुँचाने वाला और एक अकेला वही दुआ क़बूल करने वाला है।
आइए इस हवाले से हदीस देखते हैं,
हज़रत अबू हुरैरा रज़ि० से रिवायत हैं कि नबी पाक ﷺ ने फ़रमाया:
“जब रात का तिहाई हिस्सा बाकी रह जाता हैं तो हमारा बुज़ुर्ग व बरतर परवरदिगार आसमाने दुनिया पर नाज़िल होता हैं और फ़रमाता हैं – कौन हैं जो मुझसे दुआ करे और मैं उसकी दुआ कबूल करुं? कौन हैं जो मुझसे अपनी हाजत मांगे और मैं उसे अता करूं? कौन हैं जो मुझसे बख्शिश चाहे और मैं उसे बख्श दूं?" [सहीह बुख़ारी 6321]
क्या मक्का के मुशरिक तौहीद ए रबूबियत को मानते थे?
मक्का के मुशरिक भी इस तौहीद ए रबूवियत को मानते थे।
तौहीद की इस क़िस्म का उन मुशरिको ने भी मना नहीं किया जिन के बीच रसूल ﷺ भेजे गये थे, बल्कि वो भी मानते थे की इस कायनात का मालिक अल्लाह है।
अल्लाह तआला का फरमान है:
"अगर आप उन से पूछें कि आसमानो और ज़मीनो को पैदा किस ने किया? तो उनका यही जवाब होगा कि उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी अल्लाह ही ने पैदा किया है।” [सूरह ज़ुख़रूफ (43) आयत 9]
मुशरिक इस बात को मानते थे कि अल्लाह तआला ही सभी चीजों का चालाने वाला है, और उसी के हाथ में जमीन और आसमान की बादशाहत है। लेकिन वे ऐसी चीज़ों में पड़े हुये थे जो उस (तौहीद ए रबूबियत) में खराबी पैदा करती थी। उन्ही खराबियों में से उनका बारिश की निस्बत सितारों की ओर करना, और काहिनों और जादूगरों के बारे में यह अकीदा रखना था कि वे ग़ैब की बातों को जानते है, इनके अलावा तौहीद ए रबूबियत में शिर्क की दूसरी क़िस्में भी थीं।
नोट: और हम देखते हैं की आज भी कुछ लोगों का अकीदा मक्का के मुशरिकों जैसा ही है लोग मजा़रों, दरगाहों, पीरों और बुजुर्गों में उलझे हुए हैं, नमाज़ कजा कर के कब्र परस्ती को ही इस्लाम समझ लिया है।
याद रहे पेड़ पौधे, जानवर, पीर-बुजुर्ग या सूरज - चांद, सितारे सब अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के बनाए हुए मख़लूक हैं ये किसी भी हाल में हमारी हाजत पूरी नहीं कर सकते। सिर्फ़ अल्लाह ही माबूद ए बरहक है और वही इबादत के लायक़ है।
अल्लाह तआला की तौहीद ए रबूवियत का इक़रार कर लेना मुसलमान होने के लिए काफी नहीं है, बल्कि उस के साथ ही तौहीद की दूसरी किस्म का भी इक़रार करना जरुरी है, और वह तौहीद ए ऊलूहियत (तौहिद ए इबादत) मतलब अल्लाह तआला को उसकी इबादत में अकेला मानना है। और इसी तौहीद ए ऊलूहियत में मक्का के मुशरिक अल्लाह के साथ दूसरे झूठे माबूदों को शरीक करते थे।
2. तौहीद ए ऊलूहियत (तौहीद ए इबादत):
तौहीद ए ऊलूहियत ये है कि हर क़िस्म की इबादत सिर्फ़ अल्लाह तआला के लिये ही की जाये और किसी दूसरे को उसमे शरीक न किया जाये।
इबादत: अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फरमाता है:
"सूरज और चांद को सजदा न करो बल्कि उसको सजदा करो जिसने इन्हे पैदा किया हैं| अगर तुम वाकई अल्लाह की इबादत करने वाले हो।" [सूरह हा-मीम-सजदा आयत 37]
कुरान में इबादत कई मानों में इस्तेमाल हुआ है लेकिन बुनियादी मतलब अल्लाह के सामने झुक जाना और खुद को अल्लाह के हुक्मों के मुताबिक रखना है। नमाज़, नमाज़ से जुड़ी और नमाज़ की तरह इबादते जैसे कयाम, रूकू, सजदा, नज़र, नियाज़, सदका, खैरात, कुर्बानी, तवाफ़, दुआ, पुकार, फ़रियाद, मदद चाहना, खौफ़, उम्मीद ये सब के सब इबादत में शामिल है।
इबादत के माने किसी की इताअत और ताबेदारी भी हैं जैसा के नीचे कुरान की आयत से साबित हैं-
“ऐ आदम की औलादो! क्या मैने तुमको हिदायत न की थी के शैतान की इताअत न करना वह तुम्हारा खुला दुश्मन हैं।" [सुरह यासीन आयत 60]
नोट: ध्यान रहे अल्लाह के अलावा किसी और के हुक्म को मानना जैसे अपनी नफ्स की ख्वाहिशात का मसला हो या किसी और का, मज़हबी पेशवा हो या राजनैतिक नेताओं की पैरवी, शैतान हो या कोई इन्सान अगर इन तमाम लोगो का हुक्म अल्लाह के हुक्म के मुख्तलिफ़ हैं तो ये अल्लाह की इबादत मे शिर्क होगा।
"शिर्क" को हम अगले पार्ट में जानेंगे इन शा अल्लाह
इबादत क्यों ज़रूरी है?
अल्लाह तआला ने ये दुनियां एक मकसद के लिए बनाया है और वो मक़सद है एक अल्लाह की इबादत। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की इबादत और बंदगी ही वह चीज़ है जिस के लिए अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने हमे पैदा किया है।
अल्लाह तआला का फरमान है:
"और मैने जिनों और इंसानों को इसी लिए पैदा किया कि वह मेरी इबादत करें।" [सूरह ज़ारियात आयत 56]
और इसीलिए ही अल्लाह तआला अपने रसूलों को भेजता है ताकि बन्दों को सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की इबादत की तरफ बुलाया जाये और ये समझाया जाये की अल्लाह की इबादत कैसे की जाए?
अल्लाह तआला फरमाता है:
"और हमने तो हर उम्मत में एक (न एक) रसूल भेजा (इस पैगाम के साथ) अल्लाह की इबादत करो और तागुतो (झूठे माबुदो) से बचे रहो।" [सुरह 16 नहल आयत 36]
अल्लाह तआला फिर फरमाता है:
“(ऐ रसूल) तुमसे पहले हमने कोई रसूल नही भेजा मगर हमने वही भेजी उसकी तरफ की मेरे सिवा कोई माबूद नही, पस मेरी इबादत करो।" [सूरह अम्बिया आयत 25]
इसलिए हम सब इंसानों को चाहिए कि अल्लाह की इबादत उसी तरीके से करे जिस तरीके से हमारे आका मुहम्मद ﷺ किया करते थे या जिन तरीकों को उन्होंने बताया क्योकि अल्लाह को ही बेहतर पता है कि उसकी इबादत कैसे की जानी चाहिए। कोई भी इबादत अगर नबी ﷺ के तरीके पे नही है तो वो क़ुबूल नही की जाएगी, मसलन वुजू बनाने का तरीका हमको आखरी नबी ﷺ ने बताया लेकिन कोई अगर जानबुझकर पहले मुह धोये, फिर पैर धोये और फिर बाकी जिस्म के अजा़ को धोये तो उसकी वुजू न होगी क्योंकि उसने वो वुजू नबी ﷺ के तरीके पे न की। उसी तरह कोई मगरिब में तीन रकत की जगह चार रकत फ़र्ज नमाज पढ़े तो ये कुबूल न होगी, जबकि वों ज्यादा पढ़ रहा है क्योकि नबी ﷺ के तरीके पे नही है।
इबादत में दुआ की एहमियत:
इसी तरह दुआ भी इबादत है। प्यारे नबी ﷺ ने फरमाया:
“दुआ इबादत है”, फिर नबी ﷺ ने ये आयत पढ़ी और तुम्हारा परवरदिगार इरशाद फ़रमाता है-
"तुम मुझसे दुआएं माँगों मैं तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूँगा, बेशक जो लोग हमारी इबादत से तकब्बुर करते (अकड़ते) हैं वह अनक़रीब ही ज़लील व ख्वार हो कर यक़ीनन जहन्नुम मे दाखिल होंगे।" (सुरह मोमिन आयत 60) [सुन्न तिर्मिज़ी 3372]
आइए कुरान की इन आयतों पर गौर करें-
अल्लाह तआला फरमाता है:
"(ऐ रसूल) जब मेरे बन्दे आप से मेरे मुताल्लिक पूछे तो (कह दीजिये कि) मै उन के पास ही, क़ुबूल करता हूँ पुकारने वाले की दुआ जब वह मुझसे मांगे, पस उन्हें चाहिए कि मेरा भी कहना माने और मुझ पर ईमान लाएँ ताकि वह हिदायत पाएं।" [सूरह बक़रा आयत 186]
"और अल्लाह के सिवा उसे न पुकार जो न तुझे नफा दे सके, न कोई नुकसान पहुंचा सके, फिर अगर तुमने (कहीं ऐसा) किया तो उस वक्त तुम भी ज़ालिमों में (शुमार) होगें। और (याद रखो कि) अगर अल्लाह की तरफ से तुम्हें कोई नुकसान पहुंचे तो फिर उसके सिवा कोई उसका दफा करने वाला नहीं होगा और अगर वह तुम्हारे साथ भलाई का इरादा करे तो फिर उसके फज़ल व करम का लपेटने वाला भी कोई नहीं ।वह अपने बन्दों में से जिसको चाहे फायदा पहुँचाएँ और वह बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है।" [सूरह यूनुस आयत 106/107]
“वही रात को (बढ़ा के) दिन में दाख़िल करता है (तो रात बढ़ जाती है) और वही दिन को (बढ़ा के) रात में दाख़िल करता है (तो दिन बढ़ जाता है और) उसी ने सूरज और चाँद को अपना मुतीइ बना रखा है कि हर एक अपने (अपने) मुअय्यन (तय) वक्त पर चला करता है वही अल्लाह तुम्हारा परवरदिगार है उसी की बादशाहत है और उसे छोड़कर जिन माबूदों को तुम पुकारते हो वह खजूरो की गुठली की झिल्ली के बराबर भी तो इख़तेयार नहीं रखते।
अगर तुम उनको पुकारो तो वह तुम्हारी पुकार को सुनते नहीं अगर (बिफ़रज़े मुहाल) सुने भी तो तुम्हारी दुआएँ नहीं कुबूल कर सकते और क़यामत के दिन तुम्हारे शिर्क से इन्कार कर बैठेंगे।" [सूरह फ़ातिर आयत 13-14]
इसलिए अल्लाह के सिवा किसी और से दुआ और फरियाद करना बहुत बड़ा गुनाह शिर्क है क्योकि इबादत तो सिर्फ अल्लाह ही की होनी चाहिए।
3. तौहीद ए असमा व सिफ़ात:
तौहीद ए असमां व सिफ़ात से मुराद यह है कि अल्लाह के उन सब असमां और सिफ़ात का इक़रार किया जाए जिन से अल्लाह ने अपने आप को मौसूफ किया या मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ ने अहादीस में उनका ज़िक्र किया। और अल्लाह के असमां व सिफ़ात में किसी को शरीक ना किया जाए।
जैसे क़ुरआन में अल्लाह फरमाता है:
"ऐ इब्लीस तुझे उसे सजदा करने से किस चीज़ ने रोका जिसे मैंने अपने हाथों से पैदा किया।" [सूरह साद आयत 75]
"वो रहमान (कायनात के) अर्श (राजसिंहासन) पर जलवाफ़रमा (विराजमान) है।" [सूरह ताहा आयत 5]
"हमने उन रसूलों पर भी वही (revelation) भेजी जिनकी चर्चा हम इससे पहले तुमसे कर चुके हैं और उन रसूलों पर भी जिनकी चर्चा तुमसे नहीं की। हमने मूसा से इस तरह बातचीत की जिस तरह बातचीत की जाती है।" [सूरह निसा आयत 164]
"कायनात की कोई चीज़ उसके जैसी नहीं, वो सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।" [सूरह शूरा आयत 11]
अल्लाह के असमा व सिफ़ात को हक़ीक़त मान कर बगैर किसी बहस के ईमान लाना तौहीद असमां व सिफ़ात है।
कलमा ए शहादत की गवाही देना:
अरकान ए इस्लाम का पहला स्तून है कि हम कलमा ए की गवाही दे। यानी ये कि हर मुसलमां का ये फर्ज़ है कि सिर्फ़ अल्लाह ही को इलाह वाहिद माने।
नबी करीम ﷺ ने जब मुआज़ (रज़ि०) को यमन (का हाकिम बना कर) भेजा तो फ़रमाया कि तुम उन्हें इस कलिमे की शहादत की दावत देना कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और ये कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ। अगर वो लोग ये बात मान लें तो फिर उन्हें बताना कि अल्लाह तआला ने उन पर रोज़ाना पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ की हैं। अगर वो लोग ये बात भी मान लें तो फिर उन्हें बताना कि अल्लाह तआला ने उन के माल पर कुछ सदक़ा फ़र्ज़ किया है जो उन के मालदार लोगों से ले कर उन्हें के मोहताजों मैं लौटा दिया जाएगा। [सहीह बुखारी 1395]
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