सफर के महीने की हकीकत
अल्लाह के नज़दीक किताब इलाही में महीनों की तादाद बारह है। उनमें से चार महीने हुरमत वाले हैं: ज़िल क़अदा, ज़िल-हिज्जा, मुहर्रम और रजब। इस्लाम का पहला महीना मुहर्रम है। लगातार तीन हुरमत वाले महीनो (ज़िल-क़अदा, ज़िल-हिज्जा और मुहर्रम) के बाद इस्लाम का दूसरा महीना सफ़र आता है।
सफ़र का महीना इस्लामिक कैलेंडर में ख़ास महीनों में से एक है। लफ्ज़ सफ़र "शिफर" से आया है। अरबी ज़ुबान में इसके दो माना हैं: ख़ाली और सीटी की आवाज़। दोनों माना अक्सर इस्लामी महीने सफ़र के नाम से मुताल्लिक़ हैं। उलेमा के नज़दीक ये ज़माना जहालत का वो दौर था जब लोग अपने घरों को खाली कर के खाना इकट्ठा करने के लिए बाहर निकलते थे और सीटी इसलिए बजाते थे क्योंकि इस महीने में मौसम तेज़ हवा वाला होता था।
दौर ए जहालत में मुशरिकीन ए मक्का और अहले अरब अक्सर लूट मार करके अपनी रोज़ी रोटी या गुज़ारा किया करते थे। तीन हुरमत वाले महीने एक साथ आ जाते थे और इन तीनों महीनों में लूट-मार और जंग बंद कर देते थें पर जैसे ही ये तीन महीने गुज़रते फिर से लूट-मार और जंग शुरू हो जाती जिसकी वजह से लोग घरों को खाली कर देते थें या तो मर्द लड़ने चले जाते थे, या डाकुओं के डर से अपने खानदान वालों को लेकर पहाड़ों पर चले जाते या फिर मर जाते थे जिसकी वजह से घर खाली हो जाता था।
इब्न कसीर कहते हैं, "अल्लाह ने तीन महीनो को हुरमत वाला इसलिए रखा और ज़िल-हिज्जा को बीच में रखा ताकि लोग ज़िल-क़अदा में हज के सफर के लिए निकले, ज़िल-हिज्जा में आराम से हज करें और मुहर्रम में अपने घरों को पहुँच जाएं। और रजब को बीच में रखा ताकि रजब के महीने में लोग उमराह कर लें।" [तफसीर इब्ने कसीर तहत सुरह तोबा 36-37 )
सफर माह में होने वाले वाक़्यात:
इस महीने की अहमियत का अंदाज़ा रसूलुल्लाह (ﷺ) से मुताल्लिक़ कुछ वाक़्यात से लगाया जा सकता है जो रसूलुल्लाह (ﷺ) के ज़माने में हुए। जिनमें से कुछ ये हैं:
1. सफर माह की 27 तारीख को रसूलुल्लाह (ﷺ) ने मक्का से मदीना हिजरत की।
2. वफ़ात से पहले इसी महीने के आखिर में आप (ﷺ) बीमार पड़े।
3. इसी महीने में आप (ﷺ) की बेटी फातिमा (رَضِيَ ٱللَّٰهُ عَنْهَا) का निकाह हुआ।
4. इसी महीने में आप (ﷺ) के नवासे और हज़रत अली (رَضِيَ ٱللَّٰهُ عَنْهُ) के बड़े बेटे हज़रत हसन (رَضِيَ ٱللَّٰهُ عَنْهُ) की शहादत का वाक्या पेश आया।
सफ़र के ताल्लुक़ से बद-शगुनियाँ:
सफ़र के ताल्लुक़ से बहुत सारी बदफालियाँ बदशगुनियाँ ली जाती है तो आइये जानते हैं इसकी हकीकत क्या है-
1. लोगों का मौज़ू रिवायतों का गढना:
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "जो शख्स मुझे सफ़र के गुजरने की खुशखबरी दे मै उसे जन्नत की बशारत देता हूँ।" [अल-मौज़ुअत इब्न अल-जौज़ी 3/73-74]
ये रिवायत मौज़ू है जिसकी बुनियाद पर इस माह को मनहूस कहा जाता है जबकि इसकी कोई हकीकत नहीं बल्कि इस माह में कई वाक़्यात हुए जिनका ताल्लुक़ रसूलुल्लाह (ﷺ) से है।
2. इस माह में आसमान से बीमारियां और बलाएं उतारी जाती हैं।
3. इस माह में अच्छे कामो को न करना: जैसे निकाह, कोई खैर का काम वगैरह।
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया, "बद-शगुनी शिर्क है, बद-शगुनी शिर्क है। तीन बार फ़रमाया और हम में से हर एक को कोई न कोई वहम हो ही जाता है, मगर अल्लाह उसे तवक्कुल की बरकत से ख़त्म कर देता है।" [अबु दाऊद 3910; तिर्मिज़ी 1614; इब्न माजा 3538]
4. सफर के आखिरी बुध को मनहूस मानना क्यूंकि इस दिन रसूलुल्लाह (ﷺ) बीमार पड़े थे। कुछ मुसलमान ये भी कहते है के इस नहूसत को हटाने के लिए खुशियां मनाई जाये और इसके लिए पटाखे फोड़ना ताकि बलाएं दूर हो जाएं। इस दिन घूमते हैं ताकें नहूसत हट जाये और पूरे साल घूमते फिरते रहे। इस दिन कारोबार बंद कर देते हैं ताकि नहूसत हटे।
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "कोई मर्ज़ किसी दूसरे को ख़ुद-बख़ुद नहीं चिमटता, न बद फ़ाली की कोई हक़ीक़त, न खोपड़ी से उल्लू निकलने की, न सितारे के ग़ायब होने और निकलने से बारिश बरसना और न सफ़र की नहूसत कोई चीज़ है। ये सब फ़ुज़ूल और बेकार ख़यालात हैं अलबत्ता कोढ़ी शख़्स से ऐसे भागता रहे जैसे कि शेर से भागता है।" [बुख़ारी 5707; मुस्लिम 2220]
इसके अलावा भी इस माह से जुडी कई गुमराहियाँ है।
हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से रिवायत की, उन्होंने फ़रमाया: (जाहिलियत में) लोगों का ख़याल था कि हज के महीनों में उमरा करना, ज़मीन में सबसे बुरा काम है। और वो लोग मुहर्रम के महीने को सफ़र बना लिया करते थे।
और कहा करते थे: जब (ऊँटों का) पीठ का ज़ख़्म भर जाए, (मुसाफ़िरों का) निशान (क़दम) मिट जाए और सफ़र (असल में मुहर्रम) गुज़र जाए तो उमरा करने वाले के लिये उमरा करना जायज़ है।
(हालाँकि) नबी करीम (ﷺ) अपने सहाबा (رضي الله عنهم) के साथ चार ज़िल-हिज्जा की सुबह को हज का तल्बिया पुकारते हुए मक्का पहुँचे, और उन [सहाबा (رضي الله عنهم)] को हुक्म दिया कि अपने हज (की नीयत) को उमरे में बदल दें, ये बात उन [सहाबा (रज़ि०)] पर बड़ी गिराँ थी।
सबने एक ज़बान होकर कहा: ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ)! ये कैसी हिल्लत (एहराम का ख़ात्मा) होगी?
आप (ﷺ) ने फ़रमाया: एहराम का मुकम्मल ख़ात्मा।
[मुस्लिम 1240]
Posted By Islamic Theology
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