हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत
अगर कोई भी शख्स हजरत मुहम्मद ﷺ की जिंदगी को पढ़ें और उसपर खुले दिल और दिमाग से गौर ओ फिक्र करें तो वह खुद ही इस बात की गवाही देगा कि हजरत मुहम्मद ﷺ अल्लाह के सच्चे पैगम्बर है। अब आप के दिमाग में एक सवाल आ रहा होगा कि आखिर हजरत मुहम्मद ﷺ की जिंदगी में ऐसा क्या है? जिसे पढ़कर अकल रखने वाला शख्स उन्हे अल्लाह का सच्चा पैगम्बर मान लेगा। आइए आपके इस सवाल का जवाब खुद हजरत मुहम्मद ﷺ की जिंदगी में ढूंढते है।
पैगंबरी का ऐलान करने से पहले हजरत मुहम्मद ﷺ की चालीस साल की जिंदगी किसी से छुपी हुई नहीं थी बल्कि हजरत मुहम्मद ﷺ मक्का के लोगों के सामने ही बचपन से जवान हुए। और इन चालीस साल में हजरत मुहम्मद ﷺ सबसे बेहतरीन अख़लाक़ के मालिक थे। आप ﷺ रिश्तेदारों के साथ सिला रहमी करने वाले थे, बे-कसों का बोझ अपने सिर पर रख लेते थे, मुफ़लिसों के लिये आप कमाते थे, मेहमान नवाज़ी मैं आप बे-मिसाल थे और मुश्किल वक़्त मैं आप हक़ का साथ देते थे और इसके साथ ही मक्का का हर शख्स हजरत मुहम्मद ﷺ के सच्चे और अमानत दार होने की गवाही भी देता था।
हजरत मुहम्मद ﷺ पर जब अल्लाह की तरफ से वह्य (प्रकाशना) आना शुरू हुआ तो आप ﷺ ने अल्लाह के पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाना शुरू किया और अल्लाह की तरफ से जब ये आयत नाज़िल हुई। (وأنذر عشيرتك الأقربين) "आप अपने क़रीबी रिश्तेदारों को डराइये और अपने गरोह के उन लोगों को डराइये जो मुख़लिस हैं।''
तो हजरत मुहम्मद (ﷺ) सफ़ा पहाड़ी पर चढ़ गए और पुकारा: "या सबाहाहु!"
क़ुरैश ने कहा, ये कौन है?
फिर वहाँ सब आ कर जमा हो गए।
हजरत मुहम्मद (ﷺ) ने उन से फ़रमाया कि तुम्हारा क्या ख़याल है अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि एक लशकर इस पहाड़ के पीछे से आने वाला है तो क्या तुम मुझको सच्चा नहीं समझोगे?
उन्होंने कहा कि हमें झूट का आप से तजरिबा कभी भी नहीं है।
"हजरत मुहम्मद (ﷺ) ने फ़रमाया कि फिर मैं तुम्हें इस सख़्त अज़ाब से डराता हूँ जो तुम्हारे सामने आ रहा है।" [सहीह बुखारी : 4971]
लोगों ने इस बात का खुद ही इकरार किया कि हजरत मुहम्मद (ﷺ) से ज्यादा सच्चा कोई नहीं है लेकिन फिर भी जब उन्होंने अल्लाह का पैग़ाम लोगों को बताना शुरू किया तो उनमें से चंद लोगों के सिवा किसी ने नहीं माना। और जैसे जैसे हजरत मुहम्मद (ﷺ) लोगों को अल्लाह का पैग़ाम सुनाते रहे वैसे वैसे ही उनकी मुखालिफत भी बढ़ती गई और अक्सरियत (majority) ने आप ﷺ के पैग़ाम को झुटला दिया। तो इसके बाद अल्लाह ने हजरत मुहम्मद ﷺ की जिदंगी को सबूत के तौर पर पेश किया कि आप खुद ही हजरत मुहम्मद ﷺ की जिंदगी पर गौर ओ फिक्र करें और अपनी अक़्ल का इस्तेमाल करें।
قُلۡ لَّوۡ شَآءَ اللّٰہُ مَا تَلَوۡتُہٗ عَلَیۡکُمۡ وَ لَاۤ اَدۡرٰىکُمۡ بِہٖ ۫ ۖفَقَدۡ لَبِثۡتُ فِیۡکُمۡ عُمُرًا مِّنۡ قَبۡلِہٖ ؕ اَفَلَا تَعۡقِلُوۡنَ
और कहो, “अगर अल्लाह की मर्ज़ी यही होती तो मैं ये क़ुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आख़िर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे बीच बिता चुका हूँ, क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?"
[कुरआन 10:16]
हजरत मुहम्मद ﷺ का ये कहना की मैं पैगम्बर बनाए जाने से पहले एक उम्र तुम्हारे बीच बिता चुका हूं एक ज़बरदस्त दलील है लोगों के इस ख़याल के रद्द में कि मुहम्मद (ﷺ) क़ुरआन को ख़ुद अपने दिल से गढ़कर ख़ुदा की तरफ़ जोड़ रहे हैं और मुहम्मद (ﷺ) के इस दावे की ताईद में कि वो ख़ुद इनके लिखनेवाले नहीं हैं, बल्कि ये ख़ुदा की तरफ़ से वह्य (प्रकाशना) के ज़रिए से उनपर उतर रहा है। दूसरी तमाम दलीलें तो किसी हद तक दूर की चीज़ थीं, मगर मुहम्मद (ﷺ) की ज़िन्दगी तो उन लोगों के सामने की चीज़ थी।
मुहम्मद (ﷺ) ने नुबूवत से पहले पूरे चालीस साल लोगों के बीच गुज़ारे थे, उनके शहर में पैदा हुए, उनकी आँखों के सामने बचपन गुज़ारा, जवान हुए, अधेड़ उम्र को पहुँचे। रहना-सहना, मिलना-जुलना, लेन-देन, शादी-ब्याह ग़रज़ हर तरह का समाजी ताल्लुक़ उन्हीं के साथ था और आप (ﷺ) की ज़िन्दगी का कोई पहलू उनसे छिपा हुआ न था। ऐसी जानी-बूझी और देखी-भाली चीज़ से ज़्यादा खुली गवाही और क्या हो सकती थी?
हजरत मुहम्मद (ﷺ) की ज़िन्दगी में दो बातें बिलकुल ज़ाहिर थीं, जिन्हें मक्का के लोगों में से एक-एक शख़्स जानता था:
पहली बात:
एक ये कि नुबूवत (पैगंबरी) से पहले की पूरी चालीस साल की ज़िन्दगी में आप (ﷺ) ने कोई ऐसी तालीम, तरबियत और संगत नहीं पाई जिससे आप (ﷺ) को वो मालूमात हासिल होतीं जिनके चश्मे (श्रोत) यकायक नुबूवत के दावे के साथ ही आपकी ज़बान से फूटने शुरू हो गए। इससे पहले कभी आप उन मसलों से दिलचस्पी लेते हुए, उन बातों पर चर्चा करते हुए और उन ख़यालात का इज़हार करते हुए नहीं देखे गए जो अब क़ुरआन की इन एक के बाद एक उतरनेवाली सूरतों में चर्चा में आ रहे थे। हद ये है कि इस पूरे चालीस साल के दौरान में कभी आप (ﷺ) के किसी गहरे दोस्त और किसी क़रीब से क़रीब रिश्तेदार ने भी आपकी बातों और आपके अमल में कोई ऐसी चीज़ महसूस नहीं की जिसे उस शानदार दावत और पैग़ाम की तमहीद (भूमिका) कहा जा सकता हो, जो आप (ﷺ) ने अचानक चालीसवें साल को पहुँचकर देना शुरू कर दिया। ये इस बात का खुला सुबूत था कि क़ुरआन आप (ﷺ) के अपने दिमाग़ की पैदावार नहीं है, बल्कि बाहर से आपके अंदर आई हुई चीज़ है इसलिये कि इंसानी दिमाग़ अपनी उम्र के किसी मरहले में भी ऐसी कोई चीज़ पेश नहीं कर सकता जिसके बढ़ने और फलने-फूलने के साफ़-साफ़ निशानात उससे पहले के मरहलों में न पाए जाते हों। यही वजह है कि मक्का के कुछ चालाक लोगों ने जब ख़ुद ये महसूस कर लिया कि क़ुरआन को आप (ﷺ) के दिमाग़ की उपज ठहराना खुले तौर पर एक बेकार का इलज़ाम है तो आख़िर को उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया कि कोई और शख़्स है जो मुहम्मद (ﷺ) को ये बातें सिखा देता है। लेकिन ये दूसरी बात पहली बात से भी ज़्यादा बेकार थी क्योंकि मक्का तो एक तरफ़, पूरे अरब में भी कोई इस क़ाबिलियत का आदमी न था जिसपर उँगली रखकर कह दिया जाता कि इस कलाम (वाणी) को लिखनेवाला है या हो सकता है। ऐसी क़ाबिलियत का आदमी किसी सोसाइटी में छिपा कैसे रह सकता है?
दूसरी बात:
दूसरी बात जो मुहम्मद (ﷺ) की पिछली ज़िन्दगी में बिलकुल नुमायाँ थी, वो ये थी कि झूठ, फ़रेब, जालसाज़ी, मक्कारी, चालाकी और इस तरह की दूसरी सिफ़तों में से किसी का हल्का-सा असर तक मुहम्मद (ﷺ) की ज़िन्दगी में न पाया जाता था। पूरी सोसाइटी में कोई ऐसा न था जो ये कह सकता हो कि एक समाज में चालीस साल तक एक ही जगह रहने पर मुहम्मद (ﷺ) से किसी ऐसी सिफ़त का तजरिबा उसे हुआ है। इसके बरख़िलाफ़ जिन-जिन लोगों से भी आप (ﷺ) का मामला हुआ था वो आप (ﷺ) को एक बहुत ही सच्चे, बेदाग़ और भरोसे के क़ाबिल (अमीन) इंसान की हैसियत ही से जानते थे। पैग़म्बरी से पाँच साल पहले काबा तामीर के सिलसिले में वो मशहूर वाक़िआ पेश आ चुका था जिसमें हजरे-असवद (काला पत्थर) को उसकी जगह पर लगाने के मामले पर क़ुरैश के कई ख़ानदान झगड़ पड़े थे और आपस में तय हुआ था कि कल सुबह पहला पहला शख़्स जो हरम में दाख़िल होगा उसी को पंच मान लिया जाएगा दूसरे दिन वो शख़्स मुहम्मद थे जो वहाँ दाख़िल हुए। आप (ﷺ) को देखते ही सब लोग पुकार उठे, ये बिलकुल सच्चा आदमी है। हम इसपर राज़ी हैं। ये तो मुहम्मद है। इस तरह आप (ﷺ) को नबी और पैग़म्बर बनाने से पहले अल्लाह क़ुरैश के पूरे क़बीले से भरे मजमे में आप (ﷺ) के अमीन (अमानतदार) होने की गवाही ले चुका था। अब ये गुमान करने की क्या गुंजाइश थी कि जिस शख़्स ने सारी उम्र कभी अपनी ज़िन्दगी के किसी छोटे-से-छोटे मामले में भी झूठ, छल और फ़रेब से काम न लिया था वो अचानक इतना बड़ा झूठ और ऐसा बड़ा छल-फ़रेब लेकर उठ खड़ा हुआ कि अपने ज़ेहन से कुछ बातें गढ़ लीं और उनको पूरे ज़ोर और दावे के साथ ख़ुदा की तरफ़ जोड़ने लगा।
इसी बिना पर अल्लाह, मुहम्मद (ﷺ) से कहता है कि उनके इस बेहूदा इलज़ाम के जवाब में उनसे कहो कि ऐ अल्लाह के बन्दो, कुछ अक़्ल से तो काम लो, मैं कोई बाहर से आया हुआ अजनबी आदमी नहीं हूँ, तुम्हारे बीच इससे पहले एक उम्र गुज़ार चुका हूँ, मेरी पिछली ज़िन्दगी को देखते हुए तुम कैसे ये उम्मीद मुझसे कर सकते हो कि मैं ख़ुदा की तालीम और उसके हुक्म के बग़ैर ये क़ुरआन तुम्हारे सामने पेश कर सकता था।
हजरत मुहम्मद ﷺ को जिंदगी की ये दो अहम बातें ऐसी है कि जिनपर गौर ओ फिक्र करके किसी भी अकलमंद इंसान को इसमें कोई शक नहीं हो सकता कि हजरत मुहम्मद ﷺ अल्लाह की तरफ से पैगम्बर है।
जुड़े रहे इस्लामिक थियोलॉजी ब्लॉग के साथ इंशा अल्लाह जल्द आपके सामने "हजरत मुहम्मद ﷺ की जिंदगी में उनके पैग़म्बर होने के सबूत का पार्ट 2" आएगा।
By- इस्लामिक थियोलॉजी
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