Kya paigambar Muhammad (saw) islam ke sansthapak hain?

Kya paigambar Muhammad (saw) islam ke sansthapak hain?


क्या पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ इस्लाम के संस्थापक है?


आज लोग ये समझते हैं कि पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने इस्लाम की शुरुआत की। चाहे सोशल मीडिया हो या कोई और माध्यम लोग ये सवाल अक्सर पूछते हुए नज़र आते हैं। और जो ये सवाल नहीं करते वह भी यही मानते हैं कि इस्लाम 1400 साल पुराना धर्म है। इस बात में कितनी हक़ीक़त और कितनी कल्पना है, आईए उसपर चर्चा करते है।

आम तौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके संस्थापक पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ हैं। लेकिन हक़ीक़त इससे अलग है। इस्लाम खुदा की ओर से इंसानों को दिया हुआ वो दीन है जिसमे जिंदगी गुजारने का पूरा तरीका इंसान को बता दिया गया है कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत है? इस्लाम दीन पर ही चलकर इंसान खुदा का असल बंदा बन सकता है।

शुरू से ही खुदा ने सभी इंसानों को एक ही दीन दिया है जो पहले इंसान आदम (अलैहिस्सलाम) से लेकर आज तक क़ायम है। यह लोगों की अज्ञानता है जो पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ को इस्लाम का संस्थापक मानते है, जबकि हकीकत इसके बरक्स ये है कि पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ इस्लाम के आखिरी पैगम्बर है संस्थापक नहीं। पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने भी खुदा के तमाम पैगंबरों की तरह लोगों को उसी दीन की तरफ बुलाया जो हमेशा से एक ही रहा है। पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ का मिशन बाकी सभी पैगंबरों की तरह यही था कि इस दीन को दुनिया में क़ायम (स्थापित) करें ताकि इंसानों के सामने ये दीन पूरी तरह वाजेह होकर आ जाए और इंसानियत इस अदल और इंसाफ पर क़ायम दीन से फायदा उठाएं। सभी पैगंबरों का मिशन यही था कि खुदा की तरफ से आए हुए दीन को दुनिया में क़ायम (स्थापित) करें जैसाकी कुरआन में कहा गया है:


شَرَعَ لَکُمۡ مِّنَ الدِّیۡنِ مَا وَصّٰی بِہٖ نُوۡحًا وَّ الَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ وَ مَا وَصَّیۡنَا بِہٖۤ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰۤی اَنۡ اَقِیۡمُوا الدِّیۡنَ وَ لَا تَتَفَرَّقُوۡا فِیۡہِ ؕ 

"उसने तुम्हारे लिये दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद) अब तुम्हारी तरफ़ हमने वह्य (प्रकाशना) के ज़रिए से भेजा है और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताकीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन को और इसमें टुकड़े-टुकड़े न हो जाओ।"

[कुरआन 42:13]


क़ुरआन की इस आयत से हमें साफ़ पता चलता है कि पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ को वही एक दीन दिया जो उनसे पहले पैग़म्बरों को दिया गया था। इस से दो बातें साफ़ ज़ाहिर होती हैं, पहली ये कि दीन खुदा का दिया हुआ होता है न की किसी इंसान का बनाया हुआ। दूसरी बात ये है कि दीन हमेशा से एक ही चला आ रहा है।

कुरआन हमे सभी पैगंबरों पर ईमान लाने को कहता है और जो कुछ भी उन पर खुदा की तरफ से नाजिल हुआ है हम उस पर भी ईमान रखते है। अगर हम खुदा के एक पैगम्बर का भी इंकार करें तो हम ईमान वाले नहीं हो सकते है। कुरआन में खुदा ने हमे बिलकुल साफ हुक्म दिया है कि:


قُلۡ اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلٰۤی اِبۡرٰہِیۡمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰی وَ النَّبِیُّوۡنَ مِنۡ رَّبِّہِمۡ ۪ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ 

कहो कि, “हम अल्लाह को मानते हैं, उस तालीम को मानते हैं जो हमपर उतारी गई है, उन तालीमात को भी मानते हैं जो इबराहीम, इसमाईल, इस्हाक़, याक़ूब और याक़ूब की औलाद पर उतरी थीं और उन हिदायतों पर भी ईमान रखते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गईं। हम उनके बीच फ़र्क़ नहीं करते, और हम अल्लाह के फ़रमाँबरदार [मुस्लिम] हैं।”

[कुरआन 3:84]


इस आयत में अल्लाह हमे पहले के सभी पैगंबरों और पिछली सब किताबों पर ईमान रखने का हुक्म देता है। अगर पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने किसी नए दीन की स्थापना की होती तो अल्लाह पिछले पैगंबरों और किताबों पर ईमान लाने का हुक्म क्यों देता?

बात बिलकुल साफ है कि पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने अल्लाह की तरफ से आए हुए दीन को लोगों तक पहुंचाया और उस दीन का सही स्वरूप बताया और उस दीन को क़ायम करके दुनिया के सामने उसका अमली नमूना पेश किया।

अल्लाह ने समय समय पर और हर कौम में अपने पैगम्बर भेजे ताकि वह अल्लाह का दीन लोगों तक पहुंचा दें। और जो पैगम्बर जिस कौम की तरफ भेजा जाता था वह उन्हीं की ज़बान में अल्लाह का दीन पहुंचाता था ताकि इंसानों तक अल्लाह का दीन साफ साफ पहुंच जाएं।


وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ رَّسُوۡلٍ اِلَّا بِلِسَانِ قَوۡمِہٖ لِیُبَیِّنَ لَہُمۡ ؕ فَیُضِلُّ اللّٰہُ مَنۡ یَّشَآءُ وَ یَہۡدِیۡ مَنۡ یَّشَآءُ ؕ وَ ہُوَ الۡعَزِیۡزُ الۡحَکِیۡمُ

"हमने अपना पैग़ाम देने के लिये जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की ज़बान में पैग़ाम दिया है, ताकि वो उन्हें अच्छी तरह खोलकर बात समझाए, फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखाता है, वो सबपर हावी और हिकमतवाला है।"

[कुरआन 14:4]


कुरआन की इस आयत से ये बात और साफ हो जाती है कि समय-समय पर अल्लाह के पैगम्बर आते रहे और इंसानों को अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाते रहे।

अल्लाह ने एक मां और एक बाप से इंसानियत की शुरुआत की फिर लोग समय समय पर आपस में गिरोह गिरोह होते रहे और अल्लाह के दीन को छोड़कर अपने अपने धर्म बना लिए। जिसकी वजह से ही इंसान धर्म के नाम पर लड़ने लगें और अल्लाह के दीन को छोड़ बैठे। अल्लाह ने जो हमेशा से एक ही दीन समय समय पर इंसानों को दिया उसी दीन को मुकम्मल और महफूज़ आखिरी पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ के माध्यम से कर दिया गया।


وَٱخْشَوْنِ ۚ ٱلْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِى وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلْإِسْلَـٰمَ دِينًۭا ۚ

"...आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिये मुकम्मल कर दिया है और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दी है और तुम्हारे लिये इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से क़बूल कर लिया है।"

[कुरआन 5:3]


हजरत मुहम्मद ﷺ के दौर के लोगों की गलतफहमी:

हजरत मुहम्मद ﷺ के दौर के लोग भी इस गलतफहमी में मुब्तिला थे कि हजरत मुहम्मद ﷺ नए दीन की बुनियाद रख रहे है और इस बात की चर्चाएं मक्का की हर महफ़िल, हर चौपाल, हर गली और बाज़ार और हर मकान और दुकान में उस वक़्त मुहम्मद (ﷺ) की दावत और क़ुरआन के बारे में हो रही थीं। लोग कहते थे कि न जाने ये आदमी कहाँ से ये निराली बातें निकाल-निकालकर ला रहा है। हमने तो ऐसी बातें न कभी सुनीं, न होते देखीं। वे कहते थे, ये अजीब माजरा है कि बाप-दादा से जो दीन चला आ रहा है, सारी क़ौम जिस दीन की पैरवी कर रही है, सारे देश में जो तरीक़े सदियों से चले आ रहे हैं, ये आदमी उन सबको ग़लत ठहरा देता है और कहता है कि जो दीन मैं पेश कर रहा हूँ, वो सही है। वे कहते थे, इस दीन को भी अगर ये इस हैसियत से पेश करता कि बाप-दादा के दीन और मौजूदा ज़माने में जो तरीक़े रिवाज पा गए हैं, उनमें मुझे कुछ ख़राबी नज़र आती है और उनकी जगह इसने ख़ुद कुछ नई बातें सोचकर निकाली हैं, तो उसपर कुछ बात भी की जा सकती थी, मगर ये तो कहता है कि ये ख़ुदा का कलाम है जो मैं तुम्हें सुना रहा हूँ। ये बात आख़िर कैसे मान ली जाए? क्या ख़ुदा इसके पास आता है? या ये ख़ुदा के पास जाता है? या इसकी और ख़ुदा की बातचीत होती है?

इन्हीं चर्चाओं और अटकलों पर बज़ाहिर ख़ुदा के रसूल को ख़िताब करते हुए, मगर असल में इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाते हुए कहा गया है कि:


کَذٰلِکَ یُوۡحِیۡۤ اِلَیۡکَ وَ اِلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۙ اللّٰہُ الۡعَزِیۡزُ الۡحَکِیۡمُ

"इसी तरह ग़ालिब और हिकमतवाला अल्लाह तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए (रसूलों) की तरफ़ वह्य (प्रकाशना) करता रहा है।"

[कुरआन 43:3]


इस आयत में अल्लाह इस्लाम मुखलिफों से कह रहा है कि हाँ, यही बातें जिन्हे तुम नई समझ रहे हो, ख़ुदा ज़बरदस्त और हिकमतवाला वह्य (प्रकाशना) कर रहा है और यही बातें लिये हुए उसकी वह्य पिछले तमाम नबियों पर उतरती रही है। वह्य के लफ़्ज़ी मानी हैं तेज़ इशारा और छिपा हुआ इशारा, यानी ऐसा इशारा जो तेज़ी के साथ इस तरह किया जाए कि बस इशारा करनेवाला जाने या वो शख़्स जिसे इशारा किया गया है, बाक़ी किसी और शख़्स को उसका पता न चलने पाए। इस लफ़्ज़ को इस्लामी ज़बान में उस हिदायत के लिये इस्तेमाल किया गया है जो बिजली की कौंध की तरह अल्लाह की तरफ़ से उसके किसी बन्दे के दिल में डाली जाए। अल्लाह के फ़रमान का मक़सद ये है कि अल्लाह के किसी के पास आने या उसके पास किसी के जाने और आमने-सामने बात करने का कोई सवाल पैदा नहीं होता। वो ग़ालिब और हिकमतवाला है। इन्सानों की हिदायत और रहनुमाई के लिये जब भी वो किसी बन्दे से राबता करना चाहे, कोई दुश्वारी उसके इरादे की राह में आड़े नहीं आ सकती और वो अपनी हिकमत से इस काम के लिये वह्य का तरीक़ा अपना लेता है।

फिर ये जो उन लोगों का ख़याल था कि ये निराली बातें हैं, इसपर कहा गया है कि ये निराली बातें नहीं हैं, बल्कि मुहम्मद (ﷺ) से पहले जितने पैगम्बर आए हैं, उन सबको भी ख़ुदा की तरफ़ से यही कुछ हिदायतें दी जाती रही हैं।

इसी बात को जगह जगह कुरआन की आयतों में दोहराया गया है और वहाँ इसे ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है। 


مَا یُقَالُ لَکَ اِلَّا مَا قَدۡ قِیۡلَ لِلرُّسُلِ مِنۡ قَبۡلِکَ ؕ اِنَّ رَبَّکَ لَذُوۡ مَغۡفِرَۃٍ وَّ ذُوۡ عِقَابٍ اَلِیۡمٍ

"ऐ नबी, तुमसे जो कुछ कहा जा रहा है, उसमें कोई चीज़ भी ऐसी नहीं है जो तुमसे पहले गुज़रे हुए रसूलों से न कही जा चुकी हो। बेशक तुम्हारा रब बड़ा माफ़ करनेवाला है और इसके साथ बड़ी दर्दनाक सज़ा देनेवाला भी है।"

[कुरआन 41:43]


وَ مَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِکَ مِنۡ رَّسُوۡلٍ اِلَّا نُوۡحِیۡۤ اِلَیۡہِ اَنَّہٗ لَاۤ اِلٰہَ اِلَّاۤ اَنَا فَاعۡبُدُوۡنِ

"हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजा है उसको यही वह्य (प्रकाशना) की है कि मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, इसलिये तुम लोग मेरी ही बन्दगी करो।"

[कुरआन 21:25]


وَ اذۡکُرۡ اَخَا عَادٍ ؕ اِذۡ اَنۡذَرَ قَوۡمَہٗ بِالۡاَحۡقَافِ وَ قَدۡ خَلَتِ النُّذُرُ مِنۡۢ بَیۡنِ یَدَیۡہِ وَ مِنۡ خَلۡفِہٖۤ اَلَّا تَعۡبُدُوۡۤا اِلَّا اللّٰہَ ؕ اِنِّیۡۤ اَخَافُ عَلَیۡکُمۡ عَذَابَ یَوۡمٍ عَظِیۡمٍ

"ज़रा इन्हें आद के भाई (हूद) का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसने अह्क़ाफ़ में अपनी क़ौम को ख़बरदार किया था।– और ऐसे ख़बरदार करनेवाले उससे पहले भी गुज़र चुके थे और उसके बाद भी आते रहे – कि “अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, मुझे तुम्हारे हक़ में एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का डर है।”

[कुरआन 46:21]


قُلۡ اَفَغَیۡرَ اللّٰہِ تَاۡمُرُوۡٓنِّیۡۤ اَعۡبُدُ اَیُّہَا الۡجٰہِلُوۡنَ وَ لَقَدۡ اُوۡحِیَ اِلَیۡکَ وَ اِلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکَ ۚ لَئِنۡ اَشۡرَکۡتَ لَیَحۡبَطَنَّ عَمَلُکَ وَ لَتَکُوۡنَنَّ مِنَ الۡخٰسِرِیۡنَ

(ऐ नबी) इनसे कहो, “फिर क्या ऐ जाहिलो, तुम अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी करने के लिये मुझसे कहते हो?”

(ये बात तुम्हें उनसे साफ़ कह देनी चाहिये, क्योंकि) तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए तमाम नबियों की तरफ़ ये वह्य (प्रकाशना) भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा अमल बरबाद हो जाएगा और तुम घाटे में रहोगे।

[कुरआन 39:64-65]


اَفَنَضۡرِبُ عَنۡکُمُ الذِّکۡرَ صَفۡحًا اَنۡ کُنۡتُمۡ قَوۡمًا مُّسۡرِفِیۡنَ ﴿۵﴾ وَ کَمۡ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ نَّبِیٍّ فِی الۡاَوَّلِیۡنَ ﴿۶﴾ وَ مَا یَاۡتِیۡہِمۡ مِّنۡ نَّبِیٍّ اِلَّا کَانُوۡا بِہٖ یَسۡتَہۡزِءُوۡنَ

"अब क्या हम तुमसे बेज़ार (तंग) होकर ये नसीहत तुम्हारे यहाँ भेजना छोड़ दें, सिर्फ़ इसलिये कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो? पहले गुज़री हुई क़ौमों में भी बहुत बार हमने नबी भेजे हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई नबी उनके यहाँ आया हो और उन्होंने उसका मज़ाक़ न उड़ाया हो।"

[कुरआन 43:5-7]


اَفَمَنۡ کَانَ عَلٰی بَیِّنَۃٍ مِّنۡ رَّبِّہٖ وَ یَتۡلُوۡہُ شَاہِدٌ مِّنۡہُ وَ مِنۡ قَبۡلِہٖ کِتٰبُ مُوۡسٰۤی اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً ؕ اُولٰٓئِکَ یُؤۡمِنُوۡنَ بِہٖ ؕ وَ مَنۡ یَّکۡفُرۡ بِہٖ مِنَ الۡاَحۡزَابِ فَالنَّارُ مَوۡعِدُہٗ ۚ فَلَا تَکُ فِیۡ مِرۡیَۃٍ مِّنۡہُ ٭ اِنَّہُ الۡحَقُّ مِنۡ رَّبِّکَ وَ لٰکِنَّ اَکۡثَرَ النَّاسِ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ

"फिर भला वो शख़्स जो अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ गवाही रखता था, इसके बाद एक गवाह भी पालनहार की तरफ़ से [इस गवाही की ताईद में] आ गया और पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत के तौर पर आई हुई भी मौजूद थी, [क्या वो भी दुनियापरस्तों की तरह इससे इनकार कर सकता है?] ऐसे लोग तो उसपर ईमान ही लाएँगे और इनसानी गरोहों में से जो कोई उसका इनकार करे तो उसके लिये जिस जगह का वादा है, वो दोज़ख़ है। इसलिये ऐ पैग़म्बर ! तुम इस चीज़ की तरफ़ से किसी शक में न पड़ना, ये हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से, मगर ज़्यादातर लोग नहीं मानते।"

[कुरआन 11:17]


By- इस्लामिक थियोलॉजी

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