अशुरा के रोज़े के बारे मे जानने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें, https://islamictheologies.blogspot.com/2023/07/ashura.html
कुछ मुसलामानों और गैर मुसलामानों से ये सुनने को मिलता है कि हज़रत हुसैन (रज़ि०) की शहादत के गम में ये रोज़ा रखा जाता है जब कि ये सरासर गलत है।
अशुरा का रोज़ा सुन्नत/मुस्तहब रोज़ा है इसका कर्बला के वाक्या से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ये रसूलुल्लाह (ﷺ) के ज़माने में रखा जाता था और ये मदीना के यहूदियों से पूछने से पहले से ही रखते थें। ये अलग बात है के जब रसूलुल्लाह (ﷺ) मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदी आशूरा का रोज़ा रखते थे। नबी करीम (ﷺ) ने उन से उसके मुताल्लिक़ पूछा तो उन्होंने बताया कि उस दिन मूसा (ﷺ) ने फ़िरऔन पर ग़लबा पाया था। आप (ﷺ) ने इस पर फ़रमाया कि फिर हम उन के मुक़ाबले में मूसा के ज़्यादा हक़दार हैं। मुसलमानो! तुम लोग भी उस दिन रोज़ा रखो (फिर आप (ﷺ) ने यहूद की मुशाबिहत से बचने के लिये उसके साथ एक रोज़ा और मिलाने का हुक्म सादिर फ़रमाया जो अब भी मसनून है।) इसलिए आप (ﷺ) ने अगले साल 9 मुहर्रम का रोज़ा रखने का इरादा किया पर उससे पहले ही आप (ﷺ) इंतकाल फरमा गायें। और ये भी फरमाया की ये रोज़ा रखने वाले का पिछले एक साल का गुनाह माफ़ हो जाएगा।
इत्तेफ़ाक से 61 हिजरी में कर्बला का वाक्या अशुरा के दिन पेश आया जो बहुत ही दर्दनाक है ये जानते हुए भी इस वाक्या को अशुरा के रोज़े से नहीं जोड़ सकते। ये वाक्या, जब 61 हिजरी में कर्बला के मैदान में आप (ﷺ) के नवासे हजरत हुसैन (रज़ि०) शहीद हुए, इत्तेफ़ाकन दस मुहर्रम को हुआ तो इसका मतलब ये नहीं के हम रसूलुल्लाह (ﷺ) की सुन्नत को इस वाक्या से जोड़ दें। पर अफसोस इन बदबख़्त शियाओं ने इस वाक्या को इतना उछाला के अहले सुन्नत के अंदर भी उजागर कर दिया। यहाँ तक कि इसकी ऐसी ऐसी बिदआतें उन्होंने क़ायम कर दी कि बहुत बड़ा सुन्नीयत का तबका़ भी यही समझता है कि अशुरा का रोज़ा कर्बला से मुताल्लिक है, मुहर्रम एहतराम वाला महीना है ये भी कर्बला से मुताल्लिक है और वाक्यात भी कर्बला से मुताल्लिक हैं। तो याद रखें ना ये गम का महीना है, ना काले कपड़े पहनने का, ना गिज़ा (खाना खाना) छोड़ने का, ना नोहा व मातम करने का, ना मर्सिया और दूसरे क़साइद करने का, ना मियां बीवी का मिलना हराम है, ना शादी करना करना हराम है, ना किसी तरह की खुशी माना हराम है। अगर कोई इसे दीन का हिस्सा समझ कर करे तो ये सारी चीजें बिद्अत मे शुमार होंगी।
हमारे मुल्क भारत मे जब मुगल बादशाहों का राज था तब तैमूर लंग ये रस्म लेकर आया था। जैसा कि भारत मे हिन्दुओं की आबादी ज़्यादा थी और उनके रस्म रिवाज मनाने की आज़ादी भी। अफ़सोस के भारत के मुसलमानों ने हिंदुओं की बहुत सी रस्मों को अपना लिया। जैसी हिन्दू दीवाली मानते हैं और मुस्लिम शब ए बारात, वो गंगाजल को पवित्र मान कर पीते हैं तो मुस्लिम अना सागर के पानी को, जैसे हिन्दुओं मे पंडितों को दान दिया जाता है वैसे ही मुसलामान कदम कदम पर नज़र ओ नियाज़ देता है, जैसे मंदिरों मे बुतपरस्ती होती है वैसे ही दरगाहों में कब्रपरस्ती वगैरह। देखा जाए तो आज के मुसलमान हिंदुओं की मुशाबिहत अख्तियार किए बैठे हैं।
अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया : जिसने किसी क़ौम की मुशाबहत की वो उन्ही में से है। [सुनन अबु दाऊद : 4031]
भारत में मुहर्रम के महीने में ताजियादारी की रस्म हिन्दुआनी रस्म से इजाद की गई है। इसके अलावा शियाओं ने मुसलमानों के दिमाग मे इसे भर दिया उसके बाद यहूदियों ने इस्लाम में बिगाड़ पैदा करने के लिए साज़िशें की जिसके नतीजें मे इस खुराफात को बढ़ावा मिला। अशुरा के रोज़े को इसके साथ जोड़ कर मुसलामानों मे बिद्अत फैला दी गई।
नबी सल्लल्लाहु (ﷺ) ने फ़रमाया, "सबसे अच्छी बात किताब अल्लाह और सब से अच्छा तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीक़ा है और सब से बुरी नई बात (बिदअत) पैदा करना है (दीन में) और बिलाशुब्हा जिस का तुम से वादा किया जाता है वो आकर रहेगी और तुम परवरदिगार से बच कर नही जा सकते।" [सही बुख़ारी :7277]
अगर हम ध्यान दें तो देखेंगे कि मुहर्रम और हिंदुओं के त्योहार दुर्गा पूजा, दशहरा और गणेश चतुर्थी मे किये जाने वाली सारे काम एक जैसे हैं-
अब आप खुद सोचे समझें क्या इस्लाम मे इस तरह की कोई रस्म या रिवाज़ रसूलुल्लाह (ﷺ) के ज़माने मे थी? क्या इस्लाम इस तरह की बिद्अत, बुराई और बेहयाई की इजाज़त देता है? हरगिज़ नहीं।
आयशा रज़ि अल्लाहू अन्हा रिवायत करती हैं के रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया जिसने हमारे इस दींन मैं कोई ऐसी चीज़ ईजाद की जिसपे हमारा अमल नही तो वो मर्दुद है।" [सहीह बुख़ारी : 2697; सहीह मुस्लिम : 1718]
मुहर्रम हुरमत वाला महीना है लिहाज़ा इस महीने का रोज़ा सुन्नत ए रसूल (ﷺ) से साबित है इसे शहादत ए हुसैन (रज़ि०) से जोड़ कर बिद्अती ना बने, ना खुद पर जुल्म करें बल्कि राफजियों, यहूदियों और नसारा के फरेब से खुद को बचाएँ।
"अल्लाह के यहाँ महीनों की गिनती बारह ही है, अल्लाह के नविश्ते के मुताबिक़ उस दिन से जिस दिन अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया, जिनमें चार महीने हुर्मत वाले हैं, यही मज़बूत दीन है, लिहाज़ा इन महीनों में (क़त्ले ना-हक़ से) अपने आप पर ज़ुल्म नहीं करो।" [कुरान 9: 32]
Posted By Islamic Theology
3 टिप्पणियाँ
Is matter ko pamphlet ki Shakal mein de sakte hain
जवाब देंहटाएं👍😊 bahut achi bat samjhayi 🤟
जवाब देंहटाएंkisi bhi jankari ke liye whatsapp karein... JazakumuLLAHu khairan kasira
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।