शव्वाल के छः रोज़ों की फज़ीलत
शुरु अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की हम उम्मत ए मुस्लिमा के उपर बेशुमार नेअमतें हैं जिसका शुक्र तमाम जिन्न, इंसान और बाक़ी तमाम मख़लूक़ भी मिल कर नहीं अदा कर सकते हैं। उन्हीं नेअमतों में से एक नेअमत है रमज़ान के रोज़े और साथ ही साथ शव्वाल के छः रोज़े। जिसकी अहमियत हदीस की रौशनी में जानने की कोशिश करते हैं:
01. हदीस:
जिसने रमज़ान के रोज़े रखे और फिर उसके बाद शव्वाल के छः रोज़े रखे तो ये मुसलसल (continue) रोज़े रखने की तरह है।" [सहीह मुस्लिम:2758]
02. हदीस:
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
जिसने रमज़ान के रोज़े रखे फिर उसके बाद शव्वाल के छः रोज़े रखे तो यही सियामुल दहरी है।" [तिरमिज़ी:759, सहीह]
03. हदीस:
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया, "जिसने ईद उल फित्र (शव्वाल के) के छः रोज़े रखे तो उसे पूरे साल के रोज़ों का सवाब मिलेगा इसलिए कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फ़रमाता है;
مَنْ جَاءَ بِالْحَسَنَةِ، فَلَهُ عَشْرُ أَمْثَالِهَا.
"जो कोई नेकी करेगा उसे दस नेकियों का सवाब मिलेगा।"
[इब्ने माजा:1715]
04. हदीस:
हजरत अबू अयूब अंसारी रजि° अन्हु बयान करते हैं। मैंने रसूलुल्लाह से पूछा क्या एक रोजा 10 दिनों के बराबर है हैसीयत रखता है? नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, "हां ऐसा ही है"। [अत तरहीब व तरगीब 02/655 किताब उस सियाम]
05. हदीस:
हजरत सोबान रजि°अन्हु से मरवी हैं कि, "माहे रमजान के रोजे 10 महीने के बराबर है और इसके बाद शववाल के 06 रोज़े दो माह के बराबर सवाब रखते हैं।" [सहीह इब्ने खुजैमा 02/298]
शव्वाल के छः रोज़ों के मुताल्लिक़ एक ग़लत फ़हमी
हमारे समाज में ये बात फैली हुई है कि ये शव्वाल के रोज़े, ईद उल फित्र के ठीक बाद ही लगातार रखे जाएं जोकि एक ग़लत फ़हमी है। नबी करीम ﷺ ने ऐसी कोई क़ैद नहीं लगाई। ये रोज़े आप शव्वाल के महीनों में जब चाहें रख सकतें हैं।
नोट: कुछ लोगों के रमज़ान के रोज़े किसी वजह से क़ज़ा हो जाते हैं, ख़ास कर औरतों के मख़सूस अय्याम (during menses) में। उनके लिए हुक्म है कि वो अगर इस्तेताअत रखती हैं तो वो शव्वाल के रोज़े रखने से पहले, रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा को अदा कर सकतीं हैं। और फिर शव्वाल के रोज़े रख लें। लेकिन अगर ऐसा न कर सकें तो वो शव्वाल के रोज़े पहले रख लें। फिर रमज़ान के क़ज़ा रोज़े अगले साल रमज़ान आने से पहले (शाबान में) रख लें। तब ही पूरे साल रोज़े रखने का सवाब हासिल कर सकेंगी।
क्योंकि अम्मा आयशा (रज़ी०अन्हा ) अपना क़ज़ा रोज़ा अगले साल शाबान में अदा कर पाती थीं नबी अलैहसलाम की मसरूफियत की वजह से। [सही बुखारी:1950; सही मुस्लिम:1146; सुन्न नसाई:2178 और 2180]
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमें इस रोज़े को रखने की तौफीक अता करे।
(अमीन या रब्बील आलामीन)
सरफराज़ आलम
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