मौत के बाद की ज़िंदगी पर तारीख़ (इतिहास) के वाक़िआत से दलील
तारीख़ (इतिहास) के वाक़िआत में एक ऐसी निशानी है जिसपर अगर इंसान ग़ौर करे तो उसे यक़ीन आ जाएगा कि आख़िरत का अज़ाब ज़रूर सामने आनेवाला है और उसके बारे में पैग़म्बरों की दी हुई ख़बर सच्ची है। साथ ही इसी निशानी से वो ये भी मालूम कर सकता है कि आख़िरत का अज़ाब कैसा सख़्त होगा और ये इल्म उसके दिल में ख़ुदा का डर पैदा करके उसे सीधा कर देगा।
अब रही ये बात कि तारीख़ में वो क्या चीज़ है जो आख़िरत और उसके अज़ाब की अलामत कही जा सकती है, तो हर वो शख़्स उसे आसानी के साथ समझ सकता है जो तारीख़ को सिर्फ़ वाक़िआत का मज्मूआ ही न समझता हो बल्कि उन वाक़िआत के असबाब और वजहों पर भी कुछ ग़ौर करता हो और उनसे नतीजे भी निकालने का आदी हो। हज़ारों साल की इन्सानी तारीख़ में क़ौमों और जमाअतों का उठना और गिरना जिस तरह लगातार और ज़ाब्ते के साथ सामने आता रहा है, और फिर इस गिरने और उठने में जिस तरह खुले तौर पर कुछ अख़लाक़ी वजहें काम करती रही हैं, और गिरनेवाली क़ौमें जैसी-जैसी इबरतनाक सूरतों से गिरी हैं, ये सब कुछ इस हक़ीक़त की तरफ़ खुला इशारा है कि इंसान इस कायनात में एक ऐसी हुकूमत का ग़ुलाम है जो सिर्फ़ अंधे फ़ितरी क़ानूनों पर हुकूमत नहीं कर रही है, बल्कि अपना एक सही और मुनासिब अख़लाक़ी क़ानून रखती है जिसके मुताबिक़ वो अख़लाक़ की एक ख़ास हद से ऊपर रहनेवालों को जज़ा (इनाम) देती है, इससे नीचे उतरनेवालों को कुछ मुद्दत तक ढील देती रहती है, और जब वो उससे बहुत ज़्यादा नीचे चले जाते हैं तो फिर उन्हें गिराकर ऐसा फेंकती है कि वो एक दास्ताने-इबरत ही बनकर रह जाते हैं। इन वाक़िआत का हमेशा एक तरतीब (क्रम) के साथ पेश आते रहना इस बात में शक करने की ज़रा भी गुंजाइश नहीं छोड़ता कि आमाल का अच्छा और बुरा बदला इस दुनिया का एक अटल क़ानून है।
फिर जो अज़ाब अलग-अलग क़ौमों पर आए हैं उनपर और ज़्यादा ग़ौर करने से ये अन्दाज़ा भी होता है कि इन्साफ़ के मुताबिक़ आमाल का अच्छा-बुरा बदला दिए जाने वाले क़ानून के जो अख़लाक़ी तक़ाज़े हैं वो एक हद तक तो उन अज़ाबों से ज़रूर पूरे हुए हैं मगर बड़ी हद तक अभी अधूरे हैं क्योंकि दुनिया में जो अज़ाब आया उसने सिर्फ़ नस्ल को पकड़ा जो अज़ाब के वक़्त मौजूद थी। रहीं वो नस्लें जो शरारतों के बीज बोकर और ज़ुल्म और बुरे कामों की फ़सलें तैयार करके कटाई से पहले ही दुनिया से विदा हो चुकी थीं और जिनके करतूतों का ख़ामियाज़ा बाद की नस्लों को भुगतना पड़ा वो तो जैसे बदले के क़ानून के अमल से साफ़ ही बच निकली हैं। अब अगर हम तारीख़ के मुताले से सल्तनते-कायनात (सृष्टि-व्यवस्था) के मिज़ाज को ठीक-ठीक समझ चुके हैं तो हमारा ये मुताला ही इस बात की गवाही देने के लिये काफ़ी है कि अक़्ल और इन्साफ़ के मुताबिक़ आमाल का बदला दिए जाने वाले क़ानून के जो अख़लाक़ी तक़ाज़े अभी अधूरे हैं, उनको पूरा करने के लिये ये इन्साफ़ करनेवाली सल्तनत यक़ीनी तौर पर फिर एक दूसरी दुनिया क़ायम करेगी और वहाँ तमाम ज़ालिमों को उनके करतूतों का पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा और वो बदला दुनिया के इन अज़ाबों से भी ज़्यादा सख़्त होगा।
यहां आप दो बातें अपने ज़हन में बिठा लीजिए;
1. इंसानी तारीख़ में ख़ुदा की जज़ा और सज़ा का क़ानून बराबर काम करता रहा है, जिसमें नेकोंकारों के लिये इनाम और ज़ालिमों के लिये सज़ा की मिसालें मुसलसल पाई जाती हैं। ये इस बात की खुली अलामत है कि दुनिया की इस ज़िन्दगी में भी इंसान के साथ उसके ख़ालिक़ का मामला सिर्फ़ क़ानूने-तबीई (physical law) पर मब्नी नहीं है, बल्कि अख़लाक़ी क़ानून (moral-law) उसके साथ काम करता है। और जब सल्तनत-ए-काएनात का मिज़ाज ये है कि जिस मख़लूक़ को मिटटी के शरीर में रह कर अख़लाक़ी आमाल का मौक़ा दिया गया हो, उसके साथ पेड़-पौधों और जानवरों की तरह महज़ दुनियावी क़ानून (physical law) पर मामला न किया जाए, बल्कि उसके अख़लाक़ी आमाल पर अख़लाक़ी क़ानून भी लागू किया जाए, तो ये बात अपने-आपमें इस हक़ीक़त की साफ़ निशान दही करती है कि इस सल्तनत में एक वक़्त ऐसा ज़रूर आना चाहिये जब इस ज़ाहिरी दुनिया में इंसान का काम ख़त्म हो जाने के बाद ख़ालिस अख़लाक़ी क़ानून के मुताबिक़ उसके अख़लाक़ी आमाल के नताइज पूरी तरह बरामद हों, क्योंकि इस physical दुनिया में वो मुकम्मल तौर पर बरामद नहीं हो सकते।
2. जो इन तारीख़ी इशारों से ज़हन में बिठाई गई है, वो ये है कि जिन क़ौमों ने भी नबियों की बात न मानी और अपनी ज़िन्दगी का पूरा रवैया तौहीद, रिसालत और आख़िरत के इनकार पर क़ायम किया, वो आख़िरकार हलाकत की मुस्तहिक़ हो कर रहीं। तारीख़ का ये मुसलसल तजुर्बा इस बात पर शाहिद है कि ख़ुदा का क़ानून-ए-अख़लाक़ी जो नबियों के ज़रिये से दिया गया, और उसके मुताबिक़ इंसानी आमाल की बाज़पुर्स जो आख़िरत में होनी है, सारा हक़ीक़त पर आधारित है, क्योंकि जिस क़ौम ने भी इस क़ानून से बेनियाज़ हो कर अपने-आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह समझते हुए दुनिया में अपना रवैया मुतैयन कर लिया है, वो आख़िरकार सीधी तबाही की तरफ़ गई है।
कुरआन सुरह नमल आयत 67- 69 में कहा गया कि:
ये ख़बरें हमको भी बहुत दी गई हैं और पहले हमारे बाप-दादा को भी दी जाती रही हैं, मगर ये बस कहानियाँ ही कहानियाँ हैं जो पुराने ज़माने से सुनते चले आ रहे हैं।”
कहो, "ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि मुजरिमों का क्या अंजाम हो चुका है।"
[कुरआन 27:67-69]
ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि मुजरिमों का क्या अंजाम हो चुका है।
इस छोटे से जुमले में आख़िरत की दो ज़बरदस्त दलीलें भी हैं और नसीहत भी।
1. पहली दलील ये है कि, दुनिया की जिन क़ौमों ने भी आख़िरत को नज़र-अन्दाज़ किया है, वो मुजरिम बने बिना नहीं रह सकी हैं। वो ग़ैर-ज़िम्मेदार बनकर रहीं। उन्होंने ज़ुल्मो-सितम ढाए। वो सरकशी और नाफ़रमानी में डूब गईं और अख़लाक़ की तबाही ने आख़िरकार उनको बरबाद करके छोड़ा।
ये इन्सानी इतिहास का लगातार तजरिबा, जिसपर ज़मीन में हर तरफ़ तबाह हो चुकी क़ौमों के आसार गवाही दे रहे हैं, साफ़ ज़ाहिर करता है कि आख़िरत के मानने और न मानने का बहुत ही गहरा ताल्लुक़ इन्सानी रवैये के सही होने और सही न होने से है। इसको माना जाए तो ये रवैया दुरुस्त रहता है। न माना जाए तो रवैया ग़लत हो जाता है। ये इस बात की खुली दलील है कि उसका मानना हक़ीक़त के मुताबिक़ है, इसी लिये उसके मानने से इन्सानी ज़िन्दगी ठीक डगर पर चलती है और उसका न मानना हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है। इसी वजह से ये गाड़ी पटरी से उतर जाती है।
2. दूसरी दलील ये है कि इतिहास के इस लम्बे तजरिबे में मुजरिम बन जानेवाली क़ौमों का लगातार तबाह होना इस हक़ीक़त की साफ़ दलील दे रहा है कि ये कायनात बेसमझ ताक़तों की अन्धी-बहरी हुकूमत नहीं है, बल्कि ये एक हिकमत भरा निज़ाम (व्यवस्था) है, जिसके अन्दर अमल का अच्छा-बुरा बदला दिये जाने का एक अटल क़ानून काम कर रहा है जिसकी हुकूमत
इन्सानी क़ौमों के साथ सरासर अख़लाक़ी बुनियादों पर मामला कर रही है जिसमें किसी क़ौम को बुरे काम करने की खुली छूट नहीं दी जाती कि एक बार ऊपर उठ जाने के बाद वो हमेशा ऐशो-आराम के मज़े लूटती रहे और ज़ुल्मो-सितम के डंके बजाती चली जाए, बल्कि एक ख़ास हद को पहुँचकर एक ज़बरदस्त हाथ आगे बढ़ता है और उसको ऊँचाइयों से गिराकर रुसवाई के गढ़े में फेंक देता है। इस हक़ीक़त को जो शख़्स समझ ले वो कभी इस बात में शक नहीं कर सकता कि कामों का अच्छा या बुरा बदला दिये जाने का यही क़ानून इस दुनिया की ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी दुनिया का तक़ाज़ा करता है, जहाँ लोगों का और क़ौमों का और कुल मिलाकर सारे ही इन्सानों का इन्साफ़ चुकाया जाए क्योंकि सिर्फ़ एक ज़ालिम क़ौम के तबाह हो जाने से तो इन्साफ़ के सारे तक़ाज़े पूरे नहीं हो गए। इससे उन सताए हुए लोगों की तो कोई भरपाई नहीं हुई जिनकी लाशों पर उन्होंने अपनी शानो-शौकत का महल बनाया था। इससे उन ज़ालिमों को तो कोई सज़ा नहीं मिली जो तबाही के आने से पहले मज़े उड़ाकर जा चुके थे। इससे उन बदकारों की भी कोई पकड़ नहीं हुई जो पीढ़ी दर पीढ़ी और अपने बाद आनेवाली नस्लों के लिये गुमराहियों और बद-अख़लाक़ियों की विरासत छोड़ते चले गए थे। दुनिया में अज़ाब भेजकर तो सिर्फ़ उनकी आख़िरी नस्ल के बढ़े हुए ज़ुल्म का सिलसिला तोड़ दिया गया। अभी अदालत का असल काम तो हुआ ही नहीं कि हर ज़ालिम को उसके किये का बदला दिया जाए और हर ज़ुल्म के शिकार शख़्स के नुक़सान की भरपाई की जाए और उन सब लोगों को इनाम दिया जाए जो बुराई के इस तूफ़ान में सच्चाई और ईमानदारी पर क़ायम और सुधार के लिये कोशिश करते रहे और उम्र भर इस राह में तकलीफ़ें सहते रहे। ये सब ज़रूर ही किसी वक़्त होना चाहिये क्योंकि दुनिया में कामों के अच्छे या बुरे बदले दिये जाने के क़ानून का लगातार काम करना कायनात की फ़रमाँरवा हुकूमत का ये मिज़ाज और काम का तरीक़ा साफ़ बता रहा है कि वो इन्सानी आमाल को उनकी अख़लाक़ी क़द्र के लिहाज़ से तौलती और उनका इनाम या सज़ा देती है।
इन दो दलीलों के साथ इस आयत में नसीहत का पहलू ये है कि पिछले मुजरिमों का अंजाम देखकर उससे सबक़ लो और आख़िरत के इनकार के उस बेवक़ूफ़ी वाले अक़ीदे पर अड़े न रहो जिसने उन्हें मुजरिम बनाकर छोड़ा था।
कुरआन सूरह रूम आयत 9 में कहा गया है कि:
[कुरआन 30:9]
यहां अल्लाह का ये कहना कि और क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं?
ये आख़िरत के हक़ में तारीख़ी दलील है।
मतलब ये है कि आख़िरत का इनकार दुनिया में दो चार आदमियों ही ने तो नहीं किया है इन्सानी तारीख़ के दौरान में बहुत ज़्यादा तादाद में इन्सान इस बीमारी में मुब्तिला होते रहे हैं। बल्कि पूरी-पूरी क़ौमें ऐसी गुज़री हैं जिन्होंने या तो उसका इनकार किया है या इससे ग़ाफ़िल होकर रही हैं या मौत के बाद ज़िन्दगी के मुताल्लिक़ ऐसे ग़लत अक़ीदे अपना लिये हैं जिनसे आख़िरत का अक़ीदा बे माना होकर रह जाता है। फिर तारीख़ का लगातार तजरिबा ये बताता है कि आख़िरत का इनकार जिस सूरत में भी किया गया है उसका लाज़मी नतीजा ये हुआ कि लोगों के अख़लाक़ बिगड़े। वो अपने आपको ग़ैर ज़िम्मेदार समझकर बिना लगाम का ऊँट बन गए। उन्होंने ज़ुल्म व फ़साद और बेहूदा बातों की हद कर दी और इसी चीज़ की बदौलत क़ौमों पर क़ौमें तबाह होती चली गईं। क्या हज़ारों साल की तारीख़ का ये तजरिबा जो लगातार इनसानी नस्लों को पेश आता रहा है ये साबित नहीं करता कि आख़िरत एक हक़ीक़त है जिसका इनकार इन्सान के लिये तबाह करने वाला है।
इन्सान गुरुत्वाकर्षण का इसीलिये तो क़ायल हुआ है कि तजरिबे से उसने माद्दी चीज़ों को हमेशा ज़मीन की तरफ़ गिरते देखा है, इन्सान ने ज़हर को ज़हर इसीलिये तो माना है कि जिसने भी ज़हर खाया वो मर गया, इसी तरह जब आख़िरत का इनकार हमेशा इन्सान के लिये अख़लाक़ी बिगाड़ का ज़रिया साबित हुआ है तो क्या ये तजरिबे ये सबक़ देने के लिये काफ़ी नहीं हैं कि आख़िरत एक हक़ीक़त है और इसको नज़रअन्दाज़ करके दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारना ग़लत है।
आगे आयत में फिर अल्लाह ने कहा कि वो इनसे ज़्यादा ताक़त रखते थे, उन्होंने ज़मीन को ख़ूब उधेड़ा था और उसे इतना आबाद किया था जितना इन्होंने नहीं किया है।
इसमें उन लोगों की दलील का जवाब मौजूद है जो महज़ दुनियावी तरक़्क़ी को किसी क़ौम के नेक होने का सबूत समझते हैं। वो कहते हैं कि जिन लोगों ने ज़मीन के कारोबार को इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल (Exploit) किया है, जिन्होंने दुनिया में बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं, और एक शानदार तहज़ीब और कल्चर को जन्म दिया भला ये कैसे मुमकिन है कि अल्लाह तआला उनको दोज़ख़ का ईंधन बना दे?
क़ुरआन इसका जवाब ये देता है कि ये विकास के काम पहले भी बहुत सी क़ौमों ने बड़े पैमाने पर किये हैं फिर क्या तुम्हरी आँखों ने नहीं देखा कि वो क़ौमें अपनी तहज़ीब और तमद्दुन (सभ्यता और संस्कारों) समेत ख़ाक में मिल गईं, और उनकी तामीर व तरक़्क़ी का आलीशान महल ज़मीन पर आ गिरा, जिस ख़ुदा के क़ानून ने यहाँ हक़ का अक़ीदा और अच्छे अख़लाक़ के बग़ैर महज़ दुनियावी तरक़्क़ी की ये क़द्र की है आख़िर क्या वजह है कि उसी ख़ुदा का क़ानून दूसरी दुनिया में जहन्नम में दाख़िल न करे।
इसके बाद अल्लाह ने फरमाया:
उनके पास उनके रसूल रौशन निशानियाँ लेकर आए। फिर अल्लाह उन पर ज़ुल्म करने वाला न था, मगर वो ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
यानी ऐसी निशानियाँ लेकर आए जो उनके सच्चे नबी होने का यक़ीन दिलाने के लिये काफ़ी थीं। इस पसमंजर में नबियों के आने के ज़िक्र का मतलब ये है कि एक तरफ़ इन्सान के अपने वजूद में और उससे बाहर सारी कायनात के निज़ाम में और इन्सानी तारीख़ के लगातार तजरिबे में आख़िरत की दलीलें मौजूद थीं और दूसरी तरफ़ लगातार ऐसे अंबिया भी आए जिनके साथ उनकी नबूवत के हक़ होने की खुली खुली निशानियाँ पाई जाती थीं और उन्होंने इन्सानों को ख़बरदार किया कि आख़िरत हक़ीक़त में आने वाली है।
इसके बाद जो तबाही उन क़ौमों पर आई, वो उन पर ख़ुदा का ज़ुल्म न था बल्कि वो उनका अपना ज़ुल्म था, जो उन्होंने अपने ऊपर किया। जो शख़्स या गिरोह न ख़ुद सही सोचे और न किसी समझाने वाले के समझाने से सही रवैया इख़्तियार करे इस पर अगर तबाही आती है तो वो आप ही अपने बुरे अन्जाम का ज़िम्मेदार है। ख़ुदा पर उसका इलज़ाम नहीं लगाया जा सकता।
ख़ुदा ने तो अपनी किताबों और अपने नबियों के ज़रिए इन्सान को हक़ीक़त का इल्म देने का इन्तेज़ाम भी किया है और वो इल्मी और अक़्ली ज़राए भी अता किये हैं जिनसे काम लेकर वो हर वक़्त नबियों और आसमानी किताबों के दिये हुए इल्म की रौशनी में जाँच सकता है। इस रहनुमाई और इन ज़रियों से अगर ख़ुदा ने इन्सान को महरूम रखा होता और इस हालत में इन्सान को ग़लत कामों के नतीजों का सामना करना पड़ता तब तो बेशक ख़ुदा पर ज़ुल्म के इल्ज़ाम की गुंजाइश निकल सकती थी।
1 टिप्पणियाँ
आँखे खोलने वाला मज़ामीन
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