Duniya Haqeeqi eid se mehroom | Eid ki sunnatein

 

Duniya Haqeeqi eid se mehroom | Eid ki sunnatein

दुनिया हक़ीक़ी ईद से महरूम

हम (अल हमदुलिलाह) मुसलमान हैं यानि उस दीन को मानने वाले जिसे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमारे लिए पसंद किया। और इस दीन को हम तक अपने महबूब बंदे (नबी करीम ﷺ) के ज़रिए पहुंचाया। और नबी करीम ﷺ ने ज़िंदगी के हर मामलात (खुशी और गम) में हमारी रहनुमाई फरमाई। उनके बताए हुए रास्ते पर चलने वाला ही मुसलमान कहलाता है। ऐसा नहीं है कि जो बातें हमें आसान लगें या फिल वक्त के लिए अच्छी लगें उस पर अमल करके हम मुसलमान बन जाएंगे।

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फरमाता है:

"ऐ ईमान लानेवालों! तुम पूरे-के-पूरे इस्लाम में आ जाओ। और शैतान की पैरवी न करो कि वो तुम्हारा खुला दुश्मन है।"

            [कुरान: 2.208]


▪️ दीन का सबसे पहले गलबा हमें हमारी अपनी ज़ात पर होना चाहिए।

और आज हम दीन के नाम पर ही क्या कर रहे हैं? 

▪️ पूरे दीन की पैरवी ना करना यानि शैतान की पैरवी करना जोकि हमारा खुला दुश्मन है।


आज ईद के नाम पर क्या क्या हो रहा है?

हर मौक़े पर हम अपना अपना तरीक़ा निकाल लेते हैं, दूसरों को देख कर।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: 

"जिस ने किसी कौम की मुशाबेहत (तरीक़ा) इख्तियार की तो उन्हीं में से हो गया।"

       [सुन्न अबु दाऊद:4031]


ईद के नाम पर गाना बजाना:

हर मुहल्ले के कुछ नौजवान चंदा इकट्ठा करते हैं और उस पैसे से लाउडस्पीकर ला कर नमाज़ के बाद से ले कर शाम होने तक कव्वाली/नात वगैरह चलाते हैं फिर उसमें गाना बजाना शुरू हो जाता है।

"और जो गुनाह और ज़्यादती के काम हैं उनमें किसी की मदद न करो। अल्लाह से डरो, उसकी सज़ा बहुत सख़्त है।"

                [कुरान: :5.2]

▪️ इन सब के अलावा कुछ अदाकार ख़ास तौर पर ईद के मौक़े पर फ़िल्म रिलीज़ करते हैं जिसकी टिकट लोग अपने जायज़ पैसों से बुक करते हैं और फिर देखने और चल के जाने का गुनाह के मुर्ताकिब बनते हैं।


ईद के नाम पर वक्त ज़ाया करना:

ईद की अस्ल तैयारी क्या है इसे बेश्तर लोग नहीं जानते हैं और गफलत में वो लोग अपने आपको बाज़ारों में ख्वार कर रहे होते हैं। 

जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के नज़दीक बाज़ार सबसे ना पसंदीदा जगह है।


ईद के नाम पर फिज़ूल खर्ची करना:

ईद की तैयारी में हम लोग फिज़ूल खर्ची करते हैं। जबकि ऐसी तैयारी का ज़िक्र हमें नबी करीम ﷺ की सुन्नत से नहीं मिला।

"फ़ुज़ूलख़र्च करने वाले लोग शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का नाशुक्रा है।"

        [कुरान: 17.27]

▪️ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ऐसे लोगों को शैतान का भाई बताया। जबकि रमज़ान में सरकश शैतान कैद रहते हैं। फिर भी हम अपनें आप को इस बुराई से रोकने में नाकाम हो जाते हैं। क्यों?


ईद के नाम पर बेहयाई:

ईद की तैयारी के नाम पर वक्त बर्बाद करके फिज़ूल खर्ची करके आगे जो काम अमल में लाया जाता है वो बेहयाई का काम। औरतें अपने नए और हसीन जोड़े पहन कर सज सवर कर यूं ही बेहिजाब और खुशबू लगा कर ईद मिलने जाती है।

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फरमाता है:

"वो अपना बनाव-सिंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने शौहर, बाप, शौहरों के बाप, अपने बेटे, शौहरों के बेटे, भाई, भाइयों के बेटे, बहनों के बेटे, अपने मेल-जोल कि औरतें, अपनी मिलकियत में रहनेवाले (लौंडी-ग़ुलाम), वो मातहत मर्द जो किसी और तरह की ग़रज़ न रखते हों, और वो बच्चे जो औरतों कि छिपी बातों को अभी जानते न हों। वो अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसका लोगों को पता चल जाए।"

       [कुरान: 24.31]


▪️ पूरे रमज़ान क़ुरआन को खूब पढ़ती हैं लेकिन अरबी में, जिसे हम में से बहुत कम लोग जानते हैं।

▪️ अरबी ना जानने वालों को इन अहकाम का क्या पता होगा कि हमारा रब हमसे क्या चाहता है? 

▪️ अनजाने में हम उसकी अता की हुई खुशियों को उसे ही नाराज़ करके मनाते हैं। 😥😥


खुशबू लगा बाहर निकलने वालियों के लिए!

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"जब कोई औरत खुशबू लगा कर किसी मजलिस से गुज़रती है वो ऐसी होती है जैसे ज़ानिया (adulteress)।"

              [सुन्न तिरमिजी:2786]


▪️ कुछ औरतें जानते हुए भी ख़ुद को इतने बड़े गुनाह की मुर्तकिब बना देती हैं।


औरतों का गैर मर्द से मेहंदी लगवाना और चूड़ियां पहनना

इस्लाम चूड़ियां पहनने और मेहंदी लगवाना या लगाने से नहीं रोकता है लेकिन किसी गैर मर्द का किसी गैर औरत को हाथ लगाना, ख़ुद सोचें तो सही इतनी बड़ी बुराई को हम बिल्कुल आम करते जा रहे हैं।

नबी करीम ने फ़रमाया:

"तुम्हारा सिर कील से फाड़ दिया जाना उस बात से बेहतर हैं कि तुम ऐसी औरत को छुओ जो तुम पर हलाल ना हो।"

                  [तबरानी 20/211]


▪️ ये मर्दों से कहा जा रहा है अब सोचें औरतों के लिए क्या हुक्म होगा जिन्हें ये इजाज़त ही नहीं कि वो अपने सगे रिश्तों के अलावा किसी के भी सामने जाएं और वो बैठ के किसी गैर मर्द ये सब से करवा रहीं हैं।😥

इस मसनुई (artificial) खुशियों को इकठ्ठा करते करते लोग ख़ुद को थका लेते हैं और फिर हकीकी खुशियों से महरूम रह जाते हैं।

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ कर दिये गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के मानने वालों पर फ़र्ज़ किये गए थे। इससे उम्मीद है कि तुममें परहेज़गारी की सिफ़त पैदा होगी।"

               [कुरान: 2.183]

ईद उल फितर रमज़ान के रोज़े पूरे होने पर मनाई जाती है। और रोज़ा क्यों फ़र्ज़ किया गया? तो इसका जवाब ऊपर बयान की गई आयत में मौजूद है। यानि इंसान तकवा (परहेज़गार) इख्तियार करे।


ख़ुद से चंद सवालात करते हैं!

▪️ क्या हम में तकवा आया?

▪️ क्या रमज़ान का मक़सद ईद के चाँद पर ही ख़त्म हो जाता है?

▪️ क्या हमनें जो नेकियां की वो मकबूल हो जाएंगी?

▪️ क्या इस्लाम हमें रोबोटिक बनाता है यानि सिर्फ़ अमल किए जाएं जिसका इंसानी अहसासात और ज़िंदगी पर कोई असर नहीं होता? 

इन सवालों के जवाबात हम इंफेरादी तौर (individually) पर ख़ुद से तलाश करेंगे। (इंशा अल्लाह)

अम्बिया इकराम अलैहिसलाम जब कोई नेक अमल करते तो उसकी कुबूलियत की दुआ भी करते रहते थे। इसकी एक मिसाल हज़रत इब्राहीम अलैहिसलाम, जो खाने काबे की तामीर करते हुए दुआ करते रहें।


अगर किसी का कोई सगा दुनिया से चला जाता है तो लोग ईद क्यों नहीं मनाते हैं?

आपने देखा होगा बेश्तर घरानों में अगर किसी का कोई सगा सम्बंधी फौत हो जाता है तो लोग ईदैन की खुशियां नहीं मनाते हैं। तो आए देखते हैं इस मामले इस्लाम हमारी क्या राहनुमाई करता है?

उम्मे अतिया (रज़ी०) ने फ़रमाया:

"हमें किसी मय्यत पर तीन दिन से ज़्यादा सोग करने से मना किया जाता था लेकिन शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन तक सोग का हुक्म हुक्म था।"

          [सहीह बुखारी:313]


▪️ किसी अपने की फौत के चौथे दिन आप अपनी आम ज़िंदगी की तरफ़ लौट आएंगे। 

▪️ हां! अगर किसी का शौहर फौत हो जाए तो उसे ऊपर बयान की हदीस के मुताबिक़ अमल करना होगा।

▪️ अब सवाल ये है कि लोग गैर मुस्लिमों की तरह एक साल की ईद नहीं मनाते हैं। जबकि वही लोग शादी की और पैदाईश की सालगिराह मनाते हैं, शादियों की और दुसरी खुशियों में खूब अच्छे से शरीक होते हैं।

▪️इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि लोग मौत और ज़िंदगी की अजमाईश से बे ख़बर हैं।

जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने फ़रमाया:

"जिसने मौत और ज़िन्दगी को बनाया ताकि तुम लोगों को आज़मा कर देखे कि तुममें से कौन बेहतर अमल करनेवाला है।"

                   [कुरान: 67.2]

किसी अपने के चले जाने का ख़ुद बेशक ना काबिले ज़िक्र होता है लेकिन हम सब को उसी परवरदीगर की जानिब रूजू करना है तो हमें चाहिए कि उसके फैसले पर हम राज़ी और खुश हो जाएं। इसमें भी हमारे लिए ही ख़ैर है।


अब बात करते हैं हकीक़ी ईद की

ईद (عید) लफ्ज़ ये ऊद (عود) ये मुशतक (अखज़ किया गया, लिया गया) जिसका माना होता हैं लोट आना, वापस आना

इसीलिए इन दिनों में किसी कौम और मिल्लत की मुश्किलात एक तरफ़ हो जाती हैं और वह पहले जैसी कामयाबियों और राहतों की तरफ पलट आती है उसे ईद कहा जाता है।

 इस्लामी ईद को उस मनासिब से ईद कहा जाता है की माहे रमजान में 1 महीने की इताअत के बाद या हज की अजीम फरीज़ा अंजाम देने की वजह से रूह में पहले से फितरी सफाई और पाकीज़गी लोट आती हैं और वह आलूदगियां जो खिलाफ ए फितरत हैं ख़त्म हो जाती हैं।

ईद का दिन ईनाम का दिन होता है अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इस दिन अपने रोज़ेदार बंदे और बंदियों को उनके नेक अमल के बदले ईनाम देता है। दुनिया में इसे खुशियां मनाने के तौर पर रखा है और आखिरत में क्या कुछ होगा वो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ही बेहतर जानता है।


ईद मनाने के आदाब

▪️ ईद के दिन गुस्ल करना चाहिए।

▪️ खुशबू मयस्सर हो तो उसका भी इस्तेमाल करें। (औरत खुशबु लगाकर बाहर ना निकले) 

▪️ अपने सब कपड़ों में से उम्दा कपड़े पहने।

उमर (रज़ि०) एक मोटे रेशमी कपड़े का चोग़ा ले कर नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए जो बाज़ार में बिक रहा था। कहने लगे:

या रसूलुल्लाह! आप इसे ख़रीद लीजिये और ईद के मौक़े पर और वफ़द के आने पर इसे पहन कर ज़ीनत फ़रमाया कीजिये। इस पर रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया कि ये तो वो पहनेगा जिसका (आख़िरत में) कोई हिस्सा नहीं।

इस हदीस से मालूम होता है नए कपड़े भी पहना जा सकता है। इस हदीस के और भी पहलुओं पर गौर करें तो पता चलता है कि आप (ﷺ) ने दुनिया नहीं बल्कि आखिरत को तरजीह दी।

नबी करीम ﷺ ईद उल फितर के दिन ना निकलते जब तक आप चंद खुजूरे ना खा लेते और आप ताक अदद (odd number) में खाते।

         [सहीह बिखरी:953]

अगर खुजूर ना हो तो कोई मीठी चीज़ खा लें।


▪️ पैदल ईदगाह जाना

नबी करीम ﷺ ईद के दिन एक रस्ते से जाते फिर दुसरा रास्ता बदल कर आते।

        [साहीह बुखारी:986]

इस हदीस के हवाले से अहले इल्म कहते हैं रास्ता बदल कर आने जानें से दोनों रास्ते हमारे लिए गवाह बन जाएंगे।

▪️ "ईदैन की नमाज़ के, नबी करीम ﷺ के और खुल्फा एराशिदीन के दौर में अज़ान नहीं दी जाती थी।"

         [सहीह बुखारी:960]

"पस तुम अपने रब ही के लिये नमाज़ पढ़ो और क़ुरबानी करो।"

           [कुरान: 108.2]

इस आयत की तफ्सीर में अहले इल्म कहते हैं कि इसमें ईदैन की नमाज़ भी शामिल होती है। 

▪️ गोया ईद की नमाज़ वाजिब है।

नबी करीम ﷺ ईद उल फितर के दिन निकले और (ईदगाह) में दो रकात नमाज़ ए ईद अदा किए। आप ﷺ ने ना इससे पहले कोई नफिल नमाज़ पढ़ी ना इसके बाद।

                [सहीह बुखारी:989]

ईद की नमाज़ फज्र की नमाज़ के बाद अदा की जाती है और उसके बाद ज़ुहर। 


ईद के ताल्लुक़ से औरतों के लिए हुक्म

उम्मे अतिया (रज़ी०) फरमाती हैं;

"हमें हुक्म हुआ कि हम ईदों के दिन हायज़ा और पर्दा नशीं औरतों को भी बाहर ले जाएँ। ताकि वो मुसलमानों के इज्तिमाअ और उन की दुआओं में शरीक हो सकें। अलबत्ता हायज़ा औरतों को नमाज़ पढ़ने की जगह से दूर रखें। एक औरत ने कहा, या रसूलुल्लाह! हम में कुछ औरतें ऐसी भी होती हैं जिनके पास (पर्दा करने के लिये) चादर नहीं होती। आप (ﷺ) ने फ़रमाया कि उसकी साथी औरत अपनी चादर का एक हिस्सा उसे उढ़ा दे।"

          [सहीह बुखारी: 351]


▪️ इस्लाम ने औरत को नापकी की हालत में भी ईदगाह जाने को कह नहीं रहा बल्कि हुक्म दे रहा है।

▪️सादगी और पर्दे के साथ ईदगाह जाए। अब तो वो वक्त भी नहीं रहा कि चादर या पर्दे की कमी हो अब तो लोगों के पास इतने कपड़े होते हैं जिनकी गिनती भी नहीं होती।

▪️ लोग औरतों को मस्जिद जाने से रोकते हैं बल्कि ऐसा करने से मना किया गया है।

और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के नज़दीक सबसे पसंदीदा जगह मस्जिद ही है तो वो औरतों के लिए भी होगा।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

"अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के नज़दीक सबसे पसंदीदा जगह मस्जिद और सबसे ना पसंदीदा जगह बाज़ार है।"     

        [सहीह मुस्लिम:1528]

▪️ बाज़ार जानें से नहीं रोकते जो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को बिल्कुल नहीं पसन्द है और फितना भी बाज़ार से ही उठता है।

▪️ एक रिवायत के मुताबिक़ नबी करीम ﷺ नमाज़ और खुत्बे के बाद औरतों के पास आते और उन्हें सदका करने की नसीहत देते। पूछने पर उन्हें फ़रमाया हां हर ईमान को आ कर नसीहत करनी चाहिए।

हकीकी ईद में ना बे हयाई, ना फिज़ूल खर्ची और ना कोई दूसरे लौज़मात हैं।

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने फ़रमाया:

कहो: "मेरी नमाज़, मेरी इबादत की सारी रस्में, मेरा जीना और मेरा मरना, सब कुछ अल्लाह, सारे जहानों के रब के लिये है।"

        [कुरान: 6.162]


गले मिलकर मुबारक बाद देना 

अब बात आती है क्या गले मिलकर मुबारक बाद देना चाहिए?

इसकी कोई तारीख़ नबी करीम ﷺ या सहाबा इकराम के दौर से तो नहीं मिलती। लेकिन अगर कोइ ऐसा करता है तो कोई बुरा नहीं बिदअत नहीं क्योंकि वो सवाब की नीयत से तो नहीं कर रहा है ना। आपको ये नहीं सही लगता आप इसकी पहल ना करें लेकिन इस बिना पर किसी से बद अख्लाकी का मुज़ाहिरा नहीं करना चाहिए।

▪️ एक रिवायत में है कि ईद के दिन नबी करीम ﷺ के घर कुछ लड़कियां दफ़ बजा रही थीं नबी करीम ﷺ ने उन्हें नहीं मना किया जब हज़रत अबु बकर (रज़ी०) ने रोकना चाहा तो आप ﷺ ने फ़रमाया नहीं रोको हर कौम की ईद (खुशी का दिन) होता है और ये हमारी ईद है।

▪️ घर के बाहर कुछ लड़के खेल दिखा रहे थे तो उन्हें हज़रत उमर (रज़ी०) ने रोकना चाहा तो आप ﷺ ने फ़रमाया मत रोको ये ईद का दिन है।

इन बातों पर गौर करें और गले मिलने के ताल्लुक़ से आपस में इंतेशार ना पैदा करें। 


मुबारक बाद देने का तरीक़ा

تقبل اللہ منا و منک

"तक़ब्बल्लाहु मिन्ना वा मिंका" 

अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त मेरी और हम सब की इबादत (नमाज़, रोज़ा और जकात) क़ुबूल फरमाएं।


अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमें हकीक़ी खुशियां नसीब करे।

हमारे जानिब (इस्लामिक थियोलॉजी ब्लॉग टीम) से हमारे क़ारयीन (reader) को ईद उल फितर बहुत मुबारक।

(تَقَبَّلَ اللهُ مِنَّا وَمِنكُم)

"तक़ब्बल्लाहु मिन्ना वा मिंकुम"


आपकी दीनी बहन
नाज़

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