माहे शाबान की फज़ीलत
शाबान इस्लामी महीनों का आठवां महीना है इसका लुगवी माना जुदा करना या जमा करना है। इस महीने की फज़ीलत के नाम पे बहुत कुछ गलत फहमियां आम है जिनपे इंशा अल्लाह अगली किस्त में बात करेंगे। अभी हम इस महीने में नबी करीम ﷺ की सुन्नत से साबित अमल को जानने की कोशिश करते हैं;
ओसामा बिन ज़ैद (रज़ी०) ने अर्ज़ किया या रसूल ﷺ, "मैंने आपको शाबान के जितने रोज़ा रखते नहीं देखा।"
आप ﷺ ने फ़रमाया:
"ये वो महीना है जिस की तरफ़ लोग ज़्यादा तवज्जो नहीं देते हैं। रजब और रमज़ान के दरमियान ये वो महीना है जिस में अमाल रब्बुल आलमीन की तरफ़ उठाए जाते हैं और मैं (ﷺ) ये पसंद करता हूं कि मेरे अमाल इस वक्त उठाए जाए जब मैं रोजे में हूं। [सुन्न निसाई:2357]
ऊपर बयान की गई हदीस में रोज़ा रखने की हिक्मत भी बताई गई है। वैसे तो रोज़ के अमाल फज्र और असर में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बारगाह में पेश होते हैं और हफ़्ते के अमाल जुमेरात और पीर (Monday) को पेश किया जाता है और साल भर के अमाल शाबान के महीने में पेश किए जाते हैं और इसी लिए नबी करीम ﷺ रोज़ा रखते थें।
दुनिया कहती है, first impression is last impression लेकिन अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के वहां last impression is final impression.
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
"बिला शुबहा, अमालो का ऐतबार खात्मे पे है।" [सहीह बुखारी: 6607]
यानि इंसान आख़िरी वक्त में क्या कर रहा था?
अगर वो सारी ज़िंदगी गलत कामों में मुबतला रहा लेकिन अगर उसने मरने से पहले तौबा कर लिया तो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त उसे माफ़ कर देता है।
मिसाल के तौर पे:
कुछ students साला साल नहीं पढ़ते हैं और जब exam क़रीब आता है तो वो खूब मन लगा कर exam की तैयारी करते हैं और फिर वो अच्छे marks से passed हो जाते हैं और आगे classes में उनसे ये सवाल नहीं किया जाता है कि तुमने साल भर study पे ध्यान दिया था या नहीं बस नतीजा देखा जाता है। इसी तरह अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त भी अपने बंदों से पिछले अमल का हिसाब नहीं मांगता है।
ये है इस महीने की फजीलत की बंदों के साल भर के अमाल अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बारगाह में पेश होते हैं। तो ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की इबादत करनी चाहिए लेकिन वही जो नबी करीम ﷺ की सुन्नत से साबित है।
इस महीने की ईबादत:
जैसे इस महीने की सिर्फ़ एक फजीलत है उसी तरह इस महीने में की जाने वाली सिर्फ़ एक ईबादत, और वो रोज़ा है। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमें अपनी ईबादत के लिए पैदा किया।
"मैंने जिन्न और इन्सानों को इसके सिवा किसी काम के लिये पैदा नहीं किया है कि वो मेरी बन्दगी करें।" [क़ुरआन 51: 56]
और रोज़ा तमाम ईबादतों का मजमुआ है। क्यों कि रोज़ा नमाज़ में खुशू और खुज़ू पैदा करती है, रोजे की हालत में इंसान ज़्यादा से ज़्यादा कुरआन मजीद की तिलावत करता है और रोज़ा सदकें के लिए उभरती है और रोज़ा तमाम बुराइयों की ढाल है।
नबी करीम ने फ़रमाया:
"रोज़ा (जहन्नम की) आग से बचाव के लिए ढाल है, जैसे तुम्हारे पास जंग में बचाव के लिए ढाल होती है।" [सुन्न निसाइ: 2233]
हज़रत आयशा (रज़ी०) फरमाती हैं:
"मैंने नहीं देखा नबी करीम ﷺ को शाबान के अवाला किसी और महीने में ज़्यादा (नफ्ली रोज़ा) रखा। ऐसा मालूम होता था कि आप ﷺ चंद दिनों के अलावा पूरे शाबान रोजे रखेंगे।" [सहीह मुस्लिम:1156]
मैं (उम्मे सलमा रज़ि०) ने नबी अकरम ﷺ को लगातार दो महीनों के रोज़े रखते नहीं देखा, सिवाए शाबान और रमज़ान के।
हज़रत आयशा (रज़ि०) से रिवायत हुई है। वो कहती हैं कि,
"मैं ने नबी अकरम ﷺ को शाबान से ज़्यादा किसी महीने में रोज़े रखते नहीं देखा; आप ﷺ शाबान के सारे रोज़े रखते, सिवाए कुछ दिनों के बल्कि पूरे ही शाबान रोज़े रखते थे।" [तिर्मिज़ी :736]
लेकिन इन बातों का ख्याल रहे कि हमारा फ़र्ज़ रोज़ा (रमज़ान का रोज़ा) मुतासिर ना हो।
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
"अमल वही इख़्तियार करो जिसकी तुम में ताक़त हो क्योंकि अल्लाह तआला (सवाब देने से) नहीं थकता।" [सहीह बुखारी : 1970]
निस्फ शाबान से मुतालिक अहम बातें
- "जब निस्फ (15 तारीख़ के बाद) शाबान आ जाएं तो रमज़ान तक रोजे न रखो।" [मुस्नद अहमद: 9707]
- "जब निस्फ शाबान आ जाएं तो रमज़ान तक रोजे न रखो।" [सुन्न कुबरा बहियीकी, अबु दाऊद: 2337]
- "निस्फ शाबान के बाद कोई रोजे नहीं यहां तक की रमज़ान आ जाए। [इब्ने हिब्बान: 3591]
- "जब निस्फ शाबान आ जाए तो रोजे से रुक जाओ।" [सुन्न नसाई कुबरा: 2911,,2923]
- "जब निस्फ शाबान आ जाए तो रोजे से रुक जाओ यहां तक की रमज़ान आ जाए।" [इब्ने माजा:1651]
- "जब निस्फ शाबान बच जाए तो रोजे न रखो।" [तिरमिजी: 738]
जैसे: इमाम तिरमिजी, इब्ने हिब्बान, अबि उवाना, इमाम अल्बानी, इमाम तहावी, इमाम अब्दुल बर, अहमद शाकिर, शोएब अरनाउट और इब्ने हजम।
लेकिन इन हदीसो में कमियां भी पाई जाती है जिनकी वजह से इन हदीसो को मुंकर मानना ज़्यादा मुनासिब है।
देखते हैं कि निस्फ शाबान के बाद रोजे रखने की हदीसे;
1. पहली हदीस:
नबी करीम (ﷺ) ने फरमाया,
"तुममें से कोई शख्स रमजान से पहले ( शाबान की आखिरी तारीखों में ) एक या दो दिन के रोजे न रखे अलबत्ता अगर किसी को उन में रोजे रखने की आदत हो तो वो उस दिन भी रोज़ा रख ले।" [सहीह बुखारी: 1914]
ये हदीस रमज़ान से एक दो दिन पहले रोजे रखने पे दलालत करती है।
2. दूसरी हदीस:
हज़रत आयशा (रज़ी०) से मरवी है,
"नबी करीम ﷺ शाबान से ज़्यादा किसी महीने का रोज़ा नही रखा करते थें आप ﷺ शाबान के महीने का तकरीबन पूरा रोजा रखा करते थे।" [सहीह बुखारी : 1970]
इस हदीस का मफहूम ये है की नबी करीम ﷺ शाबान के पूरे रोजे नहीं बल्कि शाबान के अक्सर रोजे रखा करते थें और अक्सर रोजे में निस्फ शाबान का रोज़ा भी दाखिल है।
3. तीसरी हदीस:
"इमरान बिन हुसैन से मरवी है,
"नबी करीम ﷺ ने एक शख़्स से फरमाया क्या तूने इस महीने के आखिर में कोई रोजा रखा?" [सहीह मुस्लिम : 1161]
ये असल में एक सहाबी को नबी करीम ﷺ ने हुक्म दिया जिनकी आदत हमेशा रोजे रखने की थी ये नज़र का रोज़ा था शाबान के आखिर में न रख सकने की वजह से बाद में (रमज़ान के बाद) इसको पूरा करने का हुक्म दिया।
निस्फ शाबान के बाद रोजा न रखो वाली हदीसो को सहीह मान लिया जाए तो इस बिना ये कहा जायेगा की इस मनाही में कुछ लोग अलग (Exception) है-
(01) जिसे रोजे रखने की आदत हो। मसलन: कोई शख्स पीर और जुमेरात के रोजे रखने का आदि हो तो वो निस्फ शाबान के बाद भी रोजे रख सकता है।
(02) जिसने निस्फ शाबान से पहले रोजे रखने शुरू कर दिया निस्फ शाबान पहले को बाद वाले से मिला दिया।
(03) उससे रमज़ान की क़ाज़ा और नज़र के रोजे रखने वाला भी अलग है (Exception)।
हज़रत आयशा (रज़ी०) को फरमाते हुए सुना कि,
"रमज़ान का रोज़ा मुझसे (हैज़ की वजह से) क़ज़ा हो जाते थे। तो मैं इन रोजो की क़ज़ा सिवाय शाबान के नहीं कर सकती थी। नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में मशग़ूल रहने की वजह से था।" [सहीह बुखारी :1950]
(04) नबी करीम ﷺ की इत्तेबा में शाबान का अक्सर रोज़ा रखना चाहे रख सकता है इस हाल में के रमज़ान में रोज़ा के लिए कमजोर न हो जाए।
अगर निस्फ शाबान के बाद रोजे ना रखे जाने वाली हदीसो को सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया जाए क्योंकि ये हदीस बुखारी मुस्लिम की सहीह तारीन अहदीसो से टकरा रही है तो जिसमें निस्फ शाबान के बाद भी रोजे रखने की इजाज़त आ रही है तो ये भी बेहतर होगा।
जब दो रस्ता निकालना मुमकिन हो तो निकाल लिया जाय।
वल्लाहु आलम (अल्लाह बेहतर जाने)
By: अहमद बज़्मी
1 टिप्पणियाँ
Bakamaal article allahumma barik💞
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।