पारा (03) तिलकर रुसुल
इस पारे में 2 हिस्से हैं:
[2] सूरह [003] आले इमरान का इब्तेदाई हिस्सा
[1] सूरह (002) अल बक़रह (बाक़ी हिस्सा)
(i) आयतुल कुर्सी:
आयतुल कुर्सी बड़ी फ़ज़ीलत वाली आयत है। (255) सोने से पहले आयतुल कुर्सी पढने वाले की हिफ़ाज़त पूरी रात एक फ़रिश्ता करता रहता है और सुबह तक शैतान उसके पास नहीं आता। (बुख़ारी 2311) जो हर फ़र्ज़ नमाज़ के बाद जो आयतुल कुर्सी पढ़े उसे मौत के इलावा कोई चीज़ जन्नत में दाख़िल होने से नहीं रोकती। (सही अल जामेउस सग़ीर 6464)
(ii) दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं:
जो चाहे ईमान लाकर नेक अमल करे और जो चाहे कुफ्ऱ पर क़ायम रहे, किसी पर कोई ज़बरदस्ती नहीं है अलबत्ता उसके आमाल की बुनियाद पर आख़िरत में फ़ैसला होगा। (256)
(iii) दो नबियों का बयान:
इब्राहीम अलैहिस्सलाम का नमरूद से मुबाहिसा और यह कह कर नमरूद को लाजवाब कर देना कि 'मेरा रब तो सूरज को पूरब से निकालता है तू ज़रा पश्चिम से निकाल दे" मुर्दा के जिंदा उठाये जाने के Observing की दुआ।
दूसरे उज़ैर अलैहिस्सलाम जिन्हें अल्लाह तआला ने सौ बरस तक मौत दे कर फिर ज़िंदा किया। (258, 259)
(iv) सदक़ा और ब्याज (सूद):
देखने में ऐसा महसूस होता है कि सदक़ा से माल कम होता है और सूद से बढ़ता है लेकिन सही बात यह है कि सदक़ा से माल बढ़ता है और सूद से घटता है। अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने का सवाब 700 गुना से भी ज़्यादा है 700 गुना तो दुनिया में भी अल्लाह देता है एक व्यक्ति एक दाना ज़मीन में डालता है उस दाने से पौधा निकलता है उसमें 7 बालियां होती हैं और हर बाली में 100 दाने होते हैं लेकिन उसके साथ शर्त यह है कि उसमें दिखावा, या एहसान जताने और तकलीफ़ पहुचाने की नीयत शामिल न हो वरना वह सवाब के बजाय अज़ाब बन जाएगा। इसके मुक़ाबले में ब्याज उतना ही घिनौना गुनाह है ब्याज में लिप्त लोग हक़ीक़त में अल्लाह और उसके रसूल से जंग का बिगुल बजा रहे हैं और जो अल्लाह और उसके रसूल से जंग करे उसका अंजाम कितना भयानक होगा। (261 से 279)
(v) क़ुरआन की सबसे लंबी आयत:
क़ुरआन की सबसे लंबी आयत तिजारत और क़र्ज़ के सिलसिले में है जिसमें क़र्ज़ लेने और देने के नियम बताए गए हैं। क़र्ज़ को लिखा जाय, दो गवाह बनाये जाएं, एक मुंशी हो वगैरह वगैरह। (282, 283) [1]
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[2] सूरह 003 आले इमरान का इब्तेदाई हिस्सा
(i) सूरह बक़रह से मुनासिबत (जोड़):
दोनों सूरतों में क़ुरआन की हक़्क़ानियत (सच्चाई) और अहले किताब से ख़िताब है। सूरह बक़रह में ज़्यादा तर ख़िताब यहूदियों से है और आले इमरान में ज़्यादातर नसारा (ईसाइयों) से है।
(ii) आयाते मुहकमात और आयाते मुतशाबिहात:
क़ुरआन में दो तरह की आयतें हैं एक बिल्कुल स्पष्ट हैं जिनमें अहकाम हैं और इंसान को अमल करने की दावत दी गई है। नेक मोमिन का तअल्लुक़ उन्हीं आयतों से होता है। इसके इलावा कुछ आयतें मुतशाबिहात हैं जिसका इल्म अल्लाह को है। मुतशाबिहात भी मुहकम आयात होती जाती हैं जब अल्लाह उसको खोलना चाहता है। जिनके दिलों में टेढ़ होती है वह मुहकम को छोड़ कर केवल मुतशाबिहात के पीछे पड़े रहते हैं। (आयत 07)
(iii) अल्लाह तआला की क़ुदरत के चार वाक़िआत:
● मरयम अलैहास्सलाम के पास बग़ैर मौसम के फल पाए जाने का वाक़िआ।
● ज़करिया अलैहिस्सलाम को बुढ़ापे में औलाद मिलने का वाक़िआ।
● ईसा मसीह अलैहिस्सलाम का बग़ैर बाप के पैदा होना, मां की गोद मे दूध पीने की हालत में ही बात करना और फिर जिंदा आसमान पर उठाए जाने का वाक़िआ।
(iv) इस्लाम के इलावा कोई दीन क़ुबूल नहीं:
अल्लाह के नज़दीक असल दीन इस्लाम ही है जो भी कुफ्र की हालत में दुनिया से जाएगा तो वह ज़मीन के बराबर सोना भी फ़िदिया में दे दे तब भी जहन्नम से नही बच सकता। (19, 85)
(v) अहले किताब (ईसाइयों) से मुनाज़िरा, मुबाहिला और मुफ़ाहिमा):
फिर जब तुम्हारे पास इल्म (कुरआन) आ चुका उसके बाद भी अगर कोई ईसाई (नसरानी) ईसा के बारे में तुम से हुज्जत करे तो कहो कि (अच्छा मैदान में) आओ हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को, हम अपनी औरतों को बुलाएं और तुम अपनी औरतों को और हम अपनी जानों को बुलाएं और तुम अपनी जानों को उसके बाद हम सब मिलकर (अल्लाह की बारगाह में) गिड़गिड़ाएं और झूठों पर अल्लाह की लानत भेजें। (61)
(vi) पिछले अंबिया से अहद:
यह अहद पिछले अंबिया से भी था और उनकी उम्मतों से भी
(और ऐ रसूल वह वक्तत भी याद दिलाओ) जब अल्लाह ने पैग़म्बरों से इक़रार लिया कि हम तुमको जो कुछ किताब और हिकमत (वगैरह) दें उसके बाद तुम्हारे पास कोई रसूल आए और जो किताब तुम्हारे पास है उसकी तस्दीक़ करे तो (देखो) तुम ज़रूर उस पर ईमान लाना और ज़रूर उसकी मदद करना (और) अल्लाह ने फ़रमाया क्या तुमने इक़रार कर लिया तुमने मेरे (अहद का) बोझ उठा लिया सभी ने अर्ज़ किया कि हमने इक़रार किया इरशाद हुआ (अच्छा) तो आज के क़ौल व (क़रार) पर आपस में एक दूसरे के गवाह रहना और तुम्हारे साथ मैं भी गवाह हूं। (81)
(vii) अल्लाह से मुहब्बत के लिए रसूल के पैरवी शर्त है:
ऐ नबी! लोगों से कह दो कि “अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह से मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा और तुम्हारी ग़लतियों को माफ़ कर देगा। वह बड़ा माफ़ करने वाला और रहम करने वाला है।” (आयत 31)
(viii) मास्टर कुंजी (Master Key):
सूरह आले इमरान की आयत नंबर 64 मास्टर कुंजी (master key) की हैसियत रखती है जो लोगों के लिए एक चैलेंज भी है और अल्लाह के रास्ते की तरफ़ दावत का वसीला भी क्योंकि आज भी दुनिया में जितने धर्म पाए जाते हैं उनकी कोई न कोई मुक़द्दस किताब ज़रूर है और उसमें तौहीद (एक ईश्वरवाद) की ही शिक्षा दी गई है और अब भी मौजूद है। ख़ुद सनातन धर्म या वैदिक धर्म में भी एक ईश्वरवाद की शिक्षा पूर्ण रूप से पाई जाती है।
वह master key है:
قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ تَعَالَوْا إِلَىٰ كَلِمَةٍ سَوَاءٍ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ أَلَّا نَعْبُدَ إِلَّا اللَّهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهِ شَيْئًا وَلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللَّهِ ۚ فَإِن تَوَلَّوْا فَقُولُوا اشْهَدُوا بِأَنَّا مُسْلِمُونَ
(ऐ रसूल) तुम कहो कि ऐ अहले किताब तुम ऐसी (ठिकाने की) बात पर तो आओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यकसॉ (समान) है कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और किसी को उसका शरीक न बनाएं और अल्लाह के सिवा हममें से कोई किसी को अपना परवरदिगार न बनाए अगर इससे भी मुंह मोडें तो तुम गवाह रहना हम (अल्लाह के) फ़रमाबरदार हैं। (64)
आसिम अकरम (अबु अदीम) फ़लाही
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