सफर ऐ हिजाब : अल्लाह से करे दूर वो तालीम भी फितना
मेरी कहानी एक ऐसे नवाब परदादा से शुरू होती है जिन्हें अल्लाह ने माल -दौलत से बहुत नवाज़ा था मगर इल्म की कमी से दौलत कभी ख़ैर नहीं ला सकती ।फिर बिखराव के साथ आज़माईश शुरू होती है और हालात ऐसे आए कि मेरे वालिद अभी गोद के बच्चे थे कि अपनी वालिदा से अलग कर दिये गये। मासूम दादी जवानी में पाकिस्तान चली गई और वहीं की होकर इंतिक़ाल कर गई। मेरे वालिद को परदादा ने विरासत में काफी कुछ दिया था वो भी हड़प लिया गया और फिर हमारे वालिद ने बच्चियों को एक सरकारी गर्ल्स मुस्लिम कालेज में पढ़ाया। अल्लाह फरमाता है -
और हम मुब्तिला करते हैं तुम्हें अच्छे हालात में और बुरे हालात में, तुम्हें आज़माने के लिए और हमारी तरफ़ तुम लौटाए जाओगे।
कुरआन 21:35
मुझे नर्सरी के लिए जब एडमिशन के लिए ले जाया गया मैं तो मेरी वालिदा बताती हैं कि मैंने गर्ल्स मुस्लिम कालेज में एडमिशन के वक़्त स्कूल देखते ही रोना शुरू कर दिया कि मुझे यहां नहीं आना क्योंकि बच्चे टाटपट्टी पर बैठते थे। स्कूल ही पसंद नहीं था। फिर मेरी वजह से मेरी बड़ी बहन को स्कूल से निकाल कर एक बेहतर प्राइवेट को- एड स्कूल में एडमिशन कराया गया। वहां बहन को क्लास भी रिपीट करानी पड़ी और मैं अक्सर उनसे कहती थी कि मेरे ज़रिए बेहतर एजुकेशन मिली।
स्कूल की बिल्डिंग अच्छी थी। बहुत सारे झूले भी थे। नर्सरी क्लास में भी लकड़ी के घोड़े और एबेकस भी थे। फिर बचपन से ही डांसिंग और म्यूज़िक में शौक हो गया कि ये एक पैशन बन गया।ये शौक टीवी से ही हुआ था।घर में टीवी के सामने थिरकती रहती थी। अल्लामा इक़बाल रह. ने भी क्या खूब फ़रमाया है-
अल्लाह से करे दूर वो तालीम भी फितना,
इमलाक भी, औलाद भी, जागीर भी फितना।
ना हक के लिए उठे तो शमशीर भी फितना,
शमशीर ही क्या नारा-ए-तकबीर भी फितना।
-अल्लामा इक़बाल
और क्लास 2 से ही डांस के लिए मशहूर हो गई और खुद पर बड़ा फख्र करती थी इसलिए भी कि सब टीचर्स वैल्यू भी देते थे।अम्मी को ये सब पसंद नहीं था मगर घर में सबका सपोर्ट रहा तो मजबूरन डांस के लिए उन्हें ड्रेसस भी बनानी पड़ती थी। दूसरे स्कूल में कोई फंक्शन हो या रोटरी क्लब से बच्चों का प्रोग्राम मैं वहां ज़रूर शामिल रहती थी और कुछ न कुछ जीत लेती थी।
फितरतन स्कूल में किसी भी लड़के से बात ही नहीं करती थी। एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टीविटीज़ में हिस्सा भी लेती थी लेकिन लड़कों से दूरी बनाए रखती थी। क्लास 8 मे मैंने सलीम का किरदार किया। मेरे जूनियर जो कुछ सुलझा हुआ लड़का था उसने अकबर का रोल प्ले किया था। वरना मैं कुछ भी प्रोग्राम लड़कों के साथ नहीं करना चाहती थी।
कुछ वक़्त के बाद अब स्कर्ट से शलवार कमीज़ , दुपट्टा में आना था।लेकिन दूसरे अच्छे कालेज में एडमिशन होते हुए अम्मी को कशमकश में देखा कुछ रिश्वत का मामला था। वहां एडमिशन मुश्किल से होता था।
जब मुझसे किसी ने कहा कि तुम फलां कालेज भी तो पढ़ सकती हो तो मैंने अम्मी को बोल दिया कि वो परेशान नहीं हो। मैंने फिर उस मुस्लिम कालेज में एडमिशन कराया जहां मैं बचपन में नहीं गयी थी।
कालेज के रास्ते में निकम्मे लड़कों का झुंड भी रहता था।
इस माहौल में मुझे घर से निकलना भी बुरा लगने लगा था।कालेज भी कभी अकेले आती जाती नहीं थी।
उस कालेज में अब भी जमीन पर टाटपट्टी पर बैठते थे। मैं अब बड़े होकर ज़मीन पर टाट-पट्टी पर कुछ ही महीने बैठी थी कि तब से क्लासेस में नया फर्नीचर गया। मेरी यूनिफॉर्म की क्रीज़ भी खराब होती थी। उससे मैं उलझ जाती थी। ये अल्लाह का करिश्मा ही था और मैं इस पर बहुत खुश थी।
यहां कालेज में भी डांस में हिस्सा लिया।सभी के लिए एक जाना- पहचाना चेहरा थी। डांस वाहियात न हो और डिसेंट ड्रेसिंग हो इसका मैं ख्याल रखती थी।
टीचर्स सख़्त थी मगर मुझे सख्ती का सामना कभी नहीं करना पड़ा। वरना वाहियात डांसिंग के साथ परफॉर्मर को बीच में रोक दिया जाता था।
उस कालेज में मेरी एक ऐसी प्यारी दोस्त भी बनी।जिसके घर का दीनी माहौल था। उसने दो तीन बार मुझे इशा की नमाज़ के लिए अच्छे तरीके से मोटिवेट किया कि मैं पांच वक़्त की नमाज़ की पाबंद हो गई कि क़ब्र में रोशनी इशा की नमाज़ से होगी। बेशक अल्लाह दोस्ती का चयन करना भी हमें कुरआन समझाता है और बहुत अच्छे दोस्त अल्लाह ने नवाज़े थे। हम जब तक फज्र नहीं पढ़ते थे घर में नाश्ता नहीं मिलता था। फज्र और इशा ये दोनों नमाज़ बन्दे को पाबंद बनाती हैं। इन नमाज़ो की भी अपनी अहमियत है जैसा कि रसूलुल्लाह (ﷺ) की हदीस मुबारका है:
अगर लोगों को ईशा और फज्र की नमाज़ का सवाब मालूम होता तो वो इन दोनों नमाज़ों के लिए ज़रूर आते ख़्वाह उन्हें घिसटते हुए आना पड़ता।
सुनन इब्न ऐ माजा 796
सड़क पर जाते हुए सिर पर दुपट्टा रखना कालेज का आर्डर था। मेरी दोस्त हमेशा सिर कवर रखती थी। बाहर के माहौल से लड़कियों को बचना चाहिए टीचर्स भी अक्सर हमें सबको समझाती रहतीं थीं। एक- दो दोस्त ग़लत राह पर आईं तो मैंने उनकी इस्लाह की और वो नहीं मानी तो उनसे दूरी बना ली।
मैं तो वैसे ही मर्द ज़ात से दूर रहना चाहती थी इसलिए भी उनको समझाती थी।मेरा कैरियर बन जाएं और कभी निकाह नहीं करु। मगर बहुत जल्दी रिश्ते आने लगे थे और अम्मी यह कहकर मना कर देती थी कि अभी तो बच्ची है पढ़ रही है।
हिजाब के मामले में एक टीचर का अहम रोल रहा।
उस वक़्त मैं क्लास 12 में थी। एक दिन उन्होंने हिजाब और चादर की इंपोर्टेस बताई और कहा कि फरमाबरदार लड़कियां कल से चादर ओढ़ कर आएंगी, कुछ ही लड़कियां पहले से ही बुर्का पहनती थी।
अगले दिन कुछ लड़कियां चादर ओढ़ कर आईं । मैं भी एक बड़ा सा डिसेंट ब्लैक दुपट्टा ओढ़ कर जाने लगी , अम्मी को भी हैरानी हुई और मैडम देख कर बहुत खुश हुईं।
हमारे कालेज में कभी- कभी दीन की नसीहतें भी होती थी।एक दिन मैं क़ब्र के अज़ाब सुनकर डर गई उसका भी कुछ असर पड़ा।
एक मर्तबा एग्ज़ाम में पास होने की नज़र मानी कि पास हुईं तो क़ुरआन तर्जुमा के साथ पढूंगी। लोगो की सोच होती है कि उर्दू में पढ़ो चाहे समझ आए या नहीं आए और हरी पट्टी पर मुश्किल अल्फ़ाज़ समझना हर किसी के बस की बात नहीं। खासकर उनके लिए जिन्हें उर्दू कम आती हो।
बस ये सिलसिला ज़्यादा नहीं चला।
सूरह यासीन हिफ्ज़ हो गई। टीवी देखना भी कम कर दिया था।लेकिन फैशन और स्टाइल फिर भी पनपता रहा। धीरे-धीरे कोशिश और दुआओं से तब्दीली आती है।
ग्रेजुएशन में फिर बुर्का भी पहन लिया जो आने-जाने तक ही के लिए था और ज़्यादातर सभी इसी तरह करते भी हैं। फिर भी एक सेफ्टी का अहसास हुआ जैसे कोई सुरक्षा कवच हो।मेरा सहमापन अब खत्म हो गया था। अहसास हुआ कि बहुत पहले पहन लेना था। दोज़ख की गर्मी तो इससे ज़्यादा होगी बस ये गुनाह कम करने का ज़रिया भी है।असल मक़सद तो ख्वातीन की हिफ़ाज़त है।
करीबी रिश्तेदार में रिश्ता हुआ तो पढ़ने के अरमान मंद पड़ने लगे। मुझे इल्म नहीं था लेकिन सोचती थी कि निकाह में अल्लाह ने मर्ज़ी का सवाल रखा है कबूल है या नहीं तो मुआशरे में ये सब क्या फैला हुआ है और लड़कियों की एजुकेशन पर पैसे लगने चाहिए मेरी ऐसी सोच थी।
इंगेजमेंट पर तन्हा आंसू लिए हुई थी। बहुत तेज़ आंधी आई और सब फंक्शन और बहुत खाना ख़राब हो गया।
वक़्त गुज़रते हुए बहुत दुआएं करती रही।रिश्तेदारी बनी रहे और आगे पढ़ाई जारी रहें और ये रिश्ता भी किसी तरह ख़त्म हो जाए। बहुत ही तरीके से रिश्ता अल्लाह ने ख़त्म कर दिया बिल्कुल दुआओं की तरह कि करीबी रिश्तेदारियां ख़राब नहीं हुई। पोस्ट ग्रेजुएशन का फार्म बिल्कुल डैडलाइन पर सबमिट किया गया।कट आफ लिस्ट में नाम आयेगा तो आगे पढूंगी ये भी शर्त रखी गई थी और अल्हमदुलिल्लाह मैं लिस्ट में थर्ड नम्बर पर थी।
उसके बाद मुझे पी एच डी करनी थी जिसके लिए सबका इंकार था। मगर स्टाफ और टीचर्स की भी राय थी कि मैं पी जी के बाद पी एच डी करू। इसके साथ ही मैंने टाइम पास के लिए कुछ कम्प्यूटर,स्टीचींग,पेटींग, पर्सनेलिटी डेवलपमेंट के कोर्सेस किये जिससे भी बहुत फायदा हुआ। फिर मुझे जाब करने का मौका उसी कालेज में मिला जहां एडमिशन मैंने अम्मी को परेशानी में देखकर नहीं लिया था।साड़ी कम्पल्सरी थी और सही से सेफ्टी पिन लगा कर कवर रखती थी। कुछ नान मुस्लिम बहनें भी ऐसा ही करती थी।
ग़ैर मुस्लिम वहां ज़्यादा थे और मुस्लिम 5-6 में सिर्फ़ मैं अकेली बुर्का पहनती थी। कुछ बुर्के से जुड़े सवाल भी होते थे। लेकिन मुझे तब क़ुरआन का इल्म नहीं था।मुस्लिम लड़कियां गेट के बाहर ही हिजाब उतारती थी और पहनती थी। वहां विंटर में मेरी ज़ुहर नमाज़ भी क़ज़ा होती थी जिससे अजीब कैफियत रहने लगी थी। सैशन मुकम्मल करके वो कालेज छोड़ दिया वो फेम मुझे नहीं चाहिए था।
उसके बाद क़ुरआन की तरफ़ रूजु हुआ। फिर हालात ऐसे बने कि उसी मुस्लिम कालेज में आ गई जहां से इंटरमीडिएट किया था ये सोचकर कि नमाज़ क़ज़ा न हो और इंटरव्यू में भी यही बोला। वो भी जानना चाहते थे कि एक अच्छा कालेज छोड़ने का रीज़न क्या था या मैं और कान्वेंट में क्यों नहीं एप्लाई करती। वहां के हैंडसम सैलरी के आफर भी मैंने ठुकरा दिये थे।
सूरह तौबा में अल्लाह तआला फर्माता है :
“क्या तुम लोग आख़िरत की जिन्दगी के मुकाबले में दुनिया की ज़िन्दगी पर राजी हो गए? दुनिया का माल व मताअ तो आखिरत के मुकाबले में कुछ भी नहीं।”
कुरआन 9:38
यहां मुस्लिम कालेज में हिजाब और शलवार कमीज़ पहनी। कुरआन की तरफ़ कुछ बहनों को भी जोड़ा अलहम्दुलिल्लाह।
फिर जब शादी हुई तो मैंने हल्दी की रस्म नहीं कराई। शादी के मौके पर कैमरामैन को मना करा दिया। लेकिन मोबाइल के कैमरे तो सबसे बड़ी हलाकत है उससे बच नहीं पाई। मैंने अम्मी से कहकर कम से कम दहेज कराया। वैसे मै दहेज के खिलाफ थी लेकिन पूरी तरह मैं सबकुछ रोक नहीं पाई। ये निकाह के साथ शादी थी यानि दुनिया के हिसाब से कुछ रिवाज हुए। दिल हक़ीक़त में इन फ़िज़ूलयात के लिए राज़ी नहीं था।शादी में कम ही मेंहमान आए।
ससुराल में सिर पर दुपट्टा रहता था।देवर से नहीं के बराबर बात करती थी और फिर एक दिन घर में नामहरम के साथ दस्तरख्वान पर बैठने के लिए भी मना कर दिया कि देवर से परदा होता है। मुश्किल तो पेश आई लेकिन शौहर भी इस पर राज़ी थे तो हम कुछ वक़्त नाराज़गी झेलते रहे। फिर सेपरेट रहकर पूरा परदा हो गया।
एक दिन हमारे ख़ास रिश्तेदार के इंतिक़ाल कर जाने के बाद मैं सोचती रही कि लोगों को मौत के वक़्त परदे के अहक़ाम याद आ रहें हैं। जी! वहीं परदा जो ज़िंदगी में करना होता है ज़ीनत के वक़्त और ज़्यादा अहतियात हो।लेकिन मौत के बाद सफेद कफ़न में रूह निकलने के बाद परदे की हदें बांध कर अब तो नेक अमल रूक गये। अल्लाह सूरह नूर में फ़रमाता है:
और ऐ नबी, ईमानवाली औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें, और अपनी शर्मगाहों कि हिफ़ाज़त करें,और अपना बनाव-सिंगार न दिखाएँ,सिवाय उसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए, और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें।वो अपना बनाव-सिंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने - शौहर, बाप,शौहरों के बाप, अपने बेटे, शौहरों के बेटे,भाई, भाइयों के बेटे, बहनों के बेटे, अपने मेल-जोल कि औरतें,अपनी मिलकियत में रहनेवाले (लौंडी-ग़ुलाम) वो मातहत मर्द जो किसी और तरह की ग़रज़ न रखते हों, और वो बच्चे जो औरतों कि छिपी बातों को अभी जानते न हों। वो अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसका लोगों को पता चल जाए। ऐ ईमानवालो, तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, उम्मीद है कि कामयाबी पाओगे।
क़ुरआन 24:31
पिछली बेपर्दगी की तौबा करके कामयाबी की राह अल्लाह दिखा रहा है। हम सभी ईमान के साथ ख़ातमा चाहते हैं कुरआन में बार- बार नेक अमल ईमान के बाद दूसरी शर्त है।
क्या परदा करना नेक अमल में शामिल नहीं?
मय्यत को भी परदे में रखा जाता है, तब हम मनमानी नहीं कर सकते तो घर से बाहर बुर्का, और किसी नामहरम से परदा किसी ना-महरम से नहीं।ऐसा क्यों?
और कोई नामहरम बाहर के और कुछ ना महरम घर के यानि उन्हें घर के मर्द कैसे कह दिया जाता है?
ये अल्लाह के अहक़ाम में उन लोगों की तरह तब्दीली करना है जिनके लिए अल्लाह ने सख्त अज़ाब तय कर रखें है उन्होंने अल्लाह की आयतों को छिपाया और बदल डाला।
बस इन तब्दीली करने वालो ने कहीं लिखा तो नहीं लेकिन अमल में तो शामिल हैं। ये लोग क्या इन घर के लोगों को विरासत में हिस्सा भी देंगे? परदे और विरासत के बारे में लोगो को इल्म रखना चाहिए।
मेरी बहनों! क़ुरआन में तब्दीली हो ही नहीं सकती तो हम परदे की आयात पढ़कर उन अंसार की ख़्वातीन की तरह अमल क्यो नहीं करती?
अल्लाह की तरफ़ से परदे का हुक्म आते ही वो सब अगले दिन ख़ुद को चादर में लपेटकर मस्जिद पहुंचीं।
हम सब को मालूम है कि नामहरम से परदा है तो क्या हम उन अंसार की औरतों की तरह है? हमें तो मालूम है क़ुरआन में परदा है।
ऐ ईमान लानेवालो ! तुम पूरे के पूरे इस्लाम में आ जाओ और शैतान की पैरवी न करो कि वो तुम्हारा खुला दुश्मन है।
क़ुरआन 2:208
और अब कुछ वक़्त से मैं मुकम्मल परदा करती हूं अल्हमदुलिल्लाह।
शैतान भी वसवसे डालता है और करीबी लोग भी सभी नामहरम से परदे का सुनकर हंसते भी हैं और मना भी करते हैं। लेकिन हमें उन्हें बताना है कि नामहरम कोई भी हो हमें अल्लाह ने हुक्म दिया है।
क्या हम अल्लाह के नाफरमान बंदे बनकर ज़मीन पर घूमेंगे? नाफरमान बनकर जायेंगे?
और अल्लाह को राज़ी करना , उन परदों की आयात को सबके सामने लाना ही मेरी नीयत है।हम अल्लाह के हुक्म के मुताबिक सतर छिपाकर क़ब्र तक नहीं जायेंगे दूसरे लोग हमारा परदा करवायेंगे तब अधूरे परदे के साथ ज़िंदगी कैसे गुज़र सकती है?
थोड़ा नहीं पूरा सोचिए।
दीन में तो बहुत बारीकी का कहकर लोग बहुत अहक़ाम नज़र अंदाज़ कर देते हैं।
सूरह बकरह मे अल्लाह फ़रमाता है:
"तो क्या तुम किताब के एक हिस्से पर ईमान लाते हो और दूसरे हिस्से का इनकार करते हो?
कुरआन 2:85
अल्लाह हमें अपने आजिज़ और नेक बंदों शामिल कर लें। हमें ज़िंदगी में अपनी मौत के वक़्त तक साबित क़दम रखे।
आमीन या रब्बुल आलामीन।
आपकी दीनी बहन
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जज़कल्लाह खैरुन कसीरा
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