क्या हमनें ये ठान लिया है कि हर मसले पर आंख बंद ही रखनी है। गौर फिक्र करें कहीं ऐसा न हो की जब आंख खुले तो मामला हांथ से रेत की तरह फिसल चुका हो।
हमारे उलेमा इस मसले पर ख़ामोश है। उनकी ख़ामोशी कौम के इमान पर सेंध लगा रही है जिसके नतीजे दूरगामी प्रभाव डालेंगे। वो नीद से कब जागेंगे?
- अपने बहन बेटियों को सबसे पहले चादर का तहफ्फुज दें।
- फिर इनके लिए मस्जिद के दरवाजे खोलें।
हमारे उलेमा इस मसले पर ख़ामोश है। उनकी ख़ामोशी कौम के इमान पर सेंध लगा रही है जिसके नतीजे दूरगामी प्रभाव डालेंगे। वो नीद से कब जागेंगे?
शायद तब जब मुस्लिम महिलाओं के इंसाफ का मुद्दा बना कर तागुत इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगा। जब फेमिनिज्म के नाम पर हमारी बहन बेटियों को और नंगा किया जायेगा। तब आयेगे कुछ नकली मौलाना टीवी पर डिबेट करने।
हमारे मुआसरे में फहश और बेहयाई मुकर्दर बनती जा रही है और हम गफलत की सहराओ में भटक रहे हैं। हिन्दी टीवी सीरियल बच्चियों को जहां बेहया बना रहा है वहीं पड़ोसी उर्दू ड्रामा इमान को खोखला बना रहा है। ये मीठा ज़हर (sweet poison) है जो हमारी नई नस्ल को धीरे धीरे मौत की नीद सुलाएगा। जरूरत ये है की,
- नई नस्ल को इस से दूर रखा जाए और दीन से जोड़ा जाए।
- उन्हें सही और गलत का फर्क बताया जाये।
- हराम और हलाल की तमीज़ सिखाई जाये।
- मॉर्डन एजुकेशन के साथ दीनी तालीम दी जाये।
मॉर्डन एजुकेशन के साथ दीनी तालीम न दी गई तो हमारी नस्ले तबाह हो जाएंगी। जिन कामो से हमारा दीन हमें दूर रहने को कहता है वही हमारे रूटीन में शामिल हो जायेगे, हमारी औलादें हराम में इस क़दर डूब जाएँगी के फिर उनका उभरना नामुमकिन हो जायेगा। हम सबसे कमज़ोर नस्ल छोड़ कर जानें वालों में होंगे।
ज़माना कयामत की चाल चल रहा है, और हुनूद रफ्ता रफ्ता अपनी चाल चल रहा है।
हमारी जड़ों में सेंध लगा रहा है,उन्हें पता है ये सबसे दुखती रग।
वाकियात चींख चींख कर गैरो फिक्र की दावत दे रहे हैं, लेकीन गफलत की सहराओं में भटकने वाले न मालूम कब तक भटकते रहेगें,
हमारी जड़ों में सेंध लगा रहा है,उन्हें पता है ये सबसे दुखती रग।
वाकियात चींख चींख कर गैरो फिक्र की दावत दे रहे हैं, लेकीन गफलत की सहराओं में भटकने वाले न मालूम कब तक भटकते रहेगें,
अभी वक्त है बेदार होने का कहीं ऐसा न हो कि जब होश आए तो काफिला छूट चुका हो।
हवस के चक्कर में मुर्तिद होना, अफ़सोस-नाक है, ग़लाज़त और ज़लालत ,हमारा मुक़द्दर बनती जा रही है, और हमें इसकी कोई परवाह ही नहीं है या ये कहें कि हम जान बुझ कर हर मसले को नजर अंदाज करने पर तुले हुए हैं। हर कोई अपने में मस्त ह, हसद और जलन में एक दुसरे को कमतर और नीचा दिखाने में लगा हुआ है।
कौम की फिक्र अब करता कौन है? कौ़म की अक्सरियत तो मजी़द तरक्की़, मजी़द दौलत, मजी़द कारोबार, के पिछे क़ुरान और सुन्नत को भुला कर हराम हलाल का फ़र्क भूल चुकी है। दौलत और शोहरत का नशा सवार है हर तरह से मार्डन लाइफ स्टाइल और झूठी शान दिखाने के चक्कर में बहन बेटियों को बातिल निजा़म के सुपुर्द कर बैठी है। और चाव से चौड़े नज़र आते हैं, कोई फ़िक्र नहीं, अफ़सोस! हम कहां जा रहे हैं दिखावे की जिंदगी को शान व शौकत समझने लगे,
- इज़्ज़त-ए-नफ़्स से हाथ धोती नई नस्ल की परवाह किसे है?
- क्या दुनिया की खुशहाली के भूखे लोगों को इसकी परवाह है?
- या दीनदारी का ढोंग करने वाले जो बातिल निज़ाम के तलवे चाटने में मस्त हैं?
इनसे कोई उम्मीद,
हरगिज़ नहीं!
हरगिज़ नहीं!
इज़्ज़त-ए-नफ़्स की कीमत अल्लाह वालों को मालूम होती है। जिनके सीने में अल्लाह की मुहब्बत हो और आखिरत में जन्नत की ख्वाहिश, जिनको अल्लाह के दीदार की तमन्ना हो। न कि उनको जो दुनियां को ही जन्नत समझ बैठे हैं उनका मामला तो अल्लाह के हवाले है।
अल्लाह का फज़्ल परहेज़गारों पर नाजि़ल हुआ करता है, बागियों पर नहीं।
हमें लगता है दुनियां की जिंदगी में ओहदे और शोहरत पाकर हम कामयाब हो गए मगर अल्लाह कहता है:
قَدۡ اَفۡلَحَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ
अल्लाह का फज़्ल परहेज़गारों पर नाजि़ल हुआ करता है, बागियों पर नहीं।
हमें लगता है दुनियां की जिंदगी में ओहदे और शोहरत पाकर हम कामयाब हो गए मगर अल्लाह कहता है:
قَدۡ اَفۡلَحَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ
"यक़ीनन कामयाबी पाई है ईमान लानेवालों ने।" [क़ुरआन 23:1]
अल्लाह रब्बुल इज़्जत हम मुसलमानो को गुमराह होने से बचाए और सच्चा मोमिन बना दे। आमीन
मुसन्निफ़ा (लेखिका): फ़िरोज़ा खान
0 टिप्पणियाँ
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।