अपनी औलाद को सही राह पर कैसे लाएं? | नफ़्स की इस्लाह कैसे करें? | नफ़्सानी ख्वाइश से कैसे बचें?
कुरान पर अमल: नफसानी कैफियत का शिकार नौजवान
मस्जिद के दरस ए कुरान में शिरकत करने वाली कुछ बहनें बहुत सरगर्म (सक्रिय) थीं। एक बहन बहुत हँसमुख थी। वह माथे पर मुस्कान लिए सभी से मिलती और मुस्कुराते हुए बात करती। बातें इतनी मीठी और दिलचस्प जैसे मुह से फूल झड़ रहे हों। एक दिन देखा तो मुस्कुराहट गायब थी और चेहरा उदास था। ना बातों में मिठास, न मिलने मिलाने में दिलचस्पी। अगले दरस में आई तो कई जिस्मानी तकलीफ़ो की शिकायत करने लगी। मैं चाहती थी उस से अकेले में मिलूं कि शायद उसके किसी काम आ सकूं और उसकी मदद कर सकूं। मुझे मिलने के लिए ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। जल्द ही उससे मिलने का मौका मिल गया। वो भी शायद मिलना चाहती थी और इस मौके का इंतजार कर रही थी।
मेरे पूछने पर बोली: "वल्लाह, मैं बहुत दुखी हूं, परेशान हूं। ऐसा मालूम होता है जैसे बहुत तेज आंधी मुझे उठाकर घुमा रही है। मुझे नहीं मालूम कि मैं कहां हूं? जिंदगी सलीक़े और करीने से चल रही थी। मैं अल्हम्दुलिल्लाह अपने बच्चों की तरबियत में मशरूफ थी। किताब और सुन्नत की रहनुमाई में बच्चों की तरबियत हो रही थी। अपने शौहर का इंतखाब अपनी मर्जी से किया था। वह एक सालेह, बा-इल्म, साहिबे इल्म शख्स है। इल्म-ओ-हिकमत और खौफ-ए-खुदा के सिलसिले में मेरी मदद करता है। मैं जैसा शौहर चाहती थी वैसा ही निकला, बल्कि उससे बेहतर।"
"मेरे बच्चे मुझसे ज्यादा दीनदार निकलें, बच्चे भी और बच्चियां भी। मेरा एक बेटा मस्जिद में जाकर बा जमात नमाज पढ़ता था। उम्दा अख़लाक़ का मालिक था। शरीफ और मतीन। मगर अचानक ना जाने उसे क्या हो गया कि उसकी ख़ामोशी खत्म हो गई। अब वह बिजली की तरह कड़कता है, अपने भाइयों के साथ चिल्ला- चिल्लाकर कड़क लहजे में बात करता है और अपने वालिदैन के साथ भी बदतमीजी कर लेता है। नमाजे़ पड़ता है मगर फर्ज की हद तक, सुन्नत और नफिल तर्क कर देता है। पहले वह घर-भर में हर दिल अजीज़ था, अब सब उससे दूर रहना चाहते हैं और उसके साथ बातचीत करने से भी बचना चाहते हैं।"
"वह अब हर समय अपने कमरे में बैठा रहता है। कहीं इधर-उधर नहीं जाता। अगर मैं उसे जोर देकर कमरे से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दूं या उसे अपने भाई-बहनों के साथ बैठने के लिए मजबूर कर दूं, तो उसका रवैया ऐसा वहशत अंग्रेज़ और तकलीफदेह होता है कि मुझे पछतावा होने लगता है। सोचती हूं: काश! मैंने उसे कमरे की तन्हाई से बाहर निकालने के लिए मजबूर नहीं किया होता। वह नफसानी मरीज़ बन चुका है। वह अपने आप को मज़लूम (उत्पीड़ित) समझता है। वह अपने आस-पास के सभी लोगों को ज़ालिम समझता है। हाल यह है कि जब भी मैं अल्लाह की रज़ा के लिए कुछ करना शुरू करती हूं, तो वह मेरे रास्ते में आ जाता है। आजकल मेरा दिमाग हर वक्त उसके बारे में सोचता है। मैं उसके बारे में सोच-सोचकर थक चुकी हूं। वह मेरे कलेजे का टुकड़ा है। मैंने उसे पालने, उसकी देखभाल करने में अपनी बेहतरीन सलाहियतों का इस्तेमाल किया है। मैंने उसकी खातिर कितनी रातें जागकर गुजारी थीं। लेकिन मेरी सारी मेहनत बेकार गई। उसके भाई-बहन नाराज हैं, कोई उसके साथ बात-चीत करने के लिए भी तैयार नहीं है। आप मेरी हालत का खुद अंदाजा कर सकती हैं, मैं जो लोगों में सुलाह कराती रही थी, दूसरे लोगों के मामलात की दुरुस्ती के लिए परेशान रहा करती थी, सुधार से क़ासिर हूं। मेरा लख्ते जिगर मेरी बात नहीं सुनता।"
उस बहन की ये दर्दनाक दास्तान सुनकर, मैंने कहा: "मेरी अजीज़ह! ये सिर्फ अकेले आपका मसला नहीं है। बहुत से दीनदार घराने इसी तरह के मसले और मनोवैज्ञानिक अशांति से गुजर रहे हैं। हर पाबंद शरियत घराने में कोई न कोई लड़का या लड़की होती है जो बिगड़ कर घरवालों के लिए जान का दुश्मन बन जाता है। उस नौजवान या उस लड़की के ख़यालात, अक़वाल और आमाल सभी से अलग होते हैं। ज्यादातर ऐसा उम्र के उस हिस्से में होता है जिसे बलूगत की शुरुआत का दौर कहा जाता है यानी जब लड़कपन और नौजवानी का संगम होती है। उम्र के इस नाज़ुक हिस्से में नौजवान बेपनाह सलाहियतों से भरा होता है। इस उम्र में उसके वजूद में बहुत सारे धमाके होते हैं। वह ज्वालामुखी की तरह फूट रहा होता है। नौजवान को अपने अंदर की आजादी और ताकत का एहसास होता है। नौजवानी के इस दौर में "नहीं" लफ़्ज़ उनकी खुसूसियत बन जाता है।"
कुरान करीम ने बहुत से नौजवानों के वाक्यात और हालात कयामत तक के इंसानों की रहनुमाई के लिए महफ़ूज़ कर दिए हैं। उन नौजवानों में झूठ को नकारने की ताकत अपने उरूज पर थी। हज़रत इब्राहिम (अ.स.) हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) असहाबुल कहफ और खाईयों वाले (असहाबुल उखदूद/ खंदक वाले) सभी नौजवान लोग थें। उन्होंने बातिल (झूठे) निज़ाम के खिलाफ हैरत का आलम बुलंद किया। उन्होंने "नहीं" इस्तेमाल किया लेकिन बातिल के खिलाफ। इन लोगों ने अपनी बातों और अमल से बातिल को नकार दिया और सच को साबित किया। इसके बर-'अक्स (उल्टा), हज़रत नूह (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) के बेटे ने "नहीं" कहा, यानी हक के खिलाफ "नहीं" कहा और ईमान लाने से इंकार कर दिया।
बात सिर्फ समझने की है। बहुत से वालीदैन घबरा जाते हैं। वो इस दौर की नाजुकता को समझने की कोशिश नहीं करते। वह हैरान होता है कि बच्चों ने नाफरमानी, सरकशी और बग़ावत का रवैया क्यों अपनाया लिया है? वे अपने बच्चों के "नहीं" से बेताब हो जाते हैं। वालीदैन अपने बच्चों को नरमी या सख्ती से समझाते हैं। बच्चे बेरुखी और बदतमीजी से पेश आते हैं। ज्यादातर वालीदैन की कोशिश मुफीद होने के बजाय नुकसानदेह साबित होते हैं।
परेशान बहन बोल पड़ी, "वल्लाह, हमारे साथ यहीं कुछ हुआ। आप के बयान से तो ऐसा मालूम होता है जैसे आप हमारे साथ रहती थीं।"
परेशान बहन बोल पड़ी, "वल्लाह, हमारे साथ यहीं कुछ हुआ। आप के बयान से तो ऐसा मालूम होता है जैसे आप हमारे साथ रहती थीं।"
मैंने कहा: आपके बच्चे का मामला इतना बिगड़ गया है कि उसे ठीक करना अब हमारे हाथ में नहीं है। अब तो इसका एक ही हल है के अल्लाह की तरफ रूजू किया जाए। उसका बताया हुआ रहनुमाई कर दी है, हमारा फर्ज है कि हम इस रहनुमा का हाथ थामें और अपने तमाम मसाईल हल कर लें।
"बहन! मैं आपसे वादा करती हूं कि मैं इस रहनुमा का हाथ कभी नहीं छोड़ूंगी। आप मुझे सिर्फ वह आयत बता दीजिए जिस पर मुझे अमल करना है, जिसके मुताबिक मुझे चलना है।"
मैंने कहा: इरशाद ए इलाही है,
وَ مَنۡ یَّتَّقِ اللّٰہَ یَجۡعَلۡ لَّہٗ مَخۡرَجًا
"जो कोई अल्लाह से डरते हुए काम करेगा अल्लाह उसके लिये मुश्किलात से निकलने का कोई रास्ता पैदा कर देगा।"
[कुरान 65:2]
जैसा कि आप देख रही हैं, अल्लाह के रास्ते के सिवा सब रास्ते बंद हो चुके हैं। आपके सामने सिर्फ अल्लाह का तक्वा अख्तियार करने का रास्ता खुला है। माफ करें, मेरा मकसद हरगिज़ यह नहीं है कि आप अल्लाह से डरती नहीं, बल्कि इसका मतलब यह है कि...... उसने मुझे बीच में रोक लिया और कहा: "मैं खूब समझती हूं आप कहना चाहती हैं। मैं हर हालत में तक्वा का दामन पकड़े रहूंगी, मैं किसी भी किसी भी हाल में तक्वा नहीं छोड़ूंगी। तक्वा मेरे अहवाल, अफआल, मेरे अक़वाल बल्कि मेरी फिक्र में हमेशा रहेगा।"
अपने बेटे के बारे में परेशान खातून ने तक्वा अख्तियार करने का अहद करने के बाद इजाजत तलब की। अल्लाह हाफिज कहने के लिए अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया। उस वक्त, उसकी जुबान पर ये अल्फाज जा़री थे,
"وَ مَنۡ یَّتَّقِ اللّٰہَ یَجۡعَلۡ لَّہٗ مَخۡرَجًا"
मेरे अल्लाह ने सच फरमाया है, कोई शक नहीं कि अल्लाह का वादा सच्चा है। अब मुझे खुद पर अल्लाह के वायदे की सच्चाई को परखना है।"
मैंने उस परेशान हाल बहन को अल्लाह हाफिज कहा, उसके लिए दुआ की सच्चे दिल से उसकी कामयाबी और कामरानी की दुआ की। अब जब भी मुलाकात होती तो वह उस आयत को दोहराती, मुझसे दुआ की दरख्वास्त करती, बल्कि हर मिलने वाली से यह कहती के वह उसकी साबित कदमी के लिए दुआ करें। पहले तो उसकी सोच की वजह उसका बेटा था और उसके अक़वाल और आमाल थें। वह लोगों से कहती कि उसके बेटे के लिए दुआ करें के अल्लाह उसे हिदायत दे। मगर अब उसकी फिक्र की वजह ये होती कि वह "तक्वा" कैसे इख्तियार करें। फाइनली तक्वा एक प्यार करके अपने बेटे को सही राह पर लाने में कामयाब हो गई। उसकी दास्तान उसी बहन से सुने। मस्जिद में दरस ए कुरान में उसने अपनी दास्तान सुनाते हुए कहा:
"मेरी अजीज़ बहनों! मैंने अपने अंदर तब्दीली पैदा करने की हर मुमकिन कोशिश की। अपने तमाम मामलों को तक्वा के सांचे में ढालने के लिए बहुत कुछ किया। मैं अपने बेटे को शैतान के चंगुल से बचाना चाहता थी। इसलिए मैंने फैसला किया कि क्यों न फज्र से पहले तहजुद की नमाज अदा की जाए। शुरुआत में मैं फज्र से पहले दो रकअत नमाज तहजुद अदा कर लेती। फिर धीरे-धीरे आठ रकअत तक पढ़ने लगी। तहज्जुद की नमाज अदा करके मुझे ऐसा सुकून मिलता जैसे मुझे इस दुनिया में जन्नत और उसके खजाने मिल गए हों। जब मैंने फज्र की नमाज़ में तवील किरत करने का फैसला की, तो मुझे उसके लिए क़ुरआन करीम की कई सूरह याद करनी पड़ीं। याद करने से मुझे बेपनाह सुकून और इत्मीनान मिला। इसे सिर्फ वही समझ सकता है जो कुरान करीम की आयतों को हिफ्ज़ करता है। किसके साथ ही यह जज्बा पैदा हुई कि लोगों के साथ मेरे मामलात साफ होने चाहिए। खासकर अपने बच्चों के साथ मेरा रवैया दुरुस्त और पुर-सुकून होना चाहिए।"
मैंने उस परेशान हाल बहन को अल्लाह हाफिज कहा, उसके लिए दुआ की सच्चे दिल से उसकी कामयाबी और कामरानी की दुआ की। अब जब भी मुलाकात होती तो वह उस आयत को दोहराती, मुझसे दुआ की दरख्वास्त करती, बल्कि हर मिलने वाली से यह कहती के वह उसकी साबित कदमी के लिए दुआ करें। पहले तो उसकी सोच की वजह उसका बेटा था और उसके अक़वाल और आमाल थें। वह लोगों से कहती कि उसके बेटे के लिए दुआ करें के अल्लाह उसे हिदायत दे। मगर अब उसकी फिक्र की वजह ये होती कि वह "तक्वा" कैसे इख्तियार करें। फाइनली तक्वा एक प्यार करके अपने बेटे को सही राह पर लाने में कामयाब हो गई। उसकी दास्तान उसी बहन से सुने। मस्जिद में दरस ए कुरान में उसने अपनी दास्तान सुनाते हुए कहा:
"मेरी अजीज़ बहनों! मैंने अपने अंदर तब्दीली पैदा करने की हर मुमकिन कोशिश की। अपने तमाम मामलों को तक्वा के सांचे में ढालने के लिए बहुत कुछ किया। मैं अपने बेटे को शैतान के चंगुल से बचाना चाहता थी। इसलिए मैंने फैसला किया कि क्यों न फज्र से पहले तहजुद की नमाज अदा की जाए। शुरुआत में मैं फज्र से पहले दो रकअत नमाज तहजुद अदा कर लेती। फिर धीरे-धीरे आठ रकअत तक पढ़ने लगी। तहज्जुद की नमाज अदा करके मुझे ऐसा सुकून मिलता जैसे मुझे इस दुनिया में जन्नत और उसके खजाने मिल गए हों। जब मैंने फज्र की नमाज़ में तवील किरत करने का फैसला की, तो मुझे उसके लिए क़ुरआन करीम की कई सूरह याद करनी पड़ीं। याद करने से मुझे बेपनाह सुकून और इत्मीनान मिला। इसे सिर्फ वही समझ सकता है जो कुरान करीम की आयतों को हिफ्ज़ करता है। किसके साथ ही यह जज्बा पैदा हुई कि लोगों के साथ मेरे मामलात साफ होने चाहिए। खासकर अपने बच्चों के साथ मेरा रवैया दुरुस्त और पुर-सुकून होना चाहिए।"
"मेरी यह भी कोशिश रही के अपने परवरदिगार की रजा़ के लिए अपने शौहर को खुश करूं। अपने शौहर की खिदमत और इताअत करते वक्त यह एहसास करती के मेरे मुकद्दस रब की रजा हासिल करना है। मुझे बहुत इत्मीनान हासिल होता। यकीन था कि मेरा परवरदिगार मुझे इसका अजर अता फरमाए गा। मैं जो काम भी करती, खालिस नियत से करती। उसके साथ-साथ मैं कसरत से अपने बेटे के बदल जाने की दुआ करती रहती थी।"
"इस खुलूस से इबादत, मामलात और दुआएं करने के नतीजे में मेरा रूहानी मनोबल बहुत ऊंचा हो गया। कभी तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं और ऊंचाइयों में उड़ रहा हूं। मैंने पड़ोसियों और दोस्तों के साथ अपने तालुकात पर भी नजर डाली। इसी तरह, मैंने अपने रिश्तेदारों के साथ भी अपने तालुकात बहाल किए। क्योंकि मुझे यह हदीस याद आ गई: "मैंने रहम पैदा किया और अपने नाम से रखा जिसने सिला रहमी की मैं उसे मिलूंगा जिसने सिला रहमी को कता किया मैं भी उसे कता कर दूंगा।" (हदीस कुदसी)।
"मुझे यह हदीस याद आ गई, इसलिए मैंने तुरंत अपने कपड़े बदले और अपने एक चाचा के घर चली गयी जो मुझसे नाराज़ थें। उनके फ्लैट पर पहुंचने पर मैंने लिफ्ट का इस्तेमाल नहीं किया। इसके बजाय, मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। एक-एक सीढ़ी पर पैर रखते हुए मैं दुआ करती थी कि या अल्लाह, मैं तेरे हुक्म की तामील में करीबी रिश्तेदारों से तालुकात जोड़ रही हूं, तू भी मुझे अपने साथ जोड़। मैं सीढ़ियों से उतरू तो तालुकात बहाल हों। दुआएं करते-करते मैं अपने चाचा के घर के दरवाजे पर जा पहुंची। दरवाज़ा खुला तो मुझे लगा कि अल्लाह ने मेरे लिए रहमत का दरवाज़ा खोल दिया है। मैंने हंसती मुस्कुराती सलाम करती उनके पास पहुंची। आई तो घर आई तो मुझे मुकम्मल सुकून और इत्मेनान हासिल था। ऐसा मालूम होता था जैसे सीने से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है।"
"अब जब भी मैं अल्लाह की रजा की खातिर कोई नेक काम करती हूं तो अपने रब को अपने करीब महसूस करती हूं और मुझे इतना सुकून मिलता है जैसे मैंने 1000 रकअत नवाफिल अदा किया हो।"
"मुझे इस तजुर्बे ने इस काबिल बना दिया है कि मैं तक़लीदी- विरासती ईमान और हकी़की यकीन-ईमान में फर्क महसूस करती हूं। मुझे इस आयत ए करीमा وَ مَنۡ یَّتَّقِ اللّٰہَ یَجۡعَلۡ لَّہٗ مَخۡرَجًا पर अमल करने का खूब-खूब मौका मिला है। जल्दी ही मेरे हालात बदल गए, मेरा दुख खत्म हो गया, और गम खुशी में बदल गया।"
"मैंने अपने बेटे के साथ इस अमल के दौरान सब्र और बर्दाश्त से काम लिया। अपने बेटे के लिए बहुत दुआएं की। मैं सजदे में उसके लिए बहुत दुआएं करती थी। जब भी नमाज पढ़ती, तिलावत करती, जिक्र करती तो अपने बेटे के लिए दुआएं करती रहती। इसमें कई साल बीत गए। यहाँ तक कि अल्लाह करीम ने मेरे बेटे को मुझे लौटा दिया। उसने अपनी तनहाई खत्म कर दी। उसने गपशप छोड़ दी। उसने बदतमीजी़ छोड़ दी। जब उसने अपने वालीदैन और अपने भाई-बहनों के साथ बदतमीजी करनी बंद कर दी तो घरवालों ने भी उसे फिर से कबूल कर लिया।"
जब यह बहन अपने गुस्ताख बेटे के बेराह रवैया छोड़ने और दोबारा मोहब्बत और इताअत का रवैया अपना लेने की ये ईमान अफरोज दास्तान सुना रही थी तो उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। मजलिस ए दरस ए कुरान में शिरकत करने वाली सभी ख्वातीनों की आंखों में आंसू भरे थें। तमाम हाजि़रीन ने उसे मुबारकबाद दी।
देखें एक आयत ए करीमा पर सब्र और उस पर अमल करने का नतीजा कैसा खुशगवार निकला। अगर हम अपनी मुश्किलात का हल कुरान करीम के ज़रिए करें तो हमारी तमाम मुश्किलात और हमारे तमाम मसाईल हल हो जाए। कुरान करीम के बा-बरकत होने का यही मतलब है कि अगर इसकी आयात के अहकाम-ओ-नवाही (क्या करें और क्या ना करें) पर और उन आयात की हिकमत और दानिश पर किया जाए, उसके बयान करदा क़सस से इबरत हासिल की जाए तो ज़ाती और सामूहिक तौर पर बरकत और खुशी मिलती है। मुस्लिम समाज अपनी मंजिल जन्नत की तरफ रवां दवा रहता है।
मुसन्निफ़ा (लेखिका): सुमैय्या रमज़ान
किताब: क़ुरान पर अमल
हिंदी तरजुमा: मरियम फातिमा अंसारी
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