मुतल्लक़ा की मुज़म्मत
"मुतल्लक़ा" (Mutallqa) का मतलब होता है तलाक़शुदा औरत यानी वह औरत जिसे उसके शौहर ने तलाक़ दे दी हो।
अकसर देखा जाता है कि समाज में "मुतल्लक़ा की मुज़म्मत" यानी तलाकशुदा औरत की बुराई की जाती है। लोग उसे ताने देते हैं, उसे नीचा दिखाते हैं, और उसके किरदार पर शक करते हैं।
लेकिन इस्लाम में तलाकशुदा औरत को नीचा दिखाना, उसकी तौहीन करना या उसे कमतर समझना सरासर गलत और नफ़रत फैलाने वाला रवैया है।
- इस्लाम इंसाफ़ सिखाता है, नफ़रत नहीं।
- तलाक़ किसी की नाकामी नहीं, बल्कि एक हलाल लेकिन मुश्किल फ़ैसला है।
- कुरआन और हदीस में तलाक़शुदा औरतों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त के लिए कई हिदायतें दी गई हैं।
तलाक़शुदा औरत को ताने देना ख़ुद को शरीअत से ऊपर समझने जैसा है। जो लोग ऐसा रवैया अपनाते हैं, उन्हें अपना किरदार और सोच बदलनी चाहिए, न कि दूसरों को नीचा दिखाना चाहिए।
इस्लाम में तलाक़ को क्या मुक़ाम दिया गया है?
तलाक़ इस्लाम में एक जायज़ (मुबाह) अमल है, लेकिन इसे पसंद नहीं किया गया।
"अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे नापसंद चीज़ तलाक है।" [सुनन अबू दाऊद : 2178, हसन]
यानी इस्लाम तलाक़ को एक हल के तौर पर पेश करता है, अलबत्ता यह हल आख़िरी रास्ता होता है।
मुतल्लक़ा की मुज़म्मत (लोगों की नज़र में)
तलाक़शुदा औरत को समाज किस नज़र से देखता है?
अकसर लोग तलाक़-याफ़्ता औरत को बदनसीब, मनहूस, या नाकाम समझते हैं, जबकि ये सोच जाहिलियत पर आधारित है।
➤ रिश्ते की बात आते ही लोग सिर्फ इसलिए इंकार कर देते हैं कि वह औरत पहले से तलाक़शुदा है। जबकि सहाबा-ए-किराम ने भी तलाक़शुदा औरतों से निकाह किए हैं।
➤ उन्हें "छोड़ी हुई", "बदतमीज़", या "घर न चला सकी" जैसे अल्फ़ाज़ से ज़लील किया जाता है, जो इस्लामी अख़लाक़ के सख़्त ख़िलाफ़ है।
इस्लाम हक़ और इंसाफ़ का दीन है न कि तानों और इल्ज़ामों का।
याद रखिए:
- तलाक़ एक फ़ैसला है, कोई जुर्म नहीं।
- मुतल्लक़ा औरत को नीचा दिखाना गुनाह है।
- उसकी इज़्ज़त करना, और अच्छे अलफ़ाज़ से बुलाना इस्लामी अख़लाक़ का हिस्सा है।
क़ुरआन और हदीस में मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा औरत)
1. 'इद्दत' के दौरान इज़्ज़त और रहम का हुक्म:
2. पैग़म्बर ﷺ का अमल (हमें क्या सिखाता है):
- हज़रत उम्मे सलमा (र.अ.) – शौहर की वफ़ात के बाद
- हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (र.अ.) – तलाक़शुदा थीं
- और भी कई सहाबियात जिनका अज़ीम मुक़ाम था
- मुतल्लक़ा औरत को इज़्ज़त देना प्रत्येक मुसलमान की ज़िम्मेदारी है।
- जो लोग ऐसा नहीं करते, वो इस्लामी अख़लाक़ से दूर हो जाते हैं।
- रसूल ﷺ का अमल हमारी सबसे बड़ी रहनुमाई है।
इस्लामी हिदायत: मुतल्लक़ा औरत की ताज़ीम करो
- तलाक़ कोई गुनाह नहीं, बल्कि एक हालत का हल है जो शरीअत ने जाइज़ रखा है।
- मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) औरत भी वही इज़्ज़त, हया और हुक़ूक़ रखती है जो किसी भी इज़्ज़तदार औरत को हासिल होते हैं।
- उसे नीचा दिखाना, ताने देना या उससे दूरी बनाना इस्लामी तालीमात और अख़लाक़ के सख्त ख़िलाफ़ है।
याद रखें:
- तलाकशुदा औरत कोई बोझ नहीं, बल्कि एक बहन, एक बेटी और एक उम्मती है।
- उसे इज़्ज़त देना सिर्फ़ इंसानियत ही नहीं, बल्कि इबादत भी है।
सहाबा का अमल: मुतल्लक़ा औरत से निकाह का फ़ज़ीलत भरा नजरिया
हज़रत उमर (रज़ि.अल्लाहु अन्हु) का एक बहुत ही प्यारा और समझदारी से भरा वाक़िआ मिलता है:
जब एक शख़्स ने तलाक़शुदा औरत से निकाह किया, तो हज़रत उमर (र.अ.) ने उसकी तारीफ़ की और उसे समझदार और नेक आदमी क़रार दिया।
यह रवैया हमें सिखाता है कि:
- मुतल्लक़ा औरत से निकाह करना कोई ऐब नहीं,
- बल्कि यह एक बअख़लाक़, दीनदार, और समझदार इंसान की पहचान है।
इस्लाम हमें क्या सिखाता है?
- मुतल्लक़ा औरत को अपनाना रसूल ﷺ की सुन्नत और सहाबा की रिवायत है।
- पैग़म्बर ﷺ ने ख़ुद कई ऐसी औरतों से निकाह किया जो पहले से शादीशुदा थीं।
- ऐसा करना न सिर्फ़ एक नेक अमल है, बल्कि मुआशरे में इंसाफ़, रहम और बराबरी को ज़िंदा करने वाला क़दम भी है।
जो लोग तलाक़शुदा औरतों को नापसंद करते हैं, वो इस्लामी इतिहास और सहाबा की सीरत का मुताला करना चाहिए और ख़ुद को इस्लाम की रौशनी में तौलना चाहिए।
नतीजा:
- मुतल्लक़ा की मुज़म्मत करना, उसे नीचा दिखाना इस्लाम में हराम है।
- ऐसा रवैया नफ़रत, जाहिलियत और इस्लामी तालीमात के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।
- मुतल्लक़ा औरत को इज़्ज़त देना, उसके दर्द को समझना, और उसे सहारा देना एक सच्चे मोमिन की पहचान है।
- इस्लाम हर उस इंसान के साथ खड़ा होता है जो मज़लूम हो और तलाक़शुदा औरत को नीचा दिखाना ज़ुल्म के दायरे में आता है।
तलाक़शुदा या बेवा औरत को पनाह देना, उसके सम्मान का ख़्याल रखना, उसे पाकीज़ा ज़िंदगी गुज़ारने का मौका देना प्रत्येक मुसलमान की ज़िम्मेदारी है और इसका बे इंतेहा सवाब है एक रिवायत में है:
"नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया कि बेवाओं और मिसकीनों के लिये कोशिश करने वाला अल्लाह के रास्ते में जिहाद करने वाले की तरह है या उस शख़्स की तरह है जो दिन में रोज़े रखता है और रात को इबादत करता है।" [सही बुख़ारी 6006]
By Islamic Theology
0 टिप्पणियाँ
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।