Gunah aur Tawbah (Part 7)

Gunah aur Tawbah: Gunah kya hai?

तौबा के बाद का रास्ता

1. इस्तिक़ामह

तौबा के बाद सबसे ज़रूरी चीज़ है अपने इरादे पर कायम रहना। नेकियों पर जम जाना, गुनाहों से दूर रहना और अपने इरादे में मौज़बूती लाना ही इस्तिक़ामह है।

“जो लोग कहते हैं हमारा रब अल्लाह है फिर उस पर जम जाते हैं, उन पर न ख़ौफ़ होगा न ग़म।” [सूरह फ़ुस्सिलात 41:30]

यानी अल्लाह पर यक़ीन के बाद सब्र और सिद्द्क़ के साथ उसी रास्ते पर कायम रहना—इस्तिक़ामह का इनाम है फ़रिश्तों की बशारत, दुनिया और आख़िरत दोनों में।

मैंने रसूलुल्लाह ﷺ से पूछा: “या रसूल अल्लाह, मुझे इस्लाम में कोई ऐसी बात बताएं कि फिर किसी से पूछने की ज़रूरत न हो।”

आप ﷺ ने फ़रमाया: “कहो: मैंने अल्लाह पर ईमान लाया, फिर उस पर इस्तिक़ामह अख़्तियार करो।”

[तिरमिज़ी 2410]

यानी सिर्फ़ ईमान लाना क़ाफ़ी नहीं, उस पर लगातार कायम रहना ज़रूरी है।


2. नफ़्सियाती सुकून

तौबा इंसान के दिल और दिमाग़ का बोझ हल्का करती है। जब बंदा सच्ची तौबा करता है तो उसे अल्लाह की तरफ़ से सुकून मिलता है, जो उसके ज़ेहन और दिल को राहत देता है।

“वे लोग जिन्होंने ईमान लाया, उनके दिल अल्लाह के ज़िक्र से मुत्मइन होते हैं। सुन लो! अल्लाह के ज़िक्र से ही दिलों को सुकून मिलता है।” [सूरह अर-रअ्द 13:28]

यानी असली सुकून और राहत अल्लाह के ज़िक्र में है, न कि दुनिया के ज़ाहिरी असबाब में।

“जो शख्स अपनी तमाम फ़िक्रों को सिर्फ़ आख़िरत की फ़िक्र बना ले, अल्लाह उसके बाकी तमाम ग़म दूर कर देता है।” [मुसद्दक अहमद 22971]

यानी जब इंसान का फ़ोकस आख़िरत पर होता है और वह अल्लाह की तरफ़ रुजू करता है, तो उसका दिल सुकून पाता है।


3. दुआएँ

तौबा के बाद अल्लाह से हमेशा दुआ माँगते रहना चाहिए ताकि वह हमें हिदायत पर कायम रखे, गुनाहों से बचाए और अपनी रहमत में जगह दे। दुआ बंदे का अल्लाह से रब्त मज़बूत बनाती है।


اَللّٰهُمَّ اغْفِرْ لِي وَارْحَمْنِي وَاهْدِنِي وَعَافِنِي وَارْزُقْنِي

 अल्लाहुम्मग़्फ़िर ली वर्हम्नी वह्दिनी वआफिनी वर्ज़ुक़नी

“हे अल्लाह! मुझे माफ़ कर, मुझ पर रहम कर, मुझे हिदायत दे, मुझे सलामती दे और मुझे रज़क अता फ़रमा।”

[अबू दावूद 850]


اَللّٰهُمَّ إِنِّي أَسْأَلُكَ الثَّبَاتَ فِي الْأَمْرِ، وَالْعَزِيمَةَ عَلَى الرُّشْدِ

 अल्लाहुम्म इन्नी असअलुका-अस्सबाता फिल-अम्रि, वल-अज़ीमता अलार-रुश्द

“हे अल्लाह! मैं तुझ से दीन में इख़लास और रश्द की ओर दृढ़ निश्चय माँगता हूँ।”

[तिरमिज़ी 3407]


اَللّٰهُمَّ طَهِّرْ قَلْبِي مِنَ النِّفَاقِ، وَعَمَلِي مِنَ الرِّيَاءِ

 अल्लाहुम्मा तह्हिर क़ल्बी मिनन निफ़ाक़ि, वअमली मिनर रिया

“हे अल्लाह! मेरे दिल को निफ़ाक (धोखाधड़ी) से और मेरे अमल को रियायत (दिखावा) से पाक कर।”

[मुसद्दक अल-हाकिम]


اَللّٰهُمَّ اجْعَلْ خَيْرَ عُمُرِي آخِرَهُ، وَخَيْرَ عَمَلِي خَوَاتِمَهُ

 अल्लाहुम्म अजअल ख़ैरा उमरी आखिराहु, व ख़ैरा अमली खवातिमहु

“हे अल्लाह! मेरी उम्र का आख़िरी हिस्सा और मेरे अमल का आख़िरी समाप्ति बहेतर बना।”

[मुसद्दक अहमद]


اَللّٰهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ مِنْ قَلْبٍ لَا يَخْشَعُ، وَمِنْ نَفْسٍ لَا تَشْبَعُ

 अल्लाहुम्म इन्नी आऊज़ु बिका मिन क़ल्बिन ला यख़शअ, व मिन नफ़्सिन ला तशबअ' 

“हे अल्लाह! मैं तेरी पनाह मांगता हूँ उस दिल से जो ख़ुशू नहीं करता और उस नफ़्स से जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता।”

[मुस्लिम 2722]


رَبِّ اغْفِرْ لِي وَتُبْ عَلَيَّ إِنَّكَ أَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ

 रब्बिग़्फ़िर ली व तुब अ’लय्या इन्नका अन्तत-तव्वाबुर-रहीम

“मेरे रब! मुझे माफ़ कर और मेरी तौबा कबूल कर, तू ही तौबा कबूल करने वाला और रेहम करने वाला है।”

[सूरह बक़रह से प्रेरित]


اَللّٰهُمَّ اجْعَلْنِي مِنَ التَّوَّابِينَ وَاجْعَلْنِي مِنَ الْمُتَطَهِّرِينَ

 अल्लाहुम्म अजअल्नी मिनत-तव्वाबीना व अजअल्नी म‍िनल-मुततह्हिरीन

“हे अल्लाह! मुझे तौबा करने वालों और पाक लोगों में शामिल कर।”

[तिरमिज़ी 55]


أَسْتَغْفِرُ اللّٰهَ الَّذِي لَا إِلٰهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ وَأَتُوبُ إِلَيْهِ

 अस्तग़्फ़िरुल्लाहल्लज़ी ला इलाहा इल्ला हूअल-हय्युल-क़य्यूमु व अतोबु इलैह

“मैं उसी अल्लाह से इस्तग़फ़ार करता हूँ जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, जो ज़िंदा और कायम रहने वाला है, और मैं उसी की तरफ़ तौबा करता हूँ।”

[तिरमिज़ी 3577]


اَللّٰهُمَّ اغْفِرْ لِي ذَنْبِي كُلَّهُ، دِقَّهُ وَجِلَّهُ، وَأَوَّلَهُ وَآخِرَهُ

 अल्लाहुम्मग़्फ़िर ली धनबी कुल्लहु, दिक़्क़हु व जिल्लहु, व औलाहु व आख़िराहु

“हे अल्लाह! मेरे सारे गुनाह माफ़ कर—छोटे बड़े, पहले और बाद वाले सब।”

[मुस्लिम 771]


اَللّٰهُمَّ ارْزُقْنِي تَوْبَةً نَصُوْحًا قَبْلَ الْمَوْتِ 

अल्लाहुमरज़ुक़नी तौबतन् नसूह़ा क़बलल मौत 

“हे अल्लाह!  मुझे मौत से पहले सच्ची और मंसूब-ए-बसूल तौबा अता फ़रमा।”

[दुआ-ए-मक़बूल (स्लफ़)]


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