तक़सीम-ए-मीरास: एक इबादत
इस्लाम सिर्फ़ इबादात (नमाज़, रोज़ा, हज) का नहीं, बल्कि मुआमलात का भी दीन है। और इन्हीं में से एक है मीरास (विरासत) की तक़सीम — जो शरई फर्ज़, इंसानी हक़ और एक इबादत भी है।
मगर अफसोस, आज के दौर में:
- जो हक़ माँगे, वो मतलबी कहलाता है।
- जो हक़ दे, वो कमज़ोर समझा जाता है।
- और जो हक़ हड़प ले, वो समझदार कहलाता है।
क़ुरआन क्या कहता है?
i. "मर्दों के लिए हिस्सा है उस विरासत में से जो मां-बाप और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ जाएं, और औरतों के लिए भी हिस्सा है..." [सूरह अन-निसा 4:7]
ii. "अल्लाह तुम्हें तुम्हारी औलाद के बारे में वसीयत करता है — बेटा दो हिस्से पाएगा और बेटी एक हिस्सा।" [सूरह अन-निसा 4:11]
iii. "ये अल्लाह की हदें हैं... जो इनकी पाबंदी करे वो जन्नत का हकदार है। जो इनका उल्लंघन करे — उसके लिए जहन्नम है।" [ सूरह अन-निसा 4:13-14]
यानी मीरास देना खालिस इबादत है, और रोकना अल्लाह की हदों से निकलना है।
हदीसें (सही संदर्भ के साथ):
i. "हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया गया है..."
"अल्लाह तआला ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया है, इसलिए अब किसी वारिस के लिए वसीयत नहीं।" [सुनन अबू दाऊद: हदीस 2870]
ii. "जो मीरास रोके, वो जन्नत से महरूम होगा..."
"जो शख़्स किसी वारिस को मीरास से जानबूझकर महरूम करे, अल्लाह तआला उसे क़यामत के दिन जन्नत से महरूम कर देगा।" [मुस्नद अहमद: हदीस 12573 (सही दरजा, अल्बानी ने हसन कहा)]
iii. "वो जन्नत की खुशबू भी न पाएगा..."
"जो मीरास में इंसाफ़ नहीं करता, वह जन्नत की खुशबू भी नहीं पाएगा।" [इब्ने माजा: हदीस 2703]
मीरास की तक़सीम इबादत क्यों है?
2. वारिस का हक़ देना अमानत है।
3. ज़ुल्म से बचना और अद्ल (इंसाफ़) करना इबादत है।
4. अल्लाह की हदों का एहतराम — यह भी इबादत है।
5. अल्लाह की रज़ा और सवाब पाने का ज़रिया है।
आज के समाज में क्या हो रहा है?
i. "जनाज़ा उठा नहीं और मीरास की बात शुरू!"
हक़ीक़त: मीरास का मुतालबा बेअदबी नहीं, बल्कि हक़ की अदा है।
इस्लाम कहता है:
- मय्यत के बाद सबसे पहले जनाज़ा,
- फिर क़र्ज़ और वसीयत,
- उसके बाद मीरास की तक़सीम जल्द से जल्द की जाए।
"वसीयत और क़र्ज़ की अदायगी के बाद तक़सीम करो..." [सूरह अन-निसा 4:11]
यानी इंतज़ार करना शरई नहीं है।
ii. "हक़ माँगना लालच है?"
बहनें, बेटे या रिश्तेदार जब मीरास माँगते हैं तो:
- "इतनी जल्दी क्या है?"
- "पैसे की इतनी ही भूख है?"
- "बाप की रूह को तकलीफ़ होगी!"
- "घर में फूट डाल दी तुमने!"
जबकि हक़ीक़त ये है:
- मीरास माँगना लालच नहीं, अल्लाह का हक़ मांगना है।
- देना एहसान नहीं, फर्ज़ है।
- न देना गुनाह और ज़ुल्म है।
मीरास कब तक़सीम की जाए?
इस्लाम में:
- कोई "3 दिन", "40 दिन", "इद्दा" जैसी बात नहीं है।
- जैसे ही वसीयत और क़र्ज़ अदा हो जाए, मीरास बाँटना फर्ज़ बन जाता है।
- देर करना हक़ रोकने और गुनाह में मदद करने जैसा है।
अगर मीरास न बांटी जाए तो?
- रिश्ता टूटते हैं
- रंजिशें और अदावतें पनपती हैं
- अल्लाह की नाराज़गी मिलती है
- और अक्सर दुनिया में भी बरकत उठ जाती है
एक पैग़ाम
- मीरास माँगना लालच नहीं — अल्लाह की हदों की पाबंदी है।
- देना एहसान नहीं — हक़ की अदायगी है।
- और रोकना — ज़ुल्म है, जिसकी सज़ा जहन्नम तक हो सकती है।
दुआ
"ऐ अल्लाह! हमें तेरे दीन को समझने, हक़ को अदा करने और इंसाफ़ से काम लेने की तौफीक अता फ़रमा। लोगों की मलामत नहीं, तेरी रज़ा को तर्ज़ीह देने वाला बना।"
आमीन
नतीजा
मीरास की तक़सीम महज़ कानूनी अमल नहीं, ये अल्लाह की हुक्म की फरमाबरदारी है। जो इसे निभाएगा, वो अल्लाह की निगाह में इबादतगुज़ार है और जो रोकेगा, वो गुनाहगार।

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