फ़ज्र की दो रकअत सुन्नत
नमाज़ इस्लाम का बुनियादी स्तम्भ है, तमाम मुसलमानों पर रोज़ाना पांच वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ (अनिवार्य) है, फ़र्ज़ नमाज़ में कुल 17 रकअत प्रतिदिन पढ़ी जाती हैं:
2, ज़ुहर - 4 रकअत
3, अस्र - 4 रकअत
4, मग़रिब - 3 रकअत
5, ईशा - 4 रकअत
लेकिन इन फ़र्ज़ नमाज़ों के इलावा भी कुछ नमाज़ें और हैं जो फ़र्ज़ तो नहीं है उन्हें सुन्नत का नाम दिया जाता है इन नमाज़ों के सिलसिले में क़यामत के दिन सवाल नहीं होगा लेकिन वह सवाब में इज़ाफ़े का कारण बनेंगी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
जो पाबंदी से प्रतिदिन 12 रकअत सुन्नत अदा करे उसके लिए जन्नत में एक घर बना दिया जाता है सुन्नत की रकअतों की तरतीब यूँ है
2, ज़ुहर, फ़र्ज़ से पहले - 4 रकअत (2+2)
3, ज़ुहर, फ़र्ज़ के बाद - 2 रकअत
4, मग़रिब, फ़र्ज़ के बाद - 2 रकअत
5, ईशा, फ़र्ज़ के बाद - 2 रकअत
(सही मुस्लिम 1694 1695/इब्ने माजा 1140)
صَلَاةُ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ مَثْنَى مَثْنَى
"दिन और रात की नमाज़ें दो-दो रकअत करके (अर्थात जोड़ी में) पढ़ी जाती हैं।" (सही बुख़ारी 990)
इस हदीस में "मसना मसना (مَثْنَى مَثْنَى)" का मतलब है:
दो रकअत पढ़ो → सलाम फिर दोबारा दो रकअत पढ़ो।
यानी हर दो रकअत एक मुकम्मल नमाज़ मानी जाती है। इसलिए ज़ुहर की सुन्नत 2-2 करके पढ़ना बेहतर है।
सुबह नींद से जागकर नमाज़ के लिए जाना एक कठिन काम है यह कार्य वही कर सकता है जिसे अल्लाह और उसके रसूल से मुहब्बत हो क्योंकि फ़र्ज़ नमाज़ अल्लाह से मुहब्बत का जबकि उससे पहले 2 रकअत सुन्नत उसके रसूल से मुहब्बत का प्रतीक है इसलिए तमाम सुन्नतों में फ़ज्र की सुन्नत का महत्त्व सबसे अधिक है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
رَكْعَتَا الْفَجْرِ خَيْرٌ مِنْ الدُّنْيَا وَمَا فِيهَا
फ़ज्र की दो रकअत सुन्नत दुनिया और दुनिया की तमाम चीज़ों से बेहतर है। (सही मुस्लिम 1688/ जामे तिर्मिज़ी 416)
एक रिवायत में है, फ़ज्र की दो रकअत सुन्नत मुझे तमाम दुनिया से ज़्यादा महबूब है। (सही मुस्लिम 1689)
इसकी अहमियत का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इसे कभी छोड़ते नहीं थे उम्मुल मोमेनीन आयेशा रज़ि अल्लाहु अन्हा का बयान है,
"नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नवाफ़िल में से किसी और (नमाज़) की इतनी ज़्यादा पाबंदी नहीं करते थे। जितनी आप फ़ज्र से पहले की दो रकअतों की पाबंदी करते थे।" (सही मुस्लिम 1686)
फ़ज्र की सुन्नत अज़ान के बाद और इक़ामत से पहले पढ़ी जाएगी अज़ान से पहले नही पढ़ी जा सकती और न अज़ान के दौरान कोई सुन्नत पढ़ी जा सकती है।
हफ़सा रज़ि अल्लाहु अन्हा का बयान है जब मुअज़्ज़िन अज़ान से फ़ारिग़ हो जाता तब आप इक़ामत से पहले दो हल्की रकअतें पढ़ते थे। (सही मुस्लिम 1676 से 1683)
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़ज्र की सुन्नतें इतनी हल्की पढ़ते कि कभी-कभी उम्मुल मोमीनीन आयेशा रज़ि अल्लाहु अन्हा पूछतीं कि आपने इसमें सूरह फ़ातिहा भी पढ़ी है या नहीं। (सही मुस्लिम 1684, 85)
एक रिवायत में है कि नफ़्ल नमाज़ों में सबसे तेज़ रफ़्तार फ़ज्र की सुन्नत में होती थी। (सही मुस्लिम 1687)
इतनी हल्की पढ़ने के लिए फ़ज्र की सुन्नत में क्या पढ़ें तो अबु हुरैरह रज़ि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पहली रकअत में "क़ुल या अय्यहुल काफ़िरून" और दूसरी रकअत में "क़ुल हु व अल्लाहु अहद" पढ़ते थे। (सही बुख़ारी 618/ सही मुस्लिम 1690/ जामे तिर्मिज़ी 417/ इब्ने माजा 1149)
अगर कोई व्यक्ति आया और उसने देखा कि जमाअत खड़ी हो गई है तो उसे चाहिए कि वह जमाअत में शामिल हो जाय और जमाअत के दौरान सुन्नत न पढ़े क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का स्पष्ट आदेश है जो हदीस की लगभग तमाम किताबों में मौजूद है
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ إِذَا أُقِيمَتْ الصَّلَاةُ فَلَا صَلَاةَ إِلَّا الْمَكْتُوبَةَ
अबु हुरैरह रज़ि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया "जब नमाज़ के लिए इक़ामत कही जाए तो फिर उस नमाज़ के इलावा कोई नमाज़ नहीं है।" (सही बुख़ारी 663/ सही मुस्लिम 1644 से 1646/ सुनन अबु दाऊद 1266/ जामे तिर्मिज़ी 421/ सुनन निसाई 866, 867 / सुनन इब्ने माजा 1151 / सुनन दारमी 1188)
कुछ लोगों का ख़्याल है कि फ़ज्र की जमाअत के दौरान उसकी सुन्नत पढ़ सकते हैं उसके लिए वह कुछ सहाबा का अमल पेश करते हैं और यहां तक कहते हैं कि अगर क़ाअदा (आख़िरी रकअत की बैठक) मिलने की उम्मीद हो तो फ़ज्र की सुन्नत जमाअत के दौरान पढ़ ली जाय।
इसपर निम्नलिखित प्रश्न खड़े होते हैं:
1, जो जमाअत की आख़िरी रकअत के क़ाअदा (बैठक) में शरीक होता है उसकी जमाअत की नमाज़ तस्लीम नहीं की जाती क्योंकि जमाअत पाने के लिए उसकी की एक रकअत में शामिल ज़रूरी है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फ़रमान है
مَنْ أَدْرَكَ رَكْعَةً مِنْ الصَّلَاةِ مَعَ الْإِمَامِ فَقَدْ أَدْرَكَ الصَّلَاةَ
"जिसे इमाम के पीछे एक रकअत मिल जाय उसे जमाअत मिल गई।" (सही मुस्लिम 1371,1372/ सही बुख़ारी 580)
2, जो लोग इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा पढ़ने के क़ायल नहीं हैं वह दलील में क़ुरआन की यह आयत पेश करते हैं
وَإِذَا قُرِئَ الْقُرْآنُ فَاسْتَمِعُوا لَهُ وَأَنْصِتُوا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ
"जब क़ुरआन पढ़ा जाए तो बिल्कुल ख़ामोश होकर ग़ौर से सुनो।" (सुरह 07 अल आराफ़ आयत 204)
चुनांचे जब इमाम की क़िरअत के दौरान मुक़तदी सुरह फ़ातिहा नहीं पढ़ सकता तो फिर दो रकअतें किस बुनियाद पर पढ़ी जा सकती हैं एक रिवायत से और भी स्पष्ट हो जाता है कि जमाअत के दौरान सुन्नतें न पढ़ी जाएं
अब्दुल्लाह-बिन-सरजिस से रिवायत है "एक आदमी मस्जिद में आया जबकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे, उसने मस्जिद के एक कोने में दो रकअतें पढ़ीं, फिर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ नमाज़ में शामिल हो गया, जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सलाम फेरा तो फ़रमाया : ऐ फ़ुलाँ! तुम दो नमाज़ों में से किस नमाज़ की गिनती करोगे? अपनी उस नमाज़ की जो तुम ने अकेले पढ़ी है। या इस की जो हमारे साथ पढ़ी है? (सही मुस्लिम 1651/ सुनन निसाई 869/सुनन इब्ने माजा 1152)
3, हाफ़िज़ इब्ने हजर अल असक़लानी ने सही बुख़ारी की शरह फ़तहुल बारी में एक रिवायत बयान किया हैं जिससे बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि फ़ज्र की सुन्नत जमाअत के दौरान नहीं पढ़ सकते
إذا أقيمتِ الصلاةُ فلا صلاةَ إلا المكتوبةَ ، قيل يا رسولَ اللهِ : ولا ركعتي الفجرِ ؟ قال : ولا ركعتي الفجرِ
जब नमाज की इक़ामत कही जाए तो फिर उस फ़र्ज़ नमाज़ के इलावा कोई नमाज़ नहीं। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा गया क्या फ़ज्र की सुन्नत भी नहीं तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया, नहीं! फ़ज्र की दो रकअत भी नहीं।" हदीस हसन (फ़तहुल बारी इब्ने हजर अल असक़लानी जिल्द 2 सफ़हा 174)
अब अगर कोई व्यक्ति आता है और देखता है कि फ़ज्र की इक़ामत कहीं जा रही है तो उसे सुन्नत छोड़कर जमाअत में शामिल हो जाना चाहिए और सुन्नत को जमाअत ख़त्म होने के बाद पढ़ना चाहिए।
4, जो लोग जमाअत के दौरान फ़ज्र की दो रकअत पढ़ने के क़ायल हैं वह फ़ज्र की जमाअत के बाद सुन्नत पढ़ने से क़ायल नहीं हैं उनका कहना है कि अगर फ़ज्र की सुन्नत रह जाय तो सूरज निकलने का इंतेज़ार करना चाहिए और सूरज बुलंद होने के बाद उसे अदा करना चाहिए, वह इसका यह प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
لا صَلاةَ بعْدَ الفَجْرِ حتَّى تَطلُعَ الشَّمسُ، ولا بعْدَ العَصْرِ حتَّى تَغرُبَ.
"फ़ज्र के बाद कोई नमाज़ नहीं यहां तक की सूरज बुलंद हो जाए और असर के बाद कोई नमाज़ नहीं यहां तक की सूरज छुप जाए।" (सही बुख़ारी 1197/ सही मुस्लिम 1923)
इस रिवायत से यह साबित होता है कि फ़ज्र और अस्र की नमाज़ के बाद कोई नफ़्ल नमाज़ नहीं है लेकिन फ़ज्र की सुन्नत इससे अलग है क्योंकि हदीस में है
عَنْ مُحَمَّدِ بْنِ إِبْرَاهِيمَ عَنْ جَدِّهِ قَيْسٍ قَالَ خَرَجَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَأُقِيمَتْ الصَّلَاةُ فَصَلَّيْتُ مَعَهُ الصُّبْحَ ثُمَّ انْصَرَفَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَوَجَدَنِي أُصَلِّي فَقَالَ مَهْلًا يَا قَيْسُ أَصَلَاتَانِ مَعًا قُلْتُ يَا رَسُولَ اللَّهِ إِنِّي لَمْ أَكُنْ رَكَعْتُ رَكْعَتَيْ الْفَجْرِ قَالَ فَلَا إِذَنْ
मुहम्मद बिन इब्राहीम ने अपने दादा क़ैस से रिवायत किया है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम निकले और जमाअत के लिये इक़ामत कह दी गई तो मैंने आपके साथ फ़ज्र पढ़ी फिर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पलटे तो मुझे देखा कि मैं नमाज़ पढ़ने जा रहा हूँ तो आप ने फ़रमाया : क़ैस ज़रा ठहरो क्या दो नमाज़ें एक साथ (पढ़ने जा रहे हो?) मैं ने कहा: या रसूलुल्लाह मैंने फ़ज्र की दो रिकअतें नहीं पढ़ी थीं। आप ने फ़रमाया : तब कोई हरज नहीं" (जामे तिर्मिज़ी 422)
अबु दाऊद और इब्ने माजा में है فَسَكَتَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ यानी क़ैस बिन अम्र के इस अमल पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़ामोश रहे। (सुनन अबु दाऊद 1267/ सुनन इब्ने माजा 1154/ मिश्क़ातुल मसाबीह 1044)
हां अगर कोई व्यक्ति फ़ज्र की नमाज़ के लिए उठा और पता चला कि वक़्त बहुत कम है कि वह फ़र्ज़ और सुन्नत दोनों उतने समय में अदा नहीं कर सकता तो उसे चाहिए कि वह फ़र्ज़ नमाज़ पढ़े और सुन्नत फिर सूरज निकलने के बाद पढ़े इस रिवायत में यही कहा गया है
"जो सूरज निकलने से पहले फ़ज्र की सुन्नत न पढ़ सका हो तो वह सूरज निकलने के बाद पढ़ ले।" (जामे तिर्मिज़ी 423/ अल मुस्तद्रक लिल हाकिम 1015)
5 जब हदीस और आसार में विरोधाभास हो तो नियम यह है कि हदीस को प्राथमिकता दी जाएगी क्योंकि असर सहाबा है क़ौल व अमल है जबकि हदीस को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का समर्थन प्राप्त है। हदीस की व्यापक परिभाषा इस प्रकार है:
"जो कुछ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के क़ौल, अमल या तक़रीर से साबित हो उसे हदीस कहते हैं।"
यहां तक़रीर से मुराद सहाबा का वह अमल है जो उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने किया हो और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ऐसा करने से रोका न हो, यही मामला फ़ज्र की सुन्नत के संबंध में भी है। यहाँ अगर एक तरफ़ अब्दुल्लाह इब्ने मसूद और अब्दुल्लाह इब्ने उमर यह अमल है कि वह फ़ज्र की जमाअत के दौरान किसी खम्बे के पास सुन्नत पढ़ लेते थे लेकिन इस अमल को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का समर्थन प्राप्त नहीं है जबकि क़ैस बिन अम्र की रिवायत में है कि उन्होंने फ़र्ज़ नमाज़ के तुरंत बाद सुन्नत पढ़ी और जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसके बारे में पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया कि ये फ़ज्र से पहले की दो रकअतें हैं, तो अबु दाऊद और इब्ने माजा की रिवायत के अनुसार आप ख़ामोश रहे और जामे तिर्मिज़ी की रिवायत के अनुसार आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया "कोई हर्ज नहीं" इजाज़त है। इसलिए जिसकी की भी सुन्नत रह गई हो उसे जमाअत ख़त्म होने के बाद फ़ौरन पढ़ लेना चाहिए लेकिन ऐसी आदत न बना ली जाए कि व्यक्ति हमेशा लेट पहुंचे और सुन्नत को फ़र्ज़ के बाद पढ़ने का मामूल बना ले।
◆ अक़्ल में भी यह बात नहीं आती कि समय रहते हुए नमाज़ न पढ़ी जाए और बैठकर सूरज उगने का इंतेज़ार किया जाए और फिर यह नमाज़ पढ़ी जाए। क्योंकि जब कोई व्यक्ति जमाअत हो जाने के बाद आता है तो वह सुन्नत और फ़र्ज़ को क्रम से पढ़ता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति जमाअत में शामिल हो जाता है तो वह बैठा रहे यानी एक के लिए नमाज़ का समय है और दूसरे के लिए नहीं है।
आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही
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