ग़ैर-मुसलमानों के इस्लाम पर एतराज़ात के जवाब
सवाल नंबर - 3
मर्द ही तलाक़ क्यों देता है?
औरत क्यों नहीं सीधा तलाक़ दे सकती?
इसका जवाब सिर्फ एक पहलू से नहीं, बल्कि कुरआन, हदीस, तफ़सीर, इस्लामी शरीअत, समाजशास्त्र (साइंटिफिक) और मनोविज्ञान सभी पहलुओं से समझना ज़रूरी है।
कुरआन से,
"तलाक़ दो बार दी जा सकती है; फिर या तो भलाई से रोक लेना है या भलाई से विदा कर देना।" [सूरह बक़रह 229]
तफ़्सीर इब्ने कसीर: इस आयत में अल्लाह ने साफ़ किया कि तलाक़ देना मर्द के जिम्मे है, क्योंकि निकाह का इब्तिदाई कदम (शुरुआत) मर्द करता है (मेहेर देता है, खर्च उठाता है)। इसलिए इस रिश्ते को ख़त्म करने का अंतिम इख़्तियार भी उसी को दिया गया है ताकि वो हल्के में इस फैसले को न ले।
अगर तलाक़ देने का हक़ औरत को होता तो अक्सर जज़्बात में आकर रिश्ते तोड़ने के फैसले जल्दी हो जाते (यह फ़ितरी अमल है)।
दूसरी आयत:
"और मर्दों को औरतों पर एक दर्जा अधिक है, और अल्लाह ग़ालिब व हिकमत वाला है।" [सूरह बक़रह 228]
तफ़्सीर : ये 'दर्जा' क्या है?
रोज़ी कमाने, हिफाज़त करने, क़ियादत का ये दर्जा जिम्मेदारी है, ज़ुल्म का इख़्तियार नहीं। तलाक़ का हक़ भी इसी जिम्मेदारी के तहत है।
औरत का हक़ भी है (खुलअ)
अगर दोनों को डर हो कि वे अल्लाह की हदों को क़ायम नहीं रख पाएंगे, तो औरत फ़िदया देकर खुद को छुड़ा सकती है। [सूरह बक़रह 2 : 229]
तफ़्सीर: इसका नाम 'खुलअ' है यानी औरत मेहर या कुछ और देकर रिश्ता ख़त्म कर सकती है।
ये उसका तलाक़ का विकल्प है।
खुलअ नबी ﷺ के ज़माने में भी दी जाती थी (सहीह बुख़ारी 5273 केस ऑफ़ जुबैर बिन अल-अव्वाम की बीवी)।
नबी ﷺ ने फ़रमाया, "अल्लाह के नज़दीक हलाल चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसंद तलाक़ है।" [अबू दाऊद 2178]
तफ़्सीर: इस लिए इसे मर्द के हाथ में रखा गया ताकि जल्दबाज़ी में या गुस्से में न किया जाए। मर्द पर 'इद्दत', मेहर वगैरह की पूरी जिम्मेदारी रहती है।
साइंटिफिक और साइकोलॉजिकल हिकमत:
जिम्मेदारी किसकी है?
इस्लाम में:
- निकाह की पेशकश कौन करता है? मर्द।
- मेहर कौन देता है? मर्द।
- खर्च, कपड़ा, मकान किसके जिम्मे? मर्द।
इसलिए तलाक़ का हक भी उसी के जिम्मे ताकि वो सोच-समझ कर, खर्च, बच्चों के हक़, और परिवार के नष्ट होने के खतरों को ध्यान में रखे।
भावनात्मक निर्णय लेना (Emotional Decision Making)
तलाक़ जैसे फैसले में जज़्बात से अधिक फैसला करने की ठंडी समझ ज़रूरी है। अगर औरत को भी सीधा Instant तलाक़ का हक़ होता तो गुस्से, नाराज़गी में नासमझी वाले फैसले ज़्यादा हो सकते थे।
(साइंटिफिक रिपोर्ट: Men more risk-calculative in conflict resolution.)
परिवार की हिफ़ाज़त का सिस्टम:
अगर दोनों पार्टियाँ तुरंत तलाक़ दे सकें तो शादी के रिश्ते टूटने की संभावना बहुत बढ़ जाती।
बच्चों का नुकसान, समाज में तलाक़ की बाढ़, बिन-बाप के बच्चे, तलाक़शुदा औरतों की संख्या बढ़ती इसलिए इस्लाम ने तलाक़ के अमल को कठिन और सोच-समझ वाला बनाया।
औरत के पास खुलअ है मगर उसके लिए भी कोर्ट/काज़ी का अमल ताकि जल्दबाज़ी न हो।
क्या इस्लाम में औरत मजबूर है?
बिल्कुल नहीं। अगर मर्द जुल्म करे, खर्च न दे, बदसुलूकी करे, बीमार हो जाए तो औरत क़ाज़ी के पास जाकर निकाह फस्ख (रद्द) करवा सकती है। यानी इस्लाम में अलगाव के लिए औरत का पूरा रास्ता है मगर तुरंत तलाक़ नहीं ताकि रिश्ते को हलके में न लिया जाए।
मर्द ही तलाक क्यों देता है? क्योंकि वह घर, खर्च, बीवी-बच्चों की जिम्मेदारी उठाता है, इसलिए वह अंतिम फैसले का जिम्मेदार है।
- औरत का क्या हक है?
- खुलअ, फस्ख, शरई कोर्ट के ज़रिएअलगाव।
- क्या ये ज़ुल्म है?
- नहीं। बैलेंस है ताकि परिवार बिखरे नहीं।
- क्या साइंस भी यही कहती है?
- हाँ। मर्द generally conflicts में ज़्यादा stable decision-maker होता है। (Journal of Psychology)
मुहम्मद रज़ा
2 टिप्पणियाँ
Ladki jab khula lena chahe to kya ladki ko kuch dena pdta hai rakam ya kuch bhi
जवाब देंहटाएंMehar lautana padega
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।