Anbiya ke waqyaat Bachchon ke liye (Part-13j): Muhammad saw

 Anbiya ke waqyaat Bachchon ke liye (Part-13j): Muhammad saw

अंबिया के वाक़िआत बच्चों के लिए (पार्ट-13j)

अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
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4. मदीना में

1. मदीना में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कैसे स्वागत हुआ

अंसार को जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का से निकलने के बारे में पता चला तो उनमें से अक्सर इस शिद्दत से इंतेज़ार करते जैसे कि रोज़ेदार ईद के चांद का इंतेज़ार करते हैं। वह रोज़ाना सुबह नमाज़ के बाद मदीना के बाहर चले जाते और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का रास्ता देखते रहते, वह उस समय तक इंतेज़ार करते जबतक कि धूप छाया पर म ग़ालिब न आ जाती फिर वह अपने घरों को चले जाते हालांकि यह सख़्त गर्मी और धूप का ज़माना था

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उस समय मदीना में प्रवेश किया जब लोग इंतेज़ार करके अपने घरों को वापस जा चुके थे। यहूदी अंसार के इस अमल को रोज़ाना देखते थे चुनांचे सबसे पहले जिस आदमी ने रसूलुल्लाह को देखा वह यहूदी था। देखते ही वह बुलंद आवाज़ से चीख़ने लगा और अंसार को नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आने की सूचना देने लगा। लोग अपने अपने घरों से निकले तो देखा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक खुजूर के साए में हैं और उनके साथ लगभग उन्हीं के उम्र के अबु बकर रज़ि अल्लाहु अन्हु उनमें से अधिकांश ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इससे पहले नहीं देखा था, भीड़ इकट्ठी होती गई लेकिन लोग उनके और अबु बकर के दरमियान फ़र्क़ नहीं कर पा रहे थे। इसलिए अबु बकर रज़ि अल्लाहु अन्हु अलग होकर खड़े हो गए और अपनी चादर ओढ़ ली इस प्रकार लोगों के लिए मामला स्पष्ट हो गया।

मुसलमानों ने ख़ुश होकर बुलंद आवाज़ में जोश के साथ अल्लाहु अकबर की तकबीर बुलंद की। वह इतने ख़ुश थे कि अपनी जिंदगी में किसी चीज़ से कभी नहीं हुए थे जितना रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आने से हुए यहांतक कि औरतें, बच्चे और ग़ुलाम कहते थे रसूलुल्लाह आ गए रसूलुल्लाह आ गए और अंसार की बच्चियां ख़ुशी में यह गीत गा रही थी

أَشْرَقَ الْبَدْرُ عَلَيْنَا  مِنْ ثَنِيَّاتِ ٱلْوَدَاع

وَجَبَ ٱلشُكْرُ عَلَيْنَا  مَا دَعَا لِلّٰهِ دَاعَ

أَيُّهَا ٱلْمَبْعُوثَ فِينَا  جِئْتَ بِالْأَمْرِ ٱلْمُطَاع

"चौदहवीं रात का चांद हमारे सामने निकल आया विदाअ की घाटियों से,

हम पर शुक्र वाजिब है जबतक कि अल्लाह की तरफ़ बुलाने वाला मौजूद है। 

ऐ नबी मैं आप हमारे दरमियान आए हैं, हर मामले में आपकी इताअत की जाएगी"

अनस बिन मलिक अंसारी रज़ि अल्लाहु अन्हु (उस वक़्त वह बच्चे थे) का बयान है कि मैं रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास हाज़िर हुआ जिस दिन वह मदीना में पधारे मैंने कभी भी उससे बेहतर और रौशन दिन नहीं देखा।

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2. क़ुबा में मस्जिद की तामीर और मदीना में जुमा

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़बा में चार दिन ठहरे रहे और वहां एक मस्जिद की बुनियाद डाली। 

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3. अबु अय्यूब अंसारी के घर में

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना की जानिब बढ़े लोग रास्ते में आंखें बिछाए हुए थे और सभी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपना मेहमान बनाना चाहते थे और ऊंटनी की लगाम पकड़ लेते थे। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उनसे कहते कि इसका रास्ता छोड़ दो इसे पता है कि कहां रुकना है ऐसा बार-बार हुआ यहांतक कि बनी माज़िन बिन नज्जार के मकानों के पास से गुज़रे तो यह जगह बरकत वाली हो गई यहीं पर आज मस्जिद-ए-नबवी का दरवाज़ा है यह बनी नज्जार के दो यतीम बच्चों की ज़मीन थी और बनी नज्जार रिश्ते में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मामू लगते थे।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ऊंटनी अबु अय्यूब अंसारी (ख़ालिद बिन ज़ैद अन नज्जारी, अल ख़ज़रजी) के दरवाज़े पर पहुंचकर रुकी उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सामान उठा लिया और अपने घर ले गए, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहीं ठहरे, अबु अय्यूब अंसारी रज़ि अल्लाहु अन्हु ने बहुत सम्मान और शान के साथ मेहमान नवाज़ी की, उन्हें घर का ऊपरी हिस्सा देना चाहा क्योंकि उन्हें यह बात पसंद नहीं थी कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ऊंची जगह पर वह ख़ुद रहें लेकिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ऐ अबु अय्यूब बेशक आपकी मुहब्बत क़ुबूल है परन्तु हम घर के निचले हिस्से में रहेंगे।

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4. मस्जिदे नबवी की तामीर

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दोनों यतीम बच्चों को बुलाया ताकि ज़मीन के बारे में बातचीत करके उसपर मस्जिद का निर्माण कराएं। उन दोनों बच्चों ने कहा या रसूलुल्लाह हम आपको हिबा करते (निशुल्क देते) हैं लेकिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने निशुल्क ज़मीन लेने से इनकार कर दिया यहांतक कि उसे ख़रीदा फिर मस्जिद बनाई गई।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मस्जिद में ख़ुद काम किया वह ईंट ढोते थे और मुसलमान भी उनके पीछे-पीछे यही करते थे। मस्जिद तामीर करते समय रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम यह दुआ कर रहे थे।

اللّهمّ إنّ الأجرَ أجرُ الآخرة، فارحم الأنصار والمهاجرة 

"ऐ अल्लाह वास्तविक बदला तो आख़िरत का बदला है तू अंसार और मुहाजिरीन पर रहम फ़रमा"

मुसलमान बहुत ख़ुश थे तथा गीत गुनगुना रहे थे और अल्लाह की प्रशंसा कर रहे थे। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अबु अय्यूब अंसारी रज़ि अल्लाहु अन्हु के घर सात महीने रहे यहांतक कि जब मस्जिद और उसके क़रीब हुजरों की तामीर हो गई तो फिर अपने हुजरे में चले गए।

हिजरत करने वाले रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम  के पास आते रहे यहांतक कि मक्का में कोई व्यक्ति बाक़ी नहीं रहा सिवाए उन लोगों के जो या तो क़ैदी थे या सख़्त आज़माइश में थे और अंसार का कोई घर बाक़ी नहीं रहा मगर यह कि सभी मुसलमान न हो गए हों

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5. मुहाजिरीन और अंसार में भाईचारा

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुहाजिरीन और अंसार के दरमियान एक दूसरे के दुख दर्द में शरीक होने तथा तसल्ली देने के लिए भाईचारा कराया। मुहाजिरीन की सेवा में अंसार बहुत आगे बढ़ गए यहांतक कि क़ुरआ अंदाज़ी (lucky draw) की नौबत आ जाती थी, वह अपने घर, सामान, अपने माल, अपनी ज़मीनों और अपने मवेशियों में उनका हिस्सा लगाते थे और ख़ुद पर उन्हें प्राथमिकता देते थे।

 अंसारी मुहाजिर से कहते देखो यह मेरा माल है तुम इसका आधा ले लो और मुहाजिर कहता अल्लाह तेरे परिवार और तेरे माल में बरकत दे मुझे तो बाज़ार का रास्ता बताओ अंसार त्याग करते और मुहाजिर पाकीज़गी और आत्मसम्मान (इज़्ज़ते नफ़्स) का प्रदर्शन करते।

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6. मुहाजिरीन, अंसार और यहूद के बीच मुआहिदा (अनुबंध)

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुहाजिरीन और अंसार के दरमियान एक तहरीर लिखवाई जिसमें यहूदियों को भी  शामिल होने का न्योता दिया और उन्हें उनके दीन और माल पर बाक़ी रखा कुछ शर्तें उनकी मानीं और कुछ अपनी शर्तें रखीं।

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7. अज़ान का आरम्भ

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मदीने में इत्मीनान हासिल होगया और इस्लाम की जड़ मज़बूत हो गई तो लोग नमाज़ के लिए उसके समय पर बग़ैर बुलावे के आने लगे। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को वह तरीक़ा सख्त नापसंद था जो यहूदी और ईसाइयों के यहां रायेज था यानी संख बजाना और आग जलाना। अल्लाह तआला ने मुसलमान को अज़ान के द्वारा सम्मान दिया कुछ सहाबा को ख़्वाब में दिखाया गया उन्होंने रसूलुल्लाह के सामने अपना ख़्वाब बयान किया और वह शब्द बताए जो उन्होंने देखा था, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन शब्दों को पसंद फ़रमाया और यह तरीक़ा हमेशा के लिए मुक़र्रर हो गया। बिलाल इब्ने रिबाह अल हब्शी को मुअज़्ज़िन चुना गया उन्हें रसूलुल्लाह का मुअज़्ज़िन कहा जाता है और वह क़यामत तक के तमाम मुअज़्ज़िनों के इमाम हैं।

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8. मदीना में मुनाफ़िक़ों का उदय

इस्लाम मदीने में तेज़ी से फैलने लगा और यहूदियों के उलेमा और बुद्धिमान व्यक्ति इस्लाम मे दाख़िल होने लगे जैसे अब्दुल्लाह बिन सलाम वग़ैरह तो यहूदी रसूलुल्लाह से ईर्ष्या करने लगे। उनके साथ वह लोग भी थे जो हुकूमत का सपना देख रहे थे कि उन्हें ताज पहनाया जाएगा फिर वह जो चाहेगा आदेश देना और रोकना उसके हाथ में होगा उनकी हुकूमत में कोई इख़्तेलाफ़ भी नहीं था जैसे अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सुलूल कि उसकी हुकूमत की तमाम तैयारियां लगभग मुकम्मल हो चुकी थीं जभी इस्लाम आ गया और लोग भारी संख्या में इस्लाम में दाख़िल होने लगे तो वह रसूलुल्लाह और उनके साथियों से हसद करने लगा और वह तमाम लोग भी दुश्मनी करने लगे जिनके दिलों में बीमारी थी या जिनके अंदर हुकूमत और सरदारी का लालच था। उनमें कुछ खुल्लम-खुल्ला दुश्मनी करते थे और मुनाफ़िक़ अंदर अंदर थे।

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9. क़िबला की तब्दीली

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मुसलमान बैतूल मुक़द्दस की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ते थे उन्हें मदीना से आए हुए सत्तरह महीने गुज़र चुके थे। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़्वाहिश थी कि काबा को क़िबला को बनाया जाए और अरबी मुसलमान भी यही चाहते क्योंकि उन्होंने काबा की मुहब्बत मां के दूध के साथ पिया था इसलिए मुहब्बत और उसकी ताज़ीम उनके गोश्त और ख़ून में रची बसी थी वह काबा के समान किसी घर को नहीं समझते ही न थे और न ही इब्राहीम और इस्माईल के क़िबले के इलावा किसी और को क़िबला मानने को तैयार हो सकते थे इसलिए सभी की इच्छा थी कि चाहते थे कि क़िबला काबा को ही बनाया जाना चाहिए। बैतूल मुक़द्दस को क़िबला बनाने में मुसलमान की सख़्त परीक्षा थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ने कहा "हमने सुना और इताअत की हम ईमान लाये हर चीज़  हमारे रब की जानिब से है" वह अल्लाह के रसूल की इताअत के इलावा कुछ नहीं जानते थे और अल्लाह के आदेश के सामने निसंकोच अपना सिर झुकाने वाले थे चाहे  वह उनकी पसंद और आदत के अनुसार हो या न हो।

जब अल्लाह ने उनके दिलों के तक़वा की परीक्षा ले ली और उन्होंने अल्लाह के आदेश केलल के आगे अपना सिर झुका दिया तो अल्लाह तआला ने अपने रसूल और मुसलमान का मुंह काबा की तरफ़ फेर दिया। क़ुरआन में है

وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ

"और इसी तरह तो हमने तुम [ मुसलमानों] को एक ‘उम्मते-वसत’ [ उत्तम समुदाय] बनाया है, ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुम पर गवाह हो। पहले जिस तरफ़ तुम मुंह करते थे, उसको तो हमने सिर्फ़ ये देखने के लिये क़िबला मुक़र्रर किया था कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटा फिर जाता है। ये मामला था तो बड़ा सख़्त, लेकिन उन लोगों के लिये कुछ भी सख़्त साबित न हुआ, जिन्हें अल्लाह की हिदायत हासिल थी"

मुसलमानों ने अल्लाह और उसके रसूल के आदेश का पालन करते  हुए अपना चेहरा काबा की तरफ़ कर लिया और क़यामत तक के लिए वही क़िबला हो गया। मुसलमान जहां कहीं भी हों उसी की तरफ़ मुहं करके नमाज़ अदा करते हैं।

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10. क़ुरैश का मदीना के मुसलमानों के साथ दुश्मनी

जब मदीना में इस्लाम की जड़ मज़बूत हो गई और क़ुरैश को एहसास हो गया कि यहां इस्लाम फल फूल रहा है और हर आने वाले दिन में उसकी ताक़त और आबादी में बढ़ोतरी हो रही है तो उनकी तरफ़ से दुश्मानी और जंग खुलकर सामने आ गईजबकि अल्लाह तआला ने मुसलमानों को सब्र, माफ़ी, और अनदेखी करने का हुक्म दिया और कहा 

كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ

"अपने हाथों को रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो।"

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11. जंग का हुक्म

जब जड़ मज़बूत हो गई और क़ुरैश की तरफ़ से सख़्त तकलीफ़ भी पहुंचाई जाने लगी तो अल्लाह ने मुसलमानों को जंग का हुक्म दिया लेकिन इसे अनिवार्य नहीं किया

أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَاتَلُونَ بِأَنَّهُمْ ظُلِمُوا ۚ وَإِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ نَصْرِهِمْ لَقَدِيرٌ 

इजाज़त दे दी गई उन लोगों को जिनके ख़िलाफ़ जंग की जा रही है; क्योंकि उन पर ज़ुल्म किया गया है और अल्लाह यक़ीनन उनकी मदद की क़ुदरत रखता है।

(सूरह 22 अल हज्ज आयत 39)

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12. ग़ज़वा ए अबवा

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुख़्तलिफ़ क़बीलो और बस्तियों की तरफ़ सैनिकों की टुकड़ी भेजना आरंभ किया वहां जंग की नौबत नहीं आती थी अलबत्ता कभी-कभी टकराव ज़रूर हो जाता था। इससे मुशरिकों के दिलों में भय पैदा करना तथा मुसलमानों की प्रतिष्ठा और शान व शौकत का इज़हार (अभिव्यक्ति) था।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ग़ज़वा अबवा में ख़ुद भाग लिया, यह पहला ग़ज़वा था जिसमें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम शामिल हुए उसके बाद तो ग़ज़वे (लड़ाइयां) पेश आते रहे।

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13. रमज़ान के रोज़ों का फ़र्ज़ होना

दो हिजरी रोज़ा फ़र्ज़ हुआ अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल की

يَآ اَيُّـهَا الَّـذِيْنَ اٰمَنُـوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّـذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ

"ऐ लोगो जो ईमान लाये हो तुमपर रोज़े फ़र्ज़ किये गए जैसे कि तुमसे पहले की उम्मतों पर फ़र्ज़ किये गए थे शायद कि तम्हारे अंदर तक़वा (अल्लाह की मुहब्बत) पैदा हो।

(सूरह 02 अल बक़रह आयत 183) 

और

شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي أُنزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِّنَ الْهُدَىٰ وَالْفُرْقَانِ ۚ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ

"रमज़ान ही वह महीना है जिसमें क़ुरआन नाज़िल किया गया जो स्पष्ट हिदायत और कसौटी है चुनांचे जिसे भी यह महीना मिले तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे।"

(सूरह 02 अल बक़रह आयत 185)

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किताब: कसास उन नबीयीन
मुसन्निफ़ : सैयद अबुल हसन नदवी रहमतुल्लाहि अलैहि 
अनुवाद : आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही  

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