Nafs ko qaboo karne ka tariqa

Quran aur nafs


क़ुरान और नफ़्स

इंसान अपने नफ़्स को कैसे काबू करे?

और क़ुरान इसके बारे में क्या कहता है?

तो चलिए आज हम इस बारे में कुछ जानते हैं,

नफ़्स इंसानी ज़िंदगी का वो हिस्सा है जो उसकी ख्वाहिशें, जज़्बात और रुझान का ज़रिया बनता है। यह इंसान को नफ़रत, हसद, लालच और दूसरी बुरी आदतों की तरफ़ ले जाता है। अगर नफ़्स का सही तरीक़े से सामना न किया जाए तो यह इंसान को गुमराह कर सकता है। इसीलिए इस्लाम में नफ़्स को काबू करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है ताकि इंसान अपनी ज़िंदगी को क़ुरान और सुन्नत के मुताबिक़ गुज़ार सके।


नफ़्स को काबू करने का तरीक़ा:

1. अल्लाह का ज़िक्र: 

क़ुरान में अल्लाह ताअला फ़रमाता है:

"अलाहा बि-ज़िक्रिल्लाहि ततमैन-नुल-क़ुलूब" 

"खबरदार! अल्लाह के ज़िक्र से दिलों को सुकून मिलता है।"[सूरह अर-रअद 13:28]

नफ़्स को काबू करने का पहला तरीक़ा अल्लाह का ज़िक्र है। जब इंसान अल्लाह को याद करता है, तो उसका नफ़्स मकबूल और मुनीब हो जाता है।


2. सब्र और तक़वा: 

क़ुरान में अल्लाह ताअला फ़रमाता है:

"इन्नल्लाह म'अस-साबिरीन" 

"बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।" [सूरह अल-बक़रह 2:153]

सब्र नफ़्स के ख़िलाफ़ जंग में एक अहम हथियार है। नफ़्स इंसान को जल्दी अपनी ख्वाहिशात पूरी करने के लिए उकसाता है, लेकिन सब्र और तक़वा के ज़रिये इसे रोका जा सकता है।

इंसान को अपने नफ़्स का एहतिसाब करना चाहिए। हज़रत उमर फ़ारूक़ (र.अ) ने फ़रमाया था, "अपना एहतिसाब करो इससे पहले कि तुम्हारा एहतिसाब किया जाए।" अपनी ज़िंदगी का मुहासबा करना, अपने नफ़्स के इरादों और अमल का जायज़ा लेना, इंसान को अपने नफ़्स पर काबू पाने में मदद देता है।

अब हम इसे एक क़िस्से के ज़रिये और बेहतर समझते हैं कि इंसान अपने नफ़्स को कैसे काबू करे, आसान शब्दों में और एक क़िस्से के ज़रिये इसे समझते हैं।

एक बार का ज़िक्र है कि एक बुज़ुर्ग के पास एक नौजवान आया और कहा, "मुझे अपने नफ़्स को कैसे काबू करना है, ये समझ नहीं आ रहा।" बुज़ुर्ग मुस्कुराए और उससे कहा, "मैं तुझे एक क़िस्सा सुनाता हूं, शायद तुझसे कुछ सीख मिल सके।"

तो वो बुज़ुर्ग उस नौजवान को क़िस्सा सुनाने लगे, तो चलिए हम सब भी नफ़्स को एक क़िस्से के ज़रिये समझते हैं, क़ुरान और हदीस की रौशनी में।

एक गांव में दो दोस्त रहते थे - अली और उमर। दोनों बचपन से साथ रहते थे, मगर दोनों के रुझान अलग थे। अली अक्सर अपनी ख्वाहिशात का ग़ुलाम बन जाता। अगर उसका दिल चॉकलेट खाने को करता, तो वो पूरी चॉकलेट ख़त्म किए बिना चैन नहीं लेता। अगर उसे गुस्सा आता, तो वो अपने भाई-बहन पर चिल्लाकर अपना गुस्सा निकालता।

उमर उसका बिलकुल उल्टा था। अगर उसका दिल कुछ खास खाने को करता, तो वो खुद से कहता, "नहीं उमर, थोड़ा सब्र कर।" और अगर गुस्सा आता, तो वो अपने आपको ठंडा रखता और अपने भाई-बहन से प्यार से बात करता।

एक दिन अली ने बुज़ुर्ग से पूछा, "मैं उमर जैसा क्यों नहीं बन सकता? मेरा नफ़्स मुझे हमेशा अपनी मर्ज़ी की चीज़ें करने पर मजबूर करता है।" बुज़ुर्ग ने अली को समझाया, "अली, तेरे अंदर दो भेड़िये हैं। एक सफेद भेड़िया जो सब्र, शुक्र और तक़वा का है, और एक काला भेड़िया जो लालच, गुस्सा और ख्वाहिशात का है। ये दोनों तेरे अंदर लड़ते हैं।"

अली ने हैरान होकर पूछा, "अगर ये दोनों लड़ते हैं, तो जीतेगा कौन?" 

बुज़ुर्ग ने जवाब दिया, "जिस भेड़िया को तू ज्यादा खिलाएगा, वही जीतेगा।"

अली ने समझ लिया कि अगर उसे अपने नफ़्स को काबू करना है, तो उसे अपने अंदर के सफेद भेड़िये को खिलाना पड़ेगा। उसने अल्लाह का ज़िक्र शुरू कर दिया, अपनी ख्वाहिशात पर सब्र करने लगा और क़ुरान की तिलावत करने लगा। धीरे-धीरे उसका काला भेड़िया कमजोर होता गया और सफेद भेड़िया ताकतवर हो गया।

इस कहानी में बुज़ुर्ग ने जो दो भेड़ियों का ज़िक्र किया, असल में वो नफ़्स के मुख़्तलिफ़ पहलू हैं। क़ुरान में भी इसका ज़िक्र आया है।


नफ़्स के बारे में क़ुरान की आयतें,

1. नफ़्स-ए-अम्मारा (काला भेड़िया)

"इन्न नफ्स ला अम्मारतुम बिस्सूइ इल्ला मा रहिमा रब्बी"

"यह नफ़्स इंसान को बुराई की तरफ़ उकसाता है।" [सूरह यूसुफ, 12:53]


2. नफ़्स-ए-लव्वामा (अपनी गलती पर मलामत करने वाला)

"वला उक़सिमु बिन्नफ्सिल लव्वामा" 

"यह नफ़्स गलती करने के बाद इंसान को मलामत करता है।" [सूरह अल-क़ियामह, 75:2]


3. नफ़्स-ए-मुतमइनना (सफेद भेड़िया)

"अय्यतहन्नफ्सुल मुतमइनना इर्ज़ई इला रब्बिक रादियतम मर्दिया"

"यह वो नफ़्स है जो अल्लाह से राज़ी होता है और अल्लाह इससे राज़ी होता है।" [सूरह अल-फ़ज्र, 89:27-28]


निष्कर्ष:

इस क़िस्से से हमें ये सबक मिलता है कि नफ़्स पर काबू पाने के लिए हमें अपने अंदर के सफेद भेड़िये को खिलाना है। यह हम अल्लाह के ज़िक्र, सब्र और क़ुरान पर अमल के ज़रिए कर सकते हैं। नफ़्स पर काबू पाना आसान नहीं है, लेकिन मुमकिन है अगर इंसान क़ुरान और सुन्नत को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाए। अल्लाह का ज़िक्र, सब्र, तक़वा, रोज़ा और क़ुरान की तिलावत ये सब अहम उसूल हैं जो नफ़्स को काबू में रखने में मददगार साबित होते हैं। क़ुरान की आयतें इस बात की तस्दीक करती हैं कि इंसानी नफ़्स एक अहम किरदार अदा करता है, लेकिन इसे काबू करना इंसान के अपने हाथ में है।

इसलिए अपने नफ़्स को अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ ढालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि आख़िरत में हमें नफ़्स-ए-मुतमइनना के दर्जे पर फ़ैज़याब किया जाए।


आपकी दीनी बहन 
मायरा 

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